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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 161 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 161/ मन्त्र 2
    ऋषिः - दीर्घतमा औचथ्यः देवता - ऋभवः छन्दः - निचृज्जगती स्वरः - निषादः

    एकं॑ चम॒सं च॒तुर॑: कृणोतन॒ तद्वो॑ दे॒वा अ॑ब्रुव॒न्तद्व॒ आग॑मम्। सौध॑न्वना॒ यद्ये॒वा क॑रि॒ष्यथ॑ सा॒कं दे॒वैर्य॒ज्ञिया॑सो भविष्यथ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    एक॑म् । च॒म॒सम् । च॒तुरः॑ । कृ॒णो॒त॒न॒ । तत् । वः॒ । दे॒वाः । अ॒ब्रु॒व॒न् । तत् । वः॒ । आ । अ॒ग॒म॒म् । सौध॑न्वनाः । यदि॑ । ए॒व । क॒रि॒ष्यथ॑ । सा॒कम् । दे॒वैः । य॒ज्ञिया॑सः । भ॒वि॒ष्य॒थ॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    एकं चमसं चतुर: कृणोतन तद्वो देवा अब्रुवन्तद्व आगमम्। सौधन्वना यद्येवा करिष्यथ साकं देवैर्यज्ञियासो भविष्यथ ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    एकम्। चमसम्। चतुरः। कृणोतन। तत्। वः। देवाः। अब्रुवन्। तत्। वः। आ। अगमम्। सौधन्वनाः। यदि। एव। करिष्यथ। साकम्। देवैः। यज्ञियासः। भविष्यथ ॥ १.१६१.२

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 161; मन्त्र » 2
    अष्टक » 2; अध्याय » 3; वर्ग » 4; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह ।

    अन्वयः

    हे सौधन्वना यदेकं चमसं देवा वोऽब्रुवस्तद्यूयं कृणोतन यद्वोऽहमागमं तत् कृणोतन यदि देवैः साकं चतुरः पृच्छत तर्हि स्वकार्यं सिद्धमेव करिष्यथ यज्ञियासश्च भविष्यथ ॥ २ ॥

    पदार्थः

    (एकम्) असहायम् (चमसम्) मेघम् (चतुरः) वाय्वग्निजलभूमीः (कृणोतन) कुर्यात् (तत्) (वः) युष्मान् (देवाः) विद्वांसः (अब्रुवन्) ब्रूयुरुपदिशेयुः (तत्) (वः) युष्माकं सकाशात् (आ) (अगमम्) प्राप्नुयाम् (सौधन्वनाः) शोभनेषु धनुष्षु कुशलाः (यदि) (एव) (करिष्यथ) (साकम्) (देवैः) विद्वद्भिस्सह (यज्ञियासः) यज्ञमनुष्ठातुमर्हाः (भविष्यथ) ॥ २ ॥

    भावार्थः

    ये विदुषां सकाशात् प्रश्नोत्तरैर्विद्याः प्राप्य तदुक्तानि कर्माणि कुर्वन्ति ते विद्वांसो जायन्ते। पूर्वोक्तप्रश्नानामत्रोत्तराणि योऽस्मासु विद्याऽधिकः स श्रेष्ठः। यो जितेन्द्रियः स बलिष्ठः। योऽग्निः स दूतः। या पुरुषार्थसिद्धिः सा विभूतिश्च ॥ २ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

    पदार्थ

    हे (सौधन्वनाः) उत्तम धनुषों में कुशल ! जिस (एकम्) इकेले (चमसम्) मेघ को (देवाः) विद्वान् जन (वः) तुम लोगों के प्रति (अब्रुवन्) कहें अर्थात् उसके गुणों का उपदेश करें (तत्) उसको तुम लोग (कृणोतन) करो और जिसको (वः) तुम लोगों की उत्तेजना से मैं (आगमम्) प्राप्त होऊँ (तत्) उसको करो, (यदि) जो (देवैः) विद्वानों के (साकम्) साथ (चतुरः) वायु, अग्नि, जल, भूमि इन चारों को पूछो तो अपने काम को सिद्ध (एव) ही (करिष्यथ) करो और (यज्ञियासः) यज्ञ के अनुष्ठान के योग्य (भविष्यथ) होओ ॥ २ ॥

    भावार्थ

    जो विद्वानों की उत्तेजना से प्रश्नोत्तरों से विद्याओं को पाकर उसमें कहे हुए कामों को करते हैं वे विद्वान् होते हैं। पिछले प्रश्नों के यहाँ ये उत्तर हैं कि जो हम लोगों में विद्या में अधिक है वह श्रेष्ठ। जो जितेन्द्रिय है वह अत्यन्त बलवान्। जो अग्नि है वह दूत और जो पुरुषार्थसिद्धि है वह विभूति है ॥ २ ॥

