ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 130/ मन्त्र 5
ऋषिः - परुच्छेपो दैवोदासिः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - भुरिगष्टिः
स्वरः - मध्यमः
त्वं वृथा॑ न॒द्य॑ इन्द्र॒ सर्त॒वेऽच्छा॑ समु॒द्रम॑सृजो॒ रथाँ॑ इव वाजय॒तो रथाँ॑ इव। इ॒त ऊ॒तीर॑युञ्जत समा॒नमर्थ॒मक्षि॑तम्। धे॒नूरि॑व॒ मन॑वे वि॒श्वदो॑हसो॒ जना॑य वि॒श्वदो॑हसः ॥
स्वर सहित पद पाठत्वम् । वृथा॑ । न॒द्यः॑ । इ॒न्द्र॒ । सर्त॑वे । अच्छ॑ । स॒मु॒द्रम् । अ॒सृ॒जः॒ । रथा॑न्ऽइव । वा॒ज॒य॒तः । रथा॑न्ऽइव । इ॒तः । ऊ॒तीः । अ॒यु॒ञ्ज॒त॒ । स॒मा॒नम् । अर्थ॑म् । अक्षि॑तम् । धे॒नूःऽइ॑व । मन॑वे । वि॒श्वऽदो॑हसः । जना॑य । वि॒श्वऽदो॑हसः ॥
स्वर रहित मन्त्र
त्वं वृथा नद्य इन्द्र सर्तवेऽच्छा समुद्रमसृजो रथाँ इव वाजयतो रथाँ इव। इत ऊतीरयुञ्जत समानमर्थमक्षितम्। धेनूरिव मनवे विश्वदोहसो जनाय विश्वदोहसः ॥
स्वर रहित पद पाठत्वम्। वृथा। नद्यः। इन्द्र। सर्तवे। अच्छ। समुद्रम्। असृजः। रथान्ऽइव। वाजयतः। रथान्ऽइव। इतः। ऊतीः। अयुञ्जत। समानम्। अर्थम्। अक्षितम्। धेनूःऽइव। मनवे। विश्वऽदोहसः। जनाय। विश्वऽदोहसः ॥ १.१३०.५
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 130; मन्त्र » 5
अष्टक » 2; अध्याय » 1; वर्ग » 18; मन्त्र » 5
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अष्टक » 2; अध्याय » 1; वर्ग » 18; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनः केऽत्र प्रकाशिता जायन्त इत्याह ।
अन्वयः
हे इन्द्र त्वं यथा नद्यः समुद्रं वृथा सृजन्ति तथा रथानिव वाजयतो रथानिव सर्त्तवे अच्छासृजः। जनाय विश्वदोहस इव ये मनवे विश्वदोहसस्सन्तो भवन्तो धेनूरिवेत ऊती रक्षितं समानमर्थं चायुञ्जत तेऽत्यन्तमानन्दं प्राप्नुवन्ति ॥ ५ ॥
पदार्थः
(त्वम्) (वृथा) निष्प्रयोजनाय (नद्यः) (इन्द्र) विद्येश (सर्त्तवे) सर्त्तुं गन्तुम् (अच्छ) उत्तमरीत्या (समुद्रम्) सागरम् (असृजः) सृजेः (रथाँइव) यथा रथानधिष्ठाय (वाजयतः) सङ्ग्रामयतः (रथाँइव) (इतः) प्राप्ताः (ऊतीः) रक्षाद्याः क्रियाः (अयुञ्जत) युञ्जते (समानम्) तुल्यम् (अर्थम्) द्रव्यम् (अक्षितम्) क्षयरहितम् (धेनूरिव) यथा दुग्धदात्रीर्गाः (मनवे) मननशीलाय मनुष्याय (विश्वदोहसः) विश्वं सर्वं जगद्गुणैर्दुहन्ति पिपुरति ते (जनाय) धर्म्ये प्रसिद्धाय (विश्वदोहसः) विश्वस्मिन् सुखप्रपूरकाः ॥ ५ ॥
भावार्थः
अत्रोपमालङ्काराः। ये धेनुवत्सुखं रथवद्धर्म्यमार्गमवलम्ब्य धार्मिकन्यायाधीशवद्भूत्वा सर्वान् स्वसदृशान् कुर्वन्ति तेऽत्र प्रशंसिता जायन्ते ॥ ५ ॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर इस संसार में कौन प्रकाशित होते हैं, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।
पदार्थ
हे (इन्द्र) विद्या के अधिपति ! (त्वम्) आप जैसे (नद्यः) नदी (समुद्रम्) समुद्र को (वृथा) निष्प्रयोजन भर देती वैसे (रथानिव) रथों पर बैठनेहारों के समान (वाजयतः) संग्राम करते हुओं को (रथानिव) रथों के समान ही (सर्त्तवे) जाने को (अच्छ, असृजः) उत्तम रीति से कलायन्त्रों से युक्त मार्गों को बनावें वा (जनाय) धर्मयुक्त व्यवहार में प्रसिद्ध मनुष्य के लिये जो (विश्वदोहसः) समस्त जगत् को अपने गुणों से परिपूर्ण करते उनके समान (मनवे) विचारशील पुरुष के लिये (विश्वदोहसः) संसार सुख को परिपूर्ण करनेवाले होते हुए आप (धेनूरिव) दूध देनेवाली गौओं के समान (इतः) प्राप्त हुई (ऊतीः) रक्षादि क्रियाओं और (अक्षितम्) अक्षय (समानम्) समान अर्थात् काम के तुल्य (अर्थम्) पदार्थ का (अयुञ्जत) योग करते हैं, वे अत्यन्त आनन्द को प्राप्त होते हैं ॥ ५ ॥
