ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 50/ मन्त्र 12
ऋषिः - प्रस्कण्वः काण्वः
देवता - सूर्यः
छन्दः - अनुष्टुप्
स्वरः - गान्धारः
शुके॑षु मे हरि॒माणं॑ रोप॒णाका॑सु दध्मसि । अथो॑ हारिद्र॒वेषु॑ मे हरि॒माणं॒ नि द॑ध्मसि ॥
स्वर सहित पद पाठशुके॑षु । मे॒ । ह॒रि॒माण॑म् । रो॒प॒णाका॑सु । द॒ध्म॒सि॒ । अथो॒ इति॑ । हा॒रि॒द्र॒वेषु॑ । मे॒ । ह॒रि॒माण॒म् । नि । द॒ध्म॒सि॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
शुकेषु मे हरिमाणं रोपणाकासु दध्मसि । अथो हारिद्रवेषु मे हरिमाणं नि दध्मसि ॥
स्वर रहित पद पाठशुकेषु । मे । हरिमाणम् । रोपणाकासु । दध्मसि । अथो इति । हारिद्रवेषु । मे । हरिमाणम् । नि । दध्मसि॥
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 50; मन्त्र » 12
अष्टक » 1; अध्याय » 4; वर्ग » 8; मन्त्र » 7
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अष्टक » 1; अध्याय » 4; वर्ग » 8; मन्त्र » 7
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
(शुकेषु) शुकवत्कृतेषु कर्मसु (मे) मम (हरिमाणम्) हरणशीलं रोगम् (रोपणाकासु) रोपणं समन्तात्कामयन्ति तासु क्रियासु लिप्तास्वोषधीषु (दध्मसि) धरेम (अथो) आनन्तर्ये (हारिद्रवेषु) ये हरन्ति द्रवन्ति द्रावयन्ति च तेषामेतेषु (मे) मम (हरिमाणम्) चित्ताकर्षकं व्याधिम् (नि) नितराम् (दध्मसि) स्थापयेम ॥१२॥
अन्वयः
पुनस्ते किं कुर्य्युरित्याह इत्युपदिश्यते।
पदार्थः
यथा सद्वैद्या ब्रूयुस्तथा वयं शुक्रेषु रोपणाकासु मे हरिमाणं दध्मस्यथो हारिद्रवेषु मे मम हिरमाणं निदध्मसि ॥१२॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालंकारः। मनुष्या लेपनादिक्रियाभिः सर्वान्रोगान्निवार्य बलं प्राप्नुवन्तु ॥१२॥
हिन्दी (4)
विषय
फिर वे क्या करें, इस विषय का उपदेश अगले मंत्र में किया है।
पदार्थ
जैसे श्रेष्ठ वैद्य लोग कहें वैसे हम लोग (शुक्रेषु) शुत्रों के समान किये हुए कर्मो और (रोपणाकासु) लेप आदि क्रियाओं से (मे) मेरे (हरिमाणम्) चित्त को खैंचने वाले रोगनाशक ओषधियों को (दध्मसि) धारण करें (अथो) इसके पश्चात् (हारिद्रवेषु) जो सुख हरने मल बहाने वाले रोग हैं उनमें (मे) अपने (हरिमाणम्) हरणशील चित्त को (निदध्मसि) निरन्तर स्थिर करें ॥१२॥
भावार्थ
मनुष्य लोग लेपनादि क्रियाओं से रोगों का निवारण करके बल को प्राप्त होवें ॥१२॥
विषय
हरिमा निराकरण
पदार्थ
१. गतमन्त्र के अनुसार सूर्याभिमुख बैठकर ध्यान करते हुए हम (मे हरिमाणम्) = अपनी हरिमा - रोग के कारण उत्पन्न होनेवाली चेहरे की इस प्रीतिमा को (शुकेषु रोपणाकासु) = तोतों व मैनाओं में (दध्मसि) = स्थापित कर सकते हैं । यह पीतिमा [yellowish green colour] तोतों व मैनाओं में ही शोभा देती है । इसका स्थान हमारा चेहरा थोड़े ही है ? २. (अथ) = और अब (मे हरिमाणम्) = हम अपनी इस हरिमा को (हारिद्रवेषु) = हरिताल द्रुम के पत्तों में (निदध्मसि) = निश्चय से स्थापित करते हैं । इस हरिमा का स्थान हरिताल द्रुम ही हैं, मेरे चेहरे का सम्बन्ध इस हरिमा से नहीं है । यह हरिमा वहीं रहे, मुझे पीड़ित करनेवाली न हो । ३. 'शुक' शब्द शिरीष वृक्ष का वाचक भी है और 'हारिद्रव' कदम्ब वृक्ष का । यह भी सम्भव है कि इन वृक्षों के पत्तों आदि का प्रयोग हरिमा रोग को दूर करने के लिए उपयोगी हो । उस समय 'रोपणाका' [Healing application] लेपविशेष की प्रक्रिया का नाम होगा । शिरीष व कदम्ब वृक्षों का लेप - सा बनाकर प्रयोग होना सम्भव है ।
