ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 143/ मन्त्र 4
यमे॑रि॒रे भृग॑वो वि॒श्ववे॑दसं॒ नाभा॑ पृथि॒व्या भुव॑नस्य म॒ज्मना॑। अ॒ग्निं तं गी॒र्भिर्हि॑नुहि॒ स्व आ दमे॒ य एको॒ वस्वो॒ वरु॑णो॒ न राज॑ति ॥
स्वर सहित पद पाठयम् । आ॒ऽई॒रि॒रे॒ । भृग॑वः । वि॒श्वऽवे॑दसम् । नाभा॑ । पृ॒थि॒व्याः । भुव॑नस्य । म॒ज्मना॑ । अ॒ग्निम् । तम् । गीः॒ऽभिः । हि॒नु॒हि॒ । स्वे । आ । दमे॑ । यः । एकः॑ । वस्वः॑ । वरु॑णः । न । राज॑ति ॥
स्वर रहित मन्त्र
यमेरिरे भृगवो विश्ववेदसं नाभा पृथिव्या भुवनस्य मज्मना। अग्निं तं गीर्भिर्हिनुहि स्व आ दमे य एको वस्वो वरुणो न राजति ॥
स्वर रहित पद पाठयम्। आऽईरिरे। भृगवः। विश्वऽवेदसम्। नाभा। पृथिव्याः। भुवनस्य। मज्मना। अग्निम्। तम्। गीःऽभिः। हिनुहि। स्वे। आ। दमे। यः। एकः। वस्वः। वरुणः। न। राजति ॥ १.१४३.४
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 143; मन्त्र » 4
अष्टक » 2; अध्याय » 2; वर्ग » 12; मन्त्र » 4
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अष्टक » 2; अध्याय » 2; वर्ग » 12; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनरीश्वरविषयमाह।
अन्वयः
हे जिज्ञासो यं विश्ववेदसं भृगव एरिरे य एको वरुणो मज्मना वरुणो नेव पृथिव्या भुवनस्य वस्वो नाभा मध्ये स्वव्याप्त्या राजति तमग्निं स्वे दमे वर्त्तमानस्त्वं गीर्भिराहिनुहि ॥ ४ ॥
पदार्थः
(यम्) परमात्मानम् (एरिरे) समन्ताज्जानीयुः (भृगवः) विद्ययाऽविद्याया भर्जका निवारका विद्वांसः। भृगव इति पदना०। निघं० ५। ५। (विश्ववेदसम्) समग्रस्य विदितारम् (नाभा) मध्ये (पृथिव्याः) अन्तरिक्षस्य (भुवनस्य) लोकजातस्य (मज्मना) अनन्तेन बलेन (अग्निम्) सूर्यमिव स्वप्रकाशम् (तम्) (गीर्भिः) प्रशंसिताभिर्वाग्भिः (हिनुहि) जानीहि (स्वे) स्वकीये (आ) समन्तात् (दमे) गृहरूपे हृदयाऽवकाशे (यः) (एकः) अद्वितीयः (वस्वः) वसोर्द्रव्यरूपस्य (वरुणः) अतिश्रेष्ठः (न) इव (राजति) प्रकाशते ॥ ४ ॥
भावार्थः
हे मनुष्या यो विद्वद्वेदितव्यः सर्वाऽभिव्यापी प्रशंसितुमर्हः सच्चिदानन्दादिलक्षणः सर्वशक्तिमानद्वितीयोऽतिसूक्ष्मः स्वप्रकाशोऽन्तर्यामी परमेश्वरोऽस्ति तं योगाङ्गानुष्ठानसिद्ध्या स्वस्मिन्विजानीत ॥ ४ ॥
हिन्दी (4)
विषय
फिर ईश्वर विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।
पदार्थ
हे जिज्ञासु पुरुष ! (यम्) जिस (विश्ववेदसम्) अच्छे संसार के वेत्ता परमात्मा को (भृगवः) विद्या से अविद्या को भूँजनेवाले (एरिरे) सब ओर से जाने वा (यः) जो (एकः) एक अति श्रेष्ठ आप्त ईश्वर (मज्मना) अत्यन्त बल से (वरुणः) अति श्रेष्ठ के (न) समान (पृथिव्याः) अन्तरिक्ष के वा (भुवनस्य) लोक में उत्पन्न हुए (वस्वः) धनरूप पदार्थ के (नाभा) बीच में अपनी व्याप्ति से (राजति) प्रकाशमान है (तम्) उस (अग्निम्) सूर्य के समान ईश्वर जो कि (स्वे) अपने अर्थात् तेरे (दमे) घररूप हृदयाकाश में वर्त्तमान है उसको (गीर्भिः) प्रशंसित वाणियों से (आ, हिनुहि) जानो ॥ ४ ॥
भावार्थ
