ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 51/ मन्त्र 7
त्वे विश्वा॒ तवि॑षी स॒ध्र्य॑ग्घि॒ता तव॒ राधः॑ सोमपी॒थाय॑ हर्षते। तव॒ वज्र॑श्चिकिते बा॒ह्वोर्हि॒तो वृ॒श्चा शत्रो॒रव॒ विश्वा॑नि॒ वृष्ण्या॑ ॥
स्वर सहित पद पाठत्वे इति॑ । विश्वा॑ । तवि॑षी । स॒ध्र्य॑क् । हि॒ता । तव॑ । राधः॑ । सो॒म॒ऽपी॒थाय॑ । ह॒र्ष॒ते॒ । तव॑ । वज्रः॑ । चि॒कि॒ते॒ । बा॒ह्वोः । हि॒तः । वृ॒श्च । शत्रोः॑ । अव॑ । विश्वा॑नि । वृष्ण्या॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
त्वे विश्वा तविषी सध्र्यग्घिता तव राधः सोमपीथाय हर्षते। तव वज्रश्चिकिते बाह्वोर्हितो वृश्चा शत्रोरव विश्वानि वृष्ण्या ॥
स्वर रहित पद पाठत्वे इति। विश्वा। तविषी। सध्र्यक्। हिता। तव। राधः। सोमऽपीथाय। हर्षते। तव। वज्रः। चिकिते। बाह्वोः। हितः। वृश्च। शत्रोः। अव। विश्वानि। वृष्ण्या ॥
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 51; मन्त्र » 7
अष्टक » 1; अध्याय » 4; वर्ग » 10; मन्त्र » 2
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अष्टक » 1; अध्याय » 4; वर्ग » 10; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनः सभाद्यध्यक्षः कीदृश इत्युपदिश्यते ॥
अन्वयः
हे विद्वँस्त्वे त्वयि या विश्वा तविषी हिता सध्र्यग्राधः सोमपीथाय हर्षत यस्तव बाह्वोर्हितो वज्रो येन भवान् चिकिते सुखानि ज्ञापयति तेनाऽस्माकं विश्वानि वृष्ण्या अव शत्रोर्बलं वृश्च ॥ ७ ॥
पदार्थः
(त्वे) त्वयि (विश्वा) अखिला (तविषी) बलयुक्ता सेना (सध्र्यक्) सह सेवमानम् (हिता) हितकारिणी (तव) (राधः) धनम् (सोमपीथाय) सुखकारकपदार्थभोगाय (हर्षते) हर्षति। अत्र व्यत्ययेन आत्मनेपदम्। (तव) (वज्रः) शस्त्रसमूहः (चिकिते) चिकित्सति (बाह्वोः) भुजयोः (हितः) धृतः (वृश्च) छिन्धि (शत्रोः) (अव) रक्ष (विश्वानि) सर्वाणि (वृष्ण्या) वृषभ्यो वीरेभ्यो हितानि बलानि ॥ ७ ॥
भावार्थः
यदि च श्रेष्ठेषु बलं जायते तर्हि सर्वेषां सुखं वर्द्धेत, यदि दुष्टेषु बलमुत्पद्येत तर्हि सर्वेषां दुःखं वर्द्धेत, तस्माच्छ्रेष्ठानां सुखबलवृद्धिर्दुष्टानां बलहानिर्नित्यं कार्येति ॥ ७ ॥
हिन्दी (4)
विषय
फिर वह सभा आदि का अध्यक्ष कैसा है, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥
पदार्थ
हे विद्वन् मनुष्य ! (त्वे) आप में जो (विश्वा) सब (तविषी) बल (हिता) स्थापित किया हुआ (सध्र्यक्) साथ सेवन करनेवाला (राधः) धन (सोमपीथाय) सुख करनेवाले पदार्थों के भोग के लिये (हर्षते) हर्षयुक्त करता है, जो (तव) आपके (बाह्वोः) भुजाओं में (हितः) धारण किया (वज्रः) शस्त्रसमूह है, जिससे आप (चिकिते) सुखों को जानते हो, उससे हम लोगों के (विश्वानि) सब (वृष्ण्या) वीरों के लिये हित करनेवाले बल की (अव) रक्षा और (शत्रोः) शत्रु के बल का नाश कीजिये ॥ ७ ॥
भावार्थ
जो श्रेष्ठों में बल उत्पन्न हो तो उससे सब मनुष्यों को सुख होवे, जो दुष्टों में बल होवे तो उससे सब मनुष्यों को दुःख होवे, इससे श्रेष्ठों के सुख की वृद्धि और दुष्टों के बल की हानि निरन्तर करनी चाहिये ॥ ७ ॥
विषय
काम का व्रश्चन
पदार्थ
