ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 161/ मन्त्र 7
निश्चर्म॑णो॒ गाम॑रिणीत धी॒तिभि॒र्या जर॑न्ता युव॒शा ताकृ॑णोतन। सौध॑न्वना॒ अश्वा॒दश्व॑मतक्षत यु॒क्त्वा रथ॒मुप॑ दे॒वाँ अ॑यातन ॥
स्वर सहित पद पाठनिः । चर्म॑णः । गाम् । अ॒रि॒णी॒त॒ । धी॒तिऽभिः॑ । या । जर॑न्ता । यु॒व॒शा । ता । अ॒कृ॒णो॒त॒न॒ । सौध॑न्वनाः । अश्वा॑त् । अश्व॑म् । अ॒त॒क्ष॒त॒ । यु॒क्त्वा । रथ॑म् । उप॑ । दे॒वान् । अ॒या॒त॒न॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
निश्चर्मणो गामरिणीत धीतिभिर्या जरन्ता युवशा ताकृणोतन। सौधन्वना अश्वादश्वमतक्षत युक्त्वा रथमुप देवाँ अयातन ॥
स्वर रहित पद पाठनिः। चर्मणः। गाम्। अरिणीत। धीतिऽभिः। या। जरन्ता। युवशा। ता। अकृणोतन। सौधन्वनाः। अश्वात्। अश्वम्। अतक्षत। युक्त्वा। रथम्। उप। देवान्। अयातन ॥ १.१६१.७
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 161; मन्त्र » 7
अष्टक » 2; अध्याय » 3; वर्ग » 5; मन्त्र » 2
Acknowledgment
अष्टक » 2; अध्याय » 3; वर्ग » 5; मन्त्र » 2
Acknowledgment
भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह ।
अन्वयः
हे मनुष्या यूयं धीतिभिश्चर्मणइव गामरिणीत। या जरन्ता युवशा शिल्पिनौ स्यातां ता शिल्पकर्मसु प्रवृत्तौ निरकृणोतन। सौधन्वनाः सन्तोऽश्वादश्वमतक्षत रथं युक्त्वा देवानुपायातन ॥ ७ ॥
पदार्थः
(निः) नितराम् (चर्मणः) त्वग्वदुपरिभागस्य (गाम्) पृथिवीम् (अरिणीत) प्राप्नुत (धीतिभिः) अङ्गुलिभिरिव धारणाभिः (या) यौ (जरन्ता) स्तुवन्तौ (युवशा) युवानो विद्यन्ते ययोस्तौ। अत्र लोमादिपामादिना मत्वर्थीयः शः (ता) तौ (अकृणोतन) कुरुत (सौधन्वनाः) सुधन्वनि कुशलाः (अश्वात्) वेगवतः पदार्थात् (अश्वम्) वेगवन्तं पदार्थम् (अतक्षत) अवस्तृणीत (युक्त्वा) (रथम्) यानम् (उप) (देवान्) दिव्यान् भोगान् गुणान् वा (अयातन) प्राप्नुत ॥ ७ ॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। ये मनुष्या अङ्गुलीवत्कर्मकारिणः शिल्पविद्याप्रियाः पदार्थात्पदार्थगुणान् विज्ञाय यानादिषु कार्येषूपयुञ्जते ते दिव्यान् भोगान् प्राप्नुवन्ति ॥ ७ ॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।
पदार्थ
हे मनुष्यो ! तुम (धीतिभिः) अङ्गुलियों के समान धारणाओं से (चर्मणः) शरीर की त्वचा के समान शरीर के ऊपरी भाग का सम्बन्ध रखनेवाली (गाम्) पृथिवी को (अरिणीत) प्राप्त होओ (या) जो (जरन्ता) स्तुति प्रशंसा करते हुए (युवशा) युवा विद्यार्थियों को समीप रखनेवाले शिल्पी होवें, (ता) वे कारीगरी के कामों में अच्छे प्रकार प्रवृत्त हुए (निरकृणोतन) निरन्तर उन शिल्प कार्यों को करें। (सौधन्वनाः) उत्तम धनुष् में कुशल होते हुए सज्जन (अश्वात्) वेगवान् पदार्थ से (अश्वम्) वेगवाले पदार्थ को (अतक्षत) छाँटो और वेग देने में ठीक करो। और (रथम्) रथ को (युक्त्वा) जोड़के (देवान्) दिव्य भोग वा दिव्य गुणों को (उपायातन) उपगत होओ, प्राप्त होओ ॥ ७ ॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो मनुष्य अङ्गुलियों के समान कर्म के करने और शिल्पविद्या में प्रीति रखनेवाले पदार्थ से पदार्थ के गुणों को जानकर यान आदि कार्यों में उनका उपयोग करते हैं, वे दिव्य भोगों को प्राप्त होते हैं ॥ ७ ॥
विषय
अश्व से अश्व का तक्षण
पदार्थ
१. सुधन्वा के पुत्रों में प्रथम ऋभु (धीतिभिः) = ध्यान-धारणाओं के द्वारा (गाम्) = वेदवाणी को (चर्मणा) = चर्म से, उपरले आवरण से (निरअरीणीत) = निर्गत करता है, अर्थात् उसके अन्तर्निहित अर्थ को देखनेवाला बनता है। वेदवाणी के वास्तविक अर्थ को देखने के लिए चित्तवृत्ति को सुधन्वा एकाग्र करके यह उसे आवरण से बाहर करता है। २. 'विश्वा' गृहस्थ में प्रवेश करते हुए (या) = जो 'ब्रह्म और क्षत्र' शक्तियाँ (जरन्ता) = जीर्ण हो रही होती हैं (ता) = उन्हें (युवशा) = पुनर्यौवनवाला कृणोतन =करते हैं, अर्थात् अपने ज्ञान और बल को क्षीण नहीं होने देते। ३. (सौधन्वना) = ये के पुत्र 'वाज' अश्वात् = उस व्यापक शक्तिशाली प्रभु अपने को (अश्वम्) = शक्तिशाली (अतक्षत) = बनाते हैं। प्रभु के उपासन से वे शक्तिशाली बनते हैं । ४. (रथं युक्त्वा) = इस प्रकार शरीर-रथ को इन्द्रियाश्वों से जोतकर (ये देवान् उप अयातन) = देवों के समीप प्राप्त होते हैं । निरन्तर क्रियाशील बनकर अपने में दिव्य गुणों का वर्धन करते हैं। दिव्य गुणों का वर्धन करते हुए ये प्रभु-प्राप्ति के योग्य बनते हैं। =
