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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 143 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 143/ मन्त्र 5
    ऋषिः - दीर्घतमा औचथ्यः देवता - अग्निः छन्दः - विराड्जगती स्वरः - निषादः

    न यो वरा॑य म॒रुता॑मिव स्व॒नः सेने॑व सृ॒ष्टा दि॒व्या यथा॒शनि॑:। अ॒ग्निर्जम्भै॑स्तिगि॒तैर॑त्ति॒ भर्व॑ति यो॒धो न शत्रू॒न्त्स वना॒ न्यृ॑ञ्जते ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    न । यः । वरा॑य । म॒रुता॑म्ऽइव । स्व॒नः । सेना॑ऽइव । सृ॒ष्टा । दि॒व्या । यथा॑ । अ॒शनिः॑ । अ॒ग्निः । जम्भैः॑ । ति॒गि॒तैः । अ॒त्ति॒ । भर्व॑ति । न । शत्रू॑न् । सः । वना॑ । नि । ऋ॒ञ्ज॒ते॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    न यो वराय मरुतामिव स्वनः सेनेव सृष्टा दिव्या यथाशनि:। अग्निर्जम्भैस्तिगितैरत्ति भर्वति योधो न शत्रून्त्स वना न्यृञ्जते ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    न। यः। वराय। मरुताम्ऽइव। स्वनः। सेनाऽइव। सृष्टा। दिव्या। यथा। अशनिः। अग्निः। जम्भैः। तिगितैः। अत्ति। भर्वति। न। शत्रून्। सः। वना। नि। ऋञ्जते ॥ १.१४३.५

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 143; मन्त्र » 5
    अष्टक » 2; अध्याय » 2; वर्ग » 12; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ विद्वद्विषयमाह ।

    अन्वयः

    योऽग्निर्मरुतामिव स्वनो वा सृष्टा सेनेव वा यथा दिव्याऽशनिस्तथा वराय न शक्यः स तिगितैर्जम्भैरत्ति योधो न शत्रून् भर्वति वना निऋञ्जते ॥ ५ ॥

    पदार्थः

    (न) निषेधे (यः) (वराय) स्वीकरणाय (मरुतामिव) यथा वायूनां विदुषां तथा (स्वनः) शब्दः (सेनेव) (सृष्टा) (दिव्या) दिवि कारणे वाय्वादिकार्ये च भवा (यथा) (अशनिः) विद्युत् (अग्निः) पावकः (जम्भैः) विस्फुरणैः (तिगितैः) तीक्ष्णैः (अत्ति) भक्षयति (भर्वति) हिनस्ति (योधः) प्रहर्त्ता (न) इव (शत्रून्) (सः) (वना) वनानि (नि) (ऋञ्जते) साध्नोति ॥ ५ ॥

    भावार्थः

    अत्रोपमालङ्कारः। प्रचण्डवायुना प्रेरितोऽग्निः शत्रुहिंसनमिव पदार्थान् दहति नासौ सहसा निवारणीय इति ॥ ५ ॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    अब विद्वान् के विषय में कहा है ।

    पदार्थ

    (यः) जो (अग्निः) आग (मरुतामिव) पवन वा विद्वानों के (स्वनः) शब्द के समान (सृष्टा, सेनेव) शत्रुदल में चक्रव्यूहादि रचना से रची हुई सेना के समान वा (यथा) जैसे (दिव्या) कारण वा वायु आदि कार्य द्रव्य में उत्पन्न हुई (अशनिः) बिजुली के वैसे (वराय) स्वीकार करने के लिये (न) नहीं हो सकता अर्थात् तेजी के कारण रुक नहीं सकता (सः) वह (तिगितैः) तीक्ष्ण (जम्भैः) स्फूर्तियों से (अत्ति) भक्षण करता अर्थात् लकड़ी आदि को खाता है (योधः) योधा के (न) समान (शत्रून्) शत्रुओं को (भर्वति) नष्ट करता अर्थात् धनुर्विद्या में प्रविष्ट किया हुआ शत्रुदल को भूँजता है और (वना) वनों को (नि, ऋञ्जते) निरन्तर सिद्ध करता है ॥ ५ ॥

    भावार्थ

    प्रचण्ड वायु से प्रेरित अति जलता हुआ अग्नि शत्रुओं को मारने के तुल्य पदार्थों को जलाता है, वह सहसा नहीं रुक सकता ॥ ५ ॥

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    विषय

    अदम्य शक्तिवाले प्रभु

    पदार्थ

    १. (यः) = जो (अग्निः) = अग्रणी प्रभु (वराय न) = निवारण के लिए नहीं होते, अर्थात् जिन्हें रोकना सम्भव नहीं होता, प्रभु को उसके कार्यों में कोई शक्ति रोक नहीं सकती। वे प्रभु उसी प्रकार निवारण के लिए नहीं होते (इव) = जैसे कि (मरुतां स्वनः) = प्रचण्ड वेग से बहती हुई वायुओं का शब्द अथवा (इव) = जैसे कि (सृष्टा) = आगे बढ़ने [Marching] के लिए आज्ञा की हुई सेना सेना अथवा (यथा) = जैसे (दिव्या) = अन्तरिक्ष लोक से गिरनेवाली (अशनिः) = विद्युत् । जैसे वायु के शब्द को, आगे बढ़ती हुई सेना को अथवा आकाश से गिरती हुई विद्युत् को कोई रोक नहीं सकता, उसी प्रकार उस अग्रणी प्रभु को भी किसी के लिए रोकना सम्भव नहीं । २. वह (अग्निः) = - अग्रणी प्रभु (तिगतैः जम्भैः) = अपने तीव्र दंष्ट्रों से-नाशक शक्तियों से (अत्ति) = हमारी सब वासनाओं को खा जाते हैं, (भर्वति) = आसुर वृत्तियों को हिंसित कर देते हैं। उसी प्रकार हिंसित कर देते हैं (न) = जैसे कि (योधः) = एक योद्धा शत्रून् अपने शत्रुओं को समाप्त कर देता है । ३. इस प्रकार हमारे वासनारूप शत्रुओं को शीर्ण करके (सः) = वे प्रभु (वना) = [वन सम्भजने] अपने उपासकों को (न्यृञ्जते) = नितरां प्रसाधित व अलंकृत करते हैं।

