ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 47/ मन्त्र 2
ऋषिः - प्रस्कण्वः काण्वः
देवता - अश्विनौ
छन्दः - निचृत्सतः पङ्क्ति
स्वरः - पञ्चमः
त्रि॒व॒न्धु॒रेण॑ त्रि॒वृता॑ सु॒पेश॑सा॒ रथे॒ना या॑तमश्विना । कण्वा॑सो वां॒ ब्रह्म॑ कृण्वन्त्यध्व॒रे तेषां॒ सु शृ॑णुतं॒ हव॑म् ॥
स्वर सहित पद पाठत्रि॒ऽव॒न्धु॒रेण॑ । त्रि॒ऽवृता॑ । सु॒ऽपेश॑सा । रथे॑न । आ । या॒त॒म् । अ॒श्वि॒ना॒ । कण्वा॑सः । वा॒म् । ब्रह्म॑ । कृ॒ण्व॒न्ति॒ । अ॒ध्व॒रे । तेषा॑म् । सु । शृ॒णु॒त॒म् । हव॑म् ॥
स्वर रहित मन्त्र
त्रिवन्धुरेण त्रिवृता सुपेशसा रथेना यातमश्विना । कण्वासो वां ब्रह्म कृण्वन्त्यध्वरे तेषां सु शृणुतं हवम् ॥
स्वर रहित पद पाठत्रिवन्धुरेण । त्रिवृता । सुपेशसा । रथेन । आ । यातम् । अश्विना । कण्वासः । वाम् । ब्रह्म । कृण्वन्ति । अध्वरे । तेषाम् । सु । शृणुतम् । हवम्॥
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 47; मन्त्र » 2
अष्टक » 1; अध्याय » 4; वर्ग » 1; मन्त्र » 2
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अष्टक » 1; अध्याय » 4; वर्ग » 1; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
(त्रिबंधुरेण) त्रीणि बन्धुराणि बंधनानि यस्मिंस्तेन (त्रिवृता) त्रिभिः शिल्पक्रियाप्रकारैः प्रपूरितस्तेन (सुपेशसा) शोभनं पेशो रूपं हिरण्यं वा यस्मिन् तेन। पेश इतिरूपना०। निघं० ३।७। हिरण्यना० च निघं० १।२। (रथेन) विमानादिना (आ) अभितः (यातम्) गच्छतम् (अश्विना) अग्निजले इव वर्त्तमानौ (कण्वासः) मेधाविनः (वाम्) एतयोः सकाशात् (ब्रह्म) अन्नम्। ब्रह्मेत्यन्नना० निघं० २।७। (कृण्वन्ति) कुर्वन्ति (अध्वरे) संगते शिल्पक्रियासिद्धे याने (तेषाम्) मेधाविनाम् (सु) शोभनार्थे (शृणुतम्) (हवम्) ग्राह्यं विद्याशब्दसमूहम् ॥२॥
अन्वयः
ताभ्यां साधितेन #किं कर्त्तव्यमित्युपदिश्यते। #[यानेन। सं०]
पदार्थः
हे अश्विना वर्त्तमानौ सभासेनेशौ ! युवां यथा कण्वासोऽध्वरे येन त्रिबंधुरेण त्रिवृता सुपेशसा रथेन देशदेशाऽन्तरं शीघ्रं गत्वाऽऽगत्य ब्रह्म कृण्वन्ति तथा तेनायातम्। तेषां हवं सुशृणुतमन्नादिसमृद्धि च वर्द्धयतम् ॥२॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालंकारः। मनुष्यैर्विदुषां सकाशात् पदार्थविज्ञानपुरःसरां यज्ञशिल्पहस्तक्रियां साक्षात्कृत्वा व्यवहारकृत्यानि निष्पादनीयानि ॥२॥
हिन्दी (4)
विषय
उससे सिद्ध किये हुए यान से क्या करना चाहिये इस विषय का उपदेश अगले मंत्र में किया है।
पदार्थ
