ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 168/ मन्त्र 2
ऋषिः - अगस्त्यो मैत्रावरुणिः
देवता - मरुतः
छन्दः - विराट्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
व॒व्रासो॒ न ये स्व॒जाः स्वत॑वस॒ इषं॒ स्व॑रभि॒जाय॑न्त॒ धूत॑यः। स॒ह॒स्रिया॑सो अ॒पां नोर्मय॑ आ॒सा गावो॒ वन्द्या॑सो॒ नोक्षण॑: ॥
स्वर सहित पद पाठव॒व्रासः॑ । न । ये । स्व॒ऽजाः । स्वऽत॑वसः । इष॑म् । स्वः॑ । अ॒भि॒ऽजाय॑न्त । धूत॑यः । स॒ह॒स्रिया॑सः । अ॒पाम् । न । ऊ॒र्मयः॑ । आ॒सा । गावः॑ । वन्द्या॑सः । न । उ॒क्षणः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
वव्रासो न ये स्वजाः स्वतवस इषं स्वरभिजायन्त धूतयः। सहस्रियासो अपां नोर्मय आसा गावो वन्द्यासो नोक्षण: ॥
स्वर रहित पद पाठवव्रासः। न। ये। स्वऽजाः। स्वऽतवसः। इषम्। स्वः। अभिऽजायन्त। धूतयः। सहस्रियासः। अपाम्। न। ऊर्मयः। आसा। गावः। वन्द्यासः। न। उक्षणः ॥ १.१६८.२
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 168; मन्त्र » 2
अष्टक » 2; अध्याय » 4; वर्ग » 6; मन्त्र » 2
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अष्टक » 2; अध्याय » 4; वर्ग » 6; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह ।
अन्वयः
हे विद्वांसो ये स्वजाः स्वतवसो धूतयो वव्रासो नापां सहस्रियास ऊर्मयो नासा वन्द्यासो गाव उक्षणो नेषं स्वश्चाभिजायन्त तान् यूयं विजानीत ॥ २ ॥
पदार्थः
(वव्रासः) सद्यो गन्तारः। अत्र व्रजधातोर्बाहुलकादौणादिको डः प्रत्ययः द्वित्वञ्च (न) इव (ये) (स्वजाः) स्वस्मात्कारणाज्जाताः (स्वतवसः) स्वकीयबलयुक्ताः (इषम्) ज्ञानम् (स्वः) सुखम् (अभिजायन्त) (धूतयः) गन्तारः कम्पयितारश्च (सहस्रियासः) सहस्राणि (अपाम्) जलानाम् (न) इव (ऊर्म्मयः) तरङ्गाः (आसा) मुखेन (गावः) धेनवः (वन्द्यासः) वन्दितुं कामयितुमर्हाः (न) इव (उक्षणः) वृषभान् ॥ २ ॥
भावार्थः
अत्रोपमालङ्कारः। ये वायुवद्बलिष्ठास्तरङ्गवदुत्साहिनो गोवदुपकारकाः कारणवत् सुखजनका दुष्टानां कम्पयितारो मनुष्याः स्युस्तेऽत्र धन्या भवन्ति ॥ २ ॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।
पदार्थ
हे विद्वानो ! (ये) जो (स्वजाः) अपने ही कारण से उत्पन्न (स्वतवसः) अपने बल से बलवान् (धूतयः) जाने वा दूसरों को कम्पानेवाले मनुष्य (वव्रासः) शीघ्रगामियों के (न) समान वा (अपाम्) जलों की (सहस्रियासः) हजारों (ऊर्मयः) तरङ्गों के (न) समान (आसा) मुख से (वन्द्यासः) वन्दना और कामना के योग्य (गावः) गौएँ जैसे (उक्षणः) बैलों को (न) वैसे (इषम्) ज्ञान और (स्वः) सुख को (अभिजायन्त) प्रकट करते हैं उनको तुम जानो ॥ २ ॥
भावार्थ
इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जो पवन के समान बलवान्, तरङ्गों के समान उत्साही, गौओं के समान उपकार करनेवाले, कारण के तुल्य सुखजनक दुष्टों को कम्पाने भय देनेवाले मनुष्य हों, वे यहाँ धन्य होते हैं ॥ २ ॥
विषय
प्रेरणा व प्रकाश की ओर
पदार्थ
१. गत मन्त्र के अनुसार प्राणसाधना करनेवाले पुरुष (वव्रासो न) = [व्रज गतौ, सद्यो गन्तारः - द०] शीघ्र गतिशील पुरुषों के समान होते हैं अथवा [वत्रिः, इति रूपनाम - सा०] उत्तम रूपवाले होते हैं, (स्वजाः) = आत्मशक्ति का विकास करनेवाले (स्वतवस:) = आत्मिक बलवाले ये जो पुरुष हैं, वे (इषम्) = [अभि] प्रेरणा की ओर तथा (स्वः अभि) = आत्म-प्रकाश की ओर (जायन्त) = अग्रसर होते हैं, अर्थात् ये प्रभु-प्रेरणा के अनुसार चलते हैं और इस प्रेरणा से उन्हें प्रकाश प्राप्त होता है। इसी कारण ये (धूतयः) = वासनाओं को कम्पित करके दूर भगानेवाले होते हैं । २. ये लोग (सहस्त्रियास:) = हजारों (अपाम् ऊर्मयः न) = जलों की लहरों के समान होते हैं । जिस प्रकार नदी में तरंगें उठती हैं, उसी प्रकार इनके हृदय उल्लासों से तरंगित रहते हैं। इनका उत्साह सदा बना रहता है। ३. (आसा) = मुख से ये (गाव:) = गौओं के समान होते हैं। गौएँ जैसे दूध देती हैं, उसी प्रकार ये लोग मुख से ज्ञानदुग्ध देनेवाले होते हैं। ४. (उक्षण: न) = जलों से सींचनेवाले मेघों के समान ये साधक सर्वत्र ज्ञान का सेचन करते हुए (वन्द्यासः) = वन्दनीय व स्तुति के योग्य होते हैं ।
