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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 119 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 119/ मन्त्र 6
    ऋषिः - कक्षीवान् दैर्घतमसः देवता - अश्विनौ छन्दः - निचृज्जगती स्वरः - निषादः

    यु॒वं रे॒भं परि॑षूतेरुरुष्यथो हि॒मेन॑ घ॒र्मं परि॑तप्त॒मत्र॑ये। यु॒वं श॒योर॑व॒सं पि॑प्यथु॒र्गवि॒ प्र दी॒र्घेण॒ वन्द॑नस्ता॒र्यायु॑षा ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यु॒वम् । रे॒भम् । परि॑ऽसूतेः । उ॒रु॒ष्य॒थः॒ । हि॒मेन॑ । घ॒र्मम् । परि॑ऽतप्तम् । अत्र॑ये । यु॒वम् । श॒योः । अ॒व॒सम् । पि॒प्य॒थुः॒ । गवि॑ । प्र । दी॒र्घेण॑ । वन्द॑नः । ता॒रि॒ । आयु॑षा ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    युवं रेभं परिषूतेरुरुष्यथो हिमेन घर्मं परितप्तमत्रये। युवं शयोरवसं पिप्यथुर्गवि प्र दीर्घेण वन्दनस्तार्यायुषा ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    युवम्। रेभम्। परिऽसूतेः। उरुष्यथः। हिमेन। घर्मम्। परिऽतप्तम्। अत्रये। युवम्। शयोः। अवसम्। पिप्यथुः। गवि। प्र। दीर्घेण। वन्दनः। तारि। आयुषा ॥ १.११९.६

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 119; मन्त्र » 6
    अष्टक » 1; अध्याय » 8; वर्ग » 21; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह ।

    अन्वयः

    हे अश्विना यथा युवमत्रये परिसूतेः प्राप्तविद्यं परितप्तं रेभं विद्वांसं जनं हिमेन धर्ममिवोरुष्यथः। युवं गवि शयोरवसं पिप्यथुर्वन्दनो दीर्घेणायुषा युवाभ्यां तारि तथा वयमपि प्रयतेमहि ॥ ६ ॥

    पदार्थः

    (युवम्) युवाम् (रेभम्) सकलविद्यास्तोतारम् (परिसूतेः) परितः सर्वतो द्वितीये विद्याजन्मनि प्रादुर्भूतात् (उरुष्यथः) रक्षथ। उरुष्यती रक्षाकर्मा। निरु० ५। २३। (हिमेन) शीतेन (घर्मम्) सूर्य्यतापम् (परितप्तम्) सर्वतः संक्लिष्टम् (अत्रये) अविद्यमानान्याध्यात्मिकादीनि त्रीणि दुःखानि यस्मिंस्तस्मै सुखाय (युवम्) युवाम् (शयोः) शयानस्य (अवसम्) रक्षणादिकम् (पिप्यथुः) वर्धयतम् (गवि) पृथिव्याम् (प्र) (दीर्घेण) प्रलम्बितेन (वन्दनः) स्तोतुमर्हः (तारि) तीर्यते (आयुषा) जीवनेन ॥ ६ ॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। हे विवाहितौ स्त्रीपुरुषौ यथा शीतेनोष्णता हन्यते तथाऽविद्या विद्यया हतं यत आध्यात्मिकाधिभौतिकाधिदैविकानि दुःखानि नश्येयुः। यथा धार्मिकराजपुरुषाश्चोरादीन् निवार्य शयानान् प्रजाजनान् रक्षन्ति यथा च सूर्याचन्द्रमसौ सर्वं जगत् संपोष्य जीवनप्रदौ स्तस्तथाऽस्मिञ्जगति प्रवर्त्तेथाम् ॥ ६ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

