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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 51 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 51/ मन्त्र 11
    ऋषिः - सव्य आङ्गिरसः देवता - इन्द्र: छन्दः - निचृज्जगती स्वरः - निषादः

    मन्दि॑ष्ट॒ यदु॒शने॑ का॒व्ये सचाँ॒ इन्द्रो॑ व॒ङ्कू व॑ङ्कु॒तराधि॑ तिष्ठति। उ॒ग्रो य॒यिं निर॒पः स्रोत॑सासृज॒द्वि शुष्ण॑स्य दृंहि॒ता ऐ॑रय॒त्पुरः॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    मन्दि॑ष्ट॑ । यत् । उ॒शने॑ । का॒व्ये । सचा॑ । इन्द्रः॑ । व॒ङ्कू इति॑ । व॒ङ्कु॒ऽतरा । अधि॑ । ति॒ष्ठ॒ति॒ । उ॒ग्रः । य॒यिम् । निः । अ॒पः । स्रोत॑सा । अ॒सृ॒ज॒त् । वि । शुष्ण॑स्य । दृं॒हि॒ताः । ऐ॒र॒य॒त् । पुरः॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    मन्दिष्ट यदुशने काव्ये सचाँ इन्द्रो वङ्कू वङ्कुतराधि तिष्ठति। उग्रो ययिं निरपः स्रोतसासृजद्वि शुष्णस्य दृंहिता ऐरयत्पुरः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    मन्दिष्ट। यत्। उशने। काव्ये। सचा। इन्द्रः। वङ्कू इति। वङ्कुऽतरा। अधि। तिष्ठति। उग्रः। ययिम्। निः। अपः। स्रोतसा। असृजत्। वि। शुष्णस्य। दृंहिताः। ऐरयत्। पुरः ॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 51; मन्त्र » 11
    अष्टक » 1; अध्याय » 4; वर्ग » 11; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते ॥

    अन्वयः

    हे मन्दिष्ट ! य उग्र इन्द्रः सभाध्यक्षो भवान् सूर्य्यः स्रोतसाऽपि इव यद्वङ्कू कुटिलौ वङ्कुतरौ शत्रूदासीनावधितिष्ठति यथा सविता सचा ययिं मेघं निरसृजत् तथा शुष्णस्य बलस्य दृंहिताः क्रियाः पुरो व्यैरयद् विविधतया प्रेरते तथा त्वं भव ॥ ११ ॥

    पदार्थः

    (मन्दिष्ट) अतिशयेन मन्दिता तत्सम्बुद्धौ (यत्) यस्मिन् (उशने) कामयमाने (काव्ये) कवीनां कर्मणि (सचा) विज्ञानप्रापकेन गुणसमूहेन (इन्द्रः) सभाध्यक्षः (वङ्कू) कुटिलगती शत्रूदासीनौ (वङ्कुतरा) अतिशयेन कुटिलौ (अधि) ईश्वरोपरिभावयोः (तिष्ठति) प्रवर्त्तते (उग्रः) दुष्टानां हन्ता (ययिम्) याति सोऽयं ययिर्मेघस्तम् (निः) नितराम् (अपः) जलानीव प्राणान् (स्रोतसा) प्रसवितेन (असृजत्) सृजति (वि) विशिष्टार्थे (शुष्णस्य) बलस्य (दृंहिता) वर्धिकाः क्रियाः (ऐरयत्) गमयति (पुरः) पूर्वम् ॥ ११ ॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। मनुष्यैर्यः कविः सर्वशास्त्रवेत्ता कुटिलताविनाशको दुष्टानामुपर्युग्रः श्रेष्ठानामुपरि कोमलः सर्वथा बलवर्द्धकः पुरुषोऽस्ति, स एव सभाधिकारादिषु योजनीयः ॥ ११ ॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    फिर वह कैसा हो, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥

    पदार्थ

    हे (मन्दिष्ट) अतिशय करके स्तुति करनेवाले जो (उग्रः) दुष्टों को मारनेवाले (इन्द्रः) सभाध्यक्ष ! आप जैसे सूर्य (स्रोतसा) स्रोतों से (आपः) जलों को बहाता है, वैसे (उशने) अतीव सुन्दर (यत्) जिस (काव्ये) कवियों के कर्म में जो (वङ्कू) कुटिल (वङ्कुतरा) अतिशय करके कुटिल चालवाले शत्रु और उदासी मनुष्यों के (अधितिष्ठति) राज्य में अधिष्ठाता होते हो जैसे सविता (सचा) अपने गुणों से (ययिम्) मेघ को (निरसृजत्) नित्य सर्जन करता है, वैसे (शुष्णस्य) बल की (दृंहिता) वृद्धि कराने हारी क्रियाओं को (पुरः) पहिले (व्यैरयत्) प्राप्त करते हो, सो आप सत्कार करने योग्य हो ॥ ११ ॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। मनुष्यों को योग्य है कि जो कवि सब शास्त्र का वक्ता, कुटिलता का विनाश करने, दुष्टों में कठोर, श्रेष्ठों में कोमल, सर्वथा बल को बढ़ानेवाला पुरुष है, उसी को सभा आदि के अधिकारों में स्वीकार करें ॥ ११ ॥

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    विषय

    शुष्णासुर - पुरी का विनाश

    पदार्थ

    १. (यत्) = जब (उशने) = प्राणिमात्र के हित की कामना करनेवाले (काव्ये) = क्रान्तदर्शी प्रभु में यह (मन्दिष्टः) = आनन्द का अनुभव करता है । सम्पूर्ण चित्तवृत्ति को एकाग्र करके प्रभु में स्थित होने पर समाधिस्थ व्यक्ति को अवर्णनीय आनन्द का अनुभव होता ही है । २. (सचान्) = उस प्रभु के साथ (इन्द्रः) = यह जितेन्द्रिय पुरुष (वंकू वंकुतरा) = कुटिल से भी कुटिल मार्गों पर जानेवाले भी इन इन्द्रियाश्वों को (अधितिष्ठति) = काबू कर लेता है । इन्द्रियाँ बड़ी प्रबल हैं । विषयों में प्रवृत्त इन इन्द्रियों को रोकना सुगम नहीं‌ ; परन्तु जब जीव उस प्रभु के साथ होता है तब उस प्रभु की शक्ति से सम्पन्न होकर यह इन इन्द्रियों को वशीभूत करनेवाला होता है । ३. प्रभु की शक्ति से शक्तिसम्पन्न बना हुआ यह (उग्रः) = बड़ा तेजस्वी होता है । तेजस्वी बनकर (ययिम्) = मार्ग को [यायतेऽस्मिन्] (निः) = निश्चय से (स्त्रोतसा) = उस मूलस्रोत प्रभु के साथ (असृजत्) = जोड़ता है, अर्थात् उस मार्ग पर चलता है जो प्रभु की ओर ले जाता है । ४. इस प्रकार (अपः) कर्मों को भी उस मूलस्रोत प्रभु से जोड़ता है, अर्थात् सब कमों का कर्त्ता उस प्रभु को ही मानता है । उस प्रभु की शक्ति से होते हुए इन कार्यों के कर्तृत्व का वह अहंकार नहीं करता । नर बनकर कार्यों को करता है । अपने को प्रभु का निमित्तमात्र जानता है । ५. इस प्रकार निरहंकार होकर यह (शुष्णस्य ) = ईर्ष्या, द्वेष, क्रोधरूप शोषक असुर के (दृंहिता पुरः) =‌ सुदृढ़ नगरों को (वि ऐरयत्) = विशेष रूप से कम्पित कर देता है । अंहकारशून्य होने पर इसे कर्मफल की कामना नहीं रहती । इस फल की भावना के अभाव में ईर्ष्या - द्वेषादि सम्भव ही नहीं रहती ।

    भावार्थ

    भावार्थ - हम प्रभु में स्थित होकर आनन्द का अनुभव करें । प्रभु के साथ मिलकर इन अत्यन्त चंचल इन्द्रियों को वशीभूत करें । तेजस्वी बनकर प्रभु के मार्ग पर चलें । सब कर्मों का प्रभु के प्रति अर्पण करें । फल की इच्छा से ऊपर उठकर ईर्ष्या - द्वेषादि के दृढ़ किलों को भी तोड़ डालें ।

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    विषय

    उशना

    भावार्थ

    ( यद्) जब ( उशने ) समस्त राष्ट्र के वश करने में समर्थ सभापति या राजमन्त्री, (काव्ये) विद्वानों के बीच सबसे मुख्यतम विद्वान्, क्रान्तदर्शी, महामात्य के कर्म और पदाधिकार पर स्थित हो जाय तो उसके आश्रय पर (इन्द्रः) ऐश्वर्यवान् राजा ( मन्दिष्ट ) खूब चमक जाता है । खूब प्रभाववान्, तेजस्वी और यशस्वी हो जाता है, तब वह (सचा) सबके साथ ही (वङ्कु ) अति वेगवान् (वङ्कूतरा) अति कुटिल मार्गों से दौड़ने वाले अश्वों पर महारथी के समान (वंकू) कुटिल चालों के चलने वाले और (वंकुतरा) कुटिल चालों से युद्ध करनेवाले, शत्रु और उदासीन राजाओ पर भी ( अधितिष्ठति ) अपना शासन जमा लेता है । (ययिं अपः स्रोतसा निर् असृजत् ) वेग से गमन करने वाले मेघ को जिस प्रकार वायु या विद्युत् अपने आघात से टकराकर उसके जलों को प्रवाह रूप से भगा देता है उसी प्रकार ( ययिं ) आक्रमण करनेवाले शत्रु के (अपः) प्राप्त सेनाओं को (स्रोतसा) बहते प्रवाह के समान वेग से (निः असृजत् ) मैदान से निकाल देता है, भगा देता है । और स्वयं (दृंहिता) अपने बलको बढ़ाकर वह (शुष्णस्य) राष्ट्र के शोषण करनेवाले शत्रु के (पुरः) गढ़ों या दुर्गों को (वि ऐरयत्) विविध रीतियों से कंपा देता है, नाश करता है।

    टिप्पणी

    ‘मन्दिष्ठ’ इति पाठ श्रीमद्द्यानन्दपादाभिमतश्चिन्त्यः ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    सव्य आङ्गिरस ऋषिः । इन्द्रो देवता ॥ छन्दः— १, ९, १० जगती २, ५, ८ विराड् जगती । ११–१३ निचृज्जगती ३, ४ भुरिक् त्रिष्टुप् । ६,७ त्रिष्टुप् ॥ पंचदशर्चं सूक्तम् ।

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    विषय

    फिर वह सभाध्यक्ष कैसा हो, इस विषय का उपदेश इस मन्त्र में किया है ॥

    सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः

    हे मन्दिष्ट ! यः उग्र इन्द्रः सभाध्यक्षः भवान् सूर्य्यः स्रोतसा अपि इव यद् वङ्कू कुटिलौ वङ्कुतरौ शत्रूदासीनौ अधितिष्ठति यथा [उशने] [काव्ये] सविता सचा ययिं मेघं निः[अपः] असृजत् तथा शुष्णस्य बलस्य दृंहिताः क्रियाः पुरः वि ऐरयद् विविधतया प्रेरते तथा त्वं भव ॥ ११ ॥

    पदार्थ

    हे (मन्दिष्ट) अतिशयेन मन्दिता तत्सम्बुद्धौ=अतिशय हर्षित !(यः)=जो, (उग्रः) दुष्टानां हन्ता=दुष्टों को मारनेवाला, (इन्द्रः) सभाध्यक्षः= सभाध्यक्ष, (भवान्)=आप, (सूर्य्यः) =सूर्य, (स्रोतसा) प्रसवितेन=जो निर्माण करनेवाले हो, (अपि) =भी, (इव)=जैसे, (यत्) यस्मिन्=जिसमें, (वङ्कू) कुटिलगती शत्रूदासीनौ= कुटिलगति के आसीन होकर ऊपर बैठे हुए, (वङ्कुतरा) अतिशयेन कुटिलौ= अतिशय कुटिल हो, (अधि) ईश्वरोपरिभावयोः=ऊपर स्थित ईश्वर का, (तिष्ठति) प्रवर्त्तते = अस्तित्व है, (यथा)=जैसे, (सविता)=सूर्य, [उशने] कामयमाने=कामना के साथ, [काव्ये] कवीनां कर्मणि=कवियों के कर्म, (सचा) विज्ञानप्रापकेन गुणसमूहेन=विशेष ज्ञान से प्राप्त होनेवाले गुणों के समूह, (ययिम्) याति सोऽयं ययिर्मेघस्तम्=जानेवाला मेघ, (निः) नितराम्= अच्छी तरह से, [अपः] जलानीव प्राणान्=जलों के समान प्राणो को, (असृजत्) सृजति= बांधता है, (तथा)=वैसे ही, (शुष्णस्य) बलस्य=बल की, (दृंहिता) वर्धिकाः क्रियाः=बढ़ानेवाली क्रिया, (पुरः) पूर्वम्=पहले, (वि) विशिष्टार्थे=विशेष रूप से. (ऐरयत्) गमयति= जाने के लिए प्रेरित करती है, (विविधतया)= विविध प्रकार से, (प्रेरते)= प्रेरित करती है, (तथा)वैसे ही, (त्वम्) =तुम, (भव) = होओ॥ ११ ॥

    महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। मनुष्यों को जो कवि सब शास्त्र के वक्ता, कुटिलता का विनाश करनेवाले, दुष्टों में कठोर, श्रेष्ठों में कोमल, सर्वथा बल को बढ़ानेवाले पुरुष है, उसी को सभा आदि के अधिकारों में लगाना चाहिए ॥११॥

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)

    हे (मन्दिष्ट) अतिशय हर्षित [सूर्य] ! (यः) जो (उग्रः) दुष्टों को मारनेवाले (इन्द्रः) सभाध्यक्ष (भवान्) आप (सूर्य्यः) सूर्य (स्रोतसा) निर्माण करनेवाले हो। [आप] (अपि) भी (इव) जिस [मार्ग में] (यत्) जिसमें (वङ्कू) कुटिलगति से आसीन होकर ऊपर बैठे हुए, (वङ्कुतरा) अतिशय कुटिल हो। (अधि) ऊपर स्थित ईश्वर का (तिष्ठति) अस्तित्व है। (यथा) जैसे (सविता) सूर्य की [उशने] कामना के साथ [काव्ये] कवियों के कर्म, (सचा) विशेष ज्ञान से प्राप्त होनेवाले गुणों के समूह हैं। (ययिम्) गति करनेवाला वाला मेघ (निः) अच्छी तरह से [अपः] जलों के समान प्राणो को (असृजत्) बांधता है, (तथा) वैसे ही (शुष्णस्य) बल की (दृंहिता) बढ़ानेवाली क्रिया (पुरः) पहले, (वि) विशेष रूप से (ऐरयत्) जाने के लिए (विविधतया) विविध प्रकार से (प्रेरते) प्रेरित करती है, (तथा) वैसे ही (त्वम्) तुम (भव) होओ [अर्थात् प्रेरित करो] ॥ ११ ॥

    संस्कृत भाग

    पदार्थः(महर्षिकृतः)- (मन्दिष्ट) अतिशयेन मन्दिता तत्सम्बुद्धौ (यत्) यस्मिन् (उशने) कामयमाने (काव्ये) कवीनां कर्मणि (सचा) विज्ञानप्रापकेन गुणसमूहेन (इन्द्रः) सभाध्यक्षः (वङ्कू) कुटिलगती शत्रूदासीनौ (वङ्कुतरा) अतिशयेन कुटिलौ (अधि) ईश्वरोपरिभावयोः (तिष्ठति) प्रवर्त्तते (उग्रः) दुष्टानां हन्ता (ययिम्) याति सोऽयं ययिर्मेघस्तम् (निः) नितराम् (अपः) जलानीव प्राणान् (स्रोतसा) प्रसवितेन (असृजत्) सृजति (वि) विशिष्टार्थे (शुष्णस्य) बलस्य (दृंहिता) वर्धिकाः क्रियाः (ऐरयत्) गमयति (पुरः) पूर्वम् ॥ ११ ॥ विषयः- पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते ॥ अन्वयः- हे मन्दिष्ट ! य उग्र इन्द्रः सभाध्यक्षो भवान् सूर्य्यः स्रोतसाऽपि इव यद्वङ्कू कुटिलौ वङ्कुतरौ शत्रूदासीनावधितिष्ठति यथा सविता सचा ययिं मेघं निरसृजत् तथा शुष्णस्य बलस्य दृंहिताः क्रियाः पुरो व्यैरयद् विविधतया प्रेरते तथा त्वं भव ॥ ११ ॥ भावार्थः (महर्षिकृतः)- अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। मनुष्यैर्यः कविः सर्वशास्त्रवेत्ता कुटिलताविनाशको दुष्टानामुपर्युग्रः श्रेष्ठानामुपरि कोमलः सर्वथा बलवर्द्धकः पुरुषोऽस्ति, स एव सभाधिकारादिषु योजनीयः ॥११॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जो कवी, सर्व शास्त्रांचा वक्ता, कुटिलतेचा नाश करणारा, दुष्टांना कठोर, श्रेष्ठांमध्ये कोमल, सर्वस्वी बल वाढविणारा पुरुष असतो. त्यालाच माणसांनी सभा इत्यादीचा अधिकारी म्हणून स्वीकारावे. ॥ ११ ॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    Indra, most rejoicing and specially delighting in the exciting exhortations of the poets, with his own essential force and versatile perception of the crooked, rules over the crooked and the wicked. And, just as the sun breaks the cloud and drains out the vapours in floods of rain, so does he, bright and blazing with passion, advance upon the strongholds of the social suckers, breaks open their dens and marches ahead with his noble exploits great as the sun’s.

