ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 50/ मन्त्र 8
ऋषिः - प्रस्कण्वः काण्वः
देवता - सूर्यः
छन्दः - पिपीलिकामध्यानिचृद्गायत्री
स्वरः - षड्जः
स॒प्त त्वा॑ ह॒रितो॒ रथे॒ वह॑न्ति देव सूर्य । शो॒चिष्के॑शं विचक्षण ॥
स्वर सहित पद पाठस॒प्त । त्वा॒ । ह॒रितः॑ । रथे॑ । वह॑न्ति । दे॒व॒ । सू॒र्य॒ । शो॒चिःऽके॑शम् । वि॒ऽच॒क्ष॒ण॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
सप्त त्वा हरितो रथे वहन्ति देव सूर्य । शोचिष्केशं विचक्षण ॥
स्वर रहित पद पाठसप्त । त्वा । हरितः । रथे । वहन्ति । देव । सूर्य । शोचिःकेशम् । विचक्षण॥
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 50; मन्त्र » 8
अष्टक » 1; अध्याय » 4; वर्ग » 8; मन्त्र » 3
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अष्टक » 1; अध्याय » 4; वर्ग » 8; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
(सप्त) सप्तविधाः किरणाः (त्वा) त्वाम् (हरितः) यैः किरणै रसान् हरति त आदित्यरश्मयः। हरितइत्यादिष्टोपयोजनना०। निघं० १।१५। (रथे) रमणीये लोके (वहन्ति) (देव) दातः (सूर्य्य) ज्ञानस्वरूप ज्ञानप्रापक वा (शोचिष्केशम्) शोचींषि केशा दीप्तयो रश्मयो यस्य तं सूर्य्यलोकम् (विचक्षण) विविधान् दर्शक ॥८॥
अन्वयः
पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते।
पदार्थः
हे विचक्षण देव सूर्य जगदीश्वर ! यथा सप्त हरितः शोचिष्केशं रथे वहन्ति तथा त्वा सप्त छन्दांसि प्रापयन्ति ॥८॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालंकारः। हे मनुष्या यथा किरणैर्विना सूर्य्यस्य दर्शनं न भवति तथैव वेदाभ्यासमन्तरा परमात्मनो दर्शनं नैव जायत इति बोध्यम् ॥८॥
हिन्दी (4)
विषय
फिर वह कैसा है, इस विषय का उपदेश अगले मंत्र में किया है।
पदार्थ
हे (विचक्षण) सबको देखने (देव) सुख देने हारे (सूर्य्य) ज्ञानस्वरूप जगदीश्वर जैसे (सप्त) हरितादि सात (हरितः) जिनसे रसों को हरता है वे किरणें (शोचिष्केशम्) पवित्र दीप्ति वाले सूर्य्यलोक को (रथे) रमणीय सुन्दरस्वरूप रथ में (वहन्ति) प्राप्त करते हैं वैसे (त्वा) आपको गायत्री आदि वेदस्थ सात छन्द प्राप्त कराते हैं ॥८॥
भावार्थ
इस मंत्र में वाचकलुप्तोपमालंकार है। हे मनुष्यो ! जैसे रश्मियों के विना सूर्य्य का दर्शन नहीं हो सकता वैसे ही वेदों को ठीक-२ जाने विना परमेश्वर का दर्शन नहीं हो सकता ऐसा निश्चय जानो ॥८॥
विषय
सप्ताश्व
पदार्थ
१. (देव) = द्योतमान, हृदयों को निर्मल करके दीप्त करनेवाले ! (सूर्य) = निरन्तर सरणशील ! सभी को कार्यों में प्रवृत्त करनेवाले ! (विचक्षण) = विशिष्ट प्रकाशवाले ! सबके मस्तिष्कों को ज्ञानज्योति से रोशन करनेवाले सूर्य ! (त्वा) = तुझे (सप्त हरितः) = सात रंगोंवाली रसहरणशील किरणें (रथे) = रथ में (वहन्ति) = धारण करती हैं । वह तू (शोचिष्केशम्) = देदीप्यमान किरणरूप केशोंवाला है । २. सूर्य की किरण सात प्रकार की हैं । इसी से सूर्य 'सप्ताश्व' है । ये सात किरणें सात प्राणशक्तियों को अपने में धारण करती हैं और ये किरणें इस प्राणशक्ति को हमारे शरीररूप