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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 143 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 143/ मन्त्र 6
    ऋषिः - दीर्घतमा औचथ्यः देवता - अग्निः छन्दः - जगती स्वरः - निषादः

    कु॒विन्नो॑ अ॒ग्निरु॒चथ॑स्य॒ वीरस॒द्वसु॑ष्कु॒विद्वसु॑भि॒: काम॑मा॒वर॑त्। चो॒दः कु॒वित्तु॑तु॒ज्यात्सा॒तये॒ धिय॒: शुचि॑प्रतीकं॒ तम॒या धि॒या गृ॑णे ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    कु॒वित् । नः॒ । अ॒ग्निः । उ॒चथ॑स्य । वीः । अस॑त् । वसुः॑ । कु॒वित् । वसु॑ऽभिः । काम॑म् । आ॒ऽवर॑त् । चो॒दः । कु॒वित् । तु॒तु॒ज्यात् । सा॒तये॑ । धियः॑ । शुचि॑ऽप्रतीकम् । तम् । अ॒या । धि॒या । गृ॒णे॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    कुविन्नो अग्निरुचथस्य वीरसद्वसुष्कुविद्वसुभि: काममावरत्। चोदः कुवित्तुतुज्यात्सातये धिय: शुचिप्रतीकं तमया धिया गृणे ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    कुवित्। नः। अग्निः। उचथस्य। वीः। असत्। वसुः। कुवित्। वसुऽभिः। कामम्। आऽवरत्। चोदः। कुवित्। तुतुज्यात्। सातये। धियः। शुचिऽप्रतीकम्। तम्। अया। धिया। गृणे ॥ १.१४३.६

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 143; मन्त्र » 6
    अष्टक » 2; अध्याय » 2; वर्ग » 12; मन्त्र » 6
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह ।

    अन्वयः

    यः कुविदग्निर्न उचथस्य वीरसद्वसुभिस्सह कुविद्वसुः काममावरत्सातये कुविच्चोदो धियस्तुतुज्यात् तं शुचिप्रतीकमया धियाऽहं गृणे ॥ ६ ॥

    पदार्थः

    (कुवित्) महान् (नः) अस्मभ्यम् (अग्निः) विद्युदादिस्वरूपः (उचथस्य) उचितस्य (वीः) व्यापकः (असत्) भवेत् (वसुः) वासयिता (कुवित्) महान् (वसुभिः) वासयितृभिः (कामम्) (आवरत्) आवृणुयात् (चोदः) चुद्यात् प्रेरयेत् (कुवित्) महान् (तुतुज्यात्) बलयेत् (सातये) विभागाय (धियः) प्रज्ञाः (शुचिप्रतीकम्) (तम्) (अया) अनया। अत्र वाच्छन्दसीत्येकारादेशाभावः। (धिया) प्रज्ञया कर्मणा वा (गृणे) स्तौमि ॥ ६ ॥

    भावार्थः

    ये विद्युद्वदुचितकामप्रापका बुद्धिबलप्रदायका महान्तो विद्वांसः स्वबुद्ध्या सर्वाञ्जनान् विदुषः कुर्वन्ति तान् सर्वे प्रशंसन्तु ॥ ६ ॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

    पदार्थ

    जो (कुवित्) बड़ा (अग्निः) बिजुली आदि रूपवाला अग्निः (नः) हमारे लिये (उचथस्य) उचित पदार्थ का (वीः) व्यापक (असत्) हो वा (वसुभिः) वसानेवालों के साथ (कुवित्) बड़ा (वसुः) वसानेवाला (कामम्) काम को (आवरत्) भली भाँति स्वीकार करे वा (सातये) विभाग के लिये (कुवित्) बड़ा प्रशंसित जन (चोदः) प्रेरणा दे वा (धियः) बुद्धियों को (तुतुज्यात्) बलवती करे (तम्) उस (शुचिप्रतीकम्) पवित्र प्रतीति देनेवाले जन की (अया) इस (धिया) बुद्धि वा कर्म से (गृणे) मैं स्तुति करता हूँ ॥ ६ ॥

    भावार्थ

    जो बिजुली के समान उचित काम प्राप्त कराने और बुद्धि बल अत्यन्त देनेवाले बड़े प्रशंसित विद्वान् अपनी बुद्धि से सब मनुष्यों को विद्वान् करते हैं, उनकी सब लोग प्रशंसा करें ॥ ६ ॥

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    विषय

    बुद्धिप्रदाता प्रभु

    पदार्थ

    १. वह (अग्निः) = अग्रणी प्रभु (नः उचथस्य) = हमसे उच्चारित होनेवाले स्तोत्र की (कुवित्) = खूब ही (वी:) = कामना करनेवाले (असत्) = हों। हमारे द्वारा किये गये स्तोत्र प्रभु को प्रिय हों। २. (वसुः) = वे सबको निवास देनेवाले प्रभु (कुवित्) = खूब ही (वसुभिः) = वसुओं के द्वारा-आवश्यक धनों के द्वारा (कामम् आवरत्) = हमारी कामना को आच्छादित कर दें, अर्थात् कामना से अधिक ही धन-धान्य प्राप्त करानेवाले हों। ३. (चोदः) = सदा धर्म की प्रेरणा देनेवाले वे प्रभु (धियः सातये) = बुद्धियों की प्राप्ति के लिए (कुवित् तुतुज्यात्) = खूब ही प्रेरणा दें। प्रभु की प्रेरणा से हमें सदा सद्बुद्धि प्राप्त हो। ४. (तं शुचिप्रतीकम्) = उस दीप्त रूपवाले [दीत अङ्गोंवाले] प्रभु को अया धिया इस बुद्धि से (गृणे) = मैं स्तुत करता हूँ। बुद्धि के द्वारा प्रभु का स्तवन करता हूँ, अर्थभावनपूर्वक प्रभु के स्तोत्रों का उच्चारण करता हूँ।

