Loading...
ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 143 के मन्त्र
1 2 3 4 5 6 7 8
मण्डल के आधार पर मन्त्र चुनें
अष्टक के आधार पर मन्त्र चुनें
  • ऋग्वेद का मुख्य पृष्ठ
  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 143/ मन्त्र 7
    ऋषिः - दीर्घतमा औचथ्यः देवता - अग्निः छन्दः - निचृज्जगती स्वरः - निषादः

    घृ॒तप्र॑तीकं व ऋ॒तस्य॑ धू॒र्षद॑म॒ग्निं मि॒त्रं न स॑मिधा॒न ऋ॑ञ्जते। इन्धा॑नो अ॒क्रो वि॒दथे॑षु॒ दीद्य॑च्छु॒क्रव॑र्णा॒मुदु॑ नो यंसते॒ धिय॑म् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    घृ॒तऽप्र॑तीकम् । वः॒ । ऋ॒तस्य॑ । धूः॒ऽसद॑म् । अ॒ग्निम् । मि॒त्रम् । न । स॒म्ऽइ॒धा॒नः । ऋ॒ञ्ज॒ते॒ । इन्धा॑नः । अ॒क्रः । वि॒दथे॑षु । दीद्य॑त् । शु॒क्रऽव॑र्णाम् । उत् । ऊँ॒ इति॑ । नः॒ । यं॒स॒ते॒ । धिय॑म् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    घृतप्रतीकं व ऋतस्य धूर्षदमग्निं मित्रं न समिधान ऋञ्जते। इन्धानो अक्रो विदथेषु दीद्यच्छुक्रवर्णामुदु नो यंसते धियम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    घृतऽप्रतीकम्। वः। ऋतस्य। धूःऽसदम्। अग्निम्। मित्रम्। न। सम्ऽइधानः। ऋञ्जते। इन्धानः। अक्रः। विदथेषु। दीद्यत्। शुक्रऽवर्णाम्। उत्। ऊँ इति। नः। यंसते। धियम् ॥ १.१४३.७

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 143; मन्त्र » 7
    अष्टक » 2; अध्याय » 2; वर्ग » 12; मन्त्र » 7
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह ।

    अन्वयः

    हे मनुष्या यस्समिधानो वो युष्मभ्यं धूर्षदं घृतप्रतीकमग्निमृतस्य मित्रन्नेव ऋञ्जते य उ इन्धानोऽक्रो विदथेषु दिद्यत्सन् नः शुक्रवर्णां धियमुद्यंसते तं यूयं वयं च पितृवत्सेवेमहि ॥ ७ ॥

    पदार्थः

    (घृतप्रतीकम्) यो घृतमाज्यं प्रत्येति तम् (वः) युष्मभ्यम् (ऋतस्य) सत्यस्य (धूर्षदम्) यो धूर्षु हिंसकेषु सीदति तम् (अग्निम्) पावकम् (मित्रम्) सखायम् (न) इव (समिधानः) सम्यक् प्रकाशमानः (ऋञ्जते) प्रसाध्नोति (इन्धानः) प्रदीप्तस्सन् (अक्रः) अन्यैरक्रान्तः। अत्र पृषोदरादिनेष्टसिद्धिः। (विदथेषु) संग्रामेषु (दीद्यत्) देदीप्यमानः (शुक्रवर्णाम्) शुद्धस्वरूपाम् (उत्) (उ) इति वितर्के (नः) अस्माकम् (यंसते) रक्षति (धियम्) प्रज्ञाम् ॥ ७ ॥

    भावार्थः

    अत्रोपमालङ्कारः। यो विद्युद्वत्सर्वशुभगुणाकरो मित्रवत्सुखप्रदाता संग्रामेषु वीर इव शत्रुजेता दुःखप्रध्वंसको वर्त्तते तं विद्वांसमाश्रित्य सर्वे मनुष्या विद्याः प्राप्नुयुः ॥ ७ ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    हिन्दी (4)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

