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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 130 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 130/ मन्त्र 8
    ऋषिः - परुच्छेपो दैवोदासिः देवता - इन्द्र: छन्दः - अष्टिः स्वरः - मध्यमः

    इन्द्र॑: स॒मत्सु॒ यज॑मान॒मार्यं॒ प्राव॒द्विश्वे॑षु श॒तमू॑तिरा॒जिषु॒ स्व॑र्मीळ्हेष्वा॒जिषु॑। मन॑वे॒ शास॑दव्र॒तान्त्वचं॑ कृ॒ष्णाम॑रन्धयत्। दक्ष॒न्न विश्वं॑ ततृषा॒णमो॑षति॒ न्य॑र्शसा॒नमो॑षति ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इन्द्रः॑ । स॒मत्ऽसु॑ । यज॑मानम् । आर्य॑म् । प्र । आ॒व॒त् । विश्वे॑षु । श॒तम्ऽऊ॑तिः । आ॒जिषु॑ । स्वः॑ऽमीळ्हेषु । आ॒जिषु॑ । मन॑वे । शास॑त् । अ॒व्र॒तान् । त्वच॑म् । कृ॒ष्णाम् । अ॒र॒न्ध॒य॒त् । दक्ष॑म् । न । विश्व॑म् । त॒तृ॒षा॒णम् । ओ॒ष॒ति॒ । नि । अ॒र्श॒सा॒नम् । ओ॒ष॒ति॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इन्द्र: समत्सु यजमानमार्यं प्रावद्विश्वेषु शतमूतिराजिषु स्वर्मीळ्हेष्वाजिषु। मनवे शासदव्रतान्त्वचं कृष्णामरन्धयत्। दक्षन्न विश्वं ततृषाणमोषति न्यर्शसानमोषति ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    इन्द्रः। समत्ऽसु। यजमानम्। आर्यम्। प्र। आवत्। विश्वेषु। शतम्ऽऊतिः। आजिषु। स्वःऽमीळ्हेषु। आजिषु। मनवे। शासत्। अव्रतान्। त्वचम्। कृष्णाम्। अरन्धयत्। दक्षम्। न। विश्वम्। ततृषाणम्। ओषति। नि। अर्शसानम्। ओषति ॥ १.१३०.८

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 130; मन्त्र » 8
    अष्टक » 2; अध्याय » 1; वर्ग » 19; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनर्मनुष्यैः कीदृशैर्भवितव्यमित्याह ।

    अन्वयः

    यश्शतमूतिरिन्द्रः स्वर्मीढेष्वाजिष्वाजिषु धार्मिकाः शूरा इव विश्वेषु समत्सु यजमानमार्य्यं प्रावत् मनवे व्रतान् शासदेषां त्वचं कृष्णां कुर्वन्नरन्धयदग्निर्विश्वं दक्षंस्ततृषाणमोषति नार्शसानं न्योषति स एव साम्राज्यं कर्त्तुमर्हति ॥ ८ ॥

    पदार्थः

    (इन्द्रः) परमैश्वर्यवान् राजा (समत्सु) संग्रामेषु (यजमानम्) अभयस्य दातारम् (आर्यम्) उत्तमगुणकर्मस्वभावम् (प्र) प्रकृष्टे (आवत्) रक्षेत् (विश्वेषु) समग्रेषु (शतमूतिः) शतमसंख्याता ऊतयो रक्षा यस्मात् सः (आजिषु) प्राप्तेषु (स्वर्मीढेषु) स्वः सुखं मिह्यते सिच्यते येषु तेषु (आजिषु) संग्रामेषु (मनवे) मननशीलधार्मिकमनुष्यरक्षणाय (शासत्) शिष्यात् (अव्रतान्) दुष्टाचारान् दस्यून् (त्वचम्) सम्पर्कमिन्द्रियम् (कृष्णाम्) कर्षिताम् (अरन्धयत्) हिंस्यात् (दक्षन्) दहेत्। अत्र वाच्छन्दसीति भस्त्वं न। (न) इव (विश्वम्) सर्वम् (ततृषाणम्) प्राप्ततृषम् (ओषति) (नि) (अर्शसानम्) प्राप्तं सत् (ओषति) दहेत् ॥ ८ ॥

    भावार्थः

    अत्रोपमावाचकलुप्तोपमालङ्कारौ। मनुष्यैरार्यगुणकर्मस्वभावान् स्वीकृत्य दस्युगुणकर्मस्वभावान् विहाय श्रेष्ठान् संरक्ष्य दुष्टान् संदण्ड्य धर्मेण राज्यं शासनीयम् ॥ ८ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर मनुष्यों को कैसा होना चाहिये, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

