ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 47/ मन्त्र 6
ऋषिः - प्रस्कण्वः काण्वः
देवता - अश्विनौ
छन्दः - निचृत्सतः पङ्क्ति
स्वरः - पञ्चमः
सु॒दासे॑ दस्रा॒ वसु॒ बिभ्र॑ता॒ रथे॒ पृक्षो॑ वहतमश्विना । र॒यिं स॑मु॒द्रादु॒त वा॑ दि॒वस्पर्य॒स्मे ध॑त्तं पुरु॒स्पृह॑म् ॥
स्वर सहित पद पाठसु॒ऽदासे॑ । द॒स्रा॒ । वसु॑ । बिभ्र॑ता । रथे॑ । पृक्षः॑ । व॒ह॒त॒म् । अ॒श्वि॒ना॒ । र॒यिम् । स॒मु॒द्रात् । उ॒त । वा॒ । दि॒वः । परि॑ । अ॒स्मे इति॑ । ध॒त्त॒म् । पु॒रु॒ऽस्पृह॑म् ॥
स्वर रहित मन्त्र
सुदासे दस्रा वसु बिभ्रता रथे पृक्षो वहतमश्विना । रयिं समुद्रादुत वा दिवस्पर्यस्मे धत्तं पुरुस्पृहम् ॥
स्वर रहित पद पाठसुदासे । दस्रा । वसु । बिभ्रता । रथे । पृक्षः । वहतम् । अश्विना । रयिम् । समुद्रात् । उत । वा । दिवः । परि । अस्मे इति । धत्तम् । पुरुस्पृहम्॥
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 47; मन्त्र » 6
अष्टक » 1; अध्याय » 4; वर्ग » 2; मन्त्र » 1
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अष्टक » 1; अध्याय » 4; वर्ग » 2; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
(सुदासे) सुष्ठु शोभना दासा यस्य तस्मिन् (दस्रा) शत्रूणामुपक्षेतारौ (वसु) विद्यादिधनसमूहम् (बिभ्रता) धरन्तौ (रथे) विमानादियाने (पृक्षः) सुखसंपर्कनिमित्तं विज्ञानम्। अत्र पृचीधातोः बाहुलकाद् औणादिकोऽसुन्प्रत्ययस्तस्य सुडागमश्च। (वहतम्) प्रापयतम् (अश्विना) वायुविद्युदादिरिव व्याप्तैश्वर्य्यौ (रयिम्) राजश्रियम् (समुद्रात्) सागरादन्तरिक्षाद्वा (उत) अपि (वा) पक्षान्तरे (दिवः) द्योतनात्मकात्सूर्यात् (परि) सर्वतः (अस्मे) अस्मभ्यम् (धत्तम्) (पुरुस्पृहम्) यत्सत्पुरुषैर्बहुभिः स्पृह्यत ईप्स्यते तत् ॥६॥
अन्वयः
पुनस्तौ कीदृशावित्युपदिश्यते।
पदार्थः
हे दस्रा वसु बिभ्रताऽश्विनेव ! युवां सुदासे रथे समुद्रादुत दिवः पारेऽस्मे पृक्षो वहतं पुरुस्पृहं रयिं च परिधत्तम् ॥६॥
भावार्थः
सभेशादिभिः राजपुरुषैः सेनाप्रजार्थं विविधं धनं समुद्रादिपाराऽवारगमनाय विमानादियानानि च संपाद्य सुखोन्नतिः कार्य्येति ॥६॥
हिन्दी (4)
विषय
फिर वे कैसे हैं, इस विषय का उपदेश अगले मंत्र में किया है।
पदार्थ
हे (दस्रा) शत्रुओं के नाश करनेवाले (वसु) विद्यादिधन समूह को (बिभ्रता) धारण करते हुए (अश्विना) वायु और बिजुली के समान पूर्ण ऐश्वर्य युक्त आप ! जैसे (सुदासे) उत्तम सेवक युक्त (रथे) विमानादि यान में (समुद्रात्) सागर वा सूर्य से (उत) और (दिवः) प्रकाशयुक्त आकाश से पार (पृक्षः) सुख प्राप्ति का निमित्त (पुरुस्पृहम्) जो बहुत का इच्छित हो उस (रयिम्) राज्यलक्ष्मी को धारण करें वैसे (अस्मे) हमारे लिये (परिधत्तम्) धारण कीजिये ॥६॥
भावार्थ
राज पुरुषों को योग्य है कि सेना और प्रजा के अर्थ नाना प्रकार का धन और समुद्रादि के पार जाने के लिये विमान आदि यान रचकर सब प्रकार सुख की उन्नति करें ॥६॥
विषय
प्रसाद व प्रकाश
पदार्थ
