ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 168/ मन्त्र 3
ऋषिः - अगस्त्यो मैत्रावरुणिः
देवता - मरुतः
छन्दः - स्वराट्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
सोमा॑सो॒ न ये सु॒तास्तृ॒प्तांश॑वो हृ॒त्सु पी॒तासो॑ दु॒वसो॒ नास॑ते। ऐषा॒मंसे॑षु र॒म्भिणी॑व रारभे॒ हस्ते॑षु खा॒दिश्च॑ कृ॒तिश्च॒ सं द॑धे ॥
स्वर सहित पद पाठसोमा॑सः । न । ये । सु॒ताः । तृ॒प्तऽअं॑शवः । हृ॒त्ऽसु । पी॒तासः॑ । दु॒वसः॑ । न । आस॑ते । आ । ए॒षा॒म् । अंसे॑षु । र॒म्भिणी॑ऽइव । र॒र॒भे॒ । हस्ते॑षु । खा॒दिः । च॒ । कृ॒तिः । च॒ । सम् । द॒धे॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
सोमासो न ये सुतास्तृप्तांशवो हृत्सु पीतासो दुवसो नासते। ऐषामंसेषु रम्भिणीव रारभे हस्तेषु खादिश्च कृतिश्च सं दधे ॥
स्वर रहित पद पाठसोमासः। न। ये। सुताः। तृप्तऽअंशवः। हृत्ऽसु। पीतासः। दुवसः। न। आसते। आ। एषाम्। अंसेषु। रम्भिणीऽइव। ररभे। हस्तेषु। खादिः। च। कृतिः। च। सम्। दधे ॥ १.१६८.३
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 168; मन्त्र » 3
अष्टक » 2; अध्याय » 4; वर्ग » 6; मन्त्र » 3
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अष्टक » 2; अध्याय » 4; वर्ग » 6; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह ।
अन्वयः
अहं ये सुतास्तृप्तांशवः सोमासो हृत्सु पीतासो न दुवसो न आसत एषामंसेषु रम्भिणीव आरारभे। यैर्हस्तेषु खादिश्च कृतिश्च ध्रियते तैस्सह सर्वाः सत्क्रियाः सन्दधे ॥ ३ ॥
पदार्थः
(सोमासः) सोमाद्योषधिरसाः (न) इव (ये) मरुत इव विद्वांसः (सुताः) निस्सारिताः (तृप्तांशवः) तृप्ता अंशवो येभ्यस्ते (हृत्सु) हृदयेषु (पीतासः) पीताः (दुवसः) परिचारकाः (न) इव (आसते) (आ) (एषाम्) (अंसेषु) भुजस्कन्धेषु (रम्भिणीव) यथाऽऽरम्भिका गृहकार्येषु चतुरा स्त्री (रारभे) रेभे (हस्तेषु) करेषु (खादिः) भोजनम् (च) (कृतिः) क्रिया (च) (सम्) सम्यक् (दधे) ॥ ३ ॥
भावार्थः
अत्रोपमालङ्कारः। ये सज्जना ओषधीवत्कुशिक्षादुष्टाचारविनाशकाः परिचारकवत् सुखप्रदाः पतिव्रतास्त्रीवत् प्रियाचारिणः क्रियाकुशलाः सन्ति तेऽत्र सृष्टौ सर्वा विद्याः संधातुमर्हन्ति ॥ ३ ॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।
पदार्थ
मैं (ये) जो पवनों के समान विद्वान् (तृप्तांशवः) जिनसे सूर्य किरण आदि पदार्थ तृप्त होते और वे (सुताः) कूट-पीट निकाले हुए (सोमासः) सोमादि ओषधि रस (हृत्सु) हृदयों में (पीतासः) पीये हुए हों उनके (न) समान वा (दुवसः) सेवन करनेवालों के (न) समान (आसते) बैठते स्थिर होते (एषाम्) इनके (अंसेषु) भुजस्कन्धों में (रम्भिणीव) जैसे प्रत्येक काम का आरम्भ करनेवाली स्त्री संलग्न हो वैसे (आ, रारभे) संलग्न होता हूँ। और जिन्होंने (हस्तेषु) हाथों में (खादिः) भोजन (च) और (कृतिः) क्रिया (च) भी धारण की है उनके साथ सब क्रियाओं को (सम्, दधे) अच्छे प्रकार धारण करता हूँ ॥ ३ ॥
भावार्थ
इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जो सज्जन ओषधियों के समान दुष्ट शिक्षा और दुष्टाचार के विनाश करने, सेवकों के समान सुख देने और पतिव्रता स्त्री के समान प्रिय आचरण करनेवाले क्रियाकुशल हैं, वे इस सृष्टि में सब विद्याओं के अच्छे धारण करने यथायोग्य कामों में वर्त्ताने को योग्य होते हैं ॥ ३ ॥
विषय
क्रियाशीलता व भोजन
पदार्थ
१. मरुत् अर्थात् प्राण वे हैं (ये) = जो (सुता:) = उत्पन्न हुए-हुए (सोमासः न) = सोमकणों के समान हैं। ये हमारे जीवनों में (तृप्तांशवः) = ज्ञान की किरणों को हर्षित करनेवाले हैं [तृप् = to gladden]। सोमकण सुरक्षित होकर ज्ञानाग्नि का ईंधन बनते हैं। प्राण इन सोमकणों को रक्षित करके बुद्धि का वर्धन करनेवाले होते हैं। ये सोमकण, प्राणसाधना के द्वारा, (पीतास:) = शरीर में ही रक्षित किये हुए (हृत्सु) = हृदयों में (दुवसः न) = परिचर्या-उपासना करनेवालों के समान (आसते) = आसीन होते हैं, अर्थात् मस्तिष्क के दृष्टिकोण से ये ज्ञानवर्धक हैं और हृदय के दृष्टिकोण से उपासना की वृत्तिवाले हैं, एवं प्राणसाधना हमें ज्ञानी व उपासक बनाती है । २. (एषाम्) = इन प्राणसाधकों के अंसेषु कन्धों पर (रम्भिणी इव) = आश्रय लेनेवाली के समान (रारभे) = वेदवाणीरूप 'युवति' [१।१६७।६ के अनुसार] आश्रय करती है, मानो वेदवाणी का इसके साथ परिणय हो जाता है च और (हस्तेषु) = इनके हाथों में (खादिः) = खाद्य भोजन (च) = तथा (कृतिः) = क्रियाशीलता (संदधे) = [सं धीयते] सम्यक् धारण की जाती है। वेदवाणी के अनुसार क्रियाओं को करते हुए ये अपने भोजन का अर्जन करते हैं ।