    पदार्थ

    हे मनुष्यो ! जो (समिधानः) अच्छे प्रकार प्रकाशमान विद्वान् (वः) तुम्हारे लिये (धूर्षदम्) हिंसकों में स्थिर होते हुए (घृतप्रतीकम्) जो घृत को प्राप्त होता उस (अग्निम्) आग को (ऋतस्य) सत्य व्यवहार के वर्त्तनेवाले (मित्रम्) मित्र के (न) समान (ऋञ्जते) प्रसिद्ध करता है (उ) और जो (इन्धानः) प्रकाशमान होता हुआ वा (अक्रः) औरों ने जिसको न दबा पाया वह (विदथेषु) संग्रामों में (दीद्यत्) निरन्तर प्रकाशित होता हुआ (नः) हम लोगों की (शुक्रवर्णाम्) शुद्धस्वरूप (धियम्) प्रज्ञा को (उद्यंसते) उत्तम रखता है उसको तुम हम पिता के समान सेवें ॥ ७ ॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जो बिजुली के समान समस्त शुभ गुणों की खान, मित्र के समान सुख का देने, संग्रामों में वीर के तुल्य शत्रुओं को जीतने और दुःख का विनाश करनेवाला है, उस विद्वान् का आश्रय कर सब मनुष्य विद्याओं को प्राप्त होवें ॥ ७ ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    यज्ञनिर्वाहक प्रभु

    पदार्थ

    १. (घृतप्रतीकम्) = उस दीप्त अङ्गोंवाले व तेजस्वी रूपवाले (वः) = तुम्हारे (ऋतस्य) = यज्ञों के (धूर्षदम्) = [धुरि निर्वहणे सीदन्तम्- सा०] (निर्वाहक) = सब यज्ञों के सिद्ध करनेवाले (मित्रं न) = मित्र के समान (अग्निम्) = अग्रणी प्रभु को (समिधानः) = ध्यान के द्वारा अपने हृदय में दीप्त करता हुआ पुरुष (ऋञ्जते) = अपने जीवन को अलंकृत करता है। प्रभु को अपने में दीस करने से यह उपासक भी तेजस्वी रूपवाला व यज्ञशील बनता है। २. (इन्धानः) = वह ज्ञान ज्योति से देदीप्यमान (अक्रः) = अन्यों से कभी आक्रान्त न हुआ हुआ (विदथेषु दीद्यत्) = ज्ञान-यज्ञों में दीप्त होता हुआ प्रभु (नः) = हमारी (शुक्रवर्णां धियम्) = दीप्तरूपवाली बुद्धि को (उ) = निश्चय से (उत् यंसते) = खूब चमकाता है। जब ज्ञानयज्ञों में हम प्रभु का अर्चन करते हैं तब वे प्रभु हमारी बुद्धियों को दीप्त करते हैं। हम भी प्रभु के समान (अक्रः) = वासनाओं से अनाक्रान्त होते हैं।

    भावार्थ

    भावार्थ - उपासित प्रभु हमारी बुद्धियों को खूब ही चमकाते हैं ।

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    तपस्वी विद्यार्थी का कर्त्तव्य ।

    भावार्थ

    ( समिधानः ) अच्छी प्रकार तेज वा वीर्यरक्षा के द्वारा तेजस्वी होता हुआ शिष्य ( घृतप्रतीकम् ) घी को प्राप्त होकर चमकने वाले अग्नि के समान ज्ञान के प्रकाशक, तेजस्वी और ( घृतप्रतीकम् ) जल को प्रकट करने वाले अविच्छिन्न धारा से बरसने वाले और ( ऋतस्य धूर्षदम् ) जल के भार को अपने में धारण करनेवाले मेघ के समान ( ऋतस्य ) सत्य ज्ञान और वेद ज्ञान के ( धूर्षदम् ) धुर अर्थात् मुख्य पद पर विराजने वाले, वेद विद्या के धुरन्धर आचार्य को ( मित्रं न ) मित्र या सुहृत् के समान ( ऋञ्जते ) प्राप्त करे, और उसकी सेवा करे । वह स्वयं भी ( इन्धानः ) ज्ञान और तपस्याओं से प्रकाशित होता हुआ ( अक्रः ) बाधक कारणों और पीडाओं से आक्रान्त न होकर, उनसे नष्ट न होकर ( विदथेषु ) ज्ञानप्राप्ति के अवसरों में और शास्त्रों में ( दीद्यत् ) चमके और उनको धारण करे। और वह आचार्य ( नः ) हमें ( शुक्र-वर्णाम् ) शुद्ध वर्ण वाली, विशुद्ध अक्षरोच्चारण से युक्त, शुद्ध ज्ञानस्वरूप, निर्मल, ( धियम् ) प्रज्ञा, वाणी, कर्म को ( उत् यंसते ) उद्योगपूर्वक प्राप्त और पालन करे । अथवा ( इन्धानः विदथेषु दीद्यत् शुक्रवर्णां धियम् उद् यंसते ) तेजस्वी ज्ञानों में चमकता हुआ विद्वान् शुद्धवर्णा स्त्री को विवाहे । और आचार्य उस शुद्ध ज्ञानमयी वाणी को ( उद् यंसते ) उत्तम रीति से प्रदान करे ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    दीर्घतमा ऋषिः ॥ अग्निर्देवता ॥ छन्दः– १, ७ निचृज्जगती । २, ३, ५, विराङ्जगती । ४, ६ जगती । ८ निचृत् त्रिष्टुप् ॥ अष्टर्चं सूक्तम् ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    मन्त्रार्थ