१. हे प्रभो ! (त्वे) = आपमें (विश्वा तविषी) = सम्पूर्ण बल (सध्र्यक्) [सहाञ्चति] - साथ गति करनेवाला होकर (हिता) = निहित है, आप सर्वशक्तिमान् है । २. (तव राधः) = आपकी अराधना करनेवाला [राध+अच्] (सोमपीथाय) = सोम के रक्षण के लिए (हर्षते) = उत्कण्ठित होता है । वस्तुतः सोम के रक्षण से ही प्रभु - प्राप्ति के आनन्द का अनुभव होता है । ३. हे प्रभो ! (तव वज्रः) = आपका यह वज्र (बाह्वोः हितः) भुजाओं में रखा हुआ (चिकिते) = जाना जाता है । आपने हमारी भुजाओं में क्रियाशीलता को रखा है । यह क्रियाशीलता ही वह वज्र है [वज् गतौ] जोकि अशुभ वृत्तिरूप असुरों का संहार करता है । ४. आप कृपा करके (शत्रोः) = हमारा शातन व संहार करनेवाले कामादि असुरों के (विश्वानि वृष्णया) = सब बलों को (अववृश्च) = सुदूर विनष्ट कर दीजिए ।
भावार्थ
भावार्थ - प्रभुकृपा से हम सदा क्रियाशील बने रहें । क्रियाशीलता से हम अशुभ वृत्तियों की शक्ति को क्षीण करनेवाले हों ।
विषय
इन्द्र का वज्र
भावार्थ
हे विद्वन्! राजन् ! सेनापते ! (त्वे) तेरे ही अधीन (विश्वा तविषी) समस्त बलवती सेना, (सध्र्यक्) सदा साथ रहने वाली, तेरे संग ही (हिता) स्थिर है। (तव) तेरा (राधः) चित्त (सोमपीथाय ) सोम रस के समान राष्ट्र के ऐश्वर्य को भोग करने और अपने बल बढ़ाने के लिये ( हर्षते ) उत्कण्ठित होता है । ( तव ) तेरी (बाह्वोः ) बाहुओं से (हितः) स्थापित, तेरे शासन या वश में रहने वाला (वज्रः) खङ्ग, शस्त्र वल (चिकिते) सर्वत्र प्रसिद्ध है या सदा ओषधि के समान शत्रु रूप रोगों को दूर करने में समर्थ होता है। (अतः) तू (शत्रोः विश्वा वृष्ण्यानि ) शत्रु के सब बलों को (वृश्च) निर्मूल कर और अपने (विश्वानि वृष्ण्यानि) समस्त शस्त्रवर्षी सैन्य बलों की (अव) रक्षा कर । परमेश्वर पक्ष में—हे प्रभो ! तुझ में ही सुखों के बरसानेवाले समस्त सामर्थ्य हैं वे तेरे आनन्द रस पान के लिये उत्कण्ठित करती हैं। तेरा बल समस्त विभूति या तेरी आराधना ही रोगों और कष्टों को दूर करती है । उच्छेद योग्य काम आदि के बलों को तू नाश कर । हमारे बल वीर्य की तू रक्षा कर ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
सव्य आङ्गिरस ऋषिः । इन्द्रो देवता ॥ छन्दः— १, ९, १० जगती २, ५, ८ विराड् जगती । ११–१३ निचृज्जगती ३, ४ भुरिक् त्रिष्टुप् । ६,७ त्रिष्टुप् ॥ पंचदशर्चं सूक्तम् ।
विषय
फिर वह सभा आदि का अध्यक्ष कैसा है, इस विषय का उपदेश इस मन्त्र में किया है ॥
सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः
हे विद्वन् त्वये त्वयि या विश्वा तविषी हिता सध्र्यक् राधः सोमपीथाय हर्षते यः तव बाह्वोः हितः वज्रः येन भवान् चिकिते सुखानि ज्ञापयति तेन अस्माकं विश्वानि वृष्ण्या अव शत्रोः बलं वृश्च ॥७॥
पदार्थ