भावार्थ
भावार्थ- हम मन्त्रद्रष्टा ऋषि बनते हुए ऋभु बनें, गृहस्थ में भी 'ब्रह्म + क्षत्र' को जीर्ण न होने दें, वनस्थ बनकर प्रभु के सम्पर्क से अपने में शक्ति का संचार करें, सदा क्रियाशील बनकर प्रभु के समीप प्राप्त हों।
विषय
धनुर्धर पुरुषों और शिल्पियों के कर्तव्य ।
भावार्थ
हे (सौधन्वनाः) उत्तम धनुर्धारी पुरुषो ! हे उत्तम पृथ्वी के पालन करने हारे पुरुषो ! आप लोग (चर्मणः) ढाल के बल पर ( गाम् ) भूमि को ( धीतिभिः ) अपने धारण सामर्थ्यों से ( निर अरिणीत ) प्राप्त कर अपने वश करने में समर्थ होवो। और हे शिल्पीजनो! आप लोग ( चर्मणः ) चर्म में से ( धीतिभिः ) शास्त्रों द्वारा ( गाम् ) वाणों को दूर फेंकने वाली अपनी धनुष की डोरी प्राप्त करो । हे विद्वान् शिष्य पुरुषो ! आप लोग ( चर्मणः धीतिभिः ) वृक्ष, हरिणादि की छाला के धारण करने के व्रतों से ( गाम् ) वेद वाणी को ( निर् अरिणीत ) पूर्ण रीति से प्राप्त करो । ( या ) जो ( युवशा ) युवक कुमारों को अपने अधीन धारण करें (ता) उन ऐसे ( जरन्ता ) उपदेश करने वाले विद्यावृद्ध माता पिताओं को ( कृणोतन ) अपना प्रमुख स्वीकार करो। अथवा बलवान् उपदेश करने वालों को प्रमुख बनाओ। ( अश्वात् ) उत्तम अश्व से ( अश्वम् ) उत्तम अश्व को (अतक्षत) तैयार करो । अर्थात् उत्तम जाति के अश्व पशु से उत्तम अश्व सैन्य तैयार करो । अथवा उत्तम अश्व से उत्तम अश्व सन्तति प्राप्त करो (रथम् युक्त्वाय) रथ जोड़ कर (देवान्) दिव्य भोगों, गुणों, समस्त उत्तम व्यवहारों और विजयशील संग्राम कार्यों को ( उप अयातन ) प्राप्त करो ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
दीर्घतमा ऋषिः ॥ ऋभवो देवता ॥ छन्दः– १ विराट् जगती ॥ ३, ५, ६, ८, १२ निचृज्जगती । ७, १० जगती च । ३ निचृत् त्रिष्टुप् । ४, १३ भुरिक् त्रिष्टुप् । ९ स्वराट् त्रिष्टुप । ११ त्रिष्टुप् । १४ स्वराट् पङ्क्तिः । चतुर्दशर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जी माणसे बोटांप्रमाणे कर्म करणारी व शिल्पविद्येत प्रीती ठेवणारी असून पदार्थांच्या गुणांना जाणून यान इत्यादी कार्यात त्यांचा उपयोग करतात ती दिव्य भोग प्राप्त करतात. ॥ ७ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
With dexterous use of your ideas, repair and enrich the surface of the earth like nourishing the holy cow emaciated to the skin, and rejuvenate those who are breaking down under the weight of aging and consumptive diseases. O warriors of the bow, create new vehicles of wondrous velocity from materials of magnetic energy and radiation. And then yoke your motive power to the chariot and reach the wealth of nature’s divinity.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The importance of technology is underlined.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O men ! with your sustaining powers, get possession of the lost land through the use of the shield in the battels. Appoint those old and experienced persons as artists who are expert in various branches. O expert archers ! produce from one speedy article, another article of the same kind and having harnessed the chariot, attain divine enjoyments or attributes.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Those persons achieve divine enjoyments, who are active like the fingers, lovers of the science of art or technology, who being knowers of the attributes of various substances, utilize that knowledge in the construction of vehicles and other works.
Foot Notes
(धीतिभिः) अङ्ग लिभिः इव धारणाभिः = By the sustaining powers like the fingers. (जरन्ता ) स्तावकौ = Admires of attributes of various substances. (अश्वम् ) वेगवन्तं पदार्थम् = An article full of speed or motion.
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
N/A
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
N/A
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
N/A
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
Shri Virendra Agarwal
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal