ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 50/ मन्त्र 9
ऋषिः - प्रस्कण्वः काण्वः
देवता - सूर्यः
छन्दः - पिपीलिकामध्यानिचृद्गायत्री
स्वरः - षड्जः
अयु॑क्त स॒प्त शु॒न्ध्युवः॒ सूरो॒ रथ॑स्य न॒प्त्यः॑ । ताभि॑र्याति॒ स्वयु॑क्तिभिः ॥
स्वर सहित पद पाठअयु॑क्त । स॒प्त । शु॒न्ध्युवः॑ । सूरः॑ । रथ॑स्य । न॒प्त्यः॑ । ताभिः॑ । या॒ति॒ । स्वयु॑क्तिऽभिः ॥
स्वर रहित मन्त्र
अयुक्त सप्त शुन्ध्युवः सूरो रथस्य नप्त्यः । ताभिर्याति स्वयुक्तिभिः ॥
स्वर रहित पद पाठअयुक्त । सप्त । शुन्ध्युवः । सूरः । रथस्य । नप्त्यः । ताभिः । याति । स्वयुक्तिभिः॥
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 50; मन्त्र » 9
अष्टक » 1; अध्याय » 4; वर्ग » 8; मन्त्र » 4
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अष्टक » 1; अध्याय » 4; वर्ग » 8; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
(अयुक्त) योजयति (सप्त) पूर्वोक्ताः (शुन्ध्युवः) पवित्रहेतवो रश्मयोऽश्वाः। अत्र तन्वादीनां छन्दसि बहुलमुपसंख्यानम्। अ० ६।४।७७। अनेन वार्त्तिकेनोवङादेशः। (सूरः) यः सरति प्राप्नोति स सूर्यः (रथस्य) रमणाधिकरणस्य जगतो मध्ये (नप्तः) पातेन नाशेन रहिताः। अत्र सुपां सुलुग् इति जसः स्थाने सुः। नञुपपदात् पतधातोरिक्कृषादिभ्यः। अ० *३।१।८। इतीक्। तनिपत्योश्छन्दसि अ० ६।४।९९। अनेनोपधालोपः। इकारस्याकारादेशश्च। (ताभिः) व्याप्तिभिः (याति) प्राप्नोति (स्वयुक्तिभिः) स्वा युक्तयो योजनानि यासु ताभिः ॥९॥ #[अ० ३।३।१०८ इति सूत्र स्थवार्तिकेनेक् प्र०। सं०।]
अन्वयः
पुनः सा #कीदृशीत्युपदिश्यते। *[हिन्दी लेखानुसार सः कीदृश इत्यु०। सं०]
पदार्थः
हे ईश्वर ! यथा सूरो याः सप्त नप्तः शुन्ध्युवः सन्ति ता रथस्य मध्येऽयुक्त तैः सह याति प्राप्नोति तथा त्वं स्वयुक्तिभिः सर्वं विश्वं जगत्संयोजयसीति वयं विजानीमः ॥९॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालंकारः। यः सूर्यवत् स्वयं प्रकाश आकाशमिव व्याप्त उपासकानां शुद्धिकरः परमेश्वरोस्ति स खलु सर्वैर्मनुष्यैरुपासनीयो वर्त्तते ॥९॥
हिन्दी (4)
विषय
फिर वह कैसा है, इस विषय का उपदेश अगले मंत्र में किया है।
पदार्थ
हे ईश्वर ! जैसे (सूरः) सबका प्रकाशक जो (सप्त) पूर्वोक्त सात (नप्तः) नाश से रहित (शुन्ध्युवः) शुद्धि करनेवाली किरणें हैं उनको (रथस्य) रमणीयस्वरूप में (अयुक्त) युक्त करता और उनसे सहित प्राप्त होता है वैसे आप (ताभिः) उन (स्वयुक्तिभिः) अपनी युक्तियों से सब संसार को संयुक्त रखते हो ऐसा हमको दृढ़ निश्चय है ॥९॥
भावार्थ
इस मंत्र में वाचकलुप्तोपमालंकार है। जो सूर्य के समान आपही आपसे प्रकाश स्वरूप आकाश के तुल्य सर्वत्र व्यापक उपासकों को पवित्रकर्त्ता परमात्मा है वही सब मनुष्यों का उपास्यदेव है ॥९॥
विषय
सूर्य चङ्क्रमण
पदार्थ
१. (सूरः) = सूर्य (रथस्य) = हमारे शरीररूपी रथों की (नप्त्यः) = न गिरने देनेवाली (सप्त) = सात (शुन्ध्यवः) = शोधक किरणों को (अयुक्त) = रथ में जोतता है । सूर्य की किरणें सात रंगों के भेद से सात प्रकार की हैं । ये हमारे शरीर में प्राणशक्ति का सञ्चार करके हमारे शरीरों का शोधन करती हैं और उन शरीरों को गिरने नहीं देती, अर्थात् क्षीणशक्ति नहीं होने देती । २. यह सूर्य (ताभिः) = उन (स्वयुक्तिभिः) = अपने रथ में जुते हुए किरणरूप अश्वों के साथ (याति) = अन्तरिक्ष में आगे और आगे चलता है ।