१. हे (अश्विना) = प्राणापानो ! (दस्रा) = आप दोनों सब बुराइयों का विनाश करनेवाले हो । (रथे) = रथ में वस (बिभ्रता) = निवास के लिए आवश्यक धनों को धारण करते हुए आप (सुदासे) = उत्तम तथा गतिशील पुरुष में (पृक्षः) = प्रभु - सम्पर्क के कारणभूत अन्न को (वहतम्) = प्राप्त कराइए । सात्विक अन्न से बुद्धि सात्त्विक होती है और सात्त्विक बुद्धि से प्रभु का दर्शन होता है एवं यह सात्त्विक अन्न 'पृक्षः' [सम्पर्क का कारणभूत] कहलाता है । २. हे प्राणापानो ! आप (समुद्रात्) = सदा आनन्द से युक्त हृदय से (उत वा) = तथा (दिवस्परि) = मस्तिष्करूप द्युलोक से (पुरुस्पृहम्) = पालन व पूरण करनेवाले तथा स्पृहणीय (रयिम्) = धन को (अस्मे) = हमारे लिए (धत्तम्) = धारण कीजिए । हृदय का धन 'प्रसाद' व 'नैर्मल्य' है तथा मस्तिष्क का धन 'ज्ञान' व 'प्रकाश' है । प्राणायाम की साधना से यह मनः प्रसाद तथा मस्तिष्क का प्रकाश - दोनों ही प्राप्त होते हैं । ३. यदि प्राणसाधना के साथ सात्त्विक अन्न का सेवन जुड़ जाता है तो हमारा हृदय निर्मल होकर प्रसादयुक्त हो जाता है और मस्तिष्क ज्ञान की ज्योति से चमक उठता है ।
भावार्थ
भावार्थ - हम प्राणसाधना में चलें, सात्त्विक अन्न का सेवन करें, इससे हमारे हृदय प्रसन्न होंगे और मस्तिष्क चमक उठेंगे ।
विषय
आचार्य उपदेशक, सभाध्यक्ष सेनाध्यक्षों और राजा और पुरोहितों तथा विद्वान् स्त्री पुरुषों के कर्तव्यों का वर्णन ।
भावार्थ
हे (दस्त्रा) शत्रुओं के नाश करने में तत्पर! (अश्विनौ) राष्ट्र में व्यापक अधिकार वालो! आप दोनों (सुदासे) उत्तम दास आदि भृत्यों से युक्त स्वामी के अधीन रहकर, अथवा उत्तम २ ऐश्वर्यों के देने वाले पुरुष के हितार्थ, (रथे वसु बिभ्रता) नाना वासोपयोगी धनों ऐश्वर्यों को अपने रथ में रख कर (पृक्षः) अति सुख और पुष्टि के देने वाले अन्न को (वहतम्) प्राप्त कराओ। और (समुद्रात्) समुद्र (उत) और (दिवः) आकाश दोनों मार्गों से (पुरुस्पृहम्) बहुतसी प्रजाओं से चाहने योग्य (रथिम्) ऐश्वर्य को (अस्मे) हमें (परि धत्तम्) प्रदान करो।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
प्रस्कण्वः काण्व ऋषिः ॥ अश्विनौ देवते ॥ छन्दः—१, ५ निचृत्पथ्या बृहती। ३, ७ पथ्या बृहती । ६ विराट् पथ्या बृहती । २, ६, ८ निचृत्सतः पंक्तिः । ४, १० सतः पंक्तिः ॥
विषय
फिर वे कैसे हैं, इस विषय का उपदेश इस मंत्र में किया है।
सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः
हे दस्रा वसु बिभ्रता अश्विना इव ! युवां सुदासे रथे समुद्रात् उत दिवः पारे अस्मे पृक्षः वहतं पुरुस्पृहं रयिं च परिधत्तम् ॥६॥
पदार्थ
