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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 130 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 130/ मन्त्र 9
    ऋषिः - परुच्छेपो दैवोदासिः देवता - इन्द्र: छन्दः - स्वराडष्टिः स्वरः - मध्यमः

    सूर॑श्च॒क्रं प्र बृ॒हज्जा॒त ओज॑सा प्रपि॒त्वे वाच॑मरु॒णो मु॑षायतीशा॒न आ मु॑षायति। उ॒शना॒ यत्प॑रा॒वतोऽज॑गन्नू॒तये॑ कवे। सु॒म्नानि॒ विश्वा॒ मनु॑षेव तु॒र्वणि॒रहा॒ विश्वे॑व तु॒र्वणि॑: ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सूरः॑ । च॒क्रम् । प्र । वृ॒ह॒त् । जा॒तः । ओज॑सा । प्र । पि॒त्वे । वाच॑म् । अ॒रु॒णः । मु॒षा॒य॒ति॒ । ई॒शा॒नः । आ । मु॒षा॒य॒ति॒ । उ॒शना॑ । यत् । प॒रा॒ऽवतः॑ । अज॑गन् । ऊ॒तये॑ । क॒वे॒ । सु॒म्नानि॑ । विश्वा॑ । मनु॑षाऽइव । तु॒र्वणिः । अहा॑ । विश्वा॑ऽइव । तु॒र्वणिः॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    सूरश्चक्रं प्र बृहज्जात ओजसा प्रपित्वे वाचमरुणो मुषायतीशान आ मुषायति। उशना यत्परावतोऽजगन्नूतये कवे। सुम्नानि विश्वा मनुषेव तुर्वणिरहा विश्वेव तुर्वणि: ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सूरः। चक्रम्। प्र। बृहत्। जातः। ओजसा। प्र। पित्वे। वाचम्। अरुणः। मुषायति। ईशानः। आ। मुषायति। उशना। यत्। पराऽवतः। अजगन्। ऊतये। कवे। सुम्नानि। विश्वा। मनुषाऽइव। तुर्वणिः। अहा। विश्वाऽइव। तुर्वणिः ॥ १.१३०.९

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 130; मन्त्र » 9
    अष्टक » 2; अध्याय » 1; वर्ग » 19; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनर्विद्वद्भिरत्र कथं भवितव्यमित्याह ।

    अन्वयः

    हे कवे यद्य ओजसाऽरुणस्तुर्वणिर्जातः सूरो विश्वेवाहा प्रपित्वे बृहच्चक्रं प्रजनयतीव तुर्वणिर्मनुषेव विश्वा सुम्नानि वाचमाजनयतु मुषायतीव वेशान उशना भवानूतये परावतोऽजगन् दुष्टान् मुषायति स सर्वैः सत्कर्त्तव्यः ॥ ९ ॥

    पदार्थः

    (सूरः) सूर्यः (चक्रम्) चक्रवद्वर्त्तमानं जगत् पृथिव्यादिकम् (प्र) (बृहत्) (जातः) प्रकटः सन् (ओजसा) स्वबलेन (प्रपित्वे) उत्तरस्मिन् (वाचम्) (अरुणः) रक्तवर्णः (मुषायति) मुषः खण्डक इवाचरति (ईशानः) शक्तिमान् सन् (आ) (मुषायति) (उशना) (यत्) यः (परावतः) दूरतः (अजगन्) गच्छेत्। अत्र लङि तिपि बहुलं छन्दसीति शपः श्लुः, मो नो धातोरिति मस्य नः। (ऊतये) रक्षणाद्याय (कवे) विद्वन् (सुम्नानि) सुखानि (विश्वा) सर्वाणि (मनुषेव) मनुष्यवत् (तुर्वणिः) हिंसकः (अहा) दिनानि (विश्वेव) यथा सर्वाणि (तुर्वणिः) हिंसन् ॥ ९ ॥

    भावार्थः

    अत्रोपमावाचकलुप्तोपमालङ्कारौ। ये सूर्यवद्विद्याविनयधर्मप्रकाशकाः सर्वेषामुन्नतये प्रयतन्ते ते स्वयमप्युन्नता भवन्ति ॥ ९ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर इस संसार में विद्वानों को कैसा होना चाहिये, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