भावार्थ
भावार्थ - उचित उपचार से हमारा यह हरिमा रोग दूर हो और हम पुनः कान्ति - सम्पन्न बन पाएँ ।
विषय
सूर्य के द्वारा पाण्डुरोग का निवारण ।
भावार्थ
( मे ) हम अपने देह के (हरिमाणम्) बल और सुख को अपहरण करनेवाले रोग को (शुकेषु) शुक्र अर्थात् तोते के समान किये गये नाना प्रकार के कटु तिक्त फलों के आस्वादन तथा नाना वृक्षों से युक्त प्रदेशों में भ्रमण आदि कार्यों द्वारा और (रोपणाकासु) शरीर के पोषण करनेवाली, लेपन करने योग्य ओषधियों द्वारा उन ओषधियों के बल पर ( नि दध्मसि ) वश करें । (अथो) और (हारिद्रवेषु ) दुःख पीड़ा को हरने और स्वतः द्रव रूप एवं देह के मलों को बहा कर निकाल देनेवाले पदार्थों के बल से भी (ये) अपने देह के (हरिमाणं ) बलहारी, चेतनाहारी रोग को ( निदध्मसि ) दूर करें । अथवा शुक, रोपणाका और हारिद्रव ये औषधियों के विशेषवर्ग हैं जिनका स्पष्टीकरण देखो अथर्ववेद आलोकभाष्य का० १ सू० २२ । मन्त्र १-४ ॥ (हरिमाणं) चेतना और ज्ञान के हरनेवाले तामस आवरण को हम ( शुकेषु ) ज्ञानोपदेष्टा विद्वान् और (रोपणाकासु) ज्ञानप्रद उपनिषद् की वल्लियों और (हारिद्रवेषु) अज्ञान मोह के हरने और भगा देनेवाले उपदेशों द्वारा दूर करें ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
१–१३ प्रस्कण्वः काण्व ऋषिः । सूर्यो देवता ॥ छन्दः—१, ६ निचृद्गायत्री । २, ४, ८,९ पिपीलिकामध्या निचृद्गायत्री । ३ गायत्री । ५ यवमध्या विराङ्गायत्री । विराङ्गायत्री । १०, ११ निचृदनुष्टुप् । १२,१३ अनुष्टुप् ।
विषय
फिर वे क्या करें, इस विषय का उपदेश इस मंत्र में किया है।
सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः
यथा सद् वैद्या ब्रूयुः तथा वयं शुक्रेषु रोपणाकासु मे हरिमाणं दध्मसि अथो हारिद्रवेषु मे मम हिरमाणं निदध्मसि ॥१२॥
पदार्थ
(यथा)=जैसे, (सद्)=सद्गुणी, (वैद्या)=वैद्य लोग, (ब्रूयुः) =बोलते हैं, (तथा)=वैसे ही, (वयम्) =हम, (शुकेषु) शुकवत्कृतेषु कर्मसु= तोते के समान कर्मों में, (रोपणाकासु) रोपणं समन्तात्कामयन्ति तासु क्रियासु लिप्तास्वोषधीषु=जिनसे हर ओर से लेपन करना चाहते हैं, उन ओषधियों से लेपित, (मे) मम =मेरे, (हरिमाणम्) हरणशीलं रोगम्=दूर करने योग्य रोग को, (दध्मसि) स्थापयेम=स्थापित करें। (अथो) आनन्तर्ये=इसके ठीक बाद में, (हारिद्रवेषु) ये हरन्ति द्रवन्ति द्रावयन्ति च तेषामेतेषु=दुःख और पीड़ा को हरनेवाली, (हरिमाणम्) चित्ताकर्षकं व्याधिम्= चित्त को लुभाने वाली व्याधि, (नि) नितराम्=विशेष रूप से, (दध्मसि) धरेम=[नियंत्रण में] रखें, ॥१२॥
महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालंकार है। मनुष्य लोग लेपन आदि क्रियाओं से रोगों का निवारण करके बल को प्राप्त होवें ॥१२॥
पदार्थान्वयः(म.द.स.)
