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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 161 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 161/ मन्त्र 5
    ऋषिः - दीर्घतमा औचथ्यः देवता - ऋभवः छन्दः - निचृज्जगती स्वरः - निषादः

    हना॑मैनाँ॒ इति॒ त्वष्टा॒ यदब्र॑वीच्चम॒सं ये दे॑व॒पान॒मनि॑न्दिषुः। अ॒न्या नामा॑नि कृण्वते सु॒ते सचाँ॑ अ॒न्यैरे॑नान्क॒न्या॒३॒॑ नाम॑भिः स्परत् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    हना॑म । ए॒ना॒न् । इति॑ । त्वष्टा॑ । यत् । अब्र॑वीत् । च॒म॒सम् । ये । दे॒व॒ऽपान॑म् । अनि॑न्दिषुः । अ॒न्या । नामा॑नि । कृ॒ण्व॒ते॒ । सु॒ते । सचा॑ । अ॒न्यैः । ए॑नान् । क॒न्या॑ । नाम॑ऽभिः । स्प॒र॒त् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    हनामैनाँ इति त्वष्टा यदब्रवीच्चमसं ये देवपानमनिन्दिषुः। अन्या नामानि कृण्वते सुते सचाँ अन्यैरेनान्कन्या३ नामभिः स्परत् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    हनाम। एनान्। इति। त्वष्टा। यत्। अब्रवीत्। चमसम्। ये। देवऽपानम्। अनिन्दिषुः। अन्या। नामानि। कृण्वते। सुते। सचा। अन्यैः। एनान्। कन्या। नामऽभिः। स्परत् ॥ १.१६१.५

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 161; मन्त्र » 5
    अष्टक » 2; अध्याय » 3; वर्ग » 4; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह ।

    अन्वयः

    हे मनुष्या त्वष्टा यद्यं देवपानं चमसमब्रवीद्य एनमनिन्दिषुस्तानेनान् वयं हनाम। ये सचानन्यैर्नामभिरन्या नामानि सुते कृण्वत एनान्कन्या स्परदित्येवं तान्प्रति यूयमपि वर्त्तध्वम् ॥ ५ ॥

    पदार्थः

    (हनाम) हिंसेम (एनान्) इष्टाचारिणः (इति) अनेन प्रकारेण (त्वष्टा) छेत्ता सूर्य इव विद्वान् (यत्) (अब्रवीत्) ब्रूते (चमसम्) मेघम् (ये) (देवपानम्) देवैः किरणैरिन्द्रियैर्वा पेयम् (अनिन्दिषुः) निन्देयुः (अन्या) अन्यानि (नामानि) (कृण्वते) कुर्वन्ति (सुते) निष्पादिते (सचान्) संयुक्तान् (अन्यैः) भिन्नैः (एनान्) जनान् (कन्या) कुमारिका (नामभिः) (स्परत्) प्रीणयेत्। अत्र लङ्यडभावः ॥ ५ ॥

    भावार्थः

    ये विदुषो निन्देयुर्विद्वत्स्वविद्वद्बुद्धिमविद्वत्सु विद्वत्प्रज्ञां च कुर्युस्त एव खलास्सर्वैस्तिरस्करणीयाः ॥ ५ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

    पदार्थ

    हे मनुष्यो ! (त्वष्टा) छिन्न-भिन्न करनेवाला सूर्य के समान विद्वान् (यत्) जिस (देवपानम्) किरण वा इन्द्रियों से पीने योग्य (चमसम्) मेघ जल को (अब्रवीत्) कहता है (ये) जो इसकी (अनिन्दिषुः) निन्दा करें उन (एनान्) इनको हम लोग (हनाम) मारें नष्ट करें। जो (सचान्) संयुक्त (अन्यैः) और (नामभिः) नामों से (अन्या) और (नामानि) नामों को (सुते) उत्पन्न किये हुए व्यवहार में (कृण्वते) प्रसिद्ध करते हैं (एनान्) इन जनों को (कन्या) कुमारी कन्या (स्परत्) प्रसन्न करे (इति) इस प्रकार से उनके प्रति तुम भी वर्त्तो ॥ ५ ॥

    भावार्थ

    जो विद्वानों की निन्दा करें, विद्वानों में मूर्खबुद्धि और मूर्खों में विद्वद्बुद्धि करें, वे ही खल सबको तिरस्कार करने योग्य हैं ॥ ५ ॥

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    विषय

    'होता, अध्वर्यु, उद्गाता, ब्रह्मा'

