ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 47/ मन्त्र 5
ऋषिः - प्रस्कण्वः काण्वः
देवता - अश्विनौ
छन्दः - निचृत्पथ्याबृहती
स्वरः - मध्यमः
याभिः॒ कण्व॑म॒भिष्टि॑भिः॒ प्राव॑तं यु॒वम॑श्विना । ताभिः॒ ष्व १॒॑ स्माँ अ॑वतं शुभस्पती पा॒तं सोम॑मृतावृधा ॥
स्वर सहित पद पाठयाभिः॑ । कण्व॑म् । अ॒भिष्टि॑ऽभिः । प्र । आव॑तम् । यु॒वम् । अ॒श्वि॒ना॒ । ताभिः॑ । सु । अ॒स्मान् । अ॒व॒त॒म् । शु॒भः॒ । प॒ती॒ इति॑ । पा॒तम् । सोम॑म् । ऋ॒त॒ऽवृ॒धा॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
याभिः कण्वमभिष्टिभिः प्रावतं युवमश्विना । ताभिः ष्व १ स्माँ अवतं शुभस्पती पातं सोममृतावृधा ॥
स्वर रहित पद पाठयाभिः । कण्वम् । अभिष्टिभिः । प्र । आवतम् । युवम् । अश्विना । ताभिः । सु । अस्मान् । अवतम् । शुभः । पती इति । पातम् । सोमम् । ऋतवृधा॥
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 47; मन्त्र » 5
अष्टक » 1; अध्याय » 4; वर्ग » 1; मन्त्र » 5
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अष्टक » 1; अध्याय » 4; वर्ग » 1; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
(याभिः) वक्ष्यमाणाभिः (कण्वम्) मेधाविनम् (अभिष्टिभिः) या आभिमुख्येनेष्यन्ते ताभिरभीष्टाभिरिच्छाभिः। अत्र एमन्नादिषु छन्दसि पररूपं वक्तव्यम् इति पूर्वस्येकारस्य पररूपम्। (प्र) प्रकृष्टार्थे (आवतम्) पालयतम् (युवम्) युवाम् (अश्विना) सूर्य्यचन्द्रमसाविव सभासेनाध्यक्षौ (ताभिः) उक्ताभिः (सु) शोभनार्थे (अस्मान्) धार्मिकान् पुरुषार्थिनो मनुष्यान् (अवतम्) (शुभः) कल्याणकरस्य कर्मणः शुभगुणसमूहस्य वा (पती) पालयितारौ (पातम्) रक्षतम् (सोमम्) ऐश्वर्य्यम् (ऋतावृधा) यावृतेन सत्यानुष्ठानेन वर्धेते तौ ॥५॥
अन्वयः
पुनस्तौ किं कुरुतमित्युपदिश्यते।
पदार्थः
हे ऋतावृधा शुभस्पती अश्विना सूर्य्याचन्द्रमोगुणायुक्तौ युवं याभिरभिष्टिभिः सोमं कण्वं च पातं ताभिरस्मान्सुप्रावतं याभिरस्मान्पातं ताभिः सर्वानवतम् ॥५॥
भावार्थः
सभासेनेशौ यथा स्वस्यैश्वर्य्यस्य रक्षां विधत्तां तथैव प्रजाः सेनाश्च सततं रक्षेताम् ॥५॥
हिन्दी (4)
विषय
फिर वे क्या करें इस विषय का उपदेश अगले मंत्र में किया है।
पदार्थ
हे (ऋतावृधा) सत्य अनुष्ठान से बढ़नेवाले (शुभस्पती) कल्याण कारक कर्म्म वा श्रेष्ठ गुण समूह के पालक ! (अश्विना) सूर्य और चन्द्रमा के गुण युक्त सभा सेनाध्यक्ष ! (युवम्) आप दोनों (याभिः) जिन (अभिष्टिभिः) इच्छाओं से (सोमम्) अपने ऐश्वर्य और (कण्वम्) मेधावी विद्वान् की (पातम्) रक्षा करें उनसे (अस्मान्) हम लोगों को (सु) अच्छे प्रकार (आवतम्) रक्षा कीजिये और जिनसे हमारी रक्षा करें उनसे सब प्राणियों की (अवतम्) रक्षा कीजिये ॥५॥
भावार्थ
सभा और सेना के पति राज पुरुष जैसे अपने ऐश्वर्य्य की रक्षा करें वैसे ही प्रजा और सेनाओं की रक्षा सदा किया करें ॥५॥
विषय
शुभ के रक्षक प्राणापान
पदार्थ
