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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 47 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 47/ मन्त्र 8
    ऋषिः - प्रस्कण्वः काण्वः देवता - अश्विनौ छन्दः - निचृत्सतः पङ्क्ति स्वरः - पञ्चमः

    अ॒र्वाञ्चा॑ वां॒ सप्त॑योऽध्वर॒श्रियो॒ वह॑न्तु सव॒नेदुप॑ । इषं॑ पृ॒ञ्चन्ता॑ सु॒कृते॑ सु॒दान॑व॒ आ ब॒र्हिः सी॑दतं नरा ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒र्वाञ्चा॑ । वा॒म् । सप्त॑यः । अ॒ध्व॒र॒ऽश्रियः॑ । वह॑न्तु । सव॑ ना । इत् । उप॑ । इष॑म् । पृ॒ञ्चन्ता॑ । सु॒ऽकृते॑ । सु॒ऽदान॑वे । आ । ब॒र्हिः । सि॒द॒त॒म् । न॒रा॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अर्वाञ्चा वां सप्तयोऽध्वरश्रियो वहन्तु सवनेदुप । इषं पृञ्चन्ता सुकृते सुदानव आ बर्हिः सीदतं नरा ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अर्वाञ्चा । वाम् । सप्तयः । अध्वरश्रियः । वहन्तु । सव ना । इत् । उप । इषम् । पृञ्चन्ता । सुकृते । सुदानवे । आ । बर्हिः । सिदतम् । नरा॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 47; मन्त्र » 8
    अष्टक » 1; अध्याय » 4; वर्ग » 2; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    (अर्वाचां) अर्वतो वेगानंचतः प्राप्नुतस्तौ (वाम्) युवयोः (सप्तयः) बाष्पादयोऽश्वा येषान्ते। सप्तिरित्यश्वना० निघं० १।१४। (अध्वरश्रियः) या अध्वरस्याहिंसनीयस्य चक्रवर्त्तिराज्यस्य लक्ष्मीस्ताः (वहन्तु) प्राप्नुवन्तु (सवना) सुन्वति यैस्तानि (इत्) एव (उप) सामीप्ये (इषम्) श्रेष्ठामिच्छामुत्तममन्नादिकं वा (पृञ्चन्ता) सम्पर्चकौ (सुकृते) यः शोभनानि कर्म्माणि करोति तस्मै (सुदानवे) शोभना दानवो दानानि यस्य तस्मै (आ) अभितः (बर्हिः) अन्तरिक्षमुत्तमं वस्तुजातम् (सीदतम्) गच्छतम् (नरा) नायकौ सभासेनापती ॥८॥

    अन्वयः

    पुनस्तौ किं हेतुकावित्युपदिश्यते।

    पदार्थः

    हे अर्वाञ्चा पृञ्चन्ता नरा सभासेनेशौ ! युवां ये वां सप्तयः सुकृते सुदानवे जनाय त्रैषां बर्हिः सवनाध्वरश्रियश्चोपावहन्तु तानुपासीदतम् ॥८॥

    भावार्थः

    राजप्रजाजनाः परस्परमुत्तमान्पदार्थान्समर्प्य सुखिनः स्युः ॥८॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    फिर वे किस हेतुवाले हैं, इस विषय का उपदेश अगले मंत्र में किया है।

    पदार्थ

    हे (अर्वाञ्चा) घोड़े के समान वेगों को प्राप्त (पृञ्चन्ता) सुखों के करानेवाले (नरा) सभासेनापति ! आप जो (वाम्) तुम्हारे (सप्तयः) भाफ आदि अश्वयुक्त (सुकृते) सुन्दर कर्म करने (सुदानवे) उत्तम दाता मनुष्य के वास्ते (इषम्) धर्म की इच्छा वा उत्तम अन्न आदि (बर्हिः) आकाश वा श्रेष्ठ पदार्थ (सवना) यज्ञ की सिद्धि की क्रिया (अध्वरश्रियः) और पालनीय चक्रवर्त्ती राज्य की लक्ष्मियों को (आवहन्तु) प्राप्त करावें उन पुरुषों का (उपसीदतम्) सङ्ग सदा किया करो ॥८॥

