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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 43 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 43/ मन्त्र 1
    ऋषिः - कण्वो घौरः देवता - रुद्रः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः

    कद्रु॒द्राय॒ प्रचे॑तसे मी॒ळ्हुष्ट॑माय॒ तव्य॑से । वो॒चेम॒ शंत॑मं हृ॒दे ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    कत् । रु॒द्राय॑ । प्रऽचे॑तसे । मी॒ळ्हुःऽत॑माय । तव्य॑से । वो॒चेम॑ । शम्ऽत॑मम् । ह्द॒े ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    कद्रुद्राय प्रचेतसे मीळ्हुष्टमाय तव्यसे । वोचेम शंतमं हृदे ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    कत् । रुद्राय । प्रचेतसे । मीळ्हुःतमाय । तव्यसे । वोचेम । शम्तमम् । ह्दे॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 43; मन्त्र » 1
    अष्टक » 1; अध्याय » 3; वर्ग » 26; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    (कत्) कदा (रुद्राय) परमेश्वराय जीवाय वा (प्रचेतसे) प्रकृष्टं चेतो ज्ञानं यस्य यस्माद्वा तस्मै (मीढुष्टमाय) प्रसेक्त्ततमाय (तव्यसे) अतिशयेन वृद्धाय। अत्र तवीया# निति संप्राप्ते छांदसो वर्णलोपो वा इतीकारलोपः। (वोचेम) उपदिशेम (शंतमम्) अतिशयितं सुखम् (हृदे) हृदयाय ॥१॥ #[टि० चतुर्थ्या एक वचने ‘तवीयसे’ इति संप्राप्ते। सं०]

    अन्वयः

    अथ रुद्रशब्दार्थ उपदिश्यते।

    पदार्थः

    वयं कत्कदा प्रचेतसे मीढुष्टमाय तव्यसे हृदे रुद्राय शंतमं वोचेम ॥१॥

    भावार्थः

    रुद्रशब्देन त्रयोऽर्था गृह्यंते। परमेश्वरो जीवो वायुश्चेति तत्र परमेश्वरः सर्वज्ञतया येन यादृशं पापकर्म कृतं तत्फलदानेन रोदयिताऽस्ति जीवः खलु यदा मरणसमये शरीरं जहाति पापफलं च भुंक्ते तदा स्वयं रोदिति वायुश्च शूलादिपीडाकर्म्मणा कर्मनिमित्तः सन्रोदयिताऽस्त्यत एते रुद्रा विज्ञेयाः ॥१॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    अब तेंतालीसवें सूक्त का आरम्भ है, उसके पहिले मंत्र में रुद्र शब्द के अर्थ का उपदेश किया है।

    पदार्थ

    हम लोग (कत्) कब (प्रचेतसे) उत्तम ज्ञानयुक्त (मीढुष्टमाय) अतिशय करके सेवन करने वा (तव्यसे) अत्यन्त वृद्ध (हृदे) हृदय में रहनेवाले (रुद्राय) परमेश्वर जीव वा प्राण वायु के लिये (शंतमम्) अत्यन्त सुख रूप वेद का (वोचेम) अच्छे प्रकार उपदेश करें ॥१॥

    भावार्थ

    रुद्र शब्द से तीन अर्थों का ग्रहण है, परमेश्वर, जीव और वायु उनमें से परमेश्वर अपने सर्वज्ञपन से जिसने जैसा पाप कर्म किया उस कर्म के अनुसार फल देने में उसको रोदन करनेवाले है। जीव निश्चय करके मरने समय अन्य से सम्बन्धियों को इच्छा कराता हुआ शरीर को छोड़ता है, तब अपने आप रोता है और वायु शूल आदि पीड़ा कर्म से रोदन कर्म का निमित्त है इन तीनों के योग से मनुष्यों को अत्यन्त सुखों को प्राप्त होना चाहिये ॥१॥