१. हे (अश्विना) = प्राणापानो ! आप (याभिः) = जिन (अभिष्टिभिः) = अपेक्षित रक्षणों से अथवा रोगादि पर आक्रमणों के द्वारा (कण्वम्) = मेधावी पुरुष को (प्रावतम्) = सुरक्षित करते हो (ताभिः) = उन्हीं रक्षणों से (अस्मान्) = हमें भी (स अवतम्) = खूब अच्छी प्रकार सुरक्षित करो । एक मेधावी पुरुष प्राणसाधना के महत्त्व को समझता है और उसमें प्रवृत्त होता है । हम भी मेधावी बनकर इस प्राणसाधना में प्रवृत्त हों, प्राणसाधना के महत्त्व को समझें और उसका अनुष्ठान करें । २. हे (शुभस्पती) = जीवन में सब अच्छाइयों का रक्षण करनेवाले प्राणापानो ! (ऋतावृधा) = ऋत का - जो कुछ ठीक है उसका वर्धन करनेवाले आप (सोमं पातम्) = सोम का रक्षण कीजिए । वस्तुतः शरीर में इस सोम [शक्ति] के रक्षण से ही सब अच्छाइयाँ सुरक्षित होती हैं, इसी से हमारे जीवनों में ऋत का वर्धन होता है ।
भावार्थ
भावार्थ - प्राणापान ही हमारा रक्षण करते हैं और शक्ति की ऊर्ध्वगति के द्वारा सब शुभों को प्राप्त कराते हैं ।
विषय
आचार्य उपदेशक, सभाध्यक्ष सेनाध्यक्षों और राजा और पुरोहितों तथा विद्वान् स्त्री पुरुषों के कर्तव्यों का वर्णन ।
भावार्थ
हे (अश्विना) राष्ट्र के व्यापक अधिकार वाले, राष्ट्र के भोक्ता के समान पूर्वोक्त सभा सेनाध्यक्षो! हे (शुभस्पती) उत्तम गुणों के पालक, हे (ऋतावृधा) सत्याचरण से बढ़ने वालो! (युवम्) तुम दोनों (याभिः) जिन (अभिष्टिभिः) उत्तम कामनाओं, और प्रेरित होने वाली, या संञ्चालित सेनाओं से (कण्वदम्) विद्वान् पुरुषों की (प्र अवतम्) अच्छी प्रकार से रक्षा करते हो (ताभिः) उन से ही (अस्मान्) हम सामान्य प्रजाजनों को भी (सु-अवतम्) सुख पूर्वक उत्तम रीति से रक्षा करो और जिस प्रकार युद्ध के रथी, सारथी दोनों अपने आज्ञा देनेवाले सेनापति की रक्षा करते हैं उसी प्रकार (सोमम् पातम्) राष्ट्र ऐश्वर्य का भोग करो। या राजा की रक्षा करो। इति प्रथमो वर्गः ॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
प्रस्कण्वः काण्व ऋषिः ॥ अश्विनौ देवते ॥ छन्दः—१, ५ निचृत्पथ्या बृहती। ३, ७ पथ्या बृहती । ६ विराट् पथ्या बृहती । २, ६, ८ निचृत्सतः पंक्तिः । ४, १० सतः पंक्तिः ॥
विषय
फिर वे सभापति और सेनाध्यक्ष क्या करें इस विषय का उपदेश इस मंत्र में किया है।
सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः
हे ऋतावृधा शुभः पती अश्विना सूर्य्याचन्द्रमः गुणायुक्तौ युवं याभिः अभिष्टिभिः सोमं कण्वं च पातं ताभिः अस्मान् सु प्र आवतं याभिः अस्मान् पातं ताभिः सर्वान् आवतम् ॥५॥
पदार्थ
हे (ऋतावृधा) यावृतेन सत्यानुष्ठानेन वर्धेते तौ=जो ऋत और सत्य दोनों के अनुष्ठान से बढ़ता है, ऐसा, (शुभः) कल्याणकरस्य कर्मणः शुभगुणसमूहस्य वा=कल्याणकारी कर्म और शुभ गुणों का समूह, (पती) पालयितारौ=पालन करनेवाले, (अश्विना) सूर्य्यचन्द्रमसाविव सभासेनाध्यक्षौ=सूर्य और चन्द्रमा के समान सभापति और सेनाध्यक्ष, जो (गुणयुक्तौ)=गुणों से युक्त हैं, (युवम्) युवाम्=तुम दोनों, (याभिः)=जिनके द्वारा, (अभिष्टिभिः) या आभिमुख्येनेष्यन्ते ताभिरभीष्टाभिरिच्छाभिः=कामनाओं के द्वारा, (सोमम्) ऐश्वर्य्यम्=ऐश्वर्य्य, (कण्वम्) मेधाविनम्=मेधावियों