ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 47/ मन्त्र 7
ऋषिः - प्रस्कण्वः काण्वः
देवता - अश्विनौ
छन्दः - पथ्यावृहती
स्वरः - मध्यमः
यन्ना॑सत्या परा॒वति॒ यद्वा॒ स्थो अधि॑ तु॒र्वशे॑ । अतो॒ रथे॑न सु॒वृता॑ न॒ आ ग॑तं सा॒कं सूर्य॑स्य र॒श्मिभिः॑ ॥
स्वर सहित पद पाठयत् । ना॒स॒त्या॒ । प॒रा॒ऽवति॑ । यत् । वा॒ । स्थः । अधि॑ । तु॒र्वशे॑ । अतः॑ । रथे॑न । सु॒ऽवृता॑ । नः॒ । आ । ग॒त॒म् । सा॒कम् । सूर्य॑स्य । र॒श्मिऽभिः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
यन्नासत्या परावति यद्वा स्थो अधि तुर्वशे । अतो रथेन सुवृता न आ गतं साकं सूर्यस्य रश्मिभिः ॥
स्वर रहित पद पाठयत् । नासत्या । परावति । यत् । वा । स्थः । अधि । तुर्वशे । अतः । रथेन । सुवृता । नः । आ । गतम् । साकम् । सूर्यस्य । रश्मिभिः॥
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 47; मन्त्र » 7
अष्टक » 1; अध्याय » 4; वर्ग » 2; मन्त्र » 2
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अष्टक » 1; अध्याय » 4; वर्ग » 2; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
(यत्) यं रथम् (नासत्या) सत्यगुणकर्मस्वभावौ सभासेनेशौ (परावति) दूरं दूरं देशं प्रति गमने कर्त्तव्ये (यत्) यत्र (वा) पक्षान्तरे (स्थः) (अधि) उपरिभावे (तुर्वशे) वेद शिल्पादिविद्यावति मनुष्ये। तुर्वश इति मनुष्यना०। निघं० २।३। (अतः) कारणात् (रथेन) विमानादियानेन (सुवृता) शोभना वृतोऽङ्गपूर्त्तिर्य्यस्य तेन (नः) अस्मान् (आ) अभितः (गतम्) गच्छतम् (साकम्) सह (सूर्यस्य) सवितृमंडलस्य (रश्मिभिः) किरणैः ॥७॥
अन्वयः
पुनरेतौ किं कुरुतामित्युपदिश्यते।
पदार्थः
हे नासत्यावश्विना ! युवां यत्सुवृता रथेन यद्यतः परावति देशे तुर्वशेऽधिष्ठस्तेनातः सूर्य्यस्य रश्मिभिः साकं नोऽस्मानागतम् ॥७॥
भावार्थः
राजसभेशादयो येन यानेनान्तरिक्षमार्गेण देशान्तरं गन्तुम् शक्नुयुस्तद्यानं प्रयत्नेन रचयेयुः ॥७॥
हिन्दी (4)
विषय
फिर वे क्या करें, इस विषय का उपदेश अगले मंत्र में किया है।
पदार्थ
हे (नासत्या) सत्य गुण कर्म स्वभाव वाले सभा सेना के ईश ! आप (यत्) जिस (सुवृता) उत्तम अङ्गों से परिपूर्ण (रथेन) विमान आदि यान से (यत्) जिस कारण (परावति) दूर देश में गमन करने तथा (तुर्वशे) वेद और शिल्पविद्या के जानने वाले विद्वान् जन के (अधिष्ठः) ऊपर स्थित होते हैं (अतः) इससे (सूर्य्यस्य) सूर्य के (रश्मिभिः) किरणों के (साकम्) साथ (नः) हम लोगों को (आगतम्) सब प्रकार प्राप्त हूजिये ॥७॥
भावार्थ
राजसभा के पति जिस सवारी से अन्तरिक्ष मार्ग करके देश देशान्तर जाने को समर्थ होवें उसको प्रयत्न से बनावें ॥७॥
विषय
सूर्योदय के साथ प्राणसाधना
पदार्थ
१. हे (नासत्या) = जिनके कारण पाप नहीं रहता, ऐसे प्राणापानो ! (यत्) = यदि (परावति) = दूर देश में (स्थः) = हो, (यत् वा) = या (तुर्वशे) = [अन्तिकनाम - नि० २/१६] समीपता में (अधिस्थः) = आधिक्येन हो, अति समीप हो, अर्थात् आप चाहे दूर हों चाहे पास (अतः) = उस स्थान से (सुवृता) = शोभन वर्तनवाले, अर्थात् प्रत्येक सुन्दर कर्म के अधिष्ठानभूत (रथेन) = इस शरीररूप रथ से (नः) = हमें (सूर्यस्य रश्मिभिः साकम् ) = सूर्योदय के साथ ही (आगतम्) = प्राप्त होओ । २. यहाँ यह स्पष्ट है कि सूर्योदय के साथ ही प्राणसाधना करना आवश्यक है; वह प्राणायाम के लिए सर्वोत्तम समय है । ३. 'प्राणों का दूर व अधिक - से - अधिक समीप होना' - इस बात का सकेंत कर रहा है कि 'रेचक' प्राणायाम में हम प्राणों को दूर - से - दूर फेंकते हैं और 'पूरक' में उसे अधिक - से - अधिक समीप प्राप्त कराते हैं । ४. इस प्राणायाम का मुख्य लाभ शरीररूप रथ का शोभन वर्तन, अर्थात् उत्तमता से युक्त होना है । प्राणसाधना अङ्ग - प्रत्यङ्ग को सशक्त व सुडौल बनाती है ।
भावार्थ
भावार्थ - सूर्योदय के साथ ही प्राणसाधना करते हुए हम शरीररूप रथ को सुन्दर बनानेवाले हों ।
विषय
आचार्य उपदेशक, सभाध्यक्ष सेनाध्यक्षों और राजा और पुरोहितों तथा विद्वान् स्त्री पुरुषों के कर्तव्यों का वर्णन ।
भावार्थ
हे (नासत्या) कभी असत्याचरण न करने हारो! राष्ट्र के दो प्रमुख अधिकारियो (यत्) चाहे तुम दोनों (परावति) दूर देश में (स्थः) हो और (यद् वा) चाहे तुम दोनों (तुर्वशे अधि) चारों पुरुषार्थों के अभिलाषी प्रजाजनों के ऊपर (अधि स्थः) शासन करते होवो, तो भी (अतः) इसी कारण से कि (सुवृता) उत्तम गति से चलने वाले (रथेन) रथसे (सूर्यस्य रश्मिभिः साकम्) सूर्य की किरणों के साथ २ ही, अप्रमादी होकर (नः आगतम्) हमारे पास आओ ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
प्रस्कण्वः काण्व ऋषिः ॥ अश्विनौ देवते ॥ छन्दः—१, ५ निचृत्पथ्या बृहती। ३, ७ पथ्या बृहती । ६ विराट् पथ्या बृहती । २, ६, ८ निचृत्सतः पंक्तिः । ४, १० सतः पंक्तिः ॥
विषय
फिर वे क्या करें, इस विषय का उपदेश अगले मंत्र में किया है।
सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः
हे नासत्या अवश्विना ! युवां यत् सुवृता रथेन यद् यतः परावति देशे तुर्वशे अधिष्ठः तेन अतः सूर्य्यस्य रश्मिभिः साकं नः अस्मान् आ गतम् ॥७॥
पदार्थ
हे (नासत्या) सत्यगुणकर्मस्वभावौ सभासेनेशौ अवश्विना= सत्य गुण कर्म स्वभाव से अविनाशी सभापति और सेनापति ! (युवाम्)=तुम दोनों, (यत्) यं रथम्=जिस रथ में, (सुवृता) शोभना वृतोऽङ्गपूर्त्तिर्य्यस्य तेन=सुन्दर पहिये के अंगों की पूर्ति है, उनके द्वारा, (रथेन) विमानादियानेन=विमान आदि यान से, (यत्) यत्र=जहाँ, (यतः)=क्योंकि, (परावति) दूरं दूरं देशं प्रति गमने कर्त्तव्ये= दूर दूर देशों के प्रति जाने के कर्त्तव्य में, (देशे)= देश में, (तुर्वशे) वेद शिल्पादिविद्यावति मनुष्ये= वेद और शिल्प आदि विद्याओं को जाननेवाले मनुष्य में, (अधि) उपरिभावे=ऊपरवाले, (स्थः)=स्थान में, (तेन)=उसके, (अतः) कारणात्= कारण से, (सूर्यस्य) सवितृमंडलस्य=सूर्यमण्डल की, (रश्मिभिः) किरणैः=किरणों के द्वारा, (साकम्) सह=साथ में, (नः) अस्मान्=हमें, (आ) अभितः=हर ओर से, (गतम्) गच्छतम्=प्राप्त होओ ॥७॥
महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद
राजसभा के पति आदि जिस यान से अन्तरिक्ष मार्ग से जाकर देश देशान्तर में जाने में समर्थ होवें, उन यानों को प्रयत्न से बनावें ॥७॥
पदार्थान्वयः(म.द.स.)
हे (नासत्या) सत्य गुण कर्म स्वभावसे अविनाशी सभापति और सेनापति ! (युवाम्) तुम दोनों, (यत्) जिस रथ में (सुवृता) सुन्दर पहिये के अंगों की पूर्ति है, उन (रथेन) विमान आदि यान से (यत्) जहाँ [जाते हो], (यतः) क्योंकि (परावति) दूर दूर देशों के प्रति जाने के कर्त्तव्य में, (देशे) देश में [और] (तुर्वशे) वेद और शिल्प आदि विद्याओं को जाननेवाले मनुष्य में, (अधि) ऊपरवाली श्रेणी में (स्थः) स्थित हैं, (तेन) उसके [इस] (अतः) कारण से (सूर्यस्य) सूर्यमण्डल की (रश्मिभिः) किरणों के (साकम्) साथ में (नः) हमें (आ) हर ओर से (गतम्) प्राप्त होओ ॥७॥
संस्कृत भाग
पदार्थः(महर्षिकृतः)- (यत्) यं रथम् (नासत्या) सत्यगुणकर्मस्वभावौ सभासेनेशौ (परावति) दूरं दूरं देशं प्रति गमने कर्त्तव्ये (यत्) यत्र (वा) पक्षान्तरे (स्थः) (अधि) उपरिभावे (तुर्वशे) वेद शिल्पादिविद्यावति मनुष्ये। तुर्वश इति मनुष्यना०। निघं० २।३। (अतः) कारणात् (रथेन) विमानादियानेन (सुवृता) शोभना वृतोऽङ्गपूर्त्तिर्य्यस्य तेन (नः) अस्मान् (आ) अभितः (गतम्) गच्छतम् (साकम्) सह (सूर्यस्य) सवितृमंडलस्य (रश्मिभिः) किरणैः ॥७॥ विषयः- पुनरेतौ किं कुरुतामित्युपदिश्यते। अन्वयः- हे नासत्यावश्विना ! युवां यत्सुवृता रथेन यद् यतः परावति देशे तुर्वशेऽधिष्ठस्तेनातः सूर्य्यस्य रश्मिभिः साकं नोऽस्मानागतम् ॥७॥ भावार्थः(महर्षिकृतः)- राजसभेशादयो येन यानेनान्तरिक्षमार्गेण देशान्तरं गन्तुम् शक्नुयुस्तद्यानं प्रयत्नेन रचयेयुः ॥७॥
मराठी (1)
भावार्थ
राजसभेच्या पतीने ज्या वाहनाद्वारे अंतरिक्ष मार्गातून देशदेशांतरी जाण्यास समर्थ बनता येईल, असे प्रयत्नपूर्वक बनवावे. ॥ ७ ॥
इंग्लिश (3)
Meaning
Ashvins, friends of truth and humanity, whether you live and operate far off in a distant place or you rule close by over noble people of dedication, all the same come by the beautiful flying chariot alongwith the rays of the sun.
Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-
He=O! (nāsatyā)=The imperishable chairman of assembly and commander-in-chief by the nature of truth, virtue, and action! (yuvām) =both of you,, (yat) =in which vehicle, (suvṛtā) The parts of the beautiful wheel are supplied, they (rathena) =by aircraft etc. vehicle, (yat)=where, [jāte ho]=go, (yataḥ) =because, (parāvati)=on duty to go to distant lands, (deśe) =in the country, [aura]=and, (turvaśe)=in a man who knows the Vedas and crafts etc., (adhi)= in the higher category, (sthaḥ) =are placed, (tena) =his, [isa]=this, (ataḥ) =by reason,(sūryasya)=of the Sunsphere, (raśmibhiḥ) =of rays, (sākam) =with, (naḥ) =to us, (ā) =from all sides, (gatam) =be attained.
English Translation (K.K.V.)
O imperishable chairman of the assembly and commander-in-chief of the army with the nature of truth, virtues and deeds! You both, being in the chariot which is filled with the parts of the beautiful wheels, wherever you go by those aircraft et cetera. Because, in the duty of going to far away countries, man who has the knowledge of Vedas and crafts etc., he is positioned in the upper category. For this reason, along with the rays of the solar sphere, get from all sides to us.
TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand
The lords of the assembly etc. should make efforts to make those vehicles by which they would be able to go to the different places by going through the sky route.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The same subject is continued.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O Ashvins (President of the Assembly and the Commander of the Army) who are truthful in mind, word and deed, whether you abide far off or close at hand, come to us in your well-constructed vehicle like the aero plane etc. with the rays of the sun, approach a person who is endowed with Vehicle and technical knowledge.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
(तुर्वंशे) वेद शिल्पविद्यावति मनुष्ये तुर्वश इति मनुष्यनाम ( निघ० २.३ ) = In a learned person.
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
It is the duty of the President of the Council of Ministers and the Commander of the Army to make arrangements for the construction of such vehicles as may travel in the firmament and take to distant countries.
Translator's Notes
Deva Raja Yajva in his commentary on the Nirukta, explains Turvasha (तुर्वशा ) in various ways, the following of which is specially worth-mentioning. चतुर्षु धर्मार्थकाममोक्षेषु वश एषाम् इति चतुर्वशाः सन्तः चकारलोपेन तुर्वशा: तुर्वशेष्वगन्महिं ( ऋ० ५.७. ३३.४) इति निगम: वश-कान्तौ Desirous of four objects of human life i. e. Dharma (righteousness) Artha ( achievement of wealth) Kama (fulfilment of noble desires) and Moksha ( emancipation). ( २ ) तुर्वशे इति अन्तिक नाम ( निघ० २.१६) = Near or close at hand.
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