    (व:) हे जनो ! तुम्हारे लिये तुम्हारे यज्ञ, यन्त्र आदि के लिये (ऋतस्य धूर्षदं घृतप्रतीकम् अग्निम्) यज्ञ की धुरा वेदि में प्राप्त होने वाले-दीप्ति का साधन-घृत जिसका प्रत्यक्तप्रसिद्धि का निमित्त है- ऐसे उस अग्नि को (समिधान:-ऋञ्जते) ज्वलित करने वाला अग्निविद्यावेत्ता प्रसिद्ध करता है (मित्रं न) सूर्य की भांति जैसे परमात्मा सूर्य को आकाश में उदित कर प्रकाशित करता है (विदथेषु-इन्धानः-अक्रः-दीद्यत्) यज्ञ आदि वेदनीय स्थलों में दीत हुआ अन्यों से अक्रान्त किसी से न दबने वाला चमकता है (शुक्रवर्णां धियं नः-उत्-उयंसते) शुभ्रवर्णवाली तेजोमयी बुद्धि एवं कार्यसिद्धि को हमारे लिये अवश्य ही देता है ॥७॥

    टिप्पणी

    "तिज निशाने” (चुरादि०) तिमितैः-तिजितैः-छान्दसं गत्वम्।

    विशेष

    ऋषिः - दीर्घतमाः (आयु-जीवन का "आयुर्वेदीर्घम् " [तां० १३७ ११।१२] चाहने वाला “तमु कांक्षायाम्" [दिबा०]) देवता - अग्निः ( सर्वत्र लोकों में प्रकाशमान अग्नि)

    इस भाष्य को एडिट करें

    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात उपमालंकार आहे. जो विद्युतप्रमाणे संपूर्ण गुणांची खाण, मित्राप्रमाणे सुख देणारा, संग्रामामध्ये वीराप्रमाणे जिंकणारा व दुःखांचा नाश करणारा असेल त्या विद्वानांचा आश्रय घेऊन सर्व माणसांनी विद्या प्राप्त करावी. ॥ ७ ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    इंग्लिश (2)

    Meaning

    The scholar of brilliance and intelligence researches and develops agni for you, agni, a power rising with flames of ghrta, firmly active like a friend of light and truth, sitting and working for humanity against the forces of falsehood, darkness and lawlessness. Blazing unresisted, it shines in the yajnic projects of development, and inspires and sharpens our pure and transparent intelligence.

    इस भाष्य को एडिट करें

    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    Let us glorify our scholars.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O Men! let us serve our great scholars who are like our father and possess bright knowledge. They utilize their knowledge for their sincere and faithful friends like fire kindled with Ghee ( Clarified butter) carrying heavy loads (in the form of steam). Such a scholar is the friend of a truthful person. Illustrious well with noble virtues and unparalled, he 'shines in battles and protects our pure wisdom.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    All men should acquire good knowledge, sitting at the feet of his noble guru, who is repository of all goods virtues. Like electricity he is giver of happiness like a friend.

    Foot Notes

    (ऋञ्जते) प्रसाघ्नोति = Accomplishes or utilizes properly. (यंसते ) रक्षति = Protects. (विदयेषु ) संग्रामेषु = In battles.

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top