    भावार्थ

    भावार्थ- मेरे स्तोत्र प्रभु को प्रिय हों। प्रभु मुझे वसु प्राप्त कराएँ, हमारी बुद्धियों को प्रेरणा दें। हम बुद्धि से प्रभु का स्तवन करें।

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    विषय

    तपस्वी विद्यार्थी का कर्त्तव्य ।

    भावार्थ

    (अग्निः) विनीत विद्यार्थी (नः) हमारे ( कुवित् उचथस्य ) बहुत से उत्तम वचनों या आज्ञा वचन का ( वीः असत् ) पालक और प्राप्त करने का इच्छुक हो । वह ( वसुः ) गुरुओं के अधीन रहकर ( वसुभिः ) अन्य अन्तेवासी सहाध्यायी, विद्यार्थी, ब्रह्मचारी गण के साथ ( कामम् ) अपने अभिलाषा करने योग्य ज्ञान को ( आ अवरत् ) प्राप्त करे । अथवा ( कामम् आ अवरत् ) काम वेग को दूर करे । वह ( चोदः ) आचार्य द्वारा नित्य प्रेरित होकर ( धियः सातये ) ज्ञान और कर्म या आचार शिक्षाओं को प्राप्त करने के लिये ( कुवित् ) बहुत अधिक ( तुतुज्यात् ) बाधक कारणों को नाश करे, ब्रह्मचर्य व्रत पालन करे, और पढ़े। और तब ( तम् ) उस ( शुचिप्रतीकम् ) शुद्ध पवित्र स्वरूप वाले शोभन मुख, सौम्य शिष्य को आचार्य ( अया धिया ) इस प्रज्ञा और कर्म से ( गृणे ) उपदेश करे ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    दीर्घतमा ऋषिः ॥ अग्निर्देवता ॥ छन्दः– १, ७ निचृज्जगती । २, ३, ५, विराङ्जगती । ४, ६ जगती । ८ निचृत् त्रिष्टुप् ॥ अष्टर्चं सूक्तम् ॥

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    मन्त्रार्थ

    (अग्निः-नः-उचथस्य कुवित्-वी:-असत्) अग्नि हमारे कथन योग्य विज्ञान का अतीव ग्रहणकर्त्ता- ग्रहण योग्य हो (वसुः-वसुभिः कुवित्-कामम्-आवरत्) वसानेवाला अग्नि कुवित्-कामम्-आवरत्) अपने न नसानेवाले प्रकाश धर्मों से बहुत कमनीय को ले आवे (चोद: सातये कुवित्-धियःऽतुतुज्यात्) प्रेरक अग्नि हमारी सम्भजन-सुखप्राप्ति के लिये बुद्धियों को बहुत बल देने "तुज हिंसाबलादान-निकेतनेषु" (चुरादि०) (तं शुचिप्रतीकम्या धिया गृणे) उस दीप्त ज्वाला वाले अग्नि को इस कर्मप्रदीपन करने के लिये बुद्धि से प्रशंसित करता हूँ ॥६॥

    विशेष

    ऋषिः - दीर्घतमाः (आयु-जीवन का "आयुर्वेदीर्घम् " [तां० १३७ ११।१२] चाहने वाला “तमु कांक्षायाम्" [दिबा०]) देवता - अग्निः ( सर्वत्र लोकों में प्रकाशमान अग्नि)

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जे विद्युतप्रमाणे योग्य काम प्राप्त करविणारे व अत्यंत बुद्धी बल देणारे, मोठे प्रशंसित विद्वान आपल्या बुद्धीने सर्व माणसांना विद्वान करतात, त्यांची प्रशंसा सर्व लोकांनी करावी. ॥ ६ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    May Agni, lord of light and power, expand and heighten our song of praise and celebration. May the brilliant power, great and beneficent, accord, approve and accomplish our desire and ambition with comforts and well-being in life. Great inspirer is Agni. May the power sharpen and activate our mind and intellect to create new things with acquisition of success and victories. With the same mind and intellect we praise and celebrate the grandeur of Agni, mighty, versatile, brilliant, blazing and pure of form and action.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    "We should admire sincere learned persons.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    I glorify the learned leader with my intellect and action because he possesses pure wisdom. Like fire (electricity), he promotes all desirable virtues and good qualities, and fulfils our noble desires with the help of other persons observing Brahmacharya (restraint on senses). Such persons are capable to inspire our intellects, in order to inculcate the spirit of Yajna by distribution of wealth and knowledge among the needy. Indeed, it may strengthen us ever more.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    Let all of us admire the great scholars, because they are capable to fulfill all noble desires, and can make all learned with their teachings.

    Foot Notes

    ( कुविद् ) महान् = Great. (अग्नि:) विद्युदादिस्वरूपः = Fire in the form of electricity, etc. (तुतुज्यात) बाल्येत् = May strengthen.

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