    पदार्थ

    जो (शतमूतिः) अर्थात् जिससे असंख्यात रक्षा होती वह (इन्द्रः) परम ऐश्वर्यवान् राजा (स्वर्मीढेषु) जिनमें सुख सिञ्चन किया जाता उन (आजिषु) प्राप्त हुए (आजिषु) संग्रामों में धार्मिक शूरवीरों के समान (विश्वेषु) समग्र (समत्सु) संग्राम में (यजमानम्) अभय के देनेवाले (आर्यम्) उत्तम गुण, कर्म, स्वभाववाले पुरुष को (प्रावत्) अच्छे प्रकार पाले वा (मनवे) विचारशील धार्मिक मनुष्य की रक्षा के लिये (अव्रतान्) दुष्ट आचरण करनेवाले डाकुओं को (शासत्) शिक्षा देवे और इनकी (त्वचम्) सम्बन्ध करनेवाली खाल को (कृष्णाम्) खैंचता हुआ (अरन्धयत्) नष्ट करे वा अग्नि जैसे (विश्वम्) सब पदार्थ मात्र को (दक्षन्) जलावे और (ततृषाणम्) पियासे प्राणी को (ओषति) दाहे अति जलन देवे (न) वैसे (अर्शसानम्) प्राप्त हुए शत्रुगण को (न्योषति) निरन्तर जलावे, वही चक्रवर्त्ति राज्य करने योग्य होता है ॥ ८ ॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में उपमा और वाचकलुप्तोपमालङ्कार हैं। मनुष्यों को चाहिये कि श्रेष्ठ गुण, कर्म, स्वभावों को स्वीकार और दुष्टों के गुण, कर्म, स्वभावों का त्याग कर श्रेष्ठों को रक्षा और दुष्टों को ताड़ना देकर धर्म में राज्य की शासना करें ॥ ८ ॥

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    विषय

    आर्यों का रक्षण, अनार्यों का ताड़न

    पदार्थ

    १.(इन्द्रः) = सब शत्रुओं का विद्रावण करनेवाले प्रभु (समत्सु) = संग्रामों में (यजमानम्) = यज्ञशील (आर्यम्) = श्रेष्ठ पुरुष को (प्रावत्) = रक्षित करते हैं । शतम् ऊतीः सैकड़ों प्रकार से रक्षण करनेवाले वे प्रभु (विश्वेषु आजिषु) = सब संग्रामों में रक्षण करनेवाले हैं, (आजिषु) = उन संग्रामों में जोकि (स्वर्मीळ्हेषु) = स्वर्ग का सेचन करनेवाले हैं, अर्थात् जिन धर्म्य संग्रामों में वीरतापूर्वक प्राणों को छोड़ने से स्वर्ग की प्राप्ति होती है । २. (मनवे) = विशारशील पुरुषों के लिए, इनके जीवन को सुखी एवं शान्त बनाने के लिए (अवतान्) = नियम भंग करनेवाले पुरुषों को (शासत्) = दण्ड द्वारा उचित शिक्षा प्राप्त कराते हैं । ये प्रभु (कृष्णां त्वचम्) = हमारे हृदयों पर आ जानेवाले मलिन आवरणों को (अरन्धयत्) = नष्ट करते हैं । ३. (दक्षं न) = अग्नि [दक्ष - fire] के समान (ओषति) = जला देते हैं, उनको जो कि विश्वं (ततृषाणम्) = सब धन की अत्यधिक प्यास व लालसावाले हैं । (नि) = निश्चय से (अर्शसानम्) = सदा औरों को हानि पहुँचाने के लिए उद्योग करनेवालों को [Striving to hurt] (ओषति) = भस्म कर देते हैं । ४. यहाँ प्रसङ्गवश राजकर्ताओं को अत्युत्तम उपदेश हो गया है कि [क] राजा नियम तोड़नेवालों को समुचित दण्ड दे ताकि विचारशील पुरुषों को पीड़ा प्राप्त न हो, [ख] अत्यन्त लोभ के कारण अन्याय-मार्ग से धनार्जन करनेवालों को नष्ट कर दे, [ग] औरों को हानि पहुँचाने के कार्यों में लगे हुओं को भी दण्डित करे ।

    भावार्थ

    भावार्थ - संग्रामों में प्रभु यज्ञशील का रक्षण करते हैं । नियम भङ्ग करनेवाले, अत्यन्त लोलुप व औरों को पीड़ित करनेवालों को नष्ट करते हैं ।

