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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 130 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 130/ मन्त्र 6
    ऋषिः - परुच्छेपो दैवोदासिः देवता - इन्द्र: छन्दः - स्वराडष्टिः स्वरः - मध्यमः

    इ॒मां ते॒ वाचं॑ वसू॒यन्त॑ आ॒यवो॒ रथं॒ न धीर॒: स्वपा॑ अतक्षिषुः सु॒म्नाय॒ त्वाम॑तक्षिषुः। शु॒म्भन्तो॒ जेन्यं॑ यथा॒ वाजे॑षु विप्र वा॒जिन॑म्। अत्य॑मिव॒ शव॑से सा॒तये॒ धना॒ विश्वा॒ धना॑नि सा॒तये॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इ॒माम् । ते॒ । वाच॑म् । व॒सु॒ऽयन्तः॑ । आ॒यवः॑ । रथ॑म् । न । धीरः॑ । सु॒ऽअपाः॑ । अ॒त॒क्षि॒षुः॒ । सु॒म्नाय॑ । त्वाम् । अ॒त॒क्षि॒षुः॒ । शु॒म्भन्तः॑ । जेन्य॑म् । यथा॑ । वाजे॑षु । वि॒प्र॒ । वा॒जिन॑म् । अत्य॑म्ऽइव । शव॑से । सा॒तये॑ । धना॑ । विश्वा॑ । धना॑नि । सा॒तये॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इमां ते वाचं वसूयन्त आयवो रथं न धीर: स्वपा अतक्षिषुः सुम्नाय त्वामतक्षिषुः। शुम्भन्तो जेन्यं यथा वाजेषु विप्र वाजिनम्। अत्यमिव शवसे सातये धना विश्वा धनानि सातये ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    इमाम्। ते। वाचम्। वसुऽयन्तः। आयवः। रथम्। न। धीरः। सुऽअपाः। अतक्षिषुः। सुम्नाय। त्वाम्। अतक्षिषुः। शुम्भन्तः। जेन्यम्। यथा। वाजेषु। विप्र। वाजिनम्। अत्यम्ऽइव। शवसे। सातये। धना। विश्वा। धनानि। सातये ॥ १.१३०.६

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 130; मन्त्र » 6
    अष्टक » 2; अध्याय » 1; वर्ग » 19; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनर्मनुष्याः कस्मात्किं प्राप्य कीदृशा भवन्तीत्याह ।

    अन्वयः

    हे विप्र यस्य ते तव सकाशादिमां वाचं प्राप्ता आयवो वसूयन्तः स्वपा धीरो रथं नातक्षिषुः शुम्भन्तो यथा वाजेषु जेन्यं वाजिनमत्यमिव शवसे सातये धनानीव विश्वा धना प्राप्य सुम्नाय सातये त्वामतक्षिषुस्ते सुखिनो जायन्ते ॥ ६ ॥

    पदार्थः

    (इमाम्) (ते) तव सकाशात् (वाचम्) विद्याधर्मसत्याऽन्वितां वाणीम् (वसूयन्तः) आत्मनो वसूनि विज्ञानादीनि धनानीच्छन्तः (आयवः) विद्वांसः (रथम्) प्रशस्तं रमणीयं यानम् (न) इव (धीरः) ध्यानयुक्तः (स्वपाः) शोभनानि धर्म्याण्यपांसि कर्माणि यस्य सः (अतक्षिषुः) संवृणुयुः। तक्ष त्वचने, त्वचनं संवरणमिति। (सुम्नाय) सुखाय (त्वां) त्वाम् (अतक्षिषुः) सूक्ष्मधियं संपादयन्तु (शुम्भन्तः) प्राप्तशोभाः (जेन्यम्) जयति येन तम् (यथा) येन प्रकारेण (वाजेषु) संग्रामेषु (विप्र) मेधाविन् (वाजिनम्) (अत्यमिव) यथाऽश्वम् (शवसे) बलाय (सातये) संविभक्तये (धना) द्रव्याणि (विश्वा) सर्वाणि (धनानि) (सातये) संभोगाय ॥ ६ ॥

    भावार्थः

    अत्रोपमालङ्कारः। येऽनूचानादाप्ताद्विदुषोऽखिला विद्याः प्राप्य विस्तृतधियो जायन्ते ते समग्रमैश्वर्य्यं प्राप्य रथवदश्ववद्धीरवद्धर्म्यमार्गं गत्वा कृतकृत्या जायन्ते ॥ ६ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर मनुष्य किससे क्या पाकर कैसे होते हैं, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

