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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 168 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 168/ मन्त्र 9
    ऋषिः - अगस्त्यो मैत्रावरुणिः देवता - मरुतः छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    असू॑त॒ पृश्नि॑र्मह॒ते रणा॑य त्वे॒षम॒यासां॑ म॒रुता॒मनी॑कम्। ते स॑प्स॒रासो॑ऽजनय॒न्ताभ्व॒मादित्स्व॒धामि॑षि॒रां पर्य॑पश्यन् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    असू॑त । पृश्निः॑ । म॒ह॒ते । रणा॑य । त्वे॒षम् । अ॒यासा॑म् । म॒रुता॑म् । अनी॑कम् । ते । स॒प्स॒रासः । अ॒ज॒न॒य॒न्त॒ । अभ्व॑म् । आत् । इत् । स्व॒धाम् । इ॒षि॒राम् । परि॑ । अ॒प॒श्य॒न् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    असूत पृश्निर्महते रणाय त्वेषमयासां मरुतामनीकम्। ते सप्सरासोऽजनयन्ताभ्वमादित्स्वधामिषिरां पर्यपश्यन् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    असूत। पृश्निः। महते। रणाय। त्वेषम्। अयासाम्। मरुताम्। अनीकम्। ते। सप्सरासः। अजनयन्त। अभ्वम्। आत्। इत्। स्वधाम्। इषिराम्। परि। अपश्यन् ॥ १.१६८.९

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 168; मन्त्र » 9
    अष्टक » 2; अध्याय » 4; वर्ग » 7; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह ।

    अन्वयः

    एषामयासां मरुतां पृश्निरिव त्वेषमनीकं महते रणायासूत ते आदिदिषिरां स्वधामजनयन्त सप्सरासः सन्तोऽभ्वं पर्य्यपश्यन् ॥ ९ ॥

    पदार्थः

    (असूत) सूते (पृश्निः) आदित्य इव (महते) (रणाय) संग्रामाय (त्वेषम्) प्रदीप्तम् (अयासाम्) गन्तॄणाम् (मरुताम्) मनुष्याणाम् (अनीकम्) सैन्यम् (ते) (सप्सरासः) गन्तारः। अत्र सप्तेरौणादिकः सरप्रत्ययः। सप्तीति गतिकर्मा। निघं० ३। १४। (१) (अजनयन्त) (अभ्वम्) अविद्यमानम् (आत्) अनन्तरम् (इत्) एव (स्वधाम्) अन्नम् (इषिराम्) प्राप्तव्याम् (परि) (अपश्यन्) सर्वतः पश्येयुः ॥ ९ ॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। ये विचक्षणा राजपुरुषा विजयाय प्रशस्तां सेनां स्वीकृत्याऽन्नाद्यैश्वर्यमुन्नयन्ति ते तृप्तिमाप्नुवन्ति ॥ ९ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

    पदार्थ

    इन (अयासाम्) गमनशील (मरुताम्) मनुष्यों का (पृश्निः) आदित्य के समान प्रचण्ड प्रतापवान् (त्वेषम्) प्रदीप्त (अनीकम्) सैन्यगण (महते) महान् (रणाय) संग्राम के लिये (असूत) उत्पन्न होता है (आत्) इसके अनन्तर (इत्) ही (ते) वे (इषिराम्) प्राप्त होने योग्य (स्वधाम्) अन्न को (अजनयन्त) उत्पन्न करते और (सप्सरासः) गमन करते हुए (अभ्वम्) अविद्यमान अर्थात् जो प्रत्यक्ष विद्यमान नहीं उसको (पर्य्यपश्यन्) सब ओर से देखते हैं ॥ ९ ॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो विचक्षण राजपुरुष विजय के लिये प्रशंसित सेना को स्वीकार कर अन्नादि ऐश्वर्य की उन्नति करते हैं, वे तृप्ति को प्राप्त होते हैं ॥ ९ ॥