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    विषय

    अभिषिक्त राजा विद्वान्, और सभापति सेनापति के कर्त्तव्य ।

    भावार्थ

    ( इन्द्रः ) ऐश्वर्यवान् राजा या सेनापति ( विश्वेषु समत्सु ) समस्त संग्रामों और हर्ष के अवसरों में (आर्यं ) सब के शरण योग्य, विद्या आदि गुणों में श्रेष्ठ ( यजमानम् ) अन्यों को धन और अन्न आदि देने और राजा को कर देने वाले प्रजाजन को ( प्र अवत् ) अच्छी प्रकार रक्षा करे । वह ( शतम्-ऊतिः ) अनेक प्रकार के सेना आदि रक्षा के, साधनों से सम्पन्न होकर ( विश्वेषु ) सब ( आजिषु ) शत्रुओं को उखाड़ देने वाले ( स्वर्मीळ्हेषु ) सुखों और ऐश्वर्यों से राष्ट्र को, जलों से वृक्ष के समान सींच कर बढ़ाने वाले, ( आजिषु ) संग्रामों में ( यजमानम् आर्यं प्रावत् ) दानशील श्रेष्ठ प्रजाजन की रक्षा करे । (मनवे) मनुष्य मात्र के हित के लिये ( अव्रतान् ) आचार धर्म, व्यवस्था के पालन न करने वाले उच्छृंखल, दुष्ट पुरुषों का ( शासत् ) शासन करे । और ( कृष्णाम् ) काटने वाली, ( त्वचं ) देह की त्वचा के समान शत्रु की रक्षा करने वाली सेना को ( अरन्धयत् ) नाश करे । अथवा—( कृष्णाम् ) पाप करने वाली काली, निन्दनीय, ( त्वचम् ) शत्रु जनों की रक्षा करने वाली सेना आदि का नाश करे । अथवा—( अग्निरिव त्वचं कृष्णां कृत्वा अरन्धयत् ) अग्नि या विद्युत् जिस प्रकार जलाते समय ऊपर की छाल को काला करके बाद जलाता है उसी प्रकार राजा भी दुष्टों की त्वचा को काला कर अर्थात् देह की त्वचा के समान उसको घेरे रहने वाली सेना आदि या देखने योग्य रूप को ( कृष्णा ) काला अर्थात् प्रजाजन के सामने बदनाम करके मारे, अर्थात् अपराधी दुष्टों पर अपराध की घोषणा करके उनको वध करे । अथवा उनकी खाल (मुख आदि को) काला करके, अपमानित करके दण्ड दे । और ( विश्वं ) सब प्रकार के ( ततृषाणम् ) मारने वाले शत्रु या प्रजा के धनादि की तृष्णा से लोलुप पुरुष को सूखे काष्ठ की अग्नि के ( न ) समान ( दक्षत् ) जला दे, दग्ध कर समूल नाश करे और ( अर्शसानम् ) इस प्रकार समीप आये, और प्रजा और अपनी सेना को मारते हुए शत्रुगण को भी ( नि ओषति ) सर्वथा भस्म ही कर दे ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    १–१० परुच्छेप ऋषिः ॥ इन्द्रो देवता । छन्दः– १, ५ भुरिगष्टिः । २, ३, ६, ९ स्वराडष्टिः । ४, ८, अष्टिः । ७ निचृदत्यष्टिः । १० विराट् त्रिष्टुप् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात उपमा व वाचकलुप्तोपमालंकार आहेत. माणसांनी श्रेष्ठ गुण, कर्म स्वभावाचा स्वीकार करून दुष्टांच्या गुण, कर्म, स्वभावाचा त्याग करून श्रेष्ठांचे रक्षण व दुष्टांचे ताडन करून धर्मानुसार राज्य चालवावे. ॥ ८ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Indra, ruler of the world, master of a hundred modes and means of protection and promotion, should protect and advance the noble and creative yajamana in all the projects of public good, in all the programmes of heavenly light for the man of thought and pious intention and action. Let him correct and control the forces of indiscipline and lawlessness, overthrow the earth’s cover of darkness, and like the generous benefactor enlighten all the seekers thirsting for light and knowledge and cauterise all the festering wounds of humanity.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    How should men be is taught further in the eighth Mantra.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    A wealthy King who has hundreds of means of protection, always protects a man of noble virtues, actions and temperament who is also giver of fearlessness to all good persons in all conflicts and battles that arise from time to time. For the protection of a thoughtful righteous person, he punishes the wicked thieves and robbers who are without the observance of vows or are neglectors of religious duties and he makes the skin of aggressor scrapped or torn off. The leader of good men destroys such wicked persons as the fire burns articles put into it or creates heat for a thirsty person. Such a man only deserves to be the ruler of Vast Government or empire.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (यजमानम्) अभयस्य दातारम् = Giver of fearlessness. (मनवे) मननशीलधार्मिकमनुष्यरक्षणाय = For the protection of a thoughtful righteous person. (ओषति) दहेत = Burns.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    There is Upamalankara or simile used in the Mantra. Men should govern a State righteously by accepting noble virtues, actions and temperament and by giving up the evil nature, actions and temperament of the wicked, by protecting the noble and punishing the ignoble wicked persons.

    Translator's Notes

    यजमान is from यज-देवपूजा संगतिकरणादानेषु here Rishi Dayananda Sarasvati has taken the third meaning of दान or giving ओषति is from उष-दाहे

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