ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 143/ मन्त्र 2
स जाय॑मानः पर॒मे व्यो॑मन्या॒विर॒ग्निर॑भवन्मात॒रिश्व॑ने। अ॒स्य क्रत्वा॑ समिधा॒नस्य॑ म॒ज्मना॒ प्र द्यावा॑ शो॒चिः पृ॑थि॒वी अ॑रोचयत् ॥
स्वर सहित पद पाठसः । जाय॑मानः । प॒र॒मे । विऽओ॑मनि । आ॒विः । अ॒ग्निः । अ॒भ॒व॒त् । मा॒त॒रिश्व॑ने । अ॒स्य । क्रत्वा॑ । स॒म्ऽइ॒धा॒नस्य॑ । म॒ज्मना॑ । प्र । द्यावा॑ । शो॒चिः । पृ॒थि॒वी इति॑ । अ॒रो॒च॒य॒त् ॥
स्वर रहित मन्त्र
स जायमानः परमे व्योमन्याविरग्निरभवन्मातरिश्वने। अस्य क्रत्वा समिधानस्य मज्मना प्र द्यावा शोचिः पृथिवी अरोचयत् ॥
स्वर रहित पद पाठसः। जायमानः। परमे। विऽओमनि। आविः। अग्निः। अभवत्। मातरिश्वने। अस्य। क्रत्वा। सम्ऽइधानस्य। मज्मना। प्र। द्यावा। शोचिः। पृथिवी इति। अरोचयत् ॥ १.१४३.२
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 143; मन्त्र » 2
अष्टक » 2; अध्याय » 2; वर्ग » 12; मन्त्र » 2
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अष्टक » 2; अध्याय » 2; वर्ग » 12; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
अथेश्वरविषयमाह ।
अन्वयः
यो मातरिश्वनेऽग्निरिव परमे व्योमनि जायमानो न आविरभवत्। तस्यास्य समिधानस्य जनस्य शोचिः क्रत्वा मज्मना च द्यावा पृथिवी प्रारोचयत्, स सर्वेषां कल्याणकारी जायते ॥ २ ॥
पदार्थः
(सः) अधीयानः (जायमानः) उत्पद्यमानः (परमे) प्रकृष्टे (व्योमनि) व्योमवद्व्यापके सर्वरक्षादिगुणान्विते ब्रह्मणि (आविः) प्राकट्ये (अग्निः) पावक इव (अभवत्) भवेत् (मातरिश्वने) अन्तरिक्षस्थाय वायवे (अस्य) (क्रत्वा) प्रज्ञया कर्मणा वा (समिधानस्य) सम्यक् प्रदीप्तस्य (मज्मना) बलेन (प्र) (द्यावा) (शोचिः) पवित्रः (पृथिवी) (अरोचयत्) प्रकाशयेत् ॥ २ ॥
भावार्थः
यदि विद्वांसो विद्यार्थिनः प्रयत्नेन सुविद्यासुशिक्षाधर्मयुक्तान् कुर्युस्तर्हि सर्वदा कल्याणभाजो भवेयुः ॥ २ ॥
हिन्दी (4)
विषय
अब ईश्वरविषय अगले मन्त्र में कहते हैं ।
पदार्थ
जो (मातरिश्वने) अन्तरिक्षस्थ वायु के लिये (अग्निः) अग्नि के समान (परमे) उत्तम (व्योमनि) आकाश के तुल्य सबमें व्याप्त सबकी रक्षा करने आदि गुणों से युक्त ब्रह्म में (जायमानः) उत्पन्न हुआ हम लोगों के लिये (आविः) प्रकट (अभवत्) होवे, उस (अस्य) प्रत्यक्ष (समिधानस्य) उत्तमता से प्रकाशमान जन का (शोचिः) पवित्रभाव (क्रत्वा) प्रज्ञा और कर्म वा (मज्मना) बल के साथ (द्यावा, पृथिवी) अन्तरिक्ष और पृथिवी को (प्रारोचयत्) प्रकाशित करावे, (सः) वह पढ़ा हुआ जन सबका कल्याणकारी होता है ॥ २ ॥
भावार्थ
जो विद्वान् लोग विद्यार्थियों को प्रयत्न के साथ विद्या, अच्छी शिक्षा और धर्म नीतियुक्त करें तो वे सर्वदैव कल्याण का सेवन करनेवाले होवें ॥ २ ॥
विषय
पवित्रता व प्रकाश
पदार्थ
१. गतमन्त्र के अनुसार धीति व मति के यज्ञादि कर्मों व स्तवन के करने पर (सः) = वह (अग्निः) = अग्रणी प्रभु (जायमानः) = प्रादुर्भूत होते हुए (मातरिश्वने) = प्राणसाधना करनेवाले पुरुष के लिए अथवा [मातरिश्वा फलस्य निर्मातरि यज्ञे श्वसिति यजमानः सा०] यज्ञशील पुरुष के लिए (परमे व्योमनि) = हृदयरूप परमाकाश में (आविः अभवत्) = प्रकट होते हैं। यह मातरिश्वा अपने हृदय में प्रभु का साक्षात् करता है। २. (समिधानस्य) = दीप्त होते हुए अस्य इस प्रभु के (क्रत्वा) = [Enlightenment] प्रकाश से तथा मज्मना [बलनाम- नि०] शक्ति से उत्पन्न हुई-हुई (शोचि:) = पवित्रता व प्रकाश द्यावापृथिवी मस्तिष्क व शरीर को प्र अरोचयत् खूब ही दीप्त कर देते हैं। मस्तिष्क ज्ञान के प्रकाश से चमक उठता है और शरीर पवित्र होकर स्वस्थ हो जाता है।
भावार्थ
भावार्थ - प्रभु का आविर्भाव हमारे मस्तिष्क व शरीर को दीप्त करनेवाला होता है।
विषय
विद्यार्थी शिष्यों के कर्त्तव्य ।
भावार्थ