हे (दस्रा) शत्रूणामुपक्षेतारौ=शत्रुओं की उपेक्षा करनेवाले, (वसु) विद्यादिधनसमूहम्= विद्या आदि धन के समूह को, (बिभ्रता) धरन्तौ= धारण करनेवाले, (अश्विना) वायुविद्युदादिरिव व्याप्तैश्वर्य्यौ=वायु, विद्युत् आदि के समान! (युवाम्)=तुम दोनों को, (सुदासे) सुष्ठु शोभना दासा यस्य तस्मिन्= उत्तम सेवकों युक्त, (रथे) विमानादियाने=विमान आदि यानों में, (समुद्रात्) सागरादन्तरिक्षाद्वा=समुद्र और अन्तरिक्ष से, (उत) अपि=भी, (दिवः) द्योतनात्मकात्सूर्यात्=चमकते हुए सूर्य से, (पारे)=दूसरी ओर, (अस्मे) अस्मभ्यम्=हमारे लिये, (पृक्षः) सुखसंपर्कनिमित्तं विज्ञानम्=सुख प्राप्त कराने के लिये विशेष ज्ञान, (वहतम्) प्रापयतम्= प्राप्त कराइये, (पुरुस्पृहम्) यत्सत्पुरुषैर्बहुभिः स्पृह्यत ईप्स्यते तत्=सत्पुरुषों द्वारा कामना किये जाने योग्य, (रयिम्) राजश्रियम्= राजलक्ष्मी, (च)=भी, (परि) सर्वतः=हर ओर से, (धत्तम्)=धारण कराइये ॥६॥
महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद
सभा के स्वामी राज पुरुषों को विभिन्न प्रकार के धन के लिये समुद्र आदि के पार आने व जाने के लिये विमान आदि यानों का प्रयोग करना चाहिए जिससे सुख और उन्नति प्राप्त की जा सके ॥६॥
पदार्थान्वयः(म.द.स.)
हे (दस्रा) शत्रुओं की उपेक्षा करनेवाले, (वसु) विद्या आदि धन के समूह को (बिभ्रता) धारण करनेवाले (अश्विना) और वायु व विद्युत् आदि के समान! (युवाम्) तुम दोनों के लिये (सुदासे) उत्तम सेवकों से युक्त, (रथे) विमान आदि यानों में, (समुद्रात्) समुद्र और अन्तरिक्ष से (उत) भी (दिवः) चमकते हुए सूर्य के दूसरी ओर, (अस्मे) हमारे लिये (पृक्षः) सुख प्राप्त कराने के लिये विशेष ज्ञान (वहतम्) प्राप्त कराइये। (पुरुस्पृहम्) सत्पुरुषों द्वारा कामना किये जाने योग्य (रयिम्) राजलक्ष्मी (च) भी (परि) हर ओर से (धत्तम्) धारण कराइये ॥६॥
संस्कृत भाग
पदार्थः(महर्षिकृतः)- (सुदासे) सुष्ठु शोभना दासा यस्य तस्मिन् (दस्रा) शत्रूणामुपक्षेतारौ (वसु) विद्यादिधनसमूहम् (बिभ्रता) धरन्तौ (रथे) विमानादियाने (पृक्षः) सुखसंपर्कनिमित्तं विज्ञानम्। अत्र पृचीधातोः बाहुलकाद् औणादिकोऽसुन्प्रत्ययस्तस्य सुडागमश्च। (वहतम्) प्रापयतम् (अश्विना) वायुविद्युदादिरिव व्याप्तैश्वर्य्यौ (रयिम्) राजश्रियम् (समुद्रात्) सागरादन्तरिक्षाद्वा (उत) अपि (वा) पक्षान्तरे (दिवः) द्योतनात्मकात्सूर्यात् (परि) सर्वतः (अस्मे) अस्मभ्यम् (धत्तम्) (पुरुस्पृहम्) यत्सत्पुरुषैर्बहुभिः स्पृह्यत ईप्स्यते तत् ॥६॥ विषयः- पुनस्तौ कीदृशावित्युपदिश्यते। अन्वयः- हे दस्रा वसु बिभ्रताऽश्विनेव ! युवां सुदासे रथे समुद्रादुत दिवः पारेऽस्मे पृक्षो वहतं पुरुस्पृहं रयिं च परिधत्तम् ॥६॥ भावार्थः(महर्षिकृतः)- सभेशादिभिः राजपुरुषैः सेनाप्रजार्थं विविधं धनं समुद्रादिपाराऽवारगमनाय विमानादियानानि च संपाद्य सुखोन्नतिः कार्य्येति ॥६॥
मराठी (1)
भावार्थ
राजपुरुषांनी सेना व प्रजेसाठी नाना प्रकारचे धन व समुद्र पार करण्यासाठी विमान इत्यादी याने तयार करून सर्व प्रकारे सुख वाढवावे. ॥ ६ ॥
इंग्लिश (3)
Meaning
Ashvins, harbingers of light and prosperity, destroyers of enemies, who ride the well-piloted chariot and bring wealth and abundance for the man of generosity, come bearing universally desired honour and excellence of wealth from the sea and sky and also from the heavens.