    भावार्थ

    राजा और प्रजाजनों को चाहिये कि आपस में उत्तम पदार्थों को दे-लेकर सुखी हों ॥८॥

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    विषय

    सुकृत् - सुदानु

    पदार्थ

    १. (अध्वरश्रियः) = यज्ञों की शोभावाले (सप्तयः) = इन्द्रियरूप अश्व (वाम्) = आप दोनों प्राणापानों को (सवना इत्) = निश्चय से यज्ञों के (अर्वाञ्चा) = अभिमुख (उपवहन्तु) = समीपता से प्राप्त कराएँ, अर्थात् प्राणसाधना के द्वारा इन्द्रियरूप अश्व सदा हिंसाशून्य, अतएव उत्तम कर्मों में व्याप्त रहें । २. (नरा) = साधकों को अग्रस्थान में प्राप्त करानेवाले प्राणापानो ! आप (सुकृते) = उत्तम कर्म करनेवाले (सुदानवे) = उत्तम दानशील पुरुष के लिए (इषं पृञ्चन्ता) = उत्तम अन्न का सम्पर्क करते हुए (बर्हिः) = यज्ञ में (आसीदतम्) = सर्वथा निषण्ण होओ, अर्थात् प्राणसाधना करने पर हम [क] उत्तम कर्मों के करनेवाले बनते हैं, [ख] उत्तम दान की प्रवृत्तिवाले होते हैं, [ग] उत्तम अन्न का सेवन करते हैं, और [घ] सदा यज्ञीय वृत्तिवाले बने रहते हैं ।

    भावार्थ

    भावार्थ - प्राणसाधना से हम 'सुकृत् व सुदानु' बनते हैं, उत्तम अन्नों का सेवन करते हुए सदा यज्ञशील बनते हैं ।

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    विषय

    आचार्य उपदेशक, सभाध्यक्ष सेनाध्यक्षों और राजा और पुरोहितों तथा विद्वान् स्त्री पुरुषों के कर्तव्यों का वर्णन ।

    भावार्थ

    हे (नरा) नेता पुरुषो! रथी और सारथी! (वाम्) तुम दोनों के (सप्तयः) अश्वगण (अध्वरश्रियः) शत्रुओं से न मारे जाने वाले राजा की शोभाओं और (सवना इत्) नाना ऐश्वर्यों को भी (उप वहन्तु) प्राप्त करावें। तुम दोनों (सुकृते) उत्तम धर्माचरण और न्याय के करने वाले और (सुदानवे) उत्तम सात्विक दानशील राजा के लिये (इषं) प्रेरणा करने योग्य सेना और शस्त्रास्त्र समूह को (पृञ्चन्ता) अच्छी प्रकार संगठित करते हुए (बर्हिः) प्रधान नायक पद पर (आ-सीदतम्) आकर विराजो। अथवा (अध्वरश्रियः सप्तयः) संग्राम की शोभा बढ़ाने वाले अश्व ही ऐश्वर्यों को प्राप्त करावें ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    प्रस्कण्वः काण्व ऋषिः ॥ अश्विनौ देवते ॥ छन्दः—१, ५ निचृत्पथ्या बृहती। ३, ७ पथ्या बृहती । ६ विराट् पथ्या बृहती । २, ६, ८ निचृत्सतः पंक्तिः । ४, १० सतः पंक्तिः ॥

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    विषय

    फिर वे किस हेतुवाले हैं, इस विषय का उपदेश अगले मंत्र में किया है।

    सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः

    हे अर्वाञ्चा पृञ्चन्ता नरा सभासेनेशौ ! युवां ये वां सप्तयः सुकृते सुदानवे जनाय त्रैषां बर्हिः सवना अध्वरश्रियः च उप आ वहन्तु तान् उप आसीदतम् ॥८॥