हे मनुष्यो ! जो विद्वानों से जानने योग्य सब में सब प्रकार व्याप्त प्रशंसा के योग्य सच्चिदानन्दादि लक्षण सर्वशक्तिमान् अद्वितीय अति-सूक्ष्म आप ही प्रकाशमान अन्तर्यामी परमेश्वर है, उसको योग के अङ्गों के अनुष्ठान की सिद्धि से अपने हृदय में जानो ॥ ४ ॥
विषय
भृगुओं का प्रभु-दर्शन
पदार्थ
१. (भृगवः) = [भ्रस्ज् पाके] तप व ज्ञान की अग्नि में अपने को परिपक्व करनेवाले उपासक (यं विश्ववेदसम्) = जिस सम्पूर्ण ऐश्वर्यौवाले प्रभु को (पृथिव्याः नाभा) = इस शरीररूप प्रभु के केन्द्र, अर्थात् हृदय-देश में (एरिरे) = प्रेरित करते हैं, अर्थात् हृदय-देश में उसकी गति को अनुभव करने का प्रयत्न करते हैं, (तम् अग्निम्) = उस अग्रणी प्रभु को (भुवनस्य मज्मना) = सम्पूर्ण भुवन के बल के हेतु से, अर्थात् शक्ति प्राप्ति के उद्देश्य से (गीर्भिः) = वेदवाणियों के द्वारा स्वे दमे अपने शरीररूप गृह में (आहिन्हि) = प्राप्त करने के लिए सर्वथा यत्नशील हो। हम जितना-जितना प्रभु को अपने अन्दर अनुभव करेंगे उतना उतना ही शक्तियों को प्राप्त होनेवाले होंगे। २. उस प्रभु को तू प्राप्त करने का प्रयत्न कर (यः) = जो (एक:) = अकेले ही (वरुणः न) =सब कष्टों का निवारण करनेवाले के समान होते हुए वस्वः राजति सब वसुओं का आधिपत्य करते हैं। सब वसुओं के स्वामी होने से वे हमारे सब कष्टों का निवारण करते हैं।
भावार्थ
भावार्थ - तपस्या व ज्ञान की परिपक्वता से प्रभु का साक्षात् होता है। वे प्रभु सब वसुओं के अधिपति होते हुए हमारे सब कष्टों का निवारण करते हैं।
विषय
सर्वपापनाशक अग्नि प्रभु की स्तुति ।
भावार्थ
( यम् ) जिस ( विश्ववेदसं ) समस्त ज्ञानों और ऐश्वर्य के स्वामी को ( भृगवः ) अपने पाप और कर्म बन्धनों को भून देने वाले, तपस्वी लोग ( पृथिव्या ) पृथिवी के और ( भुवनस्य ) समस्त चराचर संसार के ( नाभा ) मध्य में, केन्द्र में ( मज्मना ) सब को बल से सञ्चालित करने वाला मुख्य बल रूप ( आएरिरे ) जानते और बतलाते हैं हे पुरुष ! ( तम् अग्निम् ) उस सर्वप्रकाशक, सर्वनायक, सर्वव्यापक परमेश्वर की ( गीर्भिः हिनुहि ) वाणियों से स्तुति कर ( य एकः ) जो अकेला, अद्वितीय होकर ( स्वे दमे ) अपने घर में स्वामी और शरीर में आत्मा के समान ( वस्वः ) बसे हुए इस महान् ब्रह्माण्ड के ( दमे ) दमन करने में ( वरुणः नः ) सर्वश्रेष्ठ राजा के समान ( राजति ) विराजता है ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
दीर्घतमा ऋषिः ॥ अग्निर्देवता ॥ छन्दः– १, ७ निचृज्जगती । २, ३, ५, विराङ्जगती । ४, ६ जगती । ८ निचृत् त्रिष्टुप् ॥ अष्टर्चं सूक्तम् ॥
मन्त्रार्थ
(भृगवः) ज्ञान में भर्जनशील-ज्ञानप्रकाश वाले विद्वान् जन "भृगुर्भुज्यमानो न देहे" (निरु० ३।१७) (भुवनस्य नाभा पृथिव्या:) भुवन-विश्व की नाभिरूप पृथिवी पर "पृथिव्या: सप्तमीस्थाने षष्ठी छान्दसी" (मज्मना) बल से "मज्मना बलनाम" (निघ० २।९) (यम्-विश्ववेदसम्-अग्निम्-एदिरे) जिससे सब धन देने वाले अग्नि को प्रेरित करते हैं-प्रकट और प्रयुक्त करते हैं- प्रज्वलित करते हैं (तं गीर्भिः-हि नुहि) उसे वाणियों- वेदविधानों से जानो प्राप्त करो (यः-एकः-स्वे दमे) जो अकेला केवल अपने घर में यज्ञकुण्ड में- यन्त्रस्थान में- हृदय मैं (वरुणः-न वस्वः-आराजति) सबको वरने वाले सूर्य की भांति वसने योग्य पर समग्ररूप राजमान होता है - विराजता है ॥४॥