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    विषय

    महान् प्रभु का प्रादुर्भाव

    पदार्थ

    १. (पृश्नि:) = [संस्प्रष्टा भासाम्] गत मन्त्र के अनुसार दीप्तियों का अपने साथ सम्पर्क करनेवाला प्राणसाधक पुरुष (महते रणाय) = महान् सौन्दर्य के लिए, जीवन को अत्यन्त रमणीय बनाने के लिए (अयासाम्) = निरन्तर गतिशील (मरुताम्) = प्राणों के (त्वेषम्) = दीप्त (अनीकम्) = बल को असूत अपने में उत्पन्न करता है। प्राणसाधक प्राणसाधना से दीप्तियुक्त बल को प्राप्त होता है। उसका बल भी बढ़ता है और ज्ञान की दीप्ति भी । (ते) = वे (सप्सरासः) = [सप् समवाये, गतौ] प्रभु के मेल के साथ गतिवाले पुरुष (अभ्वम्) = उस महान् प्रभु को (अजनयन्त) = अपने में प्रादुर्भूत करते हैं और (आत् इत्) = इस प्रभु के प्रादुर्भाव के साथ ही वे अपने अन्दर (इषिराम्) = गतियों के कारणभूत (स्वधाम्)= आत्मधारण-शक्ति को (पर्यपश्यन्) = देखते हैं। इनमें उस आत्मशक्ति का प्रादुर्भाव होता है जिससे कि ये गतिशील बने रहते हैं ।

    भावार्थ

    भावार्थ - ज्ञानी पुरुष प्राणों के दीप्ति-बल को सिद्ध करके श्रद्धा से प्रभु में गति करता हुआ प्रभु का दर्शन करता है और अपने में उस आत्मधारण-शक्ति को अनुभव करता है जो उसे सतत क्रियामय बनानेवाली होती है।

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    विषय

    विद्युतों का यज्ञ से सम्बन्ध ।

    भावार्थ

    जिस प्रकार ( पृश्निः ) सूर्य (महते रणाय) बड़े भारी रमण, अर्थात् जीव लोक के आनन्द पूर्वक रमण करने के लिये ( त्वेषम् असूत ) अपना प्रकाश, तीक्ष्ण ताप उत्पन्न करता और ( अयासाम् ) वेग से जाने वाले (मरुताम् अनीकं च असूत) वायु गणों के समूह को भी प्रेरित करता है । और ( ते ) वे ( सप्सरासः ) तीव्र वेग से जाने वाले वायु गण ( अभ्वम् ) जल मय मेघ को ( अजनयन्त ) उत्पन्न करते हैं ( आत् इत् ) उसके अनन्तर लोग (इषिराम् ) इच्छानुकूल ( स्वधाम् ) जल और खेतों में अन्न को ही ( परिपश्यन् ) सब ओर बरसा और उत्पन्न हुआ देखते हैं उसी प्रकार ( पृश्निः ) आदित्य के समान तेजस्वी ऐश्वर्यवान् प्रतापी राजा या सेनापति ( महते रणाय ) बड़े भारी संग्राम के विजय के लिये ( त्वेषं ) अपने तेज ( अयासां ) आक्रमण करने में कुशल ( मरुताम् अनीकम् ) शत्रुमारक वीर पुरुषों के सैन्य को या ( त्वेषम् अनीकम् ) अति तीक्ष्ण प्रदीप्त सैन्य को ( असूत ) उत्पन्न करे और आज्ञा से चलावे । ( ते ) वे ( सप्सरासः ) समवाय या दस्ते या दल बना कर चलने हारे वीर जन ( अभ्वम् ) असामर्थ्य, थकान ( अजनयन्त ) प्रकट करते हैं । बाद में वे ( स्वधाम् ) अपने रक्षा और ( इषिरां ) अभिलषित वेतन और अन्न को भी प्राप्त करते हैं ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अगस्त्य ऋषिः ॥ मरुतो देवता ॥ छन्दः– १, ४, निचृज्जगती । २,५ विराट् त्रिष्टुप् । ३ स्वराट् त्रिष्टुप् । ६, ७, भुरिक् त्रिष्टुप् । ८ त्रिष्टुप् । ९ निचृत् त्रिष्टुप् । १० पङ्क्तिः ।

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जे चतुर विद्वान राजपुरुष विजयासाठी प्रशंसित सेनेचा स्वीकार करून अन्न इत्यादी ऐश्वर्य वाढवतात, ते तृप्त असतात.

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Mother Nature creates the blazing force of the tempestuous Maruts for the great battle of the elements in the process of evolution, and they, moving and working together with the waves of creative energy, fashion forms earlier not in existence and watch the achievements of their own powers all round in the midst of the variety of creative materials.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    In the praise of brave persons.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    The brilliant troops of the Maruts-the brave soldiers who are resplendent like the sun stood in readiness for waging war with the wicked, un-righteous persons. They being active, produce the necessary agriculture output and shower great happiness, not earlier seen there before.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    Those wonderful persons and officers of the state who boost agricultural productions and other material, having built a good army for victory, get satisfaction and delight.

    Foot Notes

    (पुश्नि:) आदित्य: = Sun. ( सप्तरास:) गन्तार: = Goers.

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