भावार्थ
भावार्थ – प्राणसाधना से मस्तिष्क में ज्ञान तथा हृदय में उपासना की वृत्ति उत्पन्न होती है। इस साधना से हमारा वेदवाणी से परिणय होता है और हम क्रियाशील बनकर अपने भोजन को कमानेवाले होते हैं। ।
विषय
पत्नीवत् उनको संगिनी शक्ति का वर्णन ।
भावार्थ
( सोमासा न ) सोम आदि औषधियां जिस प्रकार ( तृप्तांशवः ) एक एक रेशे में तृप्त अर्थात् रस से पूर्ण होती हैं उसी प्रकार जो मरुद् गण विद्वान् और वीर पुरुष (सोमासः) सौम्य गुणों से युक्त शिष्य जनों के समान ( सुताः ) पुत्र और अपने औरस पुत्रों के समान शिष्य और ( सुताः ) विशेष अधिकार पर अभिषिक्त राज पुरुष हैं वे ( हृत्सु पीतासः ) हृदयों में अर्थात् हृदय भर कर पान करने वाले पूर्ण तृप्त अति संतुष्ट, तृष्णारहित होकर ( दुवसः न ) सेवकों के समान सदा सेवा करने को तैयार होकर ( आसते ) विराजें । ( अंसेषु रम्भिणीव ) उत्तम गृहस्थ कार्यों को आरम्भ करनेवाली, या प्रेमालिंगन करने वाली स्त्री जिस प्रकार कन्धों पर हाथ रखकर पति का आलम्ब और आलिंगन करती है उसी प्रकार ( एषाम् अंसेषु ) इन वीर पुरुषों के कंधों पर ( रम्भिणी ) बलवती अस्त्रादि शक्ति, ( रारभे ) आश्रय पाती है और ( हस्तेषु ) हाथों में ( खादिः च ) अपना खाद्य भोजन और ( कृतिः च ) क्रिया कौशल या कर्त्तव्य अथवा ( खादिः च कृतिः च ) हाथों में हस्त त्राण और काटने वाली तलवार ( सं दधे ) सदा तैयार रहती है। वायुओं के पक्ष में—ये वायुगण जल से पूर्ण होकर ‘तृप्तांशु’ हो जाते हैं । वे भी खूब जल पान करके सेवकों के समान कार्य करते हैं। उनके झंकारों में विद्युत् गर्जती है। उनके आघातो में ‘खादि’ अन्न और ‘कृति’ उनका काटना स्थित हैं । ( ३ ) प्राणों के पक्ष में—‘पशु’ आत्मा, ‘रम्भिणी’ वाणी, ‘खादि’ भूख और ‘कृति’ क्रिया सामर्थ्य ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अगस्त्य ऋषिः ॥ मरुतो देवता ॥ छन्दः– १, ४, निचृज्जगती । २,५ विराट् त्रिष्टुप् । ३ स्वराट् त्रिष्टुप् । ६, ७, भुरिक् त्रिष्टुप् । ८ त्रिष्टुप् । ९ निचृत् त्रिष्टुप् । १० पङ्क्तिः ।
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात उपमालंकार आहे. जे चांगले पुरुष औषधीप्रमाणे दुष्ट शिक्षण व दुष्टाचाराचा विनाश करणारे असतात, सेवकाप्रमाणे सुख देणारे असून पतिव्रता स्त्रियांप्रमाणे प्रिय आचरण करणारे व क्रियाकुशल असतात ते या सृष्टीत सर्व विद्या चांगल्या प्रकारे धारण करतात व यथायोग्य क्रिया करणारे असतात. ॥ ३ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Maruts, vibrant powers of enlightenment, nourishment and protection, like soma, with off-shoots spreading around, distilled and drunk to the last drop of the essence assimilated into the heart, abide with us, loved, honoured and admired as our own. I depend on their shoulders for support as a housewife depends upon the support of the head of family. And in their hands, the Maruts hold action in one and wear the band of victory on the other.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The attributes of learned persons.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
I join all my noble actions with persons who are like the Soma plants, with well nourished branches. These grow further then poured out (in libations) and are imbibed. Such persons get affection from all men, and they render useful service voluntarily and selflessly. I depend upon their shoulders like an active good wife (Depending upon her husband expert in domestic works). Such people have food material at their disposal as well as the power of action.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
The persons can acquire the knowledge of all sciences in this world, if they are capable to destroy ill education and evil conduct. They please like the servants and perform dear acts, like the chaste wives who are dexterous in doing noble deeds.
Foot Notes
(दुवसः) परिचारका: = Attendants or servants. ( रम्भिणी इव ) यथाऽऽरम्भिका गृहकार्येषु चतुरा स्त्री = Like an active chaste wife expert in domestic works.
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