    पदार्थ

    हे (विप्र) मेघावी धीर बुद्धिवाले जन ! जिन (ते) आपके निकट से (इमाम्) इस (वाचम्) विद्या, धर्म और सत्ययुक्त वाणी को प्राप्त (आयवः) विद्वान् जन (वसूयन्तः) अपने को विज्ञान आदि धन चाहते हुए (स्वपाः) जिसके उत्तम धर्म के अनुकूल काम वह (धीरः) धीरपुरुष (रथम्) प्रंशसित रमण करने योग्य रथ को (न) जैसे वैसे (अतिक्षषुः) सूक्ष्मबुद्धि को स्वीकार करें वा (शुम्भन्तः) शोभा को प्राप्त हुए (यथा) जैसे (वाजेषु) संग्रामों में (जेन्यम्) जिससे शत्रुओं को जीतते उस (वाजिनम्) अतिचतुर वा संग्रामयुक्त पुरुष को (अत्यमिव) घोड़ा के समान (शवसे) बल के लिये और (सातये) अच्छे प्रकार विभाग करने के लिये (धनानि) द्रव्य आदि पदार्थों के समान (विश्वा) समस्त (धना) विद्या आदि पदार्थों को प्राप्त होकर (सुम्नाय) सुख और (सातये) संभोग के लिये। (त्वाम्) आपको (अतक्षिषुः) उत्तमता से स्वीकार करें वा अपने गुणों से ढाँपें, वे सुखी होते हैं ॥ ६ ॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जो उपदेश करनेवाले धर्मात्मा विद्वान् जन से समस्त विद्याओं को पाकर विस्तारयुक्तबुद्धि अर्थात् सब विषयों में बुद्धि फैलानेहारे होते हैं, वे समग्र ऐश्वर्य को पाकर, रथ, घोड़ा और धीर पुरुष के समान धर्म के अनुकूल मार्ग को प्राप्त होकर कृतकृत्य होते हैं ॥ ६ ॥

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    विषय

    प्रभु व प्रभु की वाणी का मनन

    पदार्थ

    १. (वसूयन्तः) = वसुओं-जीवन के आवश्यक तत्वों को प्राप्त करने की कामनावाले (आयवः) = गतिशील पुरुष (इमाम्) = इस (ते) = आपकी (वाचम्) = वाणी को, वेदवाणी को (अतक्षिषुः) = अपने अन्दर निर्मित करते हैं न उसी प्रकार जैसे कि धीरः - ज्ञानी स्वपाः उत्तम कौवाला, कुशलहस्त कारीगर रथम् - रथ को बनाता है । कुशल शिल्पी जैसे रथ को बनाता है, उसी प्रकार वसूय पुरुष अपने हृदय में प्रभु की वाणी को निर्मित करने का प्रयत्न करते हैं । इस वेदवाणी के निर्माण के साथ ये सम्नाय - सुख - प्राप्ति के लिए हे प्रभो! त्वाम् - आपको (अतक्षिषुः) = अपने हृदयों में निर्मित करते हैं, अर्थात् अपने हृदयों में आपके स्वरूप का चिन्तन करते हैं । वेदमन्त्रों के निर्माण का भाव वेदमन्त्रों के अर्थचिन्तन से है और प्रभु के निर्माण का भाव 'प्रभु का चिन्तन' है । २. (विप्र) = विशेषरूप से हमारा पूरण करनेवाले हे प्रभो । ये भक्त लोग (वाजेषु) = संग्रामों में आपको (वाजिनं जेन्यं यथा) = शक्तिशाली विजेता के रूप में (शुम्भन्तः) = अलंकृत करते हैं । आपको ही संग्रामों का विजेता मानकर आपका ही गुणगान करते हैं । ३. (शवसे) = शक्ति प्राप्ति के लिए तथा (धना सातये) = धनों की प्राप्ति के लिए (विश्वा धनानि सातये) = सम्पूर्ण धनों की प्राप्ति के लिए (अत्यम् इव) = संग्राम में विजय-प्राप्ति के साधनभूत घोड़े की भाँति आपको मानते हैं ।

    भावार्थ

    भावार्थ - जीवन को उत्तम बनाने की कामनावाले पुरुष वेदवाणी को अपनाते हैं और हृदयों में प्रभु का चिन्तन करते हैं।