हे (अश्विना) पावक और जल के तुल्य सभा और सेना के ईश ! तुम लोग जैसे (कण्वासः) बुद्धिमान् लोग (अध्वरे) अग्निहोत्रादि वा शिल्पक्रिया से सिद्ध यज्ञ में जिस (त्रिबन्धुरेण) तीन बन्धनयुक्त (त्रिवृता) तीन शिल्पक्रिया के प्रकारों से पूरित (सुपेशसा) उत्तम रूप वा सोने से जटित (रथेन) विमान आदि यान से देश देशान्तरों में शीघ्र जा आके (ब्रह्म) अन्नादि पदार्थों को (कृण्वन्ति) करते हैं वैसे उससे देश देशान्तर और द्वीपद्वीपान्तरों को (आयातम्) जाओ आओ (तेषाम्) उन बुद्धिमानों का (हवम्) ग्रहण करने योग्य विद्याओं के उपदेश को (शृणुतम्) सुनो और अन्नादि समृद्धि को बढ़ाया करो ॥२॥
भावार्थ
यहां वाचकलुप्तोपमालंकार है। मनुष्यों को योग्य है कि विद्वानों के सङ्ग से पदार्थ विज्ञानपूर्वक यज्ञ और शिल्पविद्या की हस्तक्रिया को साक्षात् करके व्यवहाररूपी कार्यों को सिद्ध करें ॥२॥
विषय
त्रिवन्धुर रथ
पदार्थ
१. हे (अश्विना) = प्राणापानो ! (त्रिवन्धुरेण) = इन्द्रियों, मन व बुद्धि - 'घोड़े, लगाम व सारथि' ये तीनों जिसमें बड़े सुन्दर हैं, (त्रिवृता) = धर्म, अर्थ और काम - तीनों में समरूप से प्रवृत्त होनेवाले (सुपेशसा) = स्वास्थ्य व व्यायाम के कारण सुन्दर रूपवाले (रथेन) = इस शरीररूप रथ से (आयातम्) = आप हमें प्राप्त होओ । प्राणसाधना से ही वस्तुतः 'इन्द्रियाँ, मन व बुद्धि' तीनों बड़े सुन्दर बनते हैं, मानसवृत्ति धर्मपूर्वक ही धन कमाने व उचित आनन्दों को ही प्राप्त करने की बनी रहती है तथा नीरोगता व स्वास्थ्य से इस शरीर - रथ का सौन्दर्य बना रहता है । २. (कण्वासः) = मेधावी लोग (वाम्) = आप दोनों के ब्रह्म - स्तोत्रों को (कृण्वन्ति) = करते हैं । प्राणापान की महिमा का गायन करते हुए वे इनकी साधना में प्रवृत्त होते हैं । ३. हे प्राणापानो ! आप (अध्वरे) = इस जीवनयज्ञ के निमित्त (तेषाम्) = उन उपासकों व साधकों की (हवम्) = पुकार को (सुश्रृणुतम्) = उत्तमता से सुनिए, अर्थात् आप उनके जीवनों को यज्ञमय बनाने में सहायक होओ ।
भावार्थ
भावार्थ - प्राणसाधना से यह शरीर - रथ 'त्रिवन्धुर, त्रिवृत् व सुपेश' बनता है । प्राणसाधना जीवन को यज्ञमय बनाती है, अर्थात् यह साधक इस शरीर के लिए कोई क्रूर कर्म नहीं करता ।
विषय
आचार्य उपदेशक, सभाध्यक्ष सेनाध्यक्षों और राजा और पुरोहितों तथा विद्वान् स्त्री पुरुषों के कर्तव्यों का वर्णन ।
भावार्थ
हे (अश्विना) अग्नि और जल दोनों के समान परस्पर उदकारक स्त्री पुरुषो! एवं सभा सेना दोनों के अध्यक्षो! आप दोनों (त्रिबन्धुरेण) तीन प्रकार से बँधे, (त्रिवृता) तीनों प्रकार के शिल्पों से बने अथवा आकाश, स्थल और जल तीनों स्थानों पर चलने हारे (सुपेशसा) उत्तम सुवर्ण, लोह, पीतल आदि धातु से जड़े, सुरूप (रथेन) रथ से आप दोनों (यातम्) यात्रा किया करो। और (कण्वासः) विद्वान् पुरुष (वां) तुम दोनों को (ब्रह्म) सत्य वेदज्ञान का उपदेश करें। अथवा विद्वान् जन तुम्हारे अन्नादि भोग्य पदार्थों को बनावें। (अध्वरे) यज्ञ और प्रजापालन के कार्यों में तुम दोनों (तेषां) उन विद्वानों के (हवम्) स्तुति वचन और आदरपूर्वक आमन्त्रण को (सु शृणुतम्) अच्छी प्रकार आदर से श्रवण करो।