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    विषय

    प्रभु का स्तवन अत्यन्तावश्यक

    पदार्थ

    १. (कत्) - कब (शन्तमम्) - अतिशयेन शान्ति देनेवाले स्तोत्र को (वोचेम) - हम बोलेंगे ? किसके लिए 
    [क] (रुद्राय) - सदुपदेश देनेवाले के लिए । उस प्रभु के लिए जो सृष्टि के आरम्भ में सब विद्याओं का उपदेश करते हैं । 
    [ख] (प्रचेतसे) - जो प्रकृष्ट ज्ञानवाले हैं और इसलिए जिनकी प्रेरणा में कभी भ्रान्ति सम्भव ही नहीं ।
    [ग] (मीळ्हुष्टमाय) - जो ज्ञान के द्वारा अनन्त सुखों की वर्षा करनेवाले हैं । अविद्या ही सारे कष्टों का क्षेत्र होती है । प्रभु उस अविद्या को ज्ञान के प्रकाश से समाप्त करके सब कष्टों का भी अन्त करनेवाले हैं । 
    [घ] (तव्यसे) - वे प्रभु अत्यन्त वृद्धि को प्राप्त है । वस्तुतः सब गुणों के दृष्टिकोण से चरमसीमारूप ही वे प्रभु हैं । 
    [ङ] (हृदे) - [अस्मदीयै हृन्निष्ठाय] हमारे हृदयों के अन्दर स्थित हैं । 
    २. वस्तुतः हृदय में स्थित हुए हुए ही वे प्रभु प्रेरणा देते हैं । प्रकृष्ट ज्ञानवाले होने के कारण वे भ्रान्त प्रेरणा नहीं देते । इस ठीक प्रेरणा के द्वारा वे हमपर सुखों की वर्षा करते हैं । स्वयं वे अतिशयेन प्रवृद्ध हैं । जीव भी जब उस हृदयस्थ रुद्र की प्रेरणा को सुनता है तब वृद्धि को प्राप्त होता है । 
     

    भावार्थ

    भावार्थ - प्रभु हृदयस्थ होकर निरन्तर प्रेरणा दे रहे हैं । हम उस प्रेरणा को सुनें, इसी में हमारा कल्याण है । हम प्रभु का स्तवन करें ताकि हमें शान्ति मिले । 
     

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    विषय

    रुद्र, मित्र, वरुण इन अधिकारिथों का वर्णन ।

    भावार्थ

    (प्रचेतसे) उत्तम ज्ञान ले युक्त परमेश्वर और उत्तम चित्त से युक्त विद्वान्, (मीढुष्टमाय) सुखों, ज्ञानों और ऐश्वर्यों को प्रजा पर मेघ के समान वर्षण करने वाले, (तव्यसे) बहुत बड़े बलशाली, (हृदे) हृदय में विराजमान, (रुद्राय) दुष्टों को रुलाने वाले राजा, परमेश्वर तथा उत्तम उपदेश देने वाले आचार्य के प्रसन्न करने के लिए (शन्तमं) अति शान्तिदायक, सुखजनक (वोचेम) वचन बोले।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    १-९ कण्वो घौर ऋषिः ॥ देवता १, २, ४—६ रुद्रः । ३ मित्रावरुणौ । ७-९ सोमः ॥ छन्दः—१, ७, ८ गायत्री । ५ विराङ्गायत्री । ६ पादनिचृद्गायत्री । ९ अनुष्टुप् ॥

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    विषय

    अब तेंतालीसवें सूक्त का आरम्भ है, उसके पहले मंत्र में रुद्र शब्द के अर्थ का उपदेश किया है।

    सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः

    वयं कत् कदा प्रचेतसे मीढुष्टमाय तव्यसे हृदे रुद्राय शंतमं वोचेम ॥१॥

    पदार्थ

    (वयम्)=हम लोग, (कत्) कदा=कब, (मीढुष्टमाय) प्रसेक्त्ततमाय= प्रकृष्ट रूप से [ज्ञान की वर्षा] करने के लिये, (तव्यसे) अतिशयेन वृद्धाय=अतिशय वृद्ध के लिये, (हृदे) हृदयाय= हृदय के लिये, (रुद्राय) परमेश्वराय जीवाय वा= परमेश्वर या जीव के लिये, (शंतमम्) अतिशयितं सुखम्= अतिशय सुख का, (वोचेम) उपदिशेम= उपदेश करें ॥१॥

    महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद

    रुद्र शब्द से तीन अर्थों का ग्रहण किया जाता है, परमेश्वर, जीव और वायु उनमें से परमेश्वर अपनी सर्वज्ञता से जिसने जैसा पाप कर्म किया, उस कर्म के अनुसार फल देने में उसको रुलानेवाला है। जीव निश्चय से जैसे मरने के समय शरीर को छोड़ता है और पाप के फलों का भोग करके, तब अपने आप रोता है, वायु भी शूल आदि पीड़ा के कर्म से, इस कर्म के लिये रुलानेवाला है, इसलिये इन तीनों रुद्र को जानना चाहिये ॥१॥

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)

    (वयम्) हम लोग (कत्) कब (मीढुष्टमाय) प्रकृष्ट रूप से [ज्ञान की वर्षा] करने के लिये और (तव्यसे) अतिशय वृद्ध के (हृदे) हृदय के लिये और (रुद्राय) परमेश्वर या जीव के लिये (शंतमम्) अतिशय सुख का (वोचेम) उपदेश करें ॥१॥