रथ में प्राप्त कराती हैं । इसी प्रकार ये किरणें हमें नीरोग बनानेवाली होती हैं । यह सूर्य शोचिष्केश है । इसकी किरणें हमारी छाती पर पड़ती हैं तो ये अन्दर प्रविष्ट होकर सब रोगकृमियों का संहार करती हैं और हमारे शरीरों का शोधन कर डालती हैं । रोग - हरण करने से भी ये किरणें 'हरित' हैं । इनकी संख्या सात है । वस्तुतः सम्पूर्ण प्राणशक्ति सात भागों में ही विभक्त है । सूर्य अपनी इन किरणों के द्वारा हमारे शरीरों में प्राणशक्ति का सञ्चार करता है ।
भावार्थ
भावार्थ - सूर्य सप्ताश्व है । सात प्रकार के प्राणों को हमारे शरीर में सञ्चारित करता है ।
विषय
शोचिष्केश का रहस्य ।
भावार्थ
(सप्त हरितः) सात, या सर्पणशील, वेगवान् अश्व जिस प्रकार (रथे) रथ में लगकर (शोचिष्केशम्) तेजस्वी पुरुष को उठाकर ले जाते हैं और जिस प्रकार (सप्त हरितः ) सात किरणें ( शोचिष्केशम् ) प्रदीप्त किरणों वाले सूर्य को धारण करते हैं उसी प्रकार हे (विचक्षण) विविध विज्ञानों के दिखाने और विविध लोकों को विशेष रूप से देखने हारे जगदीश्वर ! राजन् ! हे (सूर्य) सूर्य के समान तेजस्विन् ! ( सप्त हरितः ) सात वेगवान् एवं व्यापक तत्व (त्वा) वहन्ति तुझ को धारण करते हैं। आत्मा को सात प्राण, परमेश्वर को पांच भूत और महान अहंकार ये सात विकार तथा राजा का राज्य के सात अंग धारण करते हैं ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
१–१३ प्रस्कण्वः काण्व ऋषिः । सूर्यो देवता ॥ छन्दः—१, ६ निचृद्गायत्री । २, ४, ८,९ पिपीलिकामध्या निचृद्गायत्री । ३ गायत्री । ५ यवमध्या विराङ्गायत्री । विराङ्गायत्री । १०, ११ निचृदनुष्टुप् । १२,१३ अनुष्टुप् ।
विषय
फिर वह सूर्य जगदीश्वर कैसा है, इस विषय का उपदेश इस मंत्र में किया है।
सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः
हे विचक्षण देव सूर्य जगदीश्वर ! यथा सप्त हरितः शोचिष्केशम् रथे वहन्ति तथा त्वा सप्त छन्दांसि प्रापयन्ति ॥८॥
पदार्थ
हे (विचक्षण) विविधान् दर्शक=विविध प्रकार के दर्शक, (देव) दातः=देनेवाले, (सूर्य्य) ज्ञानस्वरूप ज्ञानप्रापक वा= ज्ञानस्वरूप और ज्ञान देनेवाले, (जगदीश्वर)=परमेश्वर ! ( यथा)=जैसे, (सप्त) सप्तविधाः किरणाः= सात प्रकार की किरणें, (हरितः) यैः किरणै रसान् हरति त आदित्यरश्मयः=रसों को हरनेवाली सूर्य की किरणें, (शोचिष्केशम्) शोचींषि केशा दीप्तयो रश्मयो यस्य तं सूर्य्यलोकम् रथे=श्वेत रंग के बालोंवाली दीप्तिमान सूर्यलोक की किरणें, (रथे) रमणीये लोके= रमणीय लोक में, (वहन्ति)= संप्रेषण करती हैं, (तथा)=वैसे ही, (त्वा) त्वाम्=तुमको, (सप्त) =सात, (छन्दांसि) =वेद के सात छन्द अर्थात् गायत्री, उष्णिक्, अनुष्टुप्, बृहती, पंक्ति, त्रिष्टुप् और जगती, (प्रापयन्ति)=प्राप्त कराते हैं ॥८॥
महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद
इस मंत्र में वाचकलुप्तोपमालंकार है। हे मनुष्यो ! जैसे रश्मियों के विना सूर्य्य का दर्शन नहीं हो सकता है, वैसे ही वेदों के अभ्यास के विना परमेश्वर का दर्शन नहीं ही होता है, ऐसा जानो ॥८॥
पदार्थान्वयः(म.द.स.)
