Loading...
ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 168 के मन्त्र
1 2 3 4 5 6 7 8 9 10
मण्डल के आधार पर मन्त्र चुनें
अष्टक के आधार पर मन्त्र चुनें
  • ऋग्वेद का मुख्य पृष्ठ
  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 168/ मन्त्र 4
    ऋषिः - अगस्त्यो मैत्रावरुणिः देवता - मरुतः छन्दः - निचृज्जगती स्वरः - निषादः

    अव॒ स्वयु॑क्ता दि॒व आ वृथा॑ ययु॒रम॑र्त्या॒: कश॑या चोदत॒ त्मना॑। अ॒रे॒णव॑स्तुविजा॒ता अ॑चुच्यवुर्दृ॒ळ्हानि॑ चिन्म॒रुतो॒ भ्राज॑दृष्टयः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अव॑ । स्वऽयु॑क्ताः । दि॒वः । आ । वृथा॑ । य॒युः॒ । अम॑र्त्याः । कश॑या । चो॒द॒त॒ । त्मना॑ । अ॒रे॒णवः॑ । तु॒वि॒ऽजा॒ताः । अ॒चु॒च्य॒वुः॒ । दृ॒ळ्हानि॑ । चि॒त् । म॒रुतः॑ । भ्राज॑द्ऽऋष्टयः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अव स्वयुक्ता दिव आ वृथा ययुरमर्त्या: कशया चोदत त्मना। अरेणवस्तुविजाता अचुच्यवुर्दृळ्हानि चिन्मरुतो भ्राजदृष्टयः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अव। स्वऽयुक्ताः। दिवः। आ। वृथा। ययुः। अमर्त्याः। कशया। चोदत। त्मना। अरेणवः। तुविऽजाताः। अचुच्यवुः। दृळ्हानि। चित्। मरुतः। भ्राजद्ऽऋष्टयः ॥ १.१६८.४

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 168; मन्त्र » 4
    अष्टक » 2; अध्याय » 4; वर्ग » 6; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह ।

    अन्वयः

    हे मनुष्या यूयं त्मना कशया यथा स्वयुक्ता अमर्त्या अरेणवस्तुविजाता भ्राजदृष्टयो मरुतो दिव आययुर्दृढानि चिद्वृथाऽवाऽचुच्यवुस्तथैताञ्चोदत ॥ ४ ॥

    पदार्थः

    (अव) (स्वयुक्ताः) स्वेनैव गच्छन्तः (दिवः) आकाशात् (आ) (वृथा) (ययुः) गच्छन्ति (अमर्त्याः) मरणधर्म्मरहिताः (कशया) शासनेन गत्या वा (चोदत) प्रेरयत (त्मना) आत्मना (अरेणवः) न विद्यन्ते रेणवो येषु ते (तुविजाताः) तुविना बलेन सह प्रसिद्धाः (अचुच्यवुः)। अत्र व्यत्ययेन परस्मैपदम्। (दृढानि) (चित्) अपि (मरुतः) वायवः (भ्राजदृष्टयः) भ्राजन्त ऋष्टयो गतयो येषान्ते ॥ ४ ॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा वायवो स्वयमेव गच्छन्त्यागच्छन्ति अग्न्यादीन् धृत्वा दृढत्वेन प्रकाशयन्ति तथा विद्वांसस्स्वयमेवाऽध्यापनोपदेशेषु नियुक्त्वा व्यर्थानि कर्माणि त्यक्त्वा त्याजयित्वा च विद्यासुशिक्षाभिस्सर्वाञ्जनान् द्योतयन्ति ॥ ४ ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