विशेष
ऋषिः - दीर्घतमाः (आयु-जीवन का "आयुर्वेदीर्घम् " [तां० १३७ ११।१२] चाहने वाला “तमु कांक्षायाम्" [दिबा०]) देवता - अग्निः ( सर्वत्र लोकों में प्रकाशमान अग्नि)
मराठी (1)
भावार्थ
हे माणसांनो ! जो विद्वानाकडून जाणण्यायोग्य, सर्वात सर्व प्रकारे व्याप्त, प्रशंसेस पात्र, सच्चिदानंद इत्यादी लक्षण, सर्वशक्तिमान, अद्वितीय, अतिसूक्ष्म, स्वयंप्रकाशी, अन्तर्यामी, परमेश्वर आहे त्याला योगांगाच्या अनुष्ठान सिद्धीने आपल्या हृदयात जाणा. ॥ ४ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
That Agni whom the Bhrgus, men of vision and knowledge, invoke and realise on the floor of the earth, in the centre of the world and in the depth of their consciousness with the power of their knowledge, spirit and prana, that omniscient Agni, light of the world, with your words of prayer, invoke and realise in your own heart and home, yes, Him who alone by Himself is lord of the wealth of the universe and shines over all as Varuna, supreme ruler.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
Glory to Lord, and we should know Him thoroughly.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
seeker after truth! know and glorify that Omnipresent God in chosen words of praise. He who is one and unparalleled and who by His power is the Controller of the whole universe. He is great and sovereign who pervades the universe comprising of earth, the firmament and other planets and shines. His abode is in your heart, enter into mediation of That Supreme Leader (God) and sing His glory. All enlightened persons who destroy ignorance through wisdom. know him well or realize.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Know it well that God is within you, Attain Him with incessant practice of the Yoga and its different parts. He is Omnipresent, most admirable, Omnipotent, most subtle, self-existent, light and unparalleled. He possesses Absolute Entity, Absolute knowledge and Absolute Bliss.
Foot Notes
(भृगव:) विद्यया अविद्याया: भर्जका: निवारकाः विद्वांसः । भृगव इति पदनाम (NTU 5.5) = Enlightened persons who are destroyers of ignorance by wisdom. (हिनुहि) जानीहि = Know. ( एरिरे) समन्तात् जानीयुः = May know from all sides.
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