भावार्थ
इस मन्त्र में उपमालङ्कार हैं। जो पुरुष गौओं के समान सुख, रथ के समान धर्म के अनुकूल मार्ग का अवलम्ब कर धार्मिक न्यायाधीश के समान होकर सबको अपने समान करते हैं, वे इस संसार में प्रंशसित होते हैं ॥ ५ ॥
विषय
पवन चित्तवृत्ति प्रभु की ओर
पदार्थ
१.हे (इन्द्र) = जितेन्द्रिय पुरुष! तु (नद्यः) = इन चित्तवृत्ति की नदियों को (वृथा) = अनायास ही स्वभावतः ही (समुद्रम् अच्छ) = आनन्दमय प्रभु की ओर (सर्तवे) = बहने के लिए (असृजः) = करता है । तेरी चित्तवृत्ति प्रभु की ओर ही प्रवृत्त होती है, उसी प्रकार (इव) = जैसे एक व्यक्ति (रथान्) = रथों को लक्ष्य-स्थान की ओर ले जाता है । (वाजयतः) = अत्यन्त शक्तिसम्पन्न की भाँति आचरण करते हुए (रथान् इव) = रथों की भाँति । जिस प्रकार दुढ़ रथों को तीव्रता से लक्ष्य की ओर ले जाया जाता है, उसी प्रकार एक जितेन्द्रिय पुरुष चित्तवृत्तिरूप नदियों को आनन्दमय प्रभु की ओर ले चलता है । २. (इतः) = इधर से - इस सांसारिक विषयों से (ऊतीः) = रक्षणवाले पुरुष अपने को उस प्रभु के साथ (अयुञ्जन्त) = जोड़ते हैं जो (समानम्) = सबके अन्दर समरूप से रहते हैं, अथवा सम्यक् प्राणित करनेवाले हैं [सम् आनयति], (अर्थम्) = चाहने योग्य हैं तथा (अक्षितम्) = अविनाशी हैं । वासनाओं व सांसारिक विषयों से अलग होकर ही हम प्रभु से अपना सम्बन्ध स्थापित करते हैं । ३. यह सम्बन्ध होने पर (मनवे) = विचारशील पुरुष के लिए ये वेदवाणियाँ (धेनूः इव) = गौओं के समान होती हैं और (विश्वदोहसः) = उसके लिए सब ज्ञान-दुग्धों का दोहन करनेवाली होती हैं । (जनाय) = अपनी शक्तियों का विकास करनेवाले के लिए (विश्वदोहसः) = ये सब ज्ञानों का प्रपूरण करनेवाली होती हैं ।
भावार्थ
भावार्थ - हमें चित्तवृत्तियों को प्रभु की ओर ले जाना चाहिए । संसार से हटाकर ही हम उन्हें प्रभु से लगा पाते हैं । प्रभु हमारे लिए वेदरूपी धेनु देते हैं, जो हमारे लिए ज्ञान - दुग्ध देती है।
विषय
अभिषिक्त राजा विद्वान्, और सभापति सेनापति के कर्त्तव्य ।
भावार्थ
( नद्यः समुद्रम् वृथा ) मेघ जिस प्रकार अनायास ही नदियों को समुद्र की ओर बहा देता है उसी प्रकार हे ( इन्द्र ) सेनापते ! ( त्वं ) तू भी ( सर्तवे ) गमन करने और आक्रमण करने के लिये ( रथान् इव ) रमण करने के साधनों वा वेग से चलने वाले रथों के समान ही ( वाजयतः ) और संग्राम करने वाले वीर पुरुषों को भी ( असृजः ) तैयार कर । ( ऊतीः ) रक्षा करने वाली सेनाएं या संस्थाएं भी जनों के पालन करने वाली नदियां जिस प्रकार ( अक्षितम् ) जल को अपने में धारण करती हैं उसी प्रकार वे भी ( इतः ) एकत्र होकर ( अक्षितम् ) अक्षय ( समानम् ) सब के लिये समान रूप से उपभोग करने योग्य ( अर्थम् ) द्रव्यमय कोश को ( अयुञ्जत ) धारण करें अथवा वे ( अक्षितम् ) शत्रु से न नाश होने वाले ( समानम् ) सबके प्रति निष्पक्षपात ( अर्थम् ) प्रार्थनीय, अभिलषित पूज्य नायक को ( अयुञ्जत ) प्रधान पद पर नियुक्त करें । वे सेनाएं तथा संस्थाएं भी ( विश्वदोहसः ) समस्त ऐश्वर्यों का दोहन करने वाली, सब के हित के लिये दुध देने वाली ( धेनूः इव ) दुधार गौवों के समान ( मनवे जनाय ) मननशील प्रजाजन के हित के लिये अथवा ( मनवे ) शत्रु, मित्र और स्वराष्ट्र के स्तम्भन करने में समर्थ राजा और ( जनाय ) सर्व साधारण प्रजाजन के हित के लिये ( विश्व-दोहसः ) सब प्रकार के ऐश्वर्य को पूर्ण समृद्ध करने वाली हों ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