भावार्थ
भावार्थ - सूर्य अपनी सातों किरणों के साथ अन्तरिक्ष में आगे - आगे चल रहा है ।
विषय
सूर्य के सात अश्वों का रहस्य ।
भावार्थ
जिस प्रकार से (सूरः) सूर्य (रथस्य नप्तयः) जल को न गिरने देने वाली और (शुन्ध्युवः) पदार्थों को शोधन करने वाली (सप्त) सात प्रकार की किरणों को ( अयुक्त ) अपने साथ लगाये रहता है और ( स्वयुक्तिभिः) अपने प्रेरक शक्तिओं से ही (ताभिः) उनके सहित (याति) सर्वत्र व्यापता है और जिस प्रकार (सूर्य) सूर्य के समान तेजस्वी, प्राणों के प्रेरणा करने हारा योगी भी सात ( शुन्ध्युवः) शरीर के मलों को शोधन करने वाली ( रथस्य ) रमण साधन इस देह को ( नप्तयः ) न गिरने देने वाली, देहपात न होने देने वाली, उसको चेतन बनाये रखने वाली प्राणवृत्तियों को ( अयुक्त ) योग द्वारा वश और एकाग्र करता है, (ताभिः) उन ( स्वयुक्तिभिः) अपने आत्मा की योजनाओं, प्रेरणाओं, एकाग्रवृत्तियों से ही (याति) परमपद में गति करता है और जिस प्रकार (सूरः) सेनाओं का सञ्चालक, प्रजाओं का प्रेरक, वीर राजा ( रथस्य नप्तयः ) अपने रथ को न डिगने देने वाली (सप्त शुन्ध्युवः) सात या वेगवान् अश्वाओं को जोड़ता है और अपनी युक्तियों से उन द्वारा रणमार्ग में जाता है उसी प्रकार परमेश्वर भी ( रथस्य नप्तयः ) समस्त जीवों के रमण के साधन ब्रह्माण्ड को न नष्ट होने देने वाली (सप्त शुन्ध्युवः) पूर्व कहे सात सुखों के धारक, तत्वों को (अयुक्त) परस्पर संयुक्त करता है और ( ताभिः) उनको ( स्वयुक्तिभिः) अपने योजन करने के शक्तियों से युक्त उन द्वारा (याति) सर्वत्र स्वयं व्यापन कर और सबको चला रहा है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
१–१३ प्रस्कण्वः काण्व ऋषिः । सूर्यो देवता ॥ छन्दः—१, ६ निचृद्गायत्री । २, ४, ८,९ पिपीलिकामध्या निचृद्गायत्री । ३ गायत्री । ५ यवमध्या विराङ्गायत्री । विराङ्गायत्री । १०, ११ निचृदनुष्टुप् । १२,१३ अनुष्टुप् ।
विषय
फिर वह परमेश्वर कैसा है, इस विषय का उपदेश इस मंत्र में किया है।
सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः
हे ईश्वर ! यथा सूरः याः सप्त नप्त्यः शुन्ध्युवः सन्ति ता रथस्य मध्ये अयुक्त तैः सह याति प्राप्नोति तथा त्वं स्व युक्तिभिः सर्वं विश्वं जगत् संयोजयसि इति वयं विजानीमः ॥९॥
पदार्थ
हे (ईश्वर)= ईश्वर ! (यथा)=जैसे, (सूरः) यः सरति प्राप्नोति स सूर्यः=चलकर प्राप्त होनेवाला सूर्य, (याः)= जिन, (सप्त) पूर्वोक्ताः=पूर्व में गत मन्त्र में कही गई सात सूर्य की किरणें, (नप्त्यः) पातेन नाशेन रहिताः= संरक्षित होने के कारण नाश से रहित हैं, (रथस्य) रमणाधिकरणस्य जगतो मध्ये=रमण के लिये जगत् के मध्य में, (शुन्ध्युवः) पवित्रहेतवो रश्मयोऽश्वाः=पवित्र करने के उद्देश्य से रश्मियों के घोड़े, (सन्ति)=हैं। (ता)=उनको, (रथस्य)=रथ के, (मध्ये)=मध्य में, (अयुक्त) योजयति=जोड़ता है, (तैः)=उनके, (सह)=साथ, (याति) प्राप्नोति=[*आनन्द को प्राप्त करता है] प्राप्त करता है, (तथा)=वैसे ही, (त्वम्)=तुम, (स्वयुक्तिभिः) स्वा युक्तयो योजनानि यासु ताभिः=अपनी जोड़ी गई, पवित्र करने के उद्देश्य से रश्मियों के द्वारा, (सर्वम्) विश्वम्=सम्पूर्ण, (जगत्) = जगत् को, (संयोजयसि)=जोड़ते हो, (इति)=ऐसा, (वयम्)=हमें, (विजानीमः)=विशेष रूप से जानना चाहिए ॥९॥
महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद
इस मंत्र में वाचकलुप्तोपमालंकार है। जो सूर्य के समान स्वयम् प्रकाशित है और आकाश के तुल्य सर्वत्र व्यापक है, वह उपासकों के लिये पवित्रकर्त्ता परमात्मा है, वही सब मनुष्यों का उपास्यदेव है ॥९॥
विशेष
अनुवादक की टिप्पणी-*गत मन्त्र में सूर्य की सात प्रकार की किरणों से आनन्द की प्राप्ति की बात कही गई है, इसलिये इस मन्त्र में भी प्राप्ति से अभिप्राय आनन्द को प्राप्त करता है, ऐसा अभिप्राय लिया गया है।
पदार्थान्वयः(म.द.स.)
हे (ईश्वर) ईश्वर ! (यथा) जैसे (सूरः) चलकर प्राप्त होनेवाला सूर्य, (याः) जिन (सप्त) गत मन्त्र में कही गई सात सूर्य की किरणों के (नप्त्यः) संरक्षित होने के कारण नाश से रहित हैं। (रथस्य) रमण के लिये जगत् के मध्य में, (शुन्ध्युवः) पवित्र करने के उद्देश्य से रश्मियों के घोड़े (सन्ति) हैं, (ता) उनको (रथस्य) रथ के (मध्ये) मध्य में (अयुक्त) जोड़ता है [और] (तैः) उनके (सह) साथ [*आनन्द को] (याति) प्राप्त करता है, (तथा) वैसे ही (त्वम्) तुम (स्वयुक्तिभिः) पवित्र करने के उद्देश्य से रश्मियों के द्वारा, (सर्वम्) सम्पूर्ण (जगत्) जगत् को (संयोजयसि) जोड़ते हो। (इति) ऐसा (वयम्) हमें (विजानीमः) विशेष रूप से जानना चाहिए ॥९॥
संस्कृत भाग
पदार्थः(महर्षिकृतः)- (अयुक्त) योजयति (सप्त) पूर्वोक्ताः (शुन्ध्युवः) पवित्रहेतवो रश्मयोऽश्वाः। अत्र तन्वादीनां छन्दसि बहुलमुपसंख्यानम्। अ० ६।४।७७। अनेन वार्त्तिकेनोवङादेशः। (सूरः) यः सरति प्राप्नोति स सूर्यः (रथस्य) रमणाधिकरणस्य जगतो मध्ये (नप्तः) पातेन नाशेन रहिताः। अत्र सुपां सुलुग् इति जसः स्थाने सुः। नञुपपदात् पतधातोरिक्कृषादिभ्यः। अ० *३।१।८। इतीक्। तनिपत्योश्छन्दसि अ० ६।४।९९। अनेनोपधालोपः। इकारस्याकारादेशश्च। (ताभिः) व्याप्तिभिः (याति) प्राप्नोति (स्वयुक्तिभिः) स्वा युक्तयो योजनानि यासु ताभिः ॥९॥ #[अ० ३।३।१०८ इति सूत्र स्थवार्तिकेनेक् प्र०। सं०।] विषयः- पुनः सा #कीदृशीत्युपदिश्यते। *[हिन्दी लेखानुसार सः कीदृश इत्यु०। सं०] अन्वयः- हे ईश्वर ! यथा सूरो याः सप्त नप्त्यः शुन्ध्युवः सन्ति ता रथस्य मध्येऽयुक्त तैः सह याति प्राप्नोति तथा त्वं स्वयुक्तिभिः सर्वं विश्वं जगत्संयोजयसीति वयं विजानीमः ॥९॥ भावार्थः(महर्षिकृतः)- अत्र वाचकलुप्तोपमालंकारः। यः सूर्यवत् स्वयं प्रकाश आकाशमिव व्याप्त उपासकानां शुद्धिकरः परमेश्वरोस्ति स खलु सर्वैर्मनुष्यैरुपासनीयो वर्त्तते ॥९॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जो सूर्याप्रमाणे स्वतःचा स्वतःच प्रकाशस्वरूप, आकाशाप्रमाणे सर्वत्र व्यापक, उपासकांना पवित्र करणारा, असा परमेश्वर आहे, तोच सर्व माणसांचा उपास्य देव आहे. ॥ ९ ॥
इंग्लिश (3)
Meaning
The sun, bright and illuminant, yokes the seven pure, immaculate, purifying and infallible sunbeams like horses to his chariot of motion, and with these self-yoked powers moves on across the spaces to the regions of light.$So does the Lord of the Universe with His laws and powers of Prakrti move the world like His own chariot of creative manifestation.