(यथा) जैसे (सद्) सद्गुणी (वैद्या) वैद्य लोग (ब्रूयुः) बोला करते हैं, (तथा) वैसे ही (वयम्) हम (शुकेषु) तोते के समान [कटु तिक्त वस्तुओं को खाने के] कर्मों में, (रोपणाकासु) जिनमें हर ओर लेपन किया जाता है, उन ओषधियों से लेपित, (मे) मेरे (हरिमाणम्) दूर करने योग्य रोग में (दध्मसि) स्थापयेम=मरहम के रूप में लगायें। (अथो) इसके ठीक बाद में (हारिद्रवेषु) दुःख और पीड़ा को हरनेवाली [और] (हरिमाणम्) चित्त को लुभाने वाली व्याधि को (नि) विशेष रूप से (दध्मसि) [नियंत्रण में] रखें ॥१२॥
संस्कृत भाग
पदार्थः(महर्षिकृतः)- (शुकेषु) शुकवत्कृतेषु कर्मसु (मे) मम (हरिमाणम्) हरणशीलं रोगम् (रोपणाकासु) रोपणं समन्तात्कामयन्ति तासु क्रियासु लिप्तास्वोषधीषु (दध्मसि) धरेम (अथो) आनन्तर्ये (हारिद्रवेषु) ये हरन्ति द्रवन्ति द्रावयन्ति च तेषामेतेषु (मे) मम (हरिमाणम्) चित्ताकर्षकं व्याधिम् (नि) नितराम् (दध्मसि) स्थापयेम ॥१२॥ विषयः- पुनस्ते किं कुर्य्युरित्याह इत्युपदिश्यते। अन्वयः- यथा सद्वैद्या ब्रूयुस्तथा वयं शुक्रेषु रोपणाकासु मे हरिमाणं दध्मस्यथो हारिद्रवेषु मे मम हिरमाणं निदध्मसि ॥१२॥ भावार्थः(महर्षिकृतः)- अत्र वाचकलुप्तोपमालंकारः। मनुष्या लेपनादिक्रियाभिः सर्वान्रोगान्निवार्य बलं प्राप्नुवन्तु ॥१२॥
मराठी (1)
भावार्थ
माणसांनी लेप इत्यादी क्रियांनी रोगांचे निवारण करून बल प्राप्त करावे. ॥ १२ ॥
इंग्लिश (3)
Meaning
Our consumptive and bilious diseases we attribute to abuse, fear, infatuation, schizophrenia, infect any severe mental disturbance, and for cure we assign these to green and yellow birds, and green and yellow fluids, soma, sandal, acasia sirissa and turmeric, and close it with cicatrix.
Subject of the mantra
Then what should they do, this subject has been preached in this mantra.
Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-
(yathā) =Like, (sad) =virtuous, (vaidyā) =medical practitioner in herbs etc., (brūyuḥ) =speek, (tathā) =in the same way, (vayam) =we, (śukeṣu) = like deeds of parrot, [kaṭu tikta vastuoṃ ko khāne ke]= to eat bitter things, (ropaṇākāsu) =coated on all sides, coated with those drugs, (me) =my, (harimāṇam)= in curable disease meṃ(dadhmasi) sthāpayema=marahama, (atho) =just after it, (hāridraveṣu)=remover of sorrow and pain, [aura]=and, (harimāṇam) =perplexing mental problem, (ni)=especially, (dadhmasi)=keep, [niyaṃtraṇa meṃ] =in control.
English Translation (K.K.V.)
As virtuous physicians speak, so we, like parrots, in the actions of eating bitter and pungent things, which are smeared all over, coated with those medicines, apply as ointment to our curable disease. Immediately after this, especially control the disease that destroys sorrow and pain and captivates the mind.
TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand
There is silent vocal simile as figurative in this mantra. Human beings get strength by getting rid of diseases by applying ointment et cetera.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
We put our disease which takes away all happiness in parrot like actions i.e. taking various fruits and walking in regions full of trees and in herbs which strengthen us and ointments etc. which take away pain. We also put them in substances that take away diseases and are liquid.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
(शुकेषु ) शुक्रवत् कृतेषु कर्मसु = In parrot-like actions as explained above. ( रोपणाकासु ) रोपणं समन्तात् कामयन्ते तासु क्रियासु लिप्तासु ओषधीषु = Ointments and other medicines. ( हारिद्रवेषु ) ये हरन्ति द्रवन्ति द्रावयन्ति च = Which take away pain and disease. Other translators simply translate the Mantra as 'let us transfer the yellowness (of my body) to the parrots, to the starlings, or to the Haritala trees.' (Wilson). “To parrots and to starlings let us give away my yellowness or this my yellowness let us transfer to Haritala trees" (Griffith). But there is not much sense in it शुक, रोपणाका and हारिद्रव seem to indicate a group of herbs, medicines and trees by the proper use of which heart disease, jaundice and other diseases may be checked and cured according to the Ayurvedic literature. In the Atharva Veda the reading in the text is सुक instead of शुक which means that which gives pleasure well.
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Men should get rid of all diseases and acquire strength by adopting necessary means, using fruits, herbs and ointments etc.
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