    पदार्थ

    हे सब विद्याओं में व्याप्त स्त्री-पुरुषो ! जैसे (युवम्) तुम दोनों (अत्रये) आध्यात्मिक, आधिभौतिक, आधिदैविक ये तीन दुःख जिसमें नहीं हैं, उस उत्तम सुख के लिये (परिसूतेः) सब ओर से दूसरे विद्या जन्म में प्रसिद्ध हुए विद्वान् से विद्या को पाये हुए (परितप्तम्) सब प्रकार क्लेश को प्राप्त (रेभम्) समस्त विद्या की प्रशंसा करनेवाले विद्वान् मनुष्य को (हिमेन) शीत से (घर्मम्) घाम के समान (उरुष्यथः) पालो अर्थात् शीत से घाम जैसे बचाया जावे वैसे पालो (युवम्) तुम दोनों (गवि) पृथिवी में (शयोः) सोते हुए की (अवसम्) रक्षा आदि को (पिप्यथुः) बढ़ाओ (वन्दनः) प्रशंसा करने योग्य व्यवहार (दीर्घेण) लम्बी बहुत दिनों की (आयुषा) आयु से तुम दोनों ने (तारि) पार किया वैसा हम लोग भी (प्र) प्रयत्न करें ॥ ६ ॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। हे विवाह किये हुए स्त्री-पुरुषो ! जैसे शीत से गरमी मारी जाती है वैसे अविद्या को विद्या से मारो, जिससे आध्यात्मिक, आधिभौतिक, आधिदैविक ये तीन प्रकार के दुःख नष्ट हों। जैसे धार्मिक राजपुरुष चोर आदि को दूरकर सोते हुए प्रजाजनों की रक्षा करते हैं, और जैसे सूर्य्य चन्द्रमा सब जगत् को पुष्टि देकर जीवने के आनन्द को देनेवाले हैं, वैसे इस जगत् में प्रवृत्त होओ ॥ ६ ॥

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    विषय

    रेभ , अत्रि , शयु , वन्दन

    पदार्थ

    १. हे प्राणापानो ! (युवम्) = आप दोनों (रेभम्) = स्तोता को (परिषूते) = [obstruction] विघ्नों व उपद्रवों से (उरुष्यथः) = रक्षित करते हो । प्राणसाधना से ही वस्तुतः हमारी वृत्ति प्रभुप्रवण होती है । हम भोगों से ऊपर उठते हैं और भोगों से ऊपर उठने पर जीवन - यात्रा में आनेवाले विघ्नों से भी बच जाते हैं । २. वासनाओं के कारण (परितप्तम्) = खूब तपे हुए (घर्मम्) = इस शरीररूप कटाह [cauldron] को (अत्रये) = अत्रि के लिए (हिमेन) = हिम के समान शान्तवृत्ति के द्वारा (उरुष्यथः) = रक्षित करते हो । काम , क्रोध , लोभरूप वासनाएँ इन्द्रियों , मन व बुद्धि को खूब सन्तप्त कर देती हैं । प्राणसाधना से ये वासनाएँ नष्ट होती हैं , शान्तभाव का उदय होता है और व्यक्ति सचमुच (अ त्रि) = अविद्यमान काम , क्रोध , लोभवाला बन जाता है । प्राणसाधना से पूर्व तो [अद्यते त्रिभिः] यह काम , क्रोध , लोभ से खाया जाने के कारण अत्रि था । ३. कामादि से ऊपर उठकर यह (शयु) = हृदय में निवास करनेवाला बनता है । (युवम्) = आप दोनों (शयोः) = इस शयु की (गवि) = वेदवाणीरूप गौ में (अवसम्) = रक्षण के साधनभूत ज्ञानदुग्ध को (पिप्यथुः) = खूब आप्यायित करते हो । प्राणसाधना से पूर्व यह गौ हमारे लिए न समझने योग्य होने के कारण वन्ध्या-सी हो जाती है । प्राणसाधना से बुद्धि तीव्र होती है और इस वेदवाणी को हम खूब समझने लगते हैं । इसका ज्ञानदुग्ध हमारे लिए रक्षक बनता है । ४. हे प्राणापानो ! आपके द्वारा (वन्दनः) = यह बड़ों का अभिवादन करनेवाला व्यक्ति (दीर्घेण आयुषा) = दीर्घ जीवन के द्वारा (प्रतारि) = खूब वृद्धि को प्राप्त कराया जाता है । प्राणसाधक बड़ों का आदर करता है , परिणामतः दीर्घायुष्यवाला होता है और खुब उन्नति को प्राप्त होता है ।

    भावार्थ

    भावार्थ - प्राणसाधना से हम ‘रेभ’ प्रभु के स्तोता बनते हैं । काम , क्रोध , लोभ से ऊपर ऊठकर ‘अत्रि’ बनते हैं । वेद को समझनेवाले शयु होते हैं और ‘वन्दन’ बनकर दीर्घायुष्यवाले होते हैं ।