    पदार्थ

    हे मनुष्यो ! तुम (त्मना) आत्मा से (कशया) शिक्षा या गति से जैसे (स्वयुक्ताः) अपने से गमन करनेवाले (अमर्त्याः) मरणधर्मरहित (अरेणवः) जिनमें रेणु वालू नहीं विद्यमान (तुविजाताः) बल के साथ प्रसिद्ध और (भ्राजदृष्टयः) जिनकी प्रकाशमान गति वे (मरुतः) पवन (दिवः) आकाश से (आ, ययुः) आते प्राप्त होते हैं और (दृढ़ानि) पुष्ट (चित्) भी पदार्थों को (वृथा) वृथा निष्काम (अव, अचुच्यवुः) प्राप्त होते वैसे इनको (चोदत) प्रेरणा देओ ॥ ४ ॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे पवन आप ही जाते-आते हैं और अग्नि आदि पदार्थों को धारण कर दृढ़ता से प्रकाशित करते हैं, वैसे विद्वान् जन आप ही पढ़ाने और उपदेशों में नियुक्त हो व्यर्थ कामों को छोड़कर और छुड़वा के विद्या और उत्तम शिक्षा से सब जनों को प्रकाशित करते हैं ॥ ४ ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    कशया-त्मना

    पदार्थ

    १. गत मन्त्र में वर्णित प्राणसाधक पुरुष (अव) = [away] विषयों से दूर होकर (स्वयुक्ता) = आत्मतत्त्व से युक्त हुए हुए (वृथा) = अनायास ही [easily] (दिवः) = ज्ञानों को-प्रकाशों को (आ ययुः) = प्राप्त होते हैं। इन्हें अन्तः प्रकाश प्राप्त होने लगता है। इस अन्तः प्रकाश के कारण (अमर्त्या:) = ये विषय-वासनाओं के पीछे नहीं मरते और न ही रोगाक्रान्त होते हैं । २. ये साधक (कशया) = [कशा = वाङ् – नि०] वेदवाणी से तथा (त्मना) = आत्मा से (चोदत) = अपने को प्रेरित करते हैं। इनका जीवन वेदवाणी के अनुसार होता है और ये अन्तः स्थित आत्मा की प्रेरणा से कर्मों में प्रवृत्त होते हैं। इसी का यह परिणाम है कि ये (अरेणवः) = पाप की धूलि से मलिन नहीं होते, (तुविजाता:) = महान् विकासवाले होते हैं । ३. (भ्राजदृष्टयः) = देदीप्यमान आयुधोंवाले–दीप्त इन्द्रियों, मन व बुद्धिवाले (मरुतः) = प्राणसाधक (दूळहानि चित्) = बड़ी दृढ़ भी वासनाओं को (अचुच्यवः) = हिला देनेवाले होते हैं, दृढमूल वासनाओं को भी विनष्ट कर देते हैं ।

    भावार्थ

    भावार्थ- प्राणसाधक ज्ञान प्राप्त करके वेदवाणी के अनुसार अन्तः प्रेरणा के अनुकूल जीवन बिताते हैं । दृढमूल वासनाओं को भी विनष्ट करनेवाले होते हैं ।

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    वीरों का वायुवत् शासन कार्य । पक्षान्तर में प्राणों का देह में कार्य ।