हे (विद्वन्)= विद्वान्, (त्वे) त्वयि=तुम, (या)=जो, (विश्वा) अखिला=समस्त, (तविषी) बलयुक्ता सेना= बल से युक्त सेना, (हिता) हितकारिणी= हितकारी, (सध्र्यक्) सह सेवमानम्=साथ में सेवा करते हुए, (राधः) धनम्= धन से, (सोमपीथाय) सुखकारकपदार्थभोगाय= सुख कारक पदार्थों के भोग के लिये, (हर्षते) हर्षति= हर्षित होता है, (यः)=जो, (तव)=तुन्हारा, (बाह्वोः) भुजयोः= भुजाओं का, (हितः) धृतः= धारण किया हुआ, (वज्रः) शस्त्रसमूहः= शस्त्र का समूह है, (येन) =जिससे, (भवान्)=आप, (चिकिते) चिकित्सति=चिकित्सा करते हैं, (सुखानि)=सुखों की, (ज्ञापयति)= जानकारी देते हो, (तेन)=उनके द्वारा, (अस्माकम्)=हमें, (विश्वानि) सर्वाणि=समस्त, (वृष्ण्या) वृषभ्यो वीरेभ्यो हितानि बलानि=वीरों के हितो और बलों की, (अव) रक्ष=रक्षा करो, [और] (शत्रोः)=शत्रुओं के, (बलम्)= बल को, (वृश्च) छिन्धि=नष्ट कर दो ॥ ७ ॥
महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद
यदि श्रेष्ठों में बल उत्पन्न होता है तो उससे सबके लिये सुख बढ़ता है, यदि दुष्टों में बल उत्पन्न होता है तब उससे सबका दुःख बढ़ता है, इसलिये श्रेष्ठों के सुख की वृद्धि और दुष्टों के बल की हानि निरन्तर करवानी चाहिये ॥७॥
पदार्थान्वयः(म.द.स.)
हे (विद्वन्) विद्वान्! (त्वे) तुम, (या) जो (विश्वा) समस्त (हिता) हितकारी, (तविषी) बल से युक्त सेना के (सध्र्यक्) साथ में सेवा करते हुए (राधः) धन से, (सोमपीथाय) सुख कारक पदार्थों के भोग से (हर्षते) हर्षित होते हो। (यः) जो (तव) तुन्हारा (बाह्वोः) भुजाओं का (हितः) धारण किया हुआ (वज्रः) शस्त्रों का समूह है, (येन) जिससे (भवान्) आप (चिकिते) चिकित्सा करते हो [और] (सुखानि) सुखों की (ज्ञापयति) जानकारी देते हो, (तेन) उनके द्वारा (अस्माकम्) हमें (विश्वानि) समस्त (वृष्ण्या) वीरों के हितो और बलों की (अव) रक्षा करो [और] (शत्रोः) शत्रुओं के (बलम्) बल को (वृश्च) नष्ट कर दो ॥ ७ ॥
संस्कृत भाग
पदार्थः(महर्षिकृतः)- (त्वे) त्वयि (विश्वा) अखिला (तविषी) बलयुक्ता सेना (सध्र्यक्) सह सेवमानम् (हिता) हितकारिणी (तव) (राधः) धनम् (सोमपीथाय) सुखकारकपदार्थभोगाय (हर्षते) हर्षति। अत्र व्यत्ययेन आत्मनेपदम्। (तव) (वज्रः) शस्त्रसमूहः (चिकिते) चिकित्सति (बाह्वोः) भुजयोः (हितः) धृतः (वृश्च) छिन्धि (शत्रोः) (अव) रक्ष (विश्वानि) सर्वाणि (वृष्ण्या) वृषभ्यो वीरेभ्यो हितानि बलानि ॥७॥ विषयः- पुनः सभाद्यध्यक्षः कीदृश इत्युपदिश्यते ॥ अन्वयः- हे विद्वँस्त्वे त्वयि या विश्वा तविषी हिता सध्र्यग्राधः सोमपीथाय हर्षत यस्तव बाह्वोर्हितो वज्रो येन भवान् चिकिते सुखानि ज्ञापयति तेनऽस्माकं विश्वानि वृष्ण्या अव शत्रोर्बलं वृश्च ॥ ७ ॥ भावार्थः(महर्षिकृतः)- यदि च श्रेष्ठेषु बलं जायते तर्हि सर्वेषां सुखं वर्द्धेत, यदि दुष्टेषु बलमुत्पद्येत तर्हि सर्वेषां दुःखं वर्द्धेत, तस्माच्छ्रेष्ठानां सुखबलवृद्धिर्दुष्टानां बलहानिर्नित्यं कार्येति ॥७॥
मराठी (1)
भावार्थ
जेव्हा श्रेष्ठात बल उत्पन्न होते तेव्हा सर्व माणसांना सुख मिळते. दुष्टांमध्ये बल उत्पन्न झाल्यास सर्व माणसांना दुःख मिळते. त्यामुळे श्रेष्ठांच्या सुखाची वृद्धी व दुष्टांची निरंतर हानी केली पाहिजे. ॥ ७ ॥
इंग्लिश (3)
Meaning
In you is concentrated all the force and power together with your love of service. Your wealth, power and success exhilarates the lover of soma-yajna. Your thunderbolt in hand is held for the enlightened. Protect all the powers of generosity, as you destroy all the inimical negativities.