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    विषय

    विद्वान् प्रमुख नायकों और स्त्री पुरुषों के कर्तव्य ।

    भावार्थ

    हे विद्वान स्त्री पुरुषो ! ( युवं ) आप दोनों ( रेभं ) उत्पन्न होते ही शब्द करने वाले, रोने वाले बालक को ( परिसूतेः ) प्रसव क्रिया के भी पूर्व से ही ( उरुष्यथः ) खूब रक्षा करो। और ( अनये ) इस लोक में आये नव बालक के ( परितप्तम् ) परिताप, ज्वर आदि दुःख को ( हिमेन घर्मम् ) शीतल जल या छाया से घाम के समान दूर करो । ( युवं ) तुम दोनों स्त्री पुरुष ( शयोः गवि ) शयनशील शिशु की ( गवि ) इन्द्रियों में अथवा ( गवि ) गाय के समान दूध पिलाने वाली उसकी उत्पादक माता में ( अवसं ) बालक की रक्षा करने वाले दूध की ( पिप्यथुः ) वृद्धि करो और ( वन्दनः ) स्तुत्य गुणों से युक्त, अभिवादनशील बालक ( दीर्घेण आयुषा ) दीर्घ जीवन से ( प्र तारि ) युक्त होकर बड़ा हो । [२] इसी प्रकार हे विद्वान् शिक्षक स्त्री पुरुषो ! आप दोनों ( रेभम् ) उपदेश करने योग्य शिष्य की रक्षा करो । ( अत्रये ) मां, बाप, भ्राता अथवा विविध तापों से रहित बालक को ( तप्तं ) तपस्या द्वारा युक्त हो जाने पर शीतल जल के समान शान्तिदायक ज्ञानमय विद्योपदेश से स्नान कराओ । ( शयोः ) शान्ति और कल्याण के इच्छुक शिष्य के ( गवि अवसं ) वाणी में ज्ञान की वृद्धि करो। ( वन्दनः दीर्घेण आयुषा प्र तारि ) अभिवादन शील दीर्घ आयु हो । [३] इसी प्रकार हे नायक जनो ! (रेभम् ) प्रार्थी पुरुष को उपद्रवों से बचाओ । ( अत्रये ) इस राष्ट्र में बसी प्रजा के ( तप्तं ) संताप को शान्तिदायक उपाय से दूर करो । सोने वाले अचेत प्रजाजन के रक्षा के उपाय और बल को ( गवि ) पृथ्वी पर बढ़ाओ । स्तुति योग्य वन्दनीय गुरुजन दीर्घायु हों ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    कक्षीवान्दैर्घतमस ऋषिः॥ अश्विनौ देवते॥ छन्दः– १, ४, ६ निचृज्जगती । ३,७, १७ जगती । ८ विराड् जगती । २, ५, ९ भुरिक् त्रिष्टुप् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे, हे विवाहित स्त्री-पुरुषांनो! जशी थंडीमुळे उष्णता कमी होते तसे अविद्येला विद्येने दूर करा. ज्यामुळे आध्यात्मिक, आधिभौतिक, आधिदैविक तीन प्रकारचे दुःख नाहीसे होते. जसे धार्मिक राजपुरुष चोरांपासून निद्रिस्त जनतेचे रक्षण करतात व सूर्यचंद्र सर्व जगाला पुष्ट करून जीवनाचा आनंद देतात तसे या जगात वागा. ॥ ६ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    You rescue the man of faith and prayer from all round oppression and relieve the thrice free man from blazing heat with the cool of snow. For the man in sleep you provide rest and security on earth and you help the man worthy of reverence to live a long and full life.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The same subject is continued.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O married men and women, you protect a man who has received knowledge from a twice-born preceptor for the attainment of happiness, in which there is absence of physical, social, and cosmic misery. You protect him as they guard a person suffering from heat with snow. You protect an admiring scholar who is accustomed ted sleep well at night on account of exertion in day time and multiply his protection on earth. You give a long life to a praise-worthy person. Let us also try like this.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (रेभम्) सकलविद्यास्तोतारम् = The admirer of all good sciences. (अत्रये) अविद्यमानान्याध्यात्मिकादित्रीणि दुःखानि यस्मिन् तस्मै सुखाय । = He who has no misery anywhere.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    o married men and women, as cold is removed by heat, in the same way, dispel the darkness of ignorance with the light of knowledge, so that physical, social and cosmic miseries may have an end. You must act in this world like the sun and the moon which nourish the universe or as righteous officers of the State protect even sleeping persons by keeping far away thieves and robbers.

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