१–१० परुच्छेप ऋषिः ॥ इन्द्रो देवता । छन्दः– १, ५ भुरिगष्टिः । २, ३, ६, ९ स्वराडष्टिः । ४, ८, अष्टिः । ७ निचृदत्यष्टिः । १० विराट् त्रिष्टुप् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात उपमालंकार आहे. जे पुरुष गाईसारखे सुख देतात. रथाप्रमाणे धर्मानुकूल मार्गाचे अवलंबन करतात, धार्मिक न्यायाधीशासारखे बनून सर्वांना स्वतःसारखे बनवितात ते या जगात प्रशंसित होतात. ॥ ५ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Indra, you release the rivers at will to flow naturally well to the sea, they are like chariots loaded with food and energy, yes, replete with immense energy like chariots ever on the move. Thus, flow with this flow, you join the rivers with unrestricted wealth and modes of protection for all equally. And these rivers are like cows yielding all kinds of food and energy for the man of intelligence and for all people, for all, whole world indeed.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
Who shine in this world is told further in the fifth Mantra.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O Indra (Master of knowledge ) Thou makest good paths to go to distant places, as the rivers go to the sea without effort or as heroes mount on their chariots, when desiring to go to the battle field. Those persons enjoy much bliss, who fill the world with noble virtues for a thoughtful person and who being fillers of the universe with happiness, act like the milch-cows, with these protective powers gathering undecaying common articles useful to all.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
(इन्द्र) विद्येश = Master of knowledge. (मनवे) मननशीलाय मनुष्याय = For a thoughtful person. (विश्वदोहस:) १ विश्वं सर्व जगद् गुणैर्दुहन्ति प्रपूरयन्ति ते (२) विश्वस्मिन् सुखपूरका: = Those who fill the world with noble virtues. (2) Fillers of happiness in the world.
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Those persons become praiseworthy, who make all like themselves being bringers of delight like the cows and treading upon the path of righteousness like the and behaving like the righteous dispensers of justice.
Translator's Notes
(इन्द्र:) इदि परमैश्वर्ये विद्यारूपपरमैश्वर्यसम्पन्न मन अवगमे बोधे वा ये विद्वांसस्ते मनवः ( शतपथ ८. ६३.३.१८) दुहप्रपूरणे It is wrong on the part of Wilson and Griffith to take the word 'Manu' used in the Mantra as the proper noun, as it is against the principles of the Vedic terminology as pointed out before.
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