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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 43 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 43/ मन्त्र 4
    ऋषिः - कण्वो घौरः देवता - रुद्रः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः

    गा॒थप॑तिं मे॒धप॑तिं रु॒द्रं जला॑षभेषजम् । तच्छं॒योः सु॒म्नमी॑महे ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    गा॒थऽप॑तिम् । मे॒धऽप॑तिम् । रु॒द्रम् । जला॑षऽभेषजम् । तत् । श॒म्ऽयोः । सु॒म्नम् । ई॒म॒हे॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    गाथपतिं मेधपतिं रुद्रं जलाषभेषजम् । तच्छंयोः सुम्नमीमहे ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    गाथपतिम् । मेधपतिम् । रुद्रम् । जलाषभेषजम् । तत् । शम्योः । सुम्नम् । ईमहे॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 43; मन्त्र » 4
    अष्टक » 1; अध्याय » 3; वर्ग » 26; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    (गाथपतिम्) यो गाथानां स्तावकानां विदुषां पतिः पालकस्तम् (मेधपतिम्) यो मेधानां पवित्राणां पुरुषाणां वा पालयिता तम्। मेधइति यज्ञना० निघं० ३।१७। (रुद्रम्) पूर्वोक्तम् (जलाषभेषजम्) जला#षाय सुखाय भेषजं यस्मात्तम् (तत्) ज्ञानम् (शंयोः) शं लौकिकं पारमार्थिकं सुखं विद्यते यस्मिँस्तस्य (सुम्नम्) मोक्षसुखम् (ईमहे) याचामहे ॥४॥ #[‘जलाष’ इति सुखनामसु पठितम्। निघं० ३।६।]

    अन्वयः

    पुनः स रुद्रः कीदृश इत्युपदिश्यते।

    पदार्थः

    हे मनुष्या ! यथा वयं गाथपतिं मेधपतिं जलाषभेषजं रुद्रमाश्रित्य यच्छंयोरपि सुम्नं मोक्षसुखमीमहे याचामहे तथैव यूयमपीच्छत ॥४॥

    भावार्थः

    नहि कश्चित्स्तुतीनां मेधानां दुःखनाशकानामोषधीनां प्रापकेण विदुषा प्राणायामेन च विना विज्ञानं लौकिकं सुखं मोक्षसुखं च प्राप्तुमर्हति ॥४॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    फिर वह रुद्र कैसा है, इस विषय का उपदेश अगले मंत्र में किया है।

    पदार्थ

    हे मनुष्यो ! जैसे हम लोग (गाथपतिम्) स्तुति करनेवालों के पालक (मेधपतिम्) यज्ञ वा पवित्र पुरुषों की पालना करनेवाले (जलाषभेषजम्) जिससे सुख के लिये ओषधी हो उस (रुद्रम्) परमेश्वर के आश्रम होकर (तत्) उस विज्ञान वा (शंयोः) व्यावहारिक पारमार्थिक सुख से भी (सुम्नम्) मोक्ष के सुख की (ईमहे) याचना करते हैं वैसे तुम भी करो ॥४॥

    भावार्थ

    कोई भी मनुष्य स्तुति यज्ञ वा दुःखों के नाश करनेवाली ओषधियों की प्राप्ति करानेवाले परमेश्वर विद्वान् और प्राणायाम के विना विज्ञान और लौकिक सुख वा मोक्ष सुख प्राप्त होने के योग्य नहीं हो सकता ॥४॥

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    विषय

    सुखप्राप्ति के मूल साधन [Basic principles of Happiness]

    पदार्थ

    १. (गाथपतिम्) - [गाथा वाङ्नाम] सब गाथाओं, वेदवाणियों के स्वामी तथा (मेधपतिम्) - सब यज्ञों के रक्षक (रुद्रम्) - [रुत्+र] हृदयस्थरूपेण ही उपदेश देनेवाले, (जलाषभेषजम्) - जलरूप औषध से युक्त प्रभु से (तत्) - उस (शंयोः) - शान्ति को देनेवाले तथा भयों के यावन - [दूर करने] - वाले (सुम्नम्) - सुख को (ईमहे) - माँगते हैं । 