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    विषय

    अभिषिक्त राजा विद्वान्, और सभापति सेनापति के कर्त्तव्य ।

    भावार्थ

    ( स्वपाः धीरः रथं न ) उत्तम ज्ञानवान् और कर्मवान् बुद्धिमान्, कुशल पुरुष जिस प्रकार वेग से चलनेवाले रथ को तैयार करता है, उसको साधता है इसी प्रकार हे ( विप्र ) विविध ऐश्वर्यों से प्रजाओं को पूर्ण करने हारे राजन् ! विविध ज्ञानों से शिष्यगणों को पूर्ण करने हारे हे आचार्य ! (स्वपाः) स्वयं अपने आत्मा के रक्षक और सुकर्मा, ( धीराः ) बुद्धि के प्रेरक मनीधी और (वसूयन्तः आयवः) धनैश्वर्य की कामना और ज्ञान का लाभ करने वाले और शिष्य रूप से वस कर ब्रह्मचर्य पालन करने के इच्छुक जन ( ते ) तुझ राजा की उत्साह वृद्धि के लिये ( इमां वाचं ) इस वाणी को ( अतक्षिषुः ) करते हैं । हे आचार्य ! (ते इमां वाचं ) तेरी इस प्रत्यक्षोपदेश द्वारा प्राप्त वेद वाणी को (अतक्षिषुः) कर्म द्वारा अभ्यास करते हैं। और हे राजन् ! (सुम्नाय) सुख के प्राप्त करने के लिये जिस प्रकार विद्वान् लोग रथ बनाते हैं उसी प्रकार ( त्वाम् ) तुझ राजा को भी प्रजाजन ( सुम्नाय ) सुख प्राप्त करने के लिये ही ( अतक्षिषुः ) अति तीक्ष्ण, तेजस्वी बनाते हैं और हे आचार्य ! विद्यार्थी जन भी ( सुम्नाय ) सुख प्राप्ति, और सुखपूर्वक सुगमता से वा उत्तम रीति से ज्ञानमय वेद का अभ्यास करने के लिये ही ( त्वाम् ) तुझको ( अतक्षिषुः ) तुझको प्रश्नादि द्वारा तीक्ष्ण करते, तुझ से शनैः खण्ड खण्ड करके ज्ञान प्राप्त करते हैं । ( यथा ) जिस प्रकार ( वाजेषु ) संग्रामों के अवसरों में ( धना सातये ) नाना ऐश्वर्यों के प्राप्त करने, और ( शवसे ) बल को बढ़ाने के लिये वीर पुरुष ( जेन्यं वाजिनं ) विजयशील, संग्राम-शूर नायक को ( अत्यम् इव ) लढाऊ, वेगवान् अश्व के समान ( शुम्भन्तः ) सुशोभित और प्रशंसित करते हुए आगे बढ़ते हैं उसी प्रकार हे विद्वन् ! ( विश्वा धनानि ) समस्त ऐश्वर्यों को प्राप्त करने और ( शवसे ) ज्ञान प्राप्त करने के लिये ( वाजेषु ) ज्ञान के कार्यों में ( जेन्यं ) इन्द्रियों के जय करने में कुशल ( वाजिनं ) ज्ञानवान् तुझको ( शुम्भन्तः ) उत्तम पद पर सुशोभित करते रहें ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    १–१० परुच्छेप ऋषिः ॥ इन्द्रो देवता । छन्दः– १, ५ भुरिगष्टिः । २, ३, ६, ९ स्वराडष्टिः । ४, ८, अष्टिः । ७ निचृदत्यष्टिः । १० विराट् त्रिष्टुप् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात उपमालंकार आहे. जे उपदेशक धार्मिक विद्वानांकडून संपूर्ण विद्या प्राप्त करून विस्तारयुक्त बुद्धी अर्थात सर्व विषयांत बुद्धीचा विस्तार करतात ते संपूर्ण ऐश्वर्य प्राप्त करून रथ, घोडा व धीर पुरुषाप्रमाणे धर्मानुकूल मार्गाला प्राप्त करतात व कृतकृत्य होतात. ॥ ६ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Indra, vipra, lord of knowledge, this song of honour and celebration, for you, men of knowledge, patience, and noble action seeking wealth and power, have formed in the mind, as they have created the chariot for the sake of comfort and well-being, just like men of knowledge, culture and grace would love to have a fast horse in life’s battle flying to victory for the achievement of universal strength and power of wealth for everybody’s share and everybody’s enjoyment.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    How do men become like whom having attained what, is told further in the sixth Mantra.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O wise man! Learned men who are desirous of the wealth of wisdom and knowledge and have received from thee this speech endowed with wisdom, righteousness and truth accept it well as a resolute man of good actions and of reflective nature prepares a good vehicle for journey. They being full of true beauty, propitiate thee for their good, glorifying thee O sage, as impetuous in conflicts they praise thee as men praise a conqueror. They praise thee for the acquirement of strength, wealth and every kind of affluence in order to distribute it among the needy, as they commend a horse for his good qualities in battle. They enjoy happiness, having acquired all kinds of wealth (spiritual as well as material) for their delight, proper use and distribution.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (वसूयन्तः ) आत्मनो वसूनि विज्ञानादिनि धनानि इच्छन्तः = Desiring the wealth of wisdom and knowledge. (सातये) १ संविभक्तये = For proper distribution. (सातये) २ संभोगाय = For proper use or enjoyment (धीरः) ध्यानयुक्त: = A man of meditative nature.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    There is Upamalankara or simile used in the Mantra. Those who become endowed with vast and subtle intellect, having acquired the knowledge of all sciences from highly learned persons true in mind, word and deed, accomplish the purpose of their lives, by getting all kinds of wealth and treading upon the path of Dharma or righteousness, like the persons of meditative nature and like the horse or chariot leading towards the destined goal.

    Translator's Notes

    सातये is from षण्-संभक्तो (विप्र ) मेधाविन् = A genius or highly intelligent person. विप्र इति मेधाविनाम (निघ० ३.१५)

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