    पदार्थ

    हे (कवे) विद्वान् ! (यत्) जो (ओजसा) अपने बल से (अरुणः) लालरङ्ग युक्त (तुर्वणिः) मेघ को छिन्न-भिन्न करता और (जातः) प्रकट होता हुआ (सूरः) सूर्य्यमण्डल जैसे (विश्वेवाहा) सब दिनों को वा (प्रपित्वे) उत्तमगण से (बृहत्) महान् (चक्रम्) चाक के समान वर्त्तमान जगत् को (प्र) प्रकट करता वैसे और (तुर्वणिः) दुष्टों की हिंसा करनेवाले उत्तमोत्तम (मनुषेव) मनुष्य के समान (विश्वा) समस्त (सुम्नानि) सुखों और (वाचम्) वाणी को (आ) अच्छे प्रकार प्रकट करें वा सूर्य जैसे (मुषायति) खण्डन करनेवाले के समान आचरण करता वैसे (ईशानः) समर्थ होते हुए (उशना) विद्यादि गुणों से कान्तियुक्त आप (ऊतये) रक्षा आदि व्यवहार के लिये (परावतः) परे अर्थात् दूर से (अजगत्) प्राप्त हों और दुष्टों को (मुषायति) खण्ड-खण्ड करें, सो सबको सत्कार करने योग्य हैं ॥ ९ ॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में उपमा और वाचकलुप्तोपमालङ्कार हैं। जो सूर्य के तुल्य विद्या, विनय और धर्म का प्रकाश करनेवाले सबकी उन्नति के लिये अच्छा यत्न करते हैं, वे आप भी उन्नतियुक्त होते हैं ॥ ९ ॥

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    विषय

    कागती ज्ञानी का कर्तव्यभार-वहन

    पदार्थ

    १. (सूरः) = सूर्य के समान ज्ञान के प्रकाश से चमकनेवाला ज्ञानी पुरुष (चक्रम्) = दैनिक कर्तव्यचक्र को नियमित गति से होनेवाले अपने कार्यक्रम को (प्रवृहत्) = [वृह उद्यमने] उठानेवाला होता है, कर्तव्यकर्मों को नियमपूर्वक निभाता है । इन कर्तव्यकर्मों को करता हुआ (प्रपित्वे) = उस प्रभु की समीपता में, उस प्रभु की उपासना में (ओजसा) = ओज से (जातः) = प्रादुर्भूत शक्तिवाला होता है । प्रभु की उपासना से प्रभु की शक्ति का प्रवाह उपासक के अन्दर होता है और वह प्रभु की शक्ति से सम्पन्न होकर प्रभु - जैसा ही प्रतीत होने लगता है । २. (अरुणः) = तेजस्वी बना हुआ यह पुरुष (वाचम्) = वाणी को (मुषायति) = मुषित करनेवाला होता है, अर्थात् मौनव्रत धारण करता है । (ईशानः) = इन्द्रियों का शासक बनता हुआ (आ) = सब ओर से (मुषायति) = इन इन्द्रियों को सब ओर से मुषित करनेवाला होता है [मुष् - free from] । इन इन्द्रियों को विषय-वासनाओं से मुक्त कर लेता है । ३. कवे हे सर्वज्ञ प्रभो! (उशनाः) = इस जितेन्द्रिय के हित की कामनावाले आप (यत् परावतः) = जो दूर-से-दूर देश में भी होते हैं तो (ऊतये अजगन्) = इसके रक्षण के लिए आते हैं । इस जितेन्द्रिय पुरुष का रक्षण प्रभु का प्रमुख कार्य होता है । प्रभु सर्वव्यापक हैं, अतः उनके दूर होने का प्रश्न ही पैदा नहीं होता । यहाँ 'परावतः' शब्द केवल इस दृष्टिकोण से प्रयुक्त हुआ है कि अन्य सब कार्यों को छोड़कर वे प्रभु इस जितेन्द्रिय पुरुष के रक्षण को प्रमुखता देते हैं । आप (मनुषा इव) = जिस प्रकार विचारशील पुरुष के साथ इसी प्रकार इस जितेन्द्रिय के साथ (विश्वा सुम्नानि) = सम्पूर्ण धनों के (तुर्वणिः) = शीघ्रता से सम्भक्त करनेवाले होते हैं । (विश्वा इव अहा) = सभी दिनों में (तुर्वणिः) = इसके लिए धनों को प्राप्त कराते हैं, अथवा शीघ्रता से इसके शत्रुओं को पराजित करनेवाले होते हैं ।

    भावार्थ

    भावार्थ - ज्ञानी पुरुष कर्तव्यकों को नियम से निभाता है, प्रभु की उपासना से शक्तिशाली बनता है, इन्द्रियों को वश में करता है, प्रभु से रक्षणीय होता है । प्रभु इसे आवश्यक धन देते हैं ।