Subject of the mantra
Then how is that God, this subject has been preached in this mantra.
Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-
He=O! (īśvara)=God, (yathā) =like, (sūraḥ) =moving Sun, (yāḥ) =by those, (sapta)=of the seven rays of the sun mentioned in the last mantra, (naptaḥ)=being protected, they are free from destruction, (rathasya)= for travelling in the middle of the world, (śundhyuvaḥ)=horses of rays for the purpose of purifying, (santi) =are, (tā) =to those, (rathasya) =of the chariot, (madhye) =in the middle, (ayukta) =connects, [aura]=and, (taiḥ) =their, (saha) =with [*ānanda ko] (yāti) =obtains,, (tathā) =in the same way, (tvam) =you, (svayuktibhiḥ)=by the rays for the purpose of purifying, (sarvam) =full, (jagat) =universe, (saṃyojayasi) =unite, (iti) =such, (vayam) =we, (vijānīmaḥ)=need to know specifically.
English Translation (K.K.V.)
O God ! Like the Sun that is attained by walking, the seven rays of the Sun mentioned in the last mantra are free from destruction. There are horses of rays for the purpose of purifying in the middle of the world for travelling, joins them in the middle of the chariot and enjoys with them, similarly you connect the whole world with rays for the purpose of purifying. We should especially know this.
TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand
The one who is self-effulgent like the Sun and is as wide as the sky, He is the Purifier for the worshippers. He is the worshipful God of all humans. ॥9॥
TRANSLATOR’S NOTES-
In the last mantra, getting pleasure from the seven types of rays of the Sun were discussed, therefore, in this mantra also, such meaning of getting pleasure has been understood.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O God, the Divine Sun, as the sun is attained through the purifying seven kinds of rays, so Thou art attained or known by Thy wonderful designs with which thou control lest the Universe.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
(शुन्ध्युव:) पवित्रहेतवो रश्मयोऽश्वाः शुन्ध्युरित्यश्वनामसु. ( निघ० १) शुन्ध-विशुद्धौ यजिमनिशुन्धिदसिजनिभ्यो युः ( उण० ३.२० ) इति यु· प्रत्ययः । शसि तन्वादीनां छन्दसि बहुलम् उपसंख्यानम् ( अष्टा० ६.४.७७।१ ) इति वार्तिकेन उवङादेशः ॥ = Purifying rays of the sun like the horses. ( रथस्य ) रमणाधिकरणस्य जगतो मध्ये ( रथो रमतेर्वा रंहतेर्वा निरुक्ते ९.२.११) = Of the world, the means of proper enjoyment.
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
God alone should be adored by all men, who is Self effulgent like the sun, pervading all like the sky and purifier of His devotees.
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