    पदार्थ

    हे (अर्वाञ्चा) अर्वतो वेगानंचतः प्राप्नुतस्तौ=अश्व के समान वेग से पहँच रहे, (पृञ्चन्ता) सम्पर्चकौ=सम्पर्क करानेवाले, (नरा) नायकौ सभासेनापती=नायक सभापति और सेनापति! (युवाम्)=तुम दोनों, (ये)=जो, (वाम्) युवयोः= तुम दोनों के, (सप्तयः) बाष्पादयोऽश्वा येषान्ते=वाष्प आदि सात अश्व हैं, (सुकृते) यः शोभनानि कर्म्माणि करोति तस्मै=जो उत्तम कर्म करते हैं, (सुदानवे) शोभना दानवो दानानि यस्य तस्मै=जिसके उत्तम दान है, (जनाय)=लोगों के लिये, (त्रैषाम्)=रक्षा के लिये, (बर्हिः) अन्तरिक्षमुत्तमं वस्तुजातम्=उत्तम अन्तरिक्ष समूह में, (सवना) सुन्वति(निष्पादयन्ति येन कर्मणः) यैस्तानि=जिस कर्म से निष्पादन करते हैं, (अध्वरश्रियः) या अध्वरस्याहिंसनीयस्य चक्रवर्त्तिराज्यस्य लक्ष्मीस्ताः= जो हिंसा रहित कार्यों से चक्रवर्त्ति राज्य की लक्ष्मी प्राप्त होती है, उसको (च)=भी, (उप) सामीप्ये=निकट से, (आ) अभितः=हर ओर से, (वहन्तु) प्राप्नुवन्तु= प्राप्त करो। (तान्)=उनके, (उप)=निकट, (आसीदतम्) आगच्छतम्=आओ ॥८॥

    महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद

    राजा और प्रजाजनों को चाहिये कि परस्पर उत्तम पदार्थों को ले दे करके सुखी हों ॥८॥

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)

    हे (अर्वाञ्चा) अश्व के समान वेग से पहँचने वाले [और] (पृञ्चन्ता) सम्पर्क करानेवाले, (नरा) नायक सभापति और सेनापति! (युवाम्) तुम दोनों (ये) जो (वाम्) तुम्हारे (सप्तयः) वाष्प आदि सात अश्व हैं, [अर्थात् ऊर्जा के साधन है,] (सुकृते) जो उत्तम कर्म वाले [और] (सुदानवे) उत्तम दान वाले हैं, [उन] (जनाय) लोगों की (त्रैषाम्) रक्षा के लिये (बर्हिः) उत्तम अन्तरिक्ष समूह में, (सवना) जिस कर्म का निष्पादन करते हैं, (अध्वरश्रियः) [उससे] हिंसा रहित कार्यों से चक्रवर्त्ति राज्य की लक्ष्मी प्राप्त होती है। [उसको] (च) भी, (उप) निकट से, (आ) हर ओर से (वहन्तु) प्राप्त करो। (तान्) उनके (उप) निकट (आसीदतम्) आओ ॥८॥