    भावार्थ

    भावार्थ - प्रभु की शक्तियाँ अदम्य हैं। वे हमारे वासनारूप शत्रुओं को समाप्त करके हमारे जीवनों को अलंकृत करते हैं।

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    विषय

    अग्निवत् तेजस्वी विद्वान् का कर्त्तव्य ।

    भावार्थ

    ( मरुताम् स्वनः ) तीव्र वेग वाले वायुओं का शब्द जिस प्रकार रोका नहीं जा सकता और ( सृष्टा सेना ) चक्रव्यूहादि से रची या सेनापति के आज्ञा वचन से प्रेरित होकर छूट निकली सेना जिस प्रकार फिर रोकी नहीं जा सकती और ( यथा अशनि ) जिस प्रकार मेघ से निकली विद्युत् रोके नहीं रुक सकती उसी प्रकार ( यः ) जो (अग्निः) अग्रणी नायक ( वराय न ) रोका नहीं जा सकता । ( योधः शत्रून् न ) योद्धा पुरुष जिस प्रकार शत्रुओं को ( तिगितैः भवति ) तीक्ष्ण शस्त्रों से नाश कर देता है और जिस प्रकार ( अग्निः वनानि ) अग्नि अपनी तीक्ष्ण ज्वालाओं से जंगलों को (अत्ति) भस्म कर देता है। उसी प्रकार (अग्निः) ज्ञानी विद्वान् पुरुष ( तिगितैः ) अपने तीक्ष्ण ( जम्मैः ) तपः साधनों से ( वनानि ) सेवने योग्य विलासों को ( भर्वति ) नाश करे और ( सः सत्रुन् नि ऋञ्जते ) काम, क्रोध, लोभ, मोह आदि अन्तः शत्रुओं को अपने वश करे ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    दीर्घतमा ऋषिः ॥ अग्निर्देवता ॥ छन्दः– १, ७ निचृज्जगती । २, ३, ५, विराङ्जगती । ४, ६ जगती । ८ निचृत् त्रिष्टुप् ॥ अष्टर्चं सूक्तम् ॥

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    मन्त्रार्थ

    (यः-वराय न) जो अग्नि वरने- भेलने के योग्य नहीं है (महतां स्वन:-इव) वायु-प्रवाहों के स्वन-झोंके सहित शब्द की भांति (सृष्टा सेना-इव) या शत्रुओं पर छोडी हुई सेना की भांति (यथा दिव्या-अशनिः) या जैसे आकाशीय विद्युत् (अग्निः-तिगितै-जम्भैः-अत्ति) अग्नि तीक्ष्ण ज्वालाओं से तृणादिक को खाता है (योधः-न शत्रून् भर्वति) योद्धा जेसे शत्रुओं की हिंसा करता है "भर्व हिंसायाम्" (भ्वादि०) ऐसे (सः-वना न्यृञ्जते) वह अग्नि वनो को पूर्णरूप से स्वायत्त करता है- दग्ध करता है ॥५॥

    विशेष

    ऋषिः - दीर्घतमाः (आयु-जीवन का "आयुर्वेदीर्घम् " [तां० १३७ ११।१२] चाहने वाला “तमु कांक्षायाम्" [दिबा०]) देवता - अग्निः ( सर्वत्र लोकों में प्रकाशमान अग्नि)

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    प्रचंड वायूने प्रेरित असलेले ज्वलनशील अग्नी शत्रूंचे हनन केल्याप्रमाणे पदार्थांना जाळतो, तो सहसा थांबत नाही. ॥ ५ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Agni is a mighty power which, like the roar of winds, like an awful force launched upon the enemy, is irresistible just like the thunderbolt of lightning in the sky. With its dreadful jaws, or crushing weapons, sharp and destructive, it eats up and destroys as a mighty warrior destroys the enemies, or as the conflagration bums up and reduces the forests to ash.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    'The knowledge of an enlightened person wards off ignorance.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    AGNI (Wild Fire) is like the roars of .of the winds, like the battle cries of warriors, like a victorious host like the lightning, and can not to be arrested. It enflames and destroys the material and wood in the forests, like brave warrior who annihilates the enemies.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    With a strong wind blown the fire burns the objects like a warrior who finishes his enemies. It not to be arrested easily.

    Foot Notes

    NOTES : ( मरुताम् इव) यथा वायूनां विदुषां तथा = Of the strong winds and learned persons. (भर्वति ) हिनस्ति । भर्वहिंसायाम् (धातुपाठ भ्वादि ) = Destroys.

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