हे (विचक्षण) विविध प्रकार के दर्शक, (देव) देनेवाले, (सूर्य्य) ज्ञानस्वरूप और ज्ञान देनेवाले (जगदीश्वर) परमेश्वर ! (यथा) जैसे (सप्त) सात प्रकार की, (हरितः) रसों को हरनेवाली (शोचिष्केशम्) श्वेत रंग के बालोंवाली दीप्तिमान् सूर्यलोक की किरणें (रथे) रमणीय लोक में (वहन्ति) संप्रेषण करती हैं, (तथा) वैसे ही (त्वा) तुमको (सप्त) सात (छन्दांसि) वेद के छन्द अर्थात् गायत्री, उष्णिक्, अनुष्टुप्, बृहती, पंक्ति, त्रिष्टुप् और जगती [रमणीय लोक अर्थात् आनन्द को] (प्रापयन्ति) प्राप्त कराते हैं ॥८॥
संस्कृत भाग
पदार्थः(महर्षिकृतः)- - (सप्त) सप्तविधाः किरणाः (त्वा) त्वाम् (हरितः) यैः किरणै रसान् हरति त आदित्यरश्मयः। हरितइत्यादिष्टोपयोजनना०। निघं० १।१५। (रथे) रमणीये लोके (वहन्ति) (देव) दातः (सूर्य्य) ज्ञानस्वरूप ज्ञानप्रापक वा (शोचिष्केशम्) शोचींषि केशा दीप्तयो रश्मयो यस्य तं सूर्य्यलोकम् (विचक्षण) विविधान् दर्शक ॥८॥ विषयः- पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते। अन्वयः- हे विचक्षण देव सूर्य जगदीश्वर ! यथा सप्त हरितः शोचिष्केशं रथे वहन्ति तथा त्वा सप्त छन्दांसि प्रापयन्ति ॥८॥ भावार्थः(महर्षिकृतः)- अत्र वाचकलुप्तोपमालंकारः। हे मनुष्या यथा किरणैर्विना सूर्य्यस्य दर्शनं न भवति तथैव वेदाभ्यासमन्तरा परमात्मनो दर्शनं नैव जायत इति बोध्यम् ॥८॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. हे माणसांनो ! जसे किरणांशिवाय सूर्याचे दर्शन होऊ शकत नाही. तसेच वेदांना ठीक ठीक जाणल्याशिवाय परमेश्वराचे दर्शन होऊ शकत नाही, हे निश्चयपूर्वक जाणावे. ॥ ८ ॥
इंग्लिश (3)
Meaning
O sun, self-refulgent lord of blazing flames and universal illumination, seven are the colourful lights of glory which like seven horses draw your chariot of time across the spaces. In the same way, seven are the chhandas, metres, which reveal the light of Divinity in the sacred voice of the Veda.
Subject of the mantra
Then how is that Sun God, this subject has been preached in this mantra.
Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-
He=O! (vicakṣaṇa) =diverse audience, (deva) =provider, (sūryya)= knowledgeable and giver of knowledge, (jagadīśvara) =God, (yathā) =like, (sapta)= seven types, (haritaḥ) =destroyer of juices, (śociṣkeśam)= white-haired radiant rays of the Sun, (rathe) =in the pleasure full world, (vahanti) =carry away, (tathā) =in the same way, (tvā) =to you,(sapta) =seven,(chandāṃsi) = Veda verses in metres namely Gayatri, Ushnik, Anushtup, Brihati, Pankti, Trishtup and Jagati, [ramaṇīya loka arthāt ānanda ko]= Delightful people means bliss ,(prāpayanti) =get obtained.
English Translation (K.K.V.)
O God viewer of various types, provider, knowledgeable and provider of knowledge! Just as the rays of the Sun (chariots) of seven types, white-colored hairs that suck away the juices, communicate to the delightful world, so the verses of the Vedas in seven metres, namely Arthāt Gāyatrī, Uṣṇik, Anuṣṭupa, Bṛhatī, Paṃkti, Triṣṭup and Jagatī, get obtaines the delightful world i.e. the bliss.
TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand
There is silent vocal simile as a figurative in this mantra. O humans! Just as the sun cannot be seen without its rays, know this that similarly the Supreme God cannot be seen without the practice of the Vedas.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
How is the Divine Sun (God) is taught further in the 8th Mantra with the illustration of the sun.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O illuminator, Omniscient Divine Sun, as seven kinds of rays of the sun, cause to attain the resplendent sun in this beautiful world, so it is the Mantras composed in seven kinds of meters Gayatri, Anushtup, Trishtup etc. that cause us to attain Thee.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
( हरितः ) यैः किरणै: रसान् हरन्ति ते आदित्यरश्मयः । हरित इत्यादिष्टोपयोजननामसु ( निघ० १.५ ) = The rays of the sun. (सूर्य) ज्ञानस्वरूप ज्ञानप्रापक वा = God or the sun. (शोचिष्केशम्) शोचींषि केशा दीप्तयो रश्मयो यस्य तं सूर्यलोकम् = The solar world.
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
O men, you should know that at it is not possible to have the vision of the sun without his rays, so it is not possible to have thorough knowledge or Darshan (perfect realization) of God without the study of the Vedas.
Translator's Notes
शुच-दीप्तौ अचिशुचिहसूपिछादिर्छदिभ्यः इसि ( उणादि २.१०९) इति इसिः = Rays of the sun. हरन्ति अज्ञानान्धकारम् इति हरितः -वैदिकछन्दांसि The Vedic Meters or Mantras which dispel all darkness of ignorance.
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