    पदार्थ

    १. (ये) = जो व्यक्ति (देवपानं चमसम्) = देवों से सोमपान के पात्रभूत इस शरीर को (अनिन्दिषुः) = निन्दित करते हैं, जो शरीर को अपवित्र व मलपुञ्ज के रूप में ही देखते रहते हैं, (एनान्) = इनको (हनाम) = हम समाप्त करते हैं (इति) = यह बात (यत्) = जब (त्वष्टा) = निर्माता, ज्ञानदीप्त प्रभु (अब्रवीत्) = कहते हैं तब ऋभु आदि समझदार लोग (सुते) = शरीर में इस सोम का सम्पादन करने पर (अन्या नामानि कृण्वते) = अपने अन्य नामों को सार्थक कर लेते हैं । ऋभु 'होता' बनता है। यह अपने में ज्ञान की निरन्तर आहुति देता है। 'विश्वा' 'अध्वर्यु' बनकर यज्ञों को अपने साथ जोड़ता है। वाज 'उद्गाता' बनकर प्रभु का गुणगान करता है और अग्नि 'ब्रह्मा' बनकर वेदसन्देश सुनाता है। इस प्रकार इनका जीवन यज्ञमय हो जाता है। संक्षेप में भाव यह है कि इस शरीर को घृणित वस्तु समझते रहने की अपेक्षा यह अच्छा है कि हम इसे यज्ञभूमि समझें। इसकी -निन्दा करनेवाले प्रभु से दण्डनीय ही होते हैं । २. (एनान्) = इन (सचान्) = यज्ञादि उत्तम कर्मों से अपना मेल करनेवालों को (कन्या) = यह प्रभु की पुत्री - ज्ञानदीप्त वेदवाणी (अन्यैः नामभिः) = इन होता आदि अन्य नामों से (स्परत्) = प्रीणित करती है [स्पृ प्रीतिबलनयोः] अथवा अन्य नामों से प्रेरणा देती हुई सबल बनाती है। मैं 'होता, अध्वर्यु, उद्गाता व ब्रह्मा हूँ' इस प्रकार अनुभव करनेवाला व्यक्ति प्रीणित तो होता ही है, वह अपने अन्दर एक शक्ति का भी अनुभव करता है।

    भावार्थ

    भावार्थ – शरीर की निन्दा न करके इसे पवित्र यज्ञभूमि बनाकर हम होता, अध्वर्यु, उद्गाता व ब्रह्मा बनें। ये नाम हमें प्रीणित करनेवाले हों ।

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    विषय

    दुष्टों के दमन का उपाय ।

    भावार्थ

    ( ये ) जो लोग ( चमसं ) मेघ के समान सब सुखों के वर्षक राष्ट्र के भोक्ता ( देवपानम् ) विद्वानों द्वारा पालन करने योग्य राजा के ( अनिन्दिषुः ) निन्दक हैं ( एनान् ) उनको ( हनाम ) हम मारें ( इति ) इस प्रकार से ( यत् ) जब ( त्वष्टा ) सूर्य के समान तेजस्वी पुरुष (अब्रवीत्) आज्ञा या निश्चय कहता है । तब ( सुते ) उत्तम शासनाभिषेक हो जाने पर या उत्तम शासन में वे पुरुष दण्ड से भयभीत होकर ( अन्या नामानि ) अन्य अन्य प्रकार के शत्रु पक्ष के दबाने के साधनों को भी ( कृण्वते ) करते हैं और ( कन्या ) तेजस्विनी सेना प्रजापति, प्रजापालक राजा की शक्ति या उत्तम राज्यव्यवस्थापक राजसभा ( अन्यैः नामभिः ) नाना वश करने के उपायों से ( एनान् ) इन राष्ट्रवासी ( सचान् ) संघ बनाकर मिले हुए मनुष्यों को ( स्परत् ) पाले पोपे, प्रसन्न करे और आगे बढ़ावे । इति चतुर्थो वर्गः ॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    दीर्घतमा ऋषिः ॥ ऋभवो देवता ॥ छन्दः– १ विराट् जगती ॥ ३, ५, ६, ८, १२ निचृज्जगती । ७, १० जगती च । ३ निचृत् त्रिष्टुप् । ४, १३ भुरिक् त्रिष्टुप् । ९ स्वराट् त्रिष्टुप । ११ त्रिष्टुप् । १४ स्वराट् पङ्क्तिः । चतुर्दशर्चं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जे विद्वानांची निन्दा करतात व विद्वानात मूर्खबुद्धी व मूर्खात विद्वद्बुद्धी करतात तेच खल असून सर्वांनी तिरस्कार करावा असे असतात. ॥ ५ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    If Tvashta, master analyst and expert maker, were to say: “Let us reject these,’ about those who mock at the ladleful of yajnic input or the cloud, analysed, synthesised and restructured, then let us reject the undue criticism. And when the soma has been distilled, that is, when the result has been obtained from the scientific yajna, let us describe the achievement by other names, and let the delighted beneficiary too call the new product by other favourite names, the soma is worthy of the gods to drink.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    In the praise of men of technology.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    A learned person who is full of splendor like the sun says that we may destroy those wicked persons, who speak ill of water of the cloud and the senses and other useful objects created by God. That cloud is drnuk by the rays. When people unite and Soma (the juice of the nourishing herbs) is extracted, a virgin calls it by different names and likewise different persons are also called by different names (to denote their attributes) by her. She thus pleases all by her subtle and vast knowledge.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    Those wicked persons who continue to malign enlightened men, regard scholars as foolish and foolish persons as enlightened persons. They should be dishonored by all.

    Foot Notes

    (त्वष्टा ) छेत्ता सूर्य: इव विद्वान् = A great scholar who is like the sun, i.e. destroyer of the darkness of ignorance. (स्परत्) प्रीणयेत् = Satisfies or pleases.

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