    २. प्रभु हमें वेदज्ञान देते हैं, वेद द्वारा सब यज्ञों [कर्तव्य - कर्मों] का उपदेश करते हैं । हृदय में स्थित होकर सदा सत्प्रेरणा प्राप्त कराते हैं । वे प्रभु हमें इस अद्भुत जलरूप औषध को देते हैं 'अप्सु में सोमो अब्रवीदन्तर्विश्वानि भेषजा' । 

    ३. वेदों के अध्ययन, यज्ञों के करने, प्रभु - प्रेरणा को सुनने तथा जलों के समुचित आचमन से हमें शान्ति, निर्भयता व सुख प्राप्त होगा । 

    ४. मन्त्र में प्रभु के जिन नामों का स्मरण किया गया है वे सब नाम उन साधनों का प्रतिपादन करते हैं जिनको जीवन में लाने पर हमें शान्ति, निर्भयता व सुख की प्राप्ति होगी । वेद की यह महत्वपूर्ण शैली है कि प्रार्थना के साथ ही उसकी पूर्ति के साधनों का प्रतिपादन होता है । हम प्रार्थना करते हैं और प्रभु उसकी पूर्ति के लिए साधनों का संकेत कर देते हैं । प्रार्थना की पूर्ति पुरुषार्थ से ही होती है । 

    भावार्थ

    भावार्थ - 'वेदाध्ययन [ज्ञानप्राप्ति], यज्ञ, प्रभुप्रेरणा - श्रवण व जलों का आचमन' हमें शान्त, नीरोग व सुखी बनाएंगे । 

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    विषय

    रुद्र, वैद्य, परमेश्वर ।

    भावार्थ

    (गाथपतिम्) गाथा, ज्ञान-वाणियों और विद्वानों के परिपालक, (मेधपतिम्) यज्ञों और यज्ञकर्ता, धर्मात्मा पवित्र पुरुषों के पालक, (जलाषभेषजम्) सुखकारी ओषधि और दुःख से छूटने के उपाय बतलाने वाले, (रुद्रम्) ज्ञानोपदेष्टा, विद्वान् परमेश्वर से हम (शंयोः) अति शांतिदायक और दुःखनाशक (सुम्नम्) परमसुख, मोक्ष की (ईमहे) याचना करते हैं।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    १-९ कण्वो घौर ऋषिः ॥ देवता १, २, ४—६ रुद्रः । ३ मित्रावरुणौ । ७-९ सोमः ॥ छन्दः—१, ७, ८ गायत्री । ५ विराङ्गायत्री । ६ पादनिचृद्गायत्री । ९ अनुष्टुप् ॥

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    विषय

    फिर वह रुद्र कैसा है, इस विषय का उपदेश इस मंत्र में किया है।

    सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः

    हे मनुष्या ! यथा वयं गाथपतिं मेधपतिं जलाषभेषजं रुद्रम् आश्रित्य यत् शंयो अपि सुम्नं मोक्षसुखम् ईमहे याचामहे तथा एव यूयम् अपि इच्छत ॥४॥

    पदार्थ

    हे (मनुष्या)= मनुष्यों ! (यथा)=जिस प्रकार से, (वयम्)=हम लोग, (गाथपतिम्) यो गाथानां स्तावकानां विदुषां पतिः पालकस्तम्= जो छंद बद्ध पद्यों के स्तुति करनेवाले विद्वानों के पालक हैं, उनको (मेधपतिम्) यो मेधानां पवित्राणां पुरुषाणां वा पालयिता तम्= जो बुद्धिमान या पवित्र पुरुषों के पालक हैं, उनको (जलाषभेषजम्) जलाषाय सुखाय भेषजं यस्मात्तम्=जिसमें उपचारक सुखकारी ओषधि है, उस (रुद्रम्) पूर्वोक्तम्-परमेश्वरम्= परमेश्वरम का, (आश्रित्य)= आश्रय लेकर, (यत्)= जो, (शंयोः) शं लौकिकं पारमार्थिकं सुखं विद्यते यस्मिँस्तस्य= लौकिक और पारमार्थिक कल्याण है, जिसमें सुख विद्यमान रहता है, उससे (अपि)=भी, (सुम्नम्) मोक्षसुखम्=मोक्ष के सुख की, (ईमहे) याचामहे=हम याचना करते हैं, (तथा)=वैसे, (एव)=ही, (यूयम्)=तुम सब, (अपि)=भी, (इच्छत)= इच्छा कीजिये ॥४॥

    महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद

    किसी स्तुति, मेधा, दुःखों का नाश करनेवाली ओषधियों की प्राप्ति, विद्वानों के द्वारा किये गये प्राणायाम के विना, विशेष ज्ञान, लौकिक सुख और मोक्ष का सुख प्राप्त किये जाने योग्य नहीं है ॥४॥

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)

    हे (मनुष्या) मनुष्यों ! (यथा) जिस प्रकार से (वयम्) हम लोग (गाथपतिम्) जो छंद बद्ध पद्यों से स्तुति करनेवाले विद्वानों के पालक हैं, उनको, (मेधपतिम्) जो बुद्धिमान या पवित्र पुरुषों के पालक हैं, उनको (जलाषभेषजम्) जिसमें उपचारक सुखकारी ओषधि है, उस (रुद्रम्) परमेश्वरम का (आश्रित्य) आश्रय लेकर (यत्) जो (शंयोः) लौकिक और पारमार्थिक कल्याण है, जिसमें सुख विद्यमान रहता है, [उससे] (अपि) भी (सुम्नम्) मोक्ष के सुख की (ईमहे) हम याचना करते हैं। (तथा) वैसे (एव) ही (यूयम्) तुम सब (अपि) भी (इच्छत) इच्छा कीजिये ॥४॥

    संस्कृत भाग

    पदार्थः(महर्षिकृत)- (गाथपतिम्) यो गाथानां स्तावकानां विदुषां पतिः पालकस्तम् (मेधपतिम्) यो मेधानां पवित्राणां पुरुषाणां वा पालयिता तम्। मेधइति यज्ञना० निघं० ३।१७। (रुद्रम्) पूर्वोक्तम् (जलाषभेषजम्) जला#षाय सुखाय भेषजं यस्मात्तम् (तत्) ज्ञानम् (शंयोः) शं लौकिकं पारमार्थिकं सुखं विद्यते यस्मिँस्तस्य (सुम्नम्) मोक्षसुखम् (ईमहे) याचामहे ॥४॥ #[‘जलाष’ इति सुखनामसु पठितम्। निघं० ३।६।] विषयः- पुनः स रुद्रः कीदृश इत्युपदिश्यते। अन्वयः- हे मनुष्या ! यथा वयं गाथपतिं मेधपतिं जलाषभेषजं रुद्रमाश्रित्य यच्छंयोरपि सुम्नं मोक्षसुखमीमहे याचामहे तथैव यूयमपीच्छत ॥४॥ भावार्थः(महर्षिकृतः)- नहि कश्चित्स्तुतीनां मेधानां दुःखनाशकानामोषधीनां प्रापकेण विदुषा प्राणायामेन च विना विज्ञानं लौकिकं सुखं मोक्षसुखं च प्राप्तुमर्हति ॥४॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    कोणीही माणूस स्तुतीरूपी यज्ञ व दुःखांचा नाश करणाऱ्या औषधींची प्राप्ती करविणाऱ्या परमेश्वर, विद्वान व प्राणायामाशिवाय, विज्ञान, लौकिकसुख व मोक्षसुख प्राप्त होण्यायोग्य बनू शकत नाही. ॥ ४ ॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    We pray to gathapati, lord protector of hymns and celebrants, medhapati, lord protector and promoter of yajnas, jalashabheshajam, universal balm of life, and Rudra, lord of life, love and justice for the bliss of peace and ultimate freedom.

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    Subject of the mantra

    Then how is that Rudra, this subject has been preached in this mantra.

    Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-

    He=O! (manuṣyā)=humans ! (yathā)=like, (vayam)=we, (gāthapatim)=those who are the protectors of scholars who praise them with rhymed verses, (medhapatim)=to those who are the protectors of wise or pious men, (jalāṣabheṣajam)=in which there is healing soothing medicine, that, (rudram)=of God, (āśritya)=taking shelter, (yat)=that, (śaṃyoḥ)=one who is cause of cosmic and transcendental welfare, in which happiness exists, [usase]=by that, (api)=also, (sumnam)=of the bliss of salvation, (īmahe)=we pray, (tathā) =in the same way, (eva)=only, (yūyam)=all of you, (api)=also, (icchata)= make a wish.

    English Translation (K.K.V.)

    O humans! As we, who are the protectors of learned men who praise in rhymed verses, the protectors of wise or pious men, those who have healing and soothing herbal medicines, taking shelter of that God, one who is cause of cosmic and transcendental welfare, in which happiness exists, we also ask for the bliss of salvation. Similarly you all also wish.

    TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand

    Without any praise, intelligence, medicines that destroy sorrows, special knowledge, worldly happiness and salvation without the practice of pranayama (Inhaling and exhaling of breath) done by scholars, it is not possible to attain it.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    How is that Rudra is taught in the fourth Mantra.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O men, as taking shelter in Rudra (God) Who is the Protector of the learned devotees, holy Yajnas and highly intelligent men, who is like a healing balm for happiness, we pray for abiding joy of emancipation, health and strength, so you should also do.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    [गाथपतिम्] यो गाथानां स्तावकानां विदुषां पतिः पालक: तम् = The Protector of the learned devotees. [मेधपतिम्] यो मेधानां पवित्राणां यज्ञानां पुरुषाणां वा पालयिता तम् । मेध इति यज्ञ नाम [ निघ० ३.१५ ] [सुम्नम्] मोक्षसुखम् = The joy or bliss of emancipation. [ शंयो: ] शं लौकिकं पारमार्थिकं सुखं विद्यते यस्मिन् = Of the person who possesses worldly happiness and the joy of liberation.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    None can attain knowledge, worldly happiness and the joy of emancipation without the help of a learned person who gives us the knowledge of God's praise and the herbs that destroy misery (caused by diseases) and the teaching of Pranayama that alleviates our suffering.

    Translator's Notes

    Prof. Maxmuller's translation of this Mantra, particularly of मेधपतिम् is not only wrong, but mischievous. He translates it in the "Vedic Hymns Vol. I) as follows- We implore Rudra, the lord of songs, the lord of animal sacrifices, the possessor of healing medicines, for health, wealth and his favor." We call the translation of मेधपति as Lord of animal sacrifices as not only un-warranted, but also mischievous, because there is no authority for taking the word मेध (Medha) which according to the Vedic Lexicon (Nighantu 3.15) stands for highly intelligent persons मेघ इति मेधाविनान (निघ० ३.१५) and Yajna or non-violent sacrifice मेघ इति यश नाम ( निम० ३.१७ ) Nighantu) 3.17 for animal- sacrifices. It is note-worthy that Prof. Wilson and Griffith also do not interpret मेधपति as the Lord of animal sacrifices, but merely as "Protector of sacrifices"? (Wilson) and "Lord of sacrifices" (Griffith). Prof. Maxmuller was himself not certain of the correctness of this un-warranted interpretation and therefore put the following note on this verse No. 4 “We must derive gathapati from Gatha (167.6 and medhapati from Medha, animal-sacrifice, till we know on the subject.” (Vedic Hymns Vol. I. P. 420). It was also wrong and audacious on his part to change the text गाथपतिं as गाथापति and मेघपतिम् as मेधापतिम् Even then can never mean animal sacrifice. That the Vedic Yajnas are called through out the Vedas as अध्वर (See the word used hundreds of times in Rig. 1.1.4.1.18; 1. 14.21; 128.4.3.24.1.2.25.etc. yaj 2.4;6. 23; 15.38; Sama 7.25, 6.5.5.2.Atharva 4.24.3; 5.12.2; 18. 2, 32; 19, 42. 4. etc.) which means अध्वर इति यज्ञनाम ध्वरतिहिंसाकर्मा तत्प्रतिषेध: (निरुक्ते १. ७) i. e. A non-violent act, should have been known to a scholar like Prof. Maxmuller.

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