    संस्कृत भाग

    पदार्थः(महर्षिकृत)- (कत्) कदा (रुद्राय) परमेश्वराय जीवाय वा (प्रचेतसे) प्रकृष्टं चेतो ज्ञानं यस्य यस्माद्वा तस्मै (मीढुष्टमाय) प्रसेक्त्ततमाय (तव्यसे) अतिशयेन वृद्धाय। अत्र तवीया# निति संप्राप्ते छांदसो वर्णलोपो वा इतीकारलोपः। (वोचेम) उपदिशेम (शंतमम्) अतिशयितं सुखम् (हृदे) हृदयाय ॥१॥ विषयः- अथ रुद्रशब्दार्थ उपदिश्यते। अन्वयः- वयं कत्कदा प्रचेतसे मीढुष्टमाय तव्यसे हृदे रुद्राय शंतमं वोचेम ॥१॥ भावार्थः(महर्षिकृतः)- रुद्रशब्देन त्रयोऽर्था गृह्यंते। परमेश्वरो जीवो वायुश्चेति तत्र परमेश्वरः सर्वज्ञतया येन यादृशं पापकर्म कृतं तत्फलदानेन रोदयिताऽस्ति जीवः खलु यदा मरणसमये शरीरं जहाति पापफलं च भुंक्ते तदा स्वयं रोदिति वायुश्च शूलादिपीडाकर्म्मणा कर्मनिमित्तः सन्रोदयिताऽस्त्यत एते रुद्रा विज्ञेयाः ॥१॥

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    मराठी (1)

    विषय

    या सूक्तात रुद्र शब्दाच्या अर्थाचे वर्णन, सर्व सुखांचे प्रतिपादन, मैत्रीचे आचरण, परमेश्वर व सभाध्यक्षाच्या आश्रयाने सुखाची प्राप्ती, एका ईश्वराची उपासना, परमसुखाची प्राप्ती व सभाध्यक्षाचा आश्रय सांगितलेला आहे. त्यामुळे या सूक्ताच्या अर्थाची पूर्वसूक्तार्थाबरोबर संगती जाणली पाहिजे.

    भावार्थ

    रुद्र या शब्दाचे तीन अर्थ स्वीकारले जातात. परमेश्वर, जीव व वायू. परमेश्वर सर्वज्ञतेने प्रत्येकाला त्याच्या पापकर्माचे फळ देतो त्यामुळे त्याला रोदन करविणारा म्हटले जाते. जीव निश्चयाने मरताना इतर संबंधाची इच्छा करीत, पापकर्माचे फळ भोगत शरीराचा त्याग करताना रडतो, तसेच वायू, वेदना, त्रासामुळे रोदन कर्माचे निमित्त आहे. हे जाणावे. ॥ १ ॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    When shall we sing hymns of peace and bliss most soothing in celebration of the glory of Rudra, lord of justice and mercy, omniscient, most generous, omnipotent and dearest ever present in the heart? (With a little modification of meaning, the mantra applies to the soul and to Vayu, universal energy as well as prana energy of life. Rudra stands for Isvara, jiva and vayu/prana.)

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    Subject of the mantra

    Now is the beginning of the forty-third hymn, in its first mantra the meaning of the word Rudra has been preached.

    Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-

    (vayam)=We, (kat)=when, (mīḍhuṣṭamāya)=excellently, [jñāna kī varṣā karane ke liye]= to shower wisdom [aura]=and, (tavyase) atiśaya vṛddha ke (hṛde) hṛdaya ke liye aura (rudrāya)=for god or creature, (śaṃtamam) of excessive happiness, (vocema)=preach.

    English Translation (K.K.V.)

    When shall we preach in order to shower wisdom and to the heart of the most aged and to the Supreme Lord or the soul, to the highest happiness?

    TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand

    Three interpretations are taken from the word Rudra, God, creature and air, out of which God, with His omniscience, makes the person cry while giving the consequences of whatever sin he has committed. Just as a living being leaves the body at the time of death and after suffering the rewards of sin, it automatically cries, the air also cries due to the karma of pain like colic etc., one should know this Rudra while becoming blessed for this karma.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The meanings of Rudra are taught in the first Mantra.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    In case of God- (1) When shall we sing (a song) to Rudra (God) the Omniscient, the most Liberal, the most Powerful that shall be the giver of peace and delight to our hearts ? In case of the soul- (2) When shall we sing to Rudra (the soul that weeps when leaving the body) that is wise, most bounteous, and mighty, that may be giver of delight to our hearts ! (3) The third meaning of Rudra is Vayu or air that causes pain to the wicked on account of their evil actions.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    By Rudra three meanings are taken. (1) God, (2) Soul & (3) Vayu or air. God is called Rudra as being Omniscient Dispenser of Justice. He makes the wicked weep by giving the fruits of their evil actions. (2) The soul is called Rudra as it weeps when it leaves the body at the time of death and gets the result of evil actions. (3) Vayu or air is called Rudra as it makes a person weep causing pain as a result of bad deeds.

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