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    Subject of the mantra

    Then, how should that chairman of the gathering be, this subject has been preached in this mantra.

    Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-

    He=O! (mandiṣṭa) =extremely happy Sun, (yaḥ) =that, (ugraḥ)=slayer of the wicked, (indraḥ) =chairman of gathering, (bhavān) =you, (sūryyaḥ) =Sun, (srotasā)=you are a creator, [āpa]=you, (api) =also, (iva) =of which, [mārga meṃ]=on the way, (yat) =in which, (vaṅkū) =Sitting on top in a crooked movement, (vaṅkutarā)=are very devious, (adhi)=of god above, (tiṣṭhati) =exists, (yathā) =like, (savitā) =of the Sun, [uśane] =with the desire, [kāvye] =deeds of poets, (sacā)=are groups of qualities obtained from special knowledge, (yayim)= moving cloud, (niḥ)=thoroughly, [apaḥ]= to life breat like water, (asṛjat) =unites, (tathā) =in the same way, (śuṣṇasya) =of power, (dṛṃhitā)=enhancing action, (puraḥ) =in the beginning, (vi)=specially, (airayat) =to go, (vividhatayā)= in a variety of ways, (prerate) = inspires, (tathā) =in the same way, (tvam) =you, (bhava) =be, [arthāt prerita karo]= i.e. inspire.

    English Translation (K.K.V.)

    O extremely joyful Sun! The president who kills the wicked, you are the creator of the Sun. Like you too, sitting on the path in which you are very devious, sitting on top. Above is the existence of God. Like the actions of poets with the desire of the Sun, are a set of qualities obtained from special knowledge. The moving cloud well binds the life breath like the waters, similarly the increasing action of the force first, specially inspires in various ways to go, so be you i.e. inspire.

    TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand

    The poet, the orator of all the scriptures, the destroyer of evil, the harshest among the wicked, the gentlest among the noble, the one who enhances all the strength, should be appointed to the rights of assembly etc. among human beings.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    How is he (Indra) is taught further in the eleventh Mantra.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O most delighter of all, thou the President of the Assembly, shouldst be like the sun who should rule over all crooked and fierce persons, both that are inimical and neutral to thee. Thou shouldst be fierce for the wicked and be under the guidance of the poet philosophers, endowed with the band of virtues that help acquiring true knowledge. As the sun dispels the cloud, in the same manner, thou shouldst overwhelm the extensive cities of the mighty wicked persons by increasing thy power.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    ( वंकू) कुटिलगती शत्रूदासीनान् = Men of crooked nature that are enemies or neutral. ( ययिम् ) मेघम् याति सोऽयं ययिः = Cloud.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    Men should appoint only such a person as the President or Officer-in-charge of the Assembly etc. who is a highly learned poet, well-versed in all Shastras and destroyer of crookedness, fierce for the wicked but mild and kind towards the righteous persons, increaser of the strength of the State.

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