की, (च) =भी, (पातम्) रक्षतम् ताभिः=उनके द्वारा रक्षा करके, (अस्मान्)=हमारी, (सु) शोभनार्थे=सुन्दरता और, (प्र) प्रकृष्टार्थे= प्रकृष्टता से, (आवतम्) पालयतम्=रक्षा करो। (याभिः) वक्ष्यमाणाभिः=जो कहे गये हैं, उन, (अस्मान्) धार्मिकान् पुरुषार्थिनो मनुष्यान्=धार्मिक पुरुषार्थी मनुष्यों की, (पातम्) रक्षतम्=रक्षा करो। (ताभिः) उक्ताभिः=उन कहे गये, (सर्वान्)= समस्त की, (आवतम्) पालयतम्= रक्षा करो। ॥५॥
महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद
सभापति और सेना के अध्यक्ष जैसे अपने ऐश्वर्य्य की रक्षा करते हैं, वैसे ही प्रजा और सेनाओं की रक्षा सदा किया करें ॥५॥
विशेष
अनुवादक की टिप्पणी- ऋत- वैदिक साहित्य में सही सनातन प्राकृतिक व्यवस्था और संतुलन के सिद्धांत को ऋत कहते हैं।
पदार्थान्वयः(म.द.स.)
हे (ऋतावृधा) ऋत और सत्य दोनों के अनुष्ठान से बढ़नेवाले, (शुभः) कल्याणकारी कर्म और शुभ गुणों के समूह वाले, (पती) पालन करनेवाले, (अश्विना) सूर्य और चन्द्रमा के समान सभापति और सेनाध्यक्षों! (गुणयुक्तौ) गुणों से युक्त (युवम्) तुम दोनों, (याभिः) जिनकी (अभिष्टिभिः) कामनाओं के द्वारा (सोमम्) ऐश्वर्य्य (च) और (कण्वम्) मेधावियों की (पातम्) उनके द्वारा रक्षा करके, (अस्मान्) हमारी (सु) सुन्दरता और (प्र) प्रकृष्टता से (आवतम्) रक्षा करो। (याभिः) जो कहे गये हैं, उन (अस्मान्) धार्मिक पुरुषार्थी मनुष्यों की (पातम्) रक्षा करो। (ताभिः) उन कहे गये (सर्वान्) समस्त की (आवतम्) रक्षा करो। ॥५॥
संस्कृत भाग
(पदार्थः) (महर्षिकृतः)- (याभिः) वक्ष्यमाणाभिः (कण्वम्) मेधाविनम् (अभिष्टिभिः) या आभिमुख्येनेष्यन्ते ताभिरभीष्टाभिरिच्छाभिः। अत्र एमन्नादिषु छन्दसि पररूपं वक्तव्यम् इति पूर्वस्येकारस्य पररूपम्। (प्र) प्रकृष्टार्थे (आवतम्) पालयतम् (युवम्) युवाम् (अश्विना) सूर्य्यचन्द्रमसाविव सभासेनाध्यक्षौ (ताभिः) उक्ताभिः (सु) शोभनार्थे (अस्मान्) धार्मिकान् पुरुषार्थिनो मनुष्यान् (अवतम्) (शुभः) कल्याणकरस्य कर्मणः शुभगुणसमूहस्य वा (पती) पालयितारौ (पातम्) रक्षतम् (सोमम्) ऐश्वर्य्यम् (ऋतावृधा) यावृतेन सत्यानुष्ठानेन वर्धेते तौ ॥५॥ विषयः- पुनस्तौ किं कुरुतमित्युपदिश्यते। अन्वयः- हे ऋतावृधा शुभस्पती अश्विना सूर्य्याचन्द्रमोगुणायुक्तौ युवं याभिरभिष्टिभिः सोमं कण्वं च पातं ताभिरस्मान्सुप्रावतं याभिरस्मान्पातं ताभिः सर्वानावतम् ॥५॥ भावार्थः(महर्षिकृतः)- सभासेनेशौ यथा स्वस्यैश्वर्य्यस्य रक्षां विधत्तां तथैव प्रजाः सेनाश्च सततं रक्षेताम् ॥५॥
मराठी (1)
भावार्थ
सभा व सेनेचा पती राजपुरुष जसे आपल्या ऐश्वर्याचे रक्षण करतात तसेच प्रजेचे व सेनेचे सदैव रक्षण करावे. ॥ ५ ॥
इंग्लिश (3)
Meaning
Ashvins, universal harbingers of light and knowledge, defenders of good and promoters of Truth and Law, by the cherished plans and noble desires by which you protect and promote the sagely scholar, protect us too and promote the beauty and glory of the world.