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
प्रस्कण्वः काण्व ऋषिः ॥ अश्विनौ देवते ॥ छन्दः—१, ५ निचृत्पथ्या बृहती। ३, ७ पथ्या बृहती । ६ विराट् पथ्या बृहती । २, ६, ८ निचृत्सतः पंक्तिः । ४, १० सतः पंक्तिः ॥
विषय
शिल्पक्रिया से सिद्ध किये हुए यान से क्या करना चाहिये, इस विषय का उपदेश इस मंत्र में किया है।
सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः
हे अश्विना वर्त्तमानौ सभासेनेशौ ! युवां यथा कण्वासः अध्वरे येन त्रिबंधुरेण त्रिवृता सुपेशसा रथेन देशदेशाऽन्तरं शीघ्रं गत्वा आगत्य ब्रह्म कृण्वन्ति तथा तेन आयातम्। तेषां हवं सु शृणुतम् अन्नादिसमृद्धिं च वर्द्धयतम् ॥२॥
पदार्थ
हे (अश्विना) अग्निजले इव = अग्नि और जल के समान, (वर्त्तमानौ)= वर्त्तमान, (सभासेनेशौ)=सभापति और सेनापति ! (युवाम्)=तुम दोनों, (यथा)=जैसे, (कण्वासः) मेधाविनः=मेधावी हो, (अध्वरे) संगते शिल्पक्रियासिद्धे याने= शिल्पक्रिया की सिद्धि में साथ-साथ चलने में, (येन)=जिनके द्वारा, (त्रिबंधुरेण) त्रीणि बन्धुराणि बंधनानि यस्मिंस्तेन=जो तीन बन्धनयुक्त हैं, (त्रिवृता) त्रिभिः शिल्पक्रियाप्रकारैः प्रपूरितस्तेन= तीन प्रकार की शिल्पक्रिया से पूर्ण किये हुए, (सुपेशसा) शोभनं पेशो रूपं हिरण्यं वा यस्मिन् तेन=जिनमें सोने की सुन्दर सजावट है, ऐसे, (रथेन) विमानादिना=विमान आदि के द्वारा, (देशदेशाऽन्तरम्)=भिन्न-भिन्न स्थानों को, (शीघ्रम्)= शीघ्र, (गत्वा)=जाकर [और] (आगत्य)=आकर, (ब्रह्म) अन्नम्=अन्न, (कृण्वन्ति) कुर्वन्ति=करते हैं, अर्थात् रोजी-रोटी कमाते हैं, (तथा)=वैसे ही, (तेन)=उनके द्वारा, (आ) अभितः=हर ओर, (यातम्) गच्छतम्=जाते हुए, (तेषाम्) मेधाविनाम्=उन मेधावियों के द्वारा, (हवम्) ग्राह्यं विद्याशब्दसमूहम्= विद्या के शब्द समूहम को ग्रहण करना चाहिए, (सु) शोभनार्थे=सुन्दर कार्यों के लिये, (शृणुतम्) अन्नादिसमृद्धिम्= अन्न आदि समृद्धि से, (च)=भी, (वर्द्धयतम्)=विकास करना चाहिए। ॥२॥
महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद
यहां वाचकलुप्तोपमालंकार है। मनुष्यों को विद्वानों की समीपता से पदार्थों को विशेष ज्ञानपूर्वक यज्ञ और शिल्प की हस्त क्रिया की विद्या को साक्षात् करके व्यवहाररूपी कार्यों को सिद्ध करना चाहिए ॥२॥
पदार्थान्वयः(म.द.स.)
