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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 43 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 43/ मन्त्र 5
    ऋषिः - कण्वो घौरः देवता - रुद्रः छन्दः - विराड्गायत्री स्वरः - षड्जः

    यः शु॒क्रइ॑व॒ सूर्यो॒ हिर॑ण्यमिव॒ रोच॑ते । श्रेष्ठो॑ दे॒वानां॒ वसुः॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यः । शु॒क्रःऽइ॑व । सूर्यः॑ । हिर॑ण्यम्ऽइव । रोच॑ते । श्रेष्ठः॑ । दे॒वानाम् । वसुः॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यः शुक्रइव सूर्यो हिरण्यमिव रोचते । श्रेष्ठो देवानां वसुः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यः । शुक्रःइव । सूर्यः । हिरण्यम्इव । रोचते । श्रेष्ठः । देवानाम् । वसुः॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 43; मन्त्र » 5
    अष्टक » 1; अध्याय » 3; वर्ग » 26; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते।

    अन्वयः

    हे मनुष्या ! यूयं यो रुद्रः सभेशः सूर्य्यः शुक्रइव हिरण्यमिव रोचते देवानां श्रेष्ठो वसुरस्ति तं सेनानायकं कुरुत ॥५॥

    पदार्थः

    (यः) पूर्वोक्तो रुद्रः (शुक्रइव) यथा तेजस्वी (सूर्य्यः) सविता (हिरण्यमिव) यथा सुवर्ण प्रीतिकरम् (रोचते) रुचिकारी वर्त्तते (श्रेष्ठः) अत्युत्तमः (देवानाम्) सर्वेषां विदुषां पृथिव्यादीनां च मध्ये (वसुः) वसन्ति सर्वाणि भूतानि यस्मिन् सः ॥५॥

    भावार्थः

    अत्रोपमालंकारः। मनुष्यैर्यथा परमेश्वरः सर्वेषां ज्योतिषां ज्योतिरानंदिनामानन्दी श्रेष्ठानामुत्तमानामुत्तमो देवानां देवोऽधिकरणानामधिकरणमस्ति। एवं सभाध्यक्षः प्रकाशवत्सु प्रकाशवान् न्यायकारिषु न्यायकारी खल्वानन्दप्रदेष्वानन्दप्रदः श्रेष्ठस्वभावेषु श्रेष्ठस्वभावो विद्वत्सु विद्वान् वासहेतु नां वासहेतु र्भवेदिति वेद्यम् ॥५॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    फिर वह कैसा है, इस विषय का उपदेश अगले मंत्र में किया है।

    पदार्थ

    (यः) जो पूर्व कहा हुआ रुद्र सेनापति (सूर्य्यः शुक्र इव) तेजस्वी शुद्ध भास्कर सूर्य के समान (हिरण्यमिव) सुवर्ण के तुल्य प्रीति कारक (देवानाम्) सब विद्वान् वा पृथिवी आदि के मध्य में (श्रेष्ठः) अत्युत्तम (वसुः) सम्पूर्ण प्राणी मात्र का वसानेवाला (रोचते) प्रीति कारक हो उसको सेना का प्रधान करो ॥५॥

    भावार्थ

    इस मंत्र में उपमालंकार है। मनुष्यों को उचित है कि जैसा परमेश्वर सब ज्योतियों का ज्योति आनन्दकारियों का आनन्दकारी श्रेष्ठों का श्रेष्ठ विद्वानों का विद्वान् आधारों का आधार है, वैसे ही जो न्यायकारियों में न्यायकारी आनन्द देने वालों में आनन्द देने वाला श्रेष्ठ स्वभाव वालों में श्रेष्ठ स्वभाववाला विद्वानों में विद्वान् और वास हेतुओं का वासहेतु वीर पुरुष हो उसको सभाध्यक्ष मानना चाहिये ॥५॥

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    विषय

    सूर्य व स्वर्ण के समान

    पदार्थ

    १. (यः) - जो (शुक्रः) - दीप्तिमान् (सूर्यः इव) - सूर्य की भाँति (रोचते) - देदीप्यमान हैं, आदित्यवर्ण हैं, हजारों सूर्यों की दीप्ति के समान दीप्तिवाले हैं । 
    २. (हिरण्यम् इव रोचते) - जो स्वर्ण के समान देदीप्यमान हैं । मनु के शब्दों में 'रुक्माभम्' स्वर्ण की आभावाले हैं । ३. (देवानां श्रेष्ठः) - सब देवों में श्रेष्ठ - प्रशस्यतम हैं । वस्तुतः जो देवों को देवत्व प्राप्त करा रहें हैं 'तेन देवा देवतामग्र आयन्' सब देवों को दीप्ति उस प्रभु से ही तो प्राप्त हो रही है - 'तस्य भासा सर्वमिदं विभाति' । ये सब देव उस महादेव के ही अधीन हैं । 
    ४. ऐसे ये प्रभु (वसुः) - सब प्राणियों को अपने में निवास दे रहे हैं [वसन्ति यस्मिन्] और सब प्राणियों में उस प्रभु का निवास है [वसति सर्वस्मिन्] 'ईशावास्यमिदं सर्वम्' । 
     