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    विषय

    अभिषिक्त राजा विद्वान्, और सभापति सेनापति के कर्त्तव्य ।

    भावार्थ

    ( सूरः ) जिस प्रकार सूर्य ( ओजसा ) अपने बड़े भारी बल से और तेज से ( जातः ) प्रकट हो कर ( चक्रम् ) ग्रह चक्र को ( प्र वृहत् ) अच्छी प्रकार धारण कर रहा है । उसी प्रकार ( सूरः ) सब को नियम में चलाने वाला तेजस्वी राजा अपने ( ओजसा ) बल पराक्रम और प्रभाव से ही ( चक्रम् ) समस्त राष्ट्र चक्र को ( प्र वृहत् ) अच्छी प्रकार उठावे, धारण करे । ( अरुणः ) तेजस्वी सूर्य जिस प्रकार ( प्रपित्वे ) समीप प्राप्त देश में ( मुषायति ) अन्धकार को खण्ड खण्ड करता, या जलों को अति सूक्ष्म कण कर कर के हर लेता है उसी प्रकार ( अरुणः ) तेजस्वी राजा लाल राजकीय पोषाक पहन कर ( प्रपित्वे ) समीप प्राप्त होने पर सब की ( वाचम् ) वाणी को हर ले अर्थात् उसके सामने आतंक से किसी को कुछ कहने का साहस न रहे। वह ( ईशानः ) सबका स्वामी, सब का शक्तिशाली शासक होकर ( आ मुषायति ) शत्रुकों का सर्वस्व हरे और प्रजाजन से कर आदि ऐश्वर्य खण्ड खण्ड कर के, थोड़ा २ करके ले ।

    टिप्पणी

    प्रजानामेव भूत्यर्थं स ताभ्यो बलिमग्रहीत् । सहस्रगुणमुत्स्रष्टुमादत्ते हि रसं रविः ॥ रघु० ॥ हे ( कवे ) क्रान्तप्रज्ञ ! विद्वान् ! मेधाविन् ! ( उशनाः ) क्रान्तिमान् सूर्य जिस प्रकार ( परावतः ऊतये अजगन् ) दूर आकाश से भी प्रकाश करने के लिये पृथ्वी, या दूर दूर तक के लोकों तक पहुंचता है उसी प्रकार ( उशनाः ) सब प्रजाओं को चाहने वाला, और तेजस्वी पुरुष भी ( ऊतये ) प्रजाओं की रक्षा करने के लिये ( परावतः ) दूर दूर के देशों तक भी ( अजगन् ) जावे । और ( तुर्वणिः ) अति वेग से जाने वाला अन्धकार नाशक प्रकाश जिस प्रकार समस्त सुखों को देता और ( विश्वा इव अहा तुर्वणिः ) सभी दिनों वैसा ही क्षिप्रकारी और अन्धकार का नाशक बना रहता है उसी प्रकार (तुर्वणिः) अतिक्षिप्रकारी और शत्रु नाशक और धनों का शीघ्र विभाग करने हारा राजा भी ( मनुषा इव ) विचारशील पुरुषों के समान ( सुम्नानि ) समस्त सुखकारी ऐश्वर्यों को भी विभक्त करे और ( विश्वा इव अहा ) सब दिनों ही ( तुर्वणिः ) वैसा ही क्षिप्रकारी, शत्रु नाशक और धनैश्वर्य का विभाजक बना रहे ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    १–१० परुच्छेप ऋषिः ॥ इन्द्रो देवता । छन्दः– १, ५ भुरिगष्टिः । २, ३, ६, ९ स्वराडष्टिः । ४, ८, अष्टिः । ७ निचृदत्यष्टिः । १० विराट् त्रिष्टुप् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात उपमा व वाचकलुप्तोपमालंकार आहेत. जे सूर्याप्रमाणे विद्या, विनय व धर्माचा प्रकाश करणारे असून सर्वांच्या उन्नतीसाठी चांगला प्रयत्न करतात. ते स्वतःचीही उन्नती करून घेतात. ॥ ९ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Indra, the sun, lord of crimson glory, rising from the vast spaces lights up the mighty wheel of the world, ravishes the imagination with its refulgence and inspires human speech to silence in adoration, and, ruling the world specially at the advance of the day and more in the northern solstice, it inspires as well as silences the speech with awe. O Poet divine, inspired with light, love and brilliance, come here on the earth from afar like a man divine, fast and faster, generous, all days every hour, and bring us the wealth and joys of the world for the protection and advancement of humanity.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    How should learned men be in this world is told in the Ninth Mantra.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O wise and learned person, thou art worthy of being honored by all men, as thou art like the sun who being of ruddy hue and destroyer of darkness upholds the grand world moving like a wheel with great might, particularly in the Uttarayana (Northern Solstice) Thou art like a mighty man who bestows happiness upon good people & utters noble words. Thou being mighty deprivest of existence wicked persons, being for ever their destroyer. Thou desprivest the ignoble robbers of their existence. Desiring the welfare of all good persons, thou comest from afar.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (चक्रम् ) चक्रवद् वर्तमानं जगत् पृथिव्यादिकम् = The world consisting of the earth etc. moving like a wheel. (तुर्वणि:) हिंसक: = Destroyer of evil doers and the wicked. तुर्वी-हिसायाम् भ्वा० Tr.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    Those persons who are manifesters of knowledge, humility and righteousness like the Sun, become exalted and great.

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