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    विषय

    चार आश्रम

    पदार्थ

    १. गतमन्त्र के अग्नि के द्वारा प्रभु का सन्देश इस रूप में दिया जाता है कि (एकं चमसम्) = इस एक सोमपान के साधनभूत शरीर को (चतुरः कृणोतन) = चार बनाओ। पच्चीस वर्ष तक ब्रह्मचर्याश्रम में चलता हुआ यह शरीर 'ऋभु' कहलाये, फिर अगले पच्चीस तक यह 'विश्वा' बने, अगले पच्चीस वर्षों में यह 'वाज' हो और अन्तिम पच्चीस वर्षों में यह 'अग्नि' कहलाये । (वः) = तुम्हें (देवा:) = ज्ञानी पुरुष (तत् अब्रुवन्) = यही बात कहते हैं। मैं भी (तत्) = तभी (वः) = तुम्हें (आगमम्) = प्राप्त होता हूँ । प्रभु-प्राप्ति उसी को होती है जो इस चमस को चार करता है। चारों आश्रमों को सुचारुरूपेण वहन करना ही जीवन की सफलता है। २. (सौधन्वना) = प्रणवधनुष को धारण करनेवाले के सन्तानो– उत्तम सुधन्वा बननेवालो ! (यदि एव) = यदि ऐसा ही (आ करिष्यथ) = ठीक करोगे तो (देवैः साकम्) - दिव्य गुणों के साथ (यज्ञियासः) = उत्तम जीवनवाले (भविष्यथ) = होओगे।

    भावार्थ

    भावार्थ- जीवन की पवित्रता के लिए आवश्यक है कि हम जीवन को चार आश्रमों में व्यतीत करने का संकल्प करें।

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    विषय

    उत्तम दूत के उत्तम फल, ऋतुओं के एक चमस को चार करने का रहस्य ।

    भावार्थ

    हे ( सौधन्वनाः ) उत्तम धनुष आदि शस्त्रों के सञ्चालन में कुशल ! एवं हे उत्तम देश के शासन में कुशल पुरुषो ! ( देवाः ) ज्ञान देने हारे विद्वान् पुरुष ( वः ) आप लोगों को ( तत् अब्रुवन् ) उस उक्त प्रश्न के विषय में उपदेश करते हैं। मैं विद्वान् पुरुष भी (वः) आप लोगों के समक्ष ( तत् ) उसको यथावत् ( आगमम् ) प्रकट करता हूं । आप लोग ( तुरः ) चारों जने मिल कर ( एकं ) एक ( चमसं ) सत् पात्र, वा मेघ के समान गम्भीर गर्जन करने वाले पुरुष को ही ( कृणोतन ) अपना दूत नियत करो । ( यदि ) यदि ( एवा ) इस प्रकार ( करिष्यथ ) करोगे तो आप लोग भी ( देवैः साकं ) विद्वान् एवं दानशील कर और ज्ञानप्रद पुरुषों के साथ मिल कर ( यज्ञियासः ) एक सुसंगत राष्ट्र के अंग एवं पूज्य पद के योग्य होकर ( भविष्यथ ) रह सकोगे ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    दीर्घतमा ऋषिः ॥ ऋभवो देवता ॥ छन्दः– १ विराट् जगती ॥ ३, ५, ६, ८, १२ निचृज्जगती । ७, १० जगती च । ३ निचृत् त्रिष्टुप् । ४, १३ भुरिक् त्रिष्टुप् । ९ स्वराट् त्रिष्टुप । ११ त्रिष्टुप् । १४ स्वराट् पङ्क्तिः । चतुर्दशर्चं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जे विद्वानाच्या साह्याने प्रश्नोत्तराद्वारे विद्या प्राप्त करून त्यात सांगितल्याप्रमाणे कार्य करतात ते विद्वान असतात. मागच्या प्रश्नांची ही उत्तरे आहेत. जो आमच्यामध्ये विद्येत अधिक आहे तो श्रेष्ठ आहे. जो जितेंद्रिय आहे तो अत्यंत बलवान आहे. जो अग्नी आहे तो दूत व जी पुरुषार्थ सिद्धी आहे ती विभूती (अलौकिक सामर्थ्य) आहे. ॥ २ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Create four ladles worth of yajnic materials out of one put in. Let the nobles speak to you of this. Create four clouds out of one, the scholars would speak to you.$And to that end I too would come to you. Men of the mighty bow, if you would but do this, then with the light of divinities and with the nobilities, you would be the real men of yajna.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The parents get best pitch because of their issues.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O experts in archery! if enlightened persons tell you about a cloud, you should get all knowledge about it. Whatever I tell you, do it. If you ask learned persons about four subjects-air, fire water and earth and get knowledge about them all, then you will be able to accomplish all your works and to watch. They are worthy of respect and performance of noble Yajnas.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    Those persons who acquire knowledge from great scholars by putting them questions and getting their answers and de as they are ordered, become highly learned. The following are the answers to the questions put in the first Mantra. 1. The best among us is the great scholar. 2. The most powerful is he, who is a man of self-control. 3. The communicator is a great leader or fire which carries things far away. 4. The accomplishment of our object or purpose is prosperity.

    Foot Notes

    (चतुर:) वाय्वग्नी जलभूमी: = Air, fire, water and earth.

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