    भावार्थ

    भावार्थ - प्रभु सूर्य व हिरण्य की भाँति देदीप्यमान हैं । देवताओं में वे श्रेष्ठ हैं और सब प्राणियों में अन्तर्यामिरूप से रह रहे हैं । 
     

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    विषय

    रुद्र, वैद्य, परमेश्वर ।

    भावार्थ

    (यः) जो (शुक्रः इव) अति दीप्ति वाला (सूर्यः) सूर्य के समान (रोचते) प्रखर तेज से चमकता है और जो (हिरण्यम् इव) सुवर्ण या अपने जीव आत्मा के समान (रोचते) अति प्रिय है। वह (देवानां) सब विजयेच्छु विद्वानों और उत्तम पुरुषों में (श्रेष्ठः) श्रेष्ठ और (वसुः) सबको वसाने और सबमें बसने वाला परमेश्वर है। उसी प्रकार राजा, सभाध्यक्ष आदि को भी सूर्य के समान तेजस्वी, सुवर्ण और आत्मा के समान प्रिय, विद्वानों में सर्वश्रेष्ठ और सबको बसानेवाला होना उचित है। इति ष‌ड्विंशो वर्गः ॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    १-९ कण्वो घौर ऋषिः ॥ देवता १, २, ४—६ रुद्रः । ३ मित्रावरुणौ । ७-९ सोमः ॥ छन्दः—१, ७, ८ गायत्री । ५ विराङ्गायत्री । ६ पादनिचृद्गायत्री । ९ अनुष्टुप् ॥

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    विषय

    फिर वह (परमेश्वर) कैसा है, इस विषय का उपदेश इस मंत्र में किया है।

    सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः

    हे मनुष्या ! यूयं यः रुद्रः सभेशः सूर्य्यः शुक्र इव हिरण्यम् इव रोचते देवानां श्रेष्ठः वसुः अस्ति तं सेनानायकं कुरुत ॥५॥

    पदार्थ

    हे (मनुष्या)= मनुष्यों ! (यूयम्)=तुम सब, (यः) पूर्वोक्तो रुद्रः= परमेश्वर, (सभेशः)=सब के स्वामी, (सूर्य्यः) सविता =सृष्टि के पदार्थों के निर्माता सूर्य, (शुक्रइव) यथा तेजस्वी=जैसे तेजस्वी, (हिरण्यमिव) यथा सुवर्ण प्रीतिकरम्= स्वर्ण जैसे मनभावन हैं, (रोचते) रुद्रचिकारी वर्त्तते= आनंददायक होता है, (देवानाम्) सर्वेषां विदुषां पृथिव्यादीनां च मध्ये=सब विद्वनों और पृथिवी के बीच में, (श्रेष्ठः) अत्युत्तमः=अति उत्तम, (वसुः) वसन्ति सर्वाणि भूतानि यस्मिन् सः=जिसमें सब प्राणी निवास करते हैं, ऐसा (अस्ति)=है, (तम्)=उसको, (सेनानायकम्)= सेनानायक, (कुरुत)=बनाओ ॥५॥

    महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद

    इस मंत्र में उपमालंकार है। मनुष्यों के लिये उचित है कि जैसा परमेश्वर सब ज्योतियों का ज्योति आनन्दकारियों का आनन्दकारी श्रेष्ठों का श्रेष्ठ विद्वानों का विद्वान्, आधारों का आधार है, वैसे ही प्रकाशकों में प्रकाशवान्, न्यायकारियों में न्यायकारी, निश्चय से ही आनन्ददेने वालों में आनन्द देनेवाला, श्रेष्ठ स्वभाव वालों में श्रेष्ठ स्वभाववाला विद्वानों में विद्वान् और निवास के साधनों में निवास का साधन होवे ऐसा जानना चाहिये ॥५॥

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)

    हे (मनुष्या) मनुष्यों ! (यूयम्) तुम सब (तम्) उसको (सेनानायकम्) सेनानायक (कुरुत) बनाओ, (यः) जो परमेश्वर, (सभेशः) सब का स्वामी, (सूर्य्यः) सृष्टि के पदार्थों का निर्माता, सूर्य (शुक्रइव) जैसा तेजस्वी, (हिरण्यमिव) स्वर्ण जैसा मनभावन और (रोचते) आनंददायक (अस्ति) है। (देवानाम्) सब विद्वानों और पृथिवी में (श्रेष्ठः) अति उत्तम (वसुः) सब प्राणी निवास करते हैं ॥५॥