हे (अश्विना) अग्नि और जल के समान (वर्त्तमानौ) वर्त्तमान (सभासेनेशौ) सभापति और सेनापति ! (युवाम्) तुम दोनों (यथा) जैसे (कण्वासः) मेधावी हो, (अध्वरे) शिल्पक्रिया की सिद्धि में साथ-साथ चलने में (येन) जिनके द्वारा (त्रिबंधुरेण) जो तीन बन्धनयुक्त हैं, (त्रिवृता) तीन प्रकार की शिल्पक्रिया से पूर्ण हैं [और] (सुपेशसा) जिनमें सोने की सुन्दर सजावट है, [ऐसे] (रथेन) =विमान आदि के द्वारा (देशदेशाऽन्तरम्) भिन्न-भिन्न स्थानों को (शीघ्रम्) शीघ्र (गत्वा) जाकर [और] (आगत्य) आकर (ब्रह्म) अन्न (कृण्वन्ति) कमाते हैं, अर्थात् रोजी-रोटी कमाते हैं, (तथा) वैसे ही (तेन) उनके द्वारा (आ) हर ओर (यातम्) जाते हुए, (तेषाम्) उन मेधावियों के द्वारा (हवम्) विद्या के शब्द समूह को ग्रहण करना चाहिए [और] (सु) सुन्दर कार्यों के लिये, (शृणुतम्) अन्न आदि की समृद्धि से (च) भी (वर्द्धयतम्) विकास करना चाहिए। ॥२॥
संस्कृत भाग
पदार्थः(महर्षिकृतः)- (त्रिबंधुरेण) त्रीणि बन्धुराणि बंधनानि यस्मिंस्तेन (त्रिवृता) त्रिभिः शिल्पक्रियाप्रकारैः प्रपूरितस्तेन (सुपेशसा) शोभनं पेशो रूपं हिरण्यं वा यस्मिन् तेन। पेश इतिरूपना०। निघं० ३।७। हिरण्यना० च निघं० १।२। (रथेन) विमानादिना (आ) अभितः (यातम्) गच्छतम् (अश्विना) अग्निजले इव वर्त्तमानौ (कण्वासः) मेधाविनः (वाम्) एतयोः सकाशात् (ब्रह्म) अन्नम्। ब्रह्मेत्यन्नना० निघं० २।७। (कृण्वन्ति) कुर्वन्ति (अध्वरे) संगते शिल्पक्रियासिद्धे याने (तेषाम्) मेधाविनाम् (सु) शोभनार्थे (शृणुतम्) (हवम्) ग्राह्यं विद्याशब्दसमूहम् ॥२॥ विषयः- ताभ्यां साधितेन #किं कर्त्तव्यमित्युपदिश्यते। #[यानेन। सं०] अन्वयः- हे अश्विना वर्त्तमानौ सभासेनेशौ ! युवां यथा कण्वासोऽध्वरे येन त्रिबंधुरेण त्रिवृता सुपेशसा रथेन देशदेशाऽन्तरं शीघ्रं गत्वाऽऽगत्य ब्रह्म कृण्वन्ति तथा तेनायातम्। तेषां हवं सुशृणुतमन्नादिसमृद्धिं च वर्द्धयतम् ॥२॥ भावार्थः(महर्षिकृतः)- अत्र वाचकलुप्तोपमालंकारः। मनुष्यैर्विदुषां सकाशात् पदार्थविज्ञानपुरःसरां यज्ञशिल्पहस्तक्रियां साक्षात्कृत्वा व्यवहारकृत्यानि निष्पादनीयानि ॥२॥
मराठी (1)
भावार्थ
येथे वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. माणसांनी विद्वानांच्या संगतीने पदार्थ विज्ञानाद्वारे यज्ञ व शिल्पविद्येद्वारे हस्तक्रिया प्रत्यक्ष करून व्यवहाररूपी कार्य सिद्ध करावे. ॥ २ ॥
इंग्लिश (3)
Meaning
Ashvins, brilliant scholars of science and technology, come by three-stage, three armoured, beautifully structured chariot. The geniuses study and advance universal knowledge for you in scientific yajna. Listen to their prayers, accept their holy call.