( अग्निः मातरिश्वने ) प्रकाशमान सूर्य जिस प्रकार मातरिश्वा अर्थात् वायु को गति देने के लिये ( परमे व्योमनि ) बड़े आकाश में उदय को प्राप्त होता है और अपने प्रकाश से आकाश और पृथिवी को चमका देता है। और जिस प्रकार ( अग्निः जायमानः मातरिश्वने ) जिस प्रकार भौतिक अग्नि वायु के वेग बढ़ाने के लिये होता है और उस भड़कते हुए अग्नि की ज्याला भूमि और आकाश दोनों को चमका देती है उसी प्रकार ( सः ) वह (अग्निः) ज्ञानवान् विनयशील विद्यार्थी ( मातरिश्वने ) सावित्री माता के पद पर चलने वाले, माता के समान अपने गर्भ में बालक को लेने हारे आचार्य के यशो वृद्धि और हर्ष के लिये ही ( परमे ) सब से उत्कृष्ट ( वि-ओमनि ) विशेष रक्षा करने वाले एवं विशेष रूप से पालने योग्य ‘ओ३म्’ पर ब्रह्म की शरण में और ब्रह्म अर्थात् वेद ज्ञान में ( जायमानः ) उत्पन्न होता हुआ ( आविः अभवन् ) अपने उत्तम गुणों से प्रकट हो । ( समिधानस्य ) तेज से चमकने हारे ( क्रत्वा ) इसके उत्तम प्रज्ञा और कर्म सामर्थ्य से और ( मज्मना ) बल से ( अस्यशोचि ) उसका तेज और प्रभाव ( द्यावा पृथिवी ) आकाश और पृथिवी के समान माता और पिता दोनों को ( प्रअरोचयत् ) प्रकाशित कर दे । दोनों के नाम उज्ज्वल कर दे ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
दीर्घतमा ऋषिः ॥ अग्निर्देवता ॥ छन्दः– १, ७ निचृज्जगती । २, ३, ५, विराङ्जगती । ४, ६ जगती । ८ निचृत् त्रिष्टुप् ॥ अष्टर्चं सूक्तम् ॥
मन्त्रार्थ
(परमे व्योमनि) लोकक्रम में “इमे वै लोकाः परमं व्योम" (शत० ७।५।२।१८) (सः-जायमानः) वह उत्पन्न मातरिश्वने-अग्निः-आविः अभवत्) वायु के लिये- वायु के -साथ सहभाव के लिये विना वायु के अग्नि नहीं प्रज्वलित होती है। अतः अनि प्रकट होता है । "क्रतु कर्म" (नि० २।१) (क्रत्वा मज्मना) कर्म "मज्म बलम्" (निघ० २।९) तथा बल से (अस्य समिधानस्य) इस दीप्त अग्नि को (शोचिः) प्रकाश (द्यावापृथिवी) द्युलोक पृथिवीलोक को (अरोचयत्) प्रकाशित करता है ॥२॥
विशेष
ऋषिः - दीर्घतमाः (आयु-जीवन का "आयुर्वेदीर्घम् " [तां० १३७ ११।१२] चाहने वाला “तमु कांक्षायाम्" [दिबा०]) देवता - अग्निः ( सर्वत्र लोकों में प्रकाशमान अग्नि)
मराठी (1)
भावार्थ
जे विद्वान विद्यार्थ्यांना प्रयत्नाने विद्या, चांगले शिक्षण देऊन धर्मनीतीयुक्त करतात ते सदैव कल्याण करतात. ॥ २ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
That refulgent Agni born of the highest cosmic space manifested itself in energy currents in the middle region of space in the skies. It is by the action and force of this blazing power that the heaven is lit bright and the earth shines on in beauty.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The virtues of a noble person defined.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
A learned man always feels presence of the Omnipresent God. He is the Protector of all, manifests His glory like fire blowing in face of air with radiance. Such an enlightened person kindled by incessant efforts and knowledge illuminates the heaven and the earth. Such a man becomes the benefactor of all.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
If good teachers impart good education, wisdom (righteousness), they always feel satisfied and happy.
Foot Notes
(व्योमनि ) व्योमवद् व्यापके सर्वरक्षादि गुणान्विते ब्रह्मणि = In God who is Omnipresent like the sky and the Protector of the world. ( मातरिश्वने) अंतिरक्षस्य वायवे = In the air, in the firmament. ( मज्मनः) वलेन = With strength or vigour.
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