    संस्कृत भाग

    पदार्थः(महर्षिकृत)- (यः) पूर्वोक्तो रुद्रः (शुक्रइव) यथा तेजस्वी (सूर्य्यः) सविता (हिरण्यमिव) यथा सुवर्ण प्रीतिकरम् (रोचते) रुचिकारी वर्त्तते (श्रेष्ठः) अत्युत्तमः (देवानाम्) सर्वेषां विदुषां पृथिव्यादीनां च मध्ये (वसुः) वसन्ति सर्वाणि भूतानि यस्मिन् सः ॥५॥ विषयः-पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते। अन्वयः- हे मनुष्या ! यूयं यो रुद्रः सभेशः सूर्य्यः शुक्रइव हिरण्यमिव रोचते देवानां श्रेष्ठो वसुरस्ति तं सेनानायकं कुरुत ॥५॥ पदार्थः(महर्षिकृत)- (यः) पूर्वोक्तो रुद्रः (शुक्रइव) यथा तेजस्वी (सूर्य्यः) सविता (हिरण्यमिव) यथा सुवर्ण प्रीतिकरम् (रोचते) रुद्रचिकारी वर्त्तते (श्रेष्ठः) अत्युत्तमः (देवानाम्) सर्वेषां विदुषां पृथिव्यादीनां च मध्ये (वसुः) वसन्ति सर्वाणि भूतानि यस्मिन् सः ॥५॥ भावार्थः(महर्षिकृतः)- अत्रोपमालंकारः। मनुष्यैर्यथा परमेश्वरः सर्वेषां ज्योतिषां ज्योतिरानंदिनामानन्दी श्रेष्ठानामुत्तमानामुत्तमो देवानां देवोऽधिकरणानामधिकरणमस्ति। एवं सभाध्यक्षः प्रकाशवत्सु प्रकाशवान् न्यायकारिषु न्यायकारी खल्वानन्दप्रदेष्वानन्दप्रदः श्रेष्ठस्वभावेषु श्रेष्ठस्वभावो विद्वत्सु विद्वान् वासहेतु नां वासहेतु र्भवेदिति वेद्यम् ॥५॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात उपमालंकार आहे. जसा परमेश्वर सर्व ज्योतींमध्ये ज्योती, आनंदी असणाऱ्यामध्ये आनंदी, श्रेष्ठांमध्ये श्रेष्ठ, उत्तमात उत्तम, देवांमध्ये देव अधिकरणामध्ये अधिकारण, विद्वानामध्ये विद्वान, आधारामध्ये आधार असतो तसे जो वीर पुरुष न्यायकारी लोकांमध्ये न्यायकारी श्रेष्ठ स्वभावाचा, आनंदी लोकांमध्ये आनंदी, विद्वानांमध्ये विद्वान, पृथ्वीवर संपूर्ण प्राणिमात्रांना बसविणारा असतो. त्याला माणसांनी सभाध्यक्ष मानावे. ॥ ५ ॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    Rudra, lord of love and justice and the ruling power of humanity, who shines like the refulgence of pure light, who blazes like the sun and pleases like the beauty of gold, is the highest of the generous and brilliant, and he is the haven and abode of the living beings on earth.

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    Subject of the mantra

    Then how is He (God), this subject has been preached in this mantra.

    Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-

    He=O! (manuṣyā)=humans, ! (yūyam)=all of you, (tam)=to that, (senānāyakam)=commander in chief, (kuruta)=make, (yaḥ)=that God, (sabheśaḥ)=lord of all, (sūryyaḥ)=creator of the substances of creation, Sun, (śukriva)=as bright, (hiraṇyamiva)=charming as gold and, (rocate)=pleasuring, (asti)=is, (devānām)=in all scholars and the earth, (śreṣṭhaḥ)=best, (vasuḥ)=all living beings reside.

    English Translation (K.K.V.)

    O humans! You all make him the commander-in-chief, who is the Supreme Lord, the master of all, the creator of the things of creation, the Sun's effulgence and the gold's pleasing and blissful. All the scholars and all the best creatures reside in the earth.

    TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand

    There is simile as a figurative in this mantra. It is appropriate for human beings that as God is the Light of all the lights, the enjoyer of the enjoyers, the best of the best, the scholar of the scholars, the support of the bases, so is the light among the illuminators, the just among the judges, the giver of joy among those who give joy with certainty, the best among those who have good nature. It should be known that a scholar among scholars and a means of residence among means of residences.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    How is Rudra is taught further in the fifth Mantra.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O men, appoint him as the commander-in-chief of the army who shines in splendor like the sun, is refulgent as bright gold, the best among learned persons, the provider of habitation or support.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    As God is the Light of lights, full of perfect Bliss, the Best of all the Devas (shining objects and the enlightened) and the Support of the earth and other worlds, in the same manner, the President of the Assembly or the Commander-in-chief of the army should be a person who is most brilliant like the sun and the gold, the best dispenser of justice, the giver of delight and bliss, the man of the most charming good temperament and good habits and the sustainer of all.

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