Subject of the mantra
Then what should those presidents of the assembly and army chiefs do? This topic has been preached in this mantra.
Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-
He=O! (ṛtāvṛdhā)=those who grow by the commencementof both ṛta { a fixed or settled rule } and truth, (śubhaḥ)= having beneficial deeds and group of auspicious qualities, (patī) =those protectors, (aśvinā)= presidents of assemblyies and army chiefs like the Sun and the Moon, (guṇāyuktau)=full of qualities, (yuvam)=both of you, (yābhiḥ) =whose, (abhiṣṭibhiḥ)=by the wishes, (somam)=opulence, (ca)=and, (kaṇvam) =of intellent people, (pātam) =protecting by them, (asmān) =our, (su) beautifully and, (pra) =excellently, (āvatam) =protect, (yābhiḥ) =which have been said,those (asmān) =of righteous and engaged in object of pursuit, (pātam) =protect, (tābhiḥ) =those said, (sarvān) =of all, (āvatam) =protect.
English Translation (K.K.V.)
O those who grow by the commencement of both ṛta and truth, like the Sun and the Moon, the chairman of the assembly and the army chiefs! You two possessing qualities, by whose desires protecting opulence and the intelligent people, protect us with elegance and excellence. Those who have been told, protect those righteous men. Protect all those said.
TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand
As the president of the assembly and the chief of the army protect their wealth, so always protect the people and the army.
TRANSLATOR’S NOTES-
ṛta- In Vedic literature ṛta refers to the principle of perfect eternal natural order and balance.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O President of the Assembly and Commander of the Army, who are endowed with the attributes of the sun and the moon, who increase with the observance of truth and are its supporters, who are guardians of all good deeds, protect and preserve us with those noble desires by which you protect the true wealth and a wise man.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
(अश्विना) सूर्यचन्द्रमसाविव सभासेनाध्यक्षौ = The President of the Assembly and the commander of the Army who shine on account of their merits like the sun and the moon.
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
The President of the Assembly and the commander of the Army should protect their subjects and their armies incessantly as they preserve their own wealth.
Translator's Notes
For the meaning of the word Ashvinau as सूर्याचन्द्रमसौ or the sun and the moon, there is the clear authority of Yaskacharya in Nirukta 12.1 तत्कावश्विनौ ? द्यावापृथिव्यावित्येके | अहोरात्रावित्येके | सूर्याचन्द्रमसावित्येके । ( निरुक्ते १२.१ ) Having taken this third meaning, Rishi Dayananda has taken the President of the Assembly and the Commander of the Army by the way of illustration as acting or shining like the sun and the moon. It is wrong on the part of Sayanacharya, Prof. Wilson, Griffith and others to take कणव as the name of a particular sage, whereas according to the Vedic Lexicon-Nighantu 3.15 it simply means a highly intelligent or wise person. कण्व इति मेधाविनामसु पठितम् ( निघ० ३.१५ ) Rishi Dayananda's interpretation is in accordance with and based upon this authority.
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