Subject of the mantra
Then how is he the head of the assembly etc., this subject has been preached in this mantra.
Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-
He=O! (vidvan) =scholar, (tve) =you, (yā) jo (viśvā) =all, (hitā) =benefactor, (taviṣī)=strong army, (sadhryak)=serving together, (rādhaḥ) =by wealth, (somapīthāya)=from enjoyment of pleasures with substances, (harṣate)=you become happy, (yaḥ) =that, (tava) =your, (bāhvoḥ) =of arms, (hitaḥ) =held, (vajraḥ) =group of enemies is, (yena) =by whom, (bhavān) =you, (cikite) =medicate, [aura]=and, (sukhāni) =of happiness, (jñāpayati) =give information, (tena) =by them, (asmākam) =to us, (viśvāni) =all, (vṛṣṇyā)=of the interests and forces of the braves, (ava) =protect, [aura]=and, (śatroḥ) =of enemies, (balam) =to force, (vṛśca) =destroy.
English Translation (K.K.V.)
O scholar! You, who, while serving with an army equipped with all beneficial forces, are happy with wealth and enjoyment of things that cause happiness. Which is the set of weapons held by your arms, with which you provide healing and knowledge of happiness, protect us with the interests and strength of all the warriors and destroy the strength of the enemies.
TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand
If strength arises among the noble, it increases happiness for all; if strength arises among the wicked, it increases the sorrow of all; therefore, the happiness of the noble should be increased and the strength of the wicked should be reduced continuously.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
How should the President of the Assembly or the Commander of the Army etc. be is taught further in the 7th Mantra.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O learned Indra (President of Assembly or commander of the Army). In thee is all powerful army or vigor fully concentrated. Thy wealth is for the enjoyment of the articles that give happiness to all. The band of powerful weapons in thy hands causes happiness to us as it is meant to destroy the wicked. Cut off all powers from the foes.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
(तविषी) बलयुक्ता सेना = Powerful army. (सोमाय ) सुखकारकपदार्थभोगाय = For the enjoyment of the articles that cause happiness to all. ( षु-प्रसवैश्र्वयोः) राधः-धनम्
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
If the power remains in the hands of the righteous and noble persons, the happiness of all increases thereby, But on the other hand, if it is in the hands of the wicked, it causes suffering and misery to all. Therefore it is the duty of all to help in the growth of happiness and strength of the righteous persons and diminution of the power of the wicked.
Translator's Notes
तविषीति बलनाम ( निघ० २.९) = So it means power and powerful army in the context. (राध:) धनम् राध इति धननाम ( निघ० २.१०) It is strange on the part of Sayanacharya to explain राघ: as मनः or mind saying राघोऽत्र मन उच्यते राघ्नोति समृद्धोभवत्यनेन i. e. Radhah means here mind as a man becomes rich by it. Even his derivation or explanation is rather awkward as it is not merely by the mind that a man becomes rich or prosperous. Both Wilson and Griffith follow Sayanacharya indiscriminately and translate 'राध: as will ( Wilson ) or spirit (Griffith) which it is quite evident is against the meaning given in the Vedic Lexicon-Nighantu 2.10. Rishi Dayananda's interpretation as or wealth is in perfect accord with the Vedic Lexicon.
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