Subject of the mantra
What should be done with a vehicle made by craftsmanship, this topic has been preached in this mantra.
Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-
He=O! (aśvinā)=like fire and water, (varttamānau) =present, (sabhāseneśau) =chairman of the assembly and army chief, (yuvām) =both of you, (yathā) =like, (kaṇvāsaḥ) =are intelligent, (adhvare) =in the accomplishment of craftsmanship and in working together, (yena) =by whom, (tribaṃdhureṇa) =who have three types of bounds, (trivṛtā) =are complete with three types of craftsmanship, [aura]=and, (supeśasā)=which has beautiful gold decorations, [aise]=such, (rathena)=by aircraft etc. (deśadeśā’ntaram) =to different places, (śīghram) =immediately, (gatvā) =going, [aura]=and, (āgatya) =coming, (brahma) =food, (kṛṇvanti)=earn food, that is, earn a living, (tathā) =in the same way, (tena) =by them, (ā) =to all sides, (yātam) =going, (teṣām) =by those intelligent persons, (havam)= words of wisdom should be accepted, [aura]=and, (su)=for beautiful works, (śṛṇutam) =by richness of food, (ca) =also, (varddhayatam)=must be developed.
English Translation (K.K.V.)
O like fire and water present chairman of the assembly and commander of army! Like both of you are brilliant, in walking together in the accomplishment of craftsmanship, by which the three types of craftsmanship, which have beautiful decorations of gold etc. in such aircraft et cetera. They go quickly to different places and come and earn food, that is, they earn their livelihood. In the same way, going everywhere through them, the words of knowledge should be accepted by those meritorious and for beautiful works, development should also be done with the prosperity of food et cetera.
TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand
There silent vocal simile as figurative in this mantra. Humans should accomplish practical works by witnessing the knowledge of yajna and handicrafts with special knowledge of the substances from the proximity of scholars.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
What should be done with what has been accomplished by them (Ashvins) is taught in the 2nd Mantra.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
2. Come O Ashvins (President of the Assembly and the Commander of the Army) who are like the fire and the water, with your three-columned, triangular chariot like aero plane etc. beautiful of form and full of gold and other metals, as highly intelligent persons do with their charming chariots manufactured with the help of technology, going from country to country and coming back and producing food materials. Listen to their words of wisdom and increase growth of food and other kinds of prosperity.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
( रथेन) विमानादिना = Vehicle in the form of aero plane etc. ( अश्विना ) अग्निजले इव वर्तमानौ = Like the fire and the water. ( कण्वासः) मेधाविनः = Wise or highly intelligent men. ( हवम् ) ग्राह्य विद्याशब्दसमूहम् = Words of wisdom that are to be received or accepted.
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Men should visualize the practical activities along with the theoretical scientific knowledge and then should accomplish all dealings.
Translator's Notes
अश्विनौ इति पदनामसु ( निघ० ५.६) पद-गतौ गतेस्त्रयोऽर्थाः ज्ञानं गमनं प्राप्तिश्च । = So here the 3rd meaning of if has been taken. व्यावहारिकसुखस्य प्रापकौ । = A means of worldly happiness or prosperity, fire and water combination in the form of steam engines etc. leads to comfort or सुर्यपवनौ The sun and air which lead to happiness when properly utilized. (कण्वास:) मेधाविन: ( निघ० ३.१५) (ब्रह्म) अन्नम् = Food ब्रह्मति अन्ननामसु ( निघ० २.७)
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