    भावार्थ

    जिस प्रकार ( मरुतः ) वायुगण ( स्वयुक्ताः ) अपने ही ! बल से प्रेरित होकर ( दिवः वृथा ययुः ) आकाश में अनायास आते जाते हैं और (कशया त्मना चोदत) अपनी गति से आप ही सब को प्रेरित करते हैं और वे जिस प्रकार ( अरेणवः ) रेणुरहित, ( तुविजाताः ) बलशाली होकर ( भ्राजद्-ऋष्टयः ) चमकते सूर्य से रश्मियां पाकर ( दृढ़ानि अचुच्यवुः ) बड़े दृढ़ वनों, पर्वतों को भी कंपा देते हैं। उसी प्रकार ये ( मरुतः ) वीर पुरुष और विद्वान् जन ( स्वयुक्ताः ) धनैश्वर्य के द्वारा नियुक्त होकर ( दिवः ) द्यौ, अर्थात् तेजस्वी पुरुष के अधीन (वृथा) अनायास ही (अव आ च ययुः) जाते आते हैं, छोटे बड़े सब कार्य करते हैं । वे ( अमर्त्याः ) साधारण मनुष्यों से भिन्न रहकर ( त्मना ) स्वयं ( कशया ) शासन व्यवस्था से ( चोदत ) प्रजा को संचालित करें । वे ( अरेणवः ) हिंसादि दोषों से रहित (तुवि-जाताः) बल द्वारा प्रसिद्ध, यशस्वी होकर ( आजद्-ऋष्टयः ) तीव्र गतिमान् और चम चमाते शस्त्रों से सुसज्जित होकर ( दृढानि चित् ) शत्रु के दृढ़ सैन्यों और दुर्गों को भी ( अचुच्यवुः ) कंपा देते और ( दृढ़ानि चित् अचुच्यवुः ) स्थायी ऐश्वर्यों और पदों को प्राप्त करते हैं । ( २ ) प्राणगण, आत्मा से प्रेरित होने से ‘स्वयुक्त’ हैं। योगी जन स्व आत्मा में समाहित चित्त होने से ‘स्वयुक्त’ हैं। अमरण धर्मा होने से ‘अमर्त्य’ हैं वा वाणी, वेद वाणी और विवेक, दीप्ति ‘कशा’ है । उससे और आत्म शक्ति से सबको चलाते हैं । दोष रहित, अहिंसा व्रती होने से ‘अरेणु’ हैं। शुक्ल कर्म होने से ‘भ्राजद् ऋष्टि’ हैं । दृढ़ स्थायी लोकों को प्राप्त होने से दृढ़ बाधक कारण कार्यादि को दूर करते हैं।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अगस्त्य ऋषिः ॥ मरुतो देवता ॥ छन्दः– १, ४, निचृज्जगती । २,५ विराट् त्रिष्टुप् । ३ स्वराट् त्रिष्टुप् । ६, ७, भुरिक् त्रिष्टुप् । ८ त्रिष्टुप् । ९ निचृत् त्रिष्टुप् । १० पङ्क्तिः ।

    इस भाष्य को एडिट करें

    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जसे वायू स्वतःच गमनागमन करतात व अग्नी इत्यादी पदार्थांना धारण करून दृढतेने प्रकाशित करतात. तसे विद्वान लोक स्वतःच अध्यापन व उपदेश करून निरर्थक कामाचा त्याग करून, करवून विद्या व उत्तम शिक्षणाने सर्व लोकांना प्रकाशित करतात. ॥ ४ ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Self-inspired, self-motivated and self-driven, Maruts descend from the heights of heaven freely, spontaneously and selflessly. Immortal are you, mighty heroes, inspire and excite the will to live with your heart and soul and use the will as a goal and an invitation to life. Pure and unsullied, born of energy and impetuous in motion, wielding weapons of light and lightning, O Maruts, you stir and move even the fixed and immovable mountains.

    इस भाष्य को एडिट करें

    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    In the praise of learned persons.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    In their subtlest form, the winds are immortal. They descend from the sky, are powerful and move by themselves brilliantly. They even shake the mountains. In the same manners learned persons are mighty like the winds. They are powerful enough to stir and encourage all in doing noble deeds. They also shake off all, who are ignoble and wicked.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    The winds come and go by themselves. Likewise, they strongly kindle fire etc. Similarly the learned persons should engage themselves in teaching and preaching, and should give up all useless activities. They should illuminate the hearts of all men, with their wisdom and good education.

    Foot Notes

    (कशया) शासनेन गत्या वा — By rule or movement (भ्राजदृष्टयः) भ्राजन्तः दृष्टयो गतयः येषां ते — Those which have brilliant movements. ( तुविजाता:) तुविना बलेन सह प्रसिद्धाः – Distinguished on account of might or power.

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top