Subject of the mantra
Then how are they, this topic has been preached in this mantra.
Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-
He=O! (dasrā) =ignoring enemies, (vasu) =to the group of knowledge etc. wealth, (bibhratā) =possessing, (aśvinā)=and like air and electricity etc.. (yuvām) =to both of you, (sudāse)=with best servants, (rathe) =in vehicles like aircrafts etc., (samudrāt) =from ocean and space, (uta) =also, (divaḥ)=on the other side of the shining sun, (asme) =for us, (pṛkṣaḥ)= special knowledge to get happiness, (vahatam) =get obtained, (puruspṛham)=to be desired by good men, (rayim)= Fortune or Prosperity of a king, (ca) =also, (pari) =from all sides, (dhattam) =get possessed.
English Translation (K.K.V.)
O the one who ignores the enemies, the one who holds the group of knowledge etc. wealth and is like air and electricity etc.! Get special knowledge for both of you to get happiness for us, on the other side of the Sun shining even from the ocean and space, in the aircraft etc. with the best servants. Get possessed fortune or prosperity of a king, which is desired by good men, be possessed from all sides.
TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand
The lords of the assembly should use aircraft etc. vehicles to come and go across the ocean etc. for different types of wealth, so that happiness and progress can be achieved.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The same subject is continued.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O President of the Assembly and Commander of the Army who are full of wealth, destroyers of your enemies, possessing wealth of various kinds, come to us sitting in the Vehicle like the aero plane which has in it many good servants or workers bringing knowledge which gives happiness, pertaining to the atmosphere or the brilliant sun and wealth desired by many whether from the firmament or the sky beyond.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
(वृक्ष:) सुखसम्पर्कनिमित्तं विज्ञानम् (अत्र पृची धातोर्बाहुलकादौणादिकोऽसुन्प्रत्ययः तस्य सुडागमश्च) = Knowledge which causes happiness.
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
The Officers of the State like the President of the Assembly and others should obtain much wealth for the welfare of the army and the people should manufacture many vehicles like the aero plane to take wealth away to distant places beyond the seas for business etc. and should make all happy.
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