    संस्कृत भाग

    पदार्थः(महर्षिकृतः)- (अर्वाचां) अर्वतो वेगानंचतः प्राप्नुतस्तौ (वाम्) युवयोः (सप्तयः) बाष्पादयोऽश्वा येषान्ते। सप्तिरित्यश्वना० निघं० १।१४। (अध्वरश्रियः) या अध्वरस्याहिंसनीयस्य चक्रवर्त्तिराज्यस्य लक्ष्मीस्ताः (वहन्तु) प्राप्नुवन्तु (सवना) सुन्वति यैस्तानि (इत्) एव (उप) सामीप्ये (इषम्) श्रेष्ठामिच्छामुत्तममन्नादिकं वा (पृञ्चन्ता) सम्पर्चकौ (सुकृते) यः शोभनानि कर्म्माणि करोति तस्मै (सुदानवे) शोभना दानवो दानानि यस्य तस्मै (आ) अभितः (बर्हिः) अन्तरिक्षमुत्तमं वस्तुजातम् (सीदतम्) गच्छतम् (नरा) नायकौ सभासेनापती ॥८॥ विषयः- पुनस्तौ किं हेतुकावित्युपदिश्यते। अन्वयः- हे अर्वाञ्चा पृञ्चन्ता नरा सभासेनेशौ ! युवां ये वां सप्तयः सुकृते सुदानवे जनाय त्रैषां बर्हिः सवनाध्वरश्रियश्चोपावहन्तु तानुपासीदतम् ॥८॥ भावार्थः(महर्षिकृतः)- राजप्रजाजनाः परस्परमुत्तमान्पदार्थान्समर्प्य सुखिनः स्युः ॥८॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    राजा व प्रजाजनांनी आपापसात उत्तम पदार्थ देऊन-घेऊन सुखी व्हावे. ॥ ८ ॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    Ashvins, brilliant creative powers of humanity and nature, may your horses of the speed of the dawn bring you hither close to the beauties and glories of yajna in the sessions. Bearing food, energy and excellence for the generous people of noble yajnic action, come by the chariot and grace the yajna on earth and in space.

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    Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-

    He=O! (arvāñcā) =arriving like agalloping horse, [aura]=and, (pṛñcantā)=contact persons, (narā)=Hero Chairman and Commander! (yuvām) =both of you, (ye) =those, (vām) =your, (saptayaḥ)=there are seven horses like vapors, [arthāt ūrjā ke sādhana hai,]= that is, means of energy, (sukṛte)=those who do good deeds, [aura]=and, (sudānave)=are of great charity, [una]=those, (janāya) =of people, (traiṣām) =for protection, (barhiḥ)=in the best space group, (savanna=the work they perform, (adhvaraśriyaḥ) [usase] Chakravarti kingdom's Lakshmi is attained by non-violence actions, [usako]=to that, (ca) =also, (upa) =from close quarters, (ā) =from all sides, (vahantu) =attain, (tān) =their, (upa) =close, (āsīdatam) =come.

    English Translation (K.K.V.)

    O the one who reaches and communicates with the speed of a horse, the hero, the chairman of the assembly and the commander of the army! You two, which are the seven horses of your vapors, i.e. the means of energy, in order to protect those who do good deeds and give good alms, in the best space group, from the actions that you perform, with non-violence Lakshmi of Chakravarti kingdom is attained. Get that too, closely, from all sides. Come close to him.

    TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand

    The king and his subjects should be happy by taking and giving each other good things.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The same subject is continued.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O guides of men, endowed with speed or active and establishing contact among people, O President of the Assembly and Commander of the Army, may your horses in the form of steam engines etc. take you to the pious and liberal donor and their Yajnas. Sit on the suitable good seat. Bestow food upon them and other good things fulfilling their noble desires and bringing to them the prosperity of inviolable vast State.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    [अर्वाञ्चा] अर्वतः वेगान् अञ्चतः प्राप्नुतः तौ = Full of speed. (सप्तयः ) वाष्पादयोऽश्वा येषां ते, सप्तिरित्यश्वनाम ( निघ० १.१४) = Horses in the form of steam engines etc. (इषम् ) श्रेष्ठाम् इच्छाम् उत्तमम् अन्नादिकं वा = Noble desire or good food etc. (बर्हि:) अन्तरिक्षम्, उत्तमं वस्तुजातम् = Firmament. good things. बर्हिरित्यन्तरिक्ष नाम ( निघ० १.३ )

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    The officers and people of the State should give to one another good things and should enjoy happiness.

    Translator's Notes

    बर्हि: (Barhih) has been interpreted by Rishi Dayananda as उत्तमं वस्तुनातम् or good things. बर्हिरिति पदनामसु ( निघ० ५.२ ) पद-गतौ गतेस्त्रयोऽर्था: ज्ञानं गमनं प्राप्तिश्च by taking the third meaning, it means सुखप्रापकम् i e a good thing that causes happiness. बृह-वृद्धौ or बर्हिषि महन्नाम ( निघ० ३.३) Great or good.

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