भावार्थ
भावार्थ - प्राणसाधक पुरुष प्रभु की प्रेरणा व प्रकाश में चलते हुए वासनाओं को कम्पित करके दूर भगा देते हैं । ये उल्लासमय हृदयवाले होते हुए सदा ज्ञानजल से सभी का सेचन करते हैं ।
विषय
विद्वानों को ज्ञानोपदेश करने का कर्त्तव्य ।
भावार्थ
( ये ) जो विद्वान् पुरुष ( वत्रासः ) सदा चलने हारे, वायुओं और प्राणों के समान परोपकारी जीवन की वृद्धि के लिये निरन्तर देश देशान्तर में भ्रमण करने हारे ( स्वजाः ) स्वयं बल ऐश्वर्य और आत्म सामर्थ्य से संसार में प्रकट हैं, और प्रसिद्ध (स्वतवसः) स्वयं अपने बल से बलवान्, ( धूतयः ) वृक्षों के कंपाने वाले वायुओं के समान शत्रुओं को और बाधक, मोह आदि अन्तः शत्रुओं को कंपाकर दूर करने हारे, निःसंग ( स्वः ) परम सुखमय, सूर्य के समान प्रकाशमय, ( इषं ) सर्व कामनामय, सर्व प्रेरक परमेश्वर को (अभि जायन्त) साक्षात् करते हैं, वे ( सहस्त्रियासः ) संख्या में सहस्रों, या बलवान् आत्मा वाले ( अपां ऊर्मयः न ) जलों की तरंगों के समान स्वयं भी ( अपां ऊर्मयः ) ज्ञानों और कर्मों का उपदेश करने हारे तथा ( गावः ) गौओं के समान ज्ञानदुग्ध से सब को पालने वाले और ( वन्द्यासः ) अभिवादन, आदर और कामना करने योग्य ( उक्षणः नः ) सेचन करने वाले मेघों के समान ( आसा ) मुख द्वारा मुख से ज्ञान का वर्षण करने हारे हैं। अथवा वे (आसा गावः) मुख से आदित्य समान तेजस्वी, स्तुत्य और मेघ के समान ज्ञानवर्षक हैं । (२) सैनिक लोग शीघ्रगन्ता, स्वयम् बलवान् प्रेरक आज्ञापक सेनापति को लक्ष्य किये रहते हैं । वे शत्रुओं को कंपाते, संख्या में हजारों समुद्र तरंगों के समान हैं। वे ( आसा गावः) मुख या अग्रभाग से आगे बढ़ने वाले, स्तुति योग्य, ( उक्षणः नः ) मेघों के समान शरवर्षी हों ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अगस्त्य ऋषिः ॥ मरुतो देवता ॥ छन्दः– १, ४, निचृज्जगती । २,५ विराट् त्रिष्टुप् । ३ स्वराट् त्रिष्टुप् । ६, ७, भुरिक् त्रिष्टुप् । ८ त्रिष्टुप् । ९ निचृत् त्रिष्टुप् । १० पङ्क्तिः ।
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात उपमालंकार आहे, जी वायूप्रमाणे बलवान, तरंगाप्रमाणे उत्साही, गाईप्रमाणे उपकारक, कारणाप्रमाणे सुखकारक, दुष्टांना भयकंपित करणारी माणसे असतात, ती धन्य होत. ॥ २ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Come this way, Maruts! Powers ever on the move for protection and progress of us all, self-creative, self-strong, movers and shakers like a thousand waves of the rolling seas, they are born to provide nourishment, energy, light and happiness for others. Worthy of honour and reverence they are like generous cows who provide motherly milk for sustenance and growth, and like the sacrificing bullocks who carry the burdens of humanity. Admirable, worthy of thanks and praise with honest word of the mouth they are.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
Again in the praise of Maruts.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O learned persons! you know the active and mighty persons with their man power. They are fast moving and ward off the wicked people in no time. They are innumerable like the thousands of waves of water. They manifest knowledge and happiness with their oral teachings, like the cows which give birth to mighty bulls.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Blessed are those persons who are mighty like the winds, full of zeal like the waves benevolent like the cows, causing happiness like a noble cause and they ward off the wicked.
Foot Notes
(वव्रास:) सद्योगन्तरः = Moving rapidly or active. (इषम्) ज्ञानम् = Knowledge.
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