ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 51/ मन्त्र 13
अद॑दा॒ अर्भां॑ मह॒ते व॑च॒स्यवे॑ क॒क्षीव॑ते वृच॒यामि॑न्द्र सुन्व॒ते। मेना॑भवो वृषण॒श्वस्य॑ सुक्रतो॒ विश्वेत्ता ते॒ सव॑नेषु प्र॒वाच्या॑ ॥
स्वर सहित पद पाठअद॑दाः । अर्भा॑म् । म॒ह॒ते । व॒च॒स्यवे॑ । क॒क्षीव॑ते । वृ॒च॒याम् । इ॒न्द्र॒ । सु॒न्व॒ते । मेना॑ । अ॒भ॒वः॒ । वृ॒ष॒ण॒श्वस्य॑ । सु॒क्र॒तो॒ इति॑ सुऽक्रतो । विश्वा॑ । इत् । ता । ते॒ । सव॑नेषु । प्र॒ऽवाच्या॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
अददा अर्भां महते वचस्यवे कक्षीवते वृचयामिन्द्र सुन्वते। मेनाभवो वृषणश्वस्य सुक्रतो विश्वेत्ता ते सवनेषु प्रवाच्या ॥
स्वर रहित पद पाठअददाः। अर्भाम्। महते। वचस्यवे। कक्षीवते। वृचयाम्। इन्द्र। सुन्वते। मेना। अभवः। वृषणश्वस्य। सुक्रतो इति सुऽक्रतो। विश्वा। इत्। ता। ते। सवनेषु। प्रऽवाच्या ॥
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 51; मन्त्र » 13
अष्टक » 1; अध्याय » 4; वर्ग » 11; मन्त्र » 3
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अष्टक » 1; अध्याय » 4; वर्ग » 11; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते ॥
अन्वयः
हे सुक्रतो इन्द्र ! शिल्पविद्याविद्विद्वँस्त्वं वचस्यवे महते सुन्वते कक्षीवते जनाय मां वृचयामर्भां स्वल्पामपि क्रियामददाः या सवनेषु प्रवाच्या मेना वाक् क्रिया वा वृषणश्वस्य शिल्पक्रियामिच्छोस्ते यानि विश्वा कार्य्याणि सन्ति, ता इदेव संसाधितुं समर्थोऽभवो भव ॥ १३ ॥
पदार्थः
(अददाः) देहि (अर्भाम्) अल्पामपि शिल्पक्रियां वाचं वा (महते) महागुणविशिष्टाय (वचस्यवे) आत्मनो वचः शास्त्रोपदेशमिच्छवे (कक्षीवते) कक्षाः प्रशस्ताङ्गुलय इव विद्या प्रान्ता विद्यन्ते यस्य तस्मै। कक्षा इत्यङ्गुलिनामसु पठितम्। (निघं०२.५) (वृचयाम्) छेदनभेदनप्रकारम् (इन्द्र) शिल्पक्रियाविद्विद्वन्। (सुन्वते) शिल्पविद्यानिष्पादकाय (मेना) वाणी। मेनेति वाङ्नामसु पठितम्। (निघं०१.११) (अभवः) भव (वृषणश्वस्य) वृषणो वृष्टिहेतवो यानगमयितारो वाऽश्वा यस्य तस्य। वृषण्वस्वश्वयोः। (अष्टा०वा०१.४.१८) अनेन भसंज्ञाकरणान्नलोपो न, णत्वं च भवति (सुक्रतो) शोभनाः क्रतवः प्रज्ञाः कर्माणि वा यस्य तत्सम्बुद्धौ (विश्वा) सर्वाणि (इत्) एव (ता) तानि (ते) तव (सवनेषु) सुन्वन्ति यैः कर्मभिस्तेषु (प्रवाच्या) प्रकृष्टतया वक्तुं योग्या ॥ १३ ॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। विद्वद्भिरग्न्यादिपदार्थविद्यादानं कृत्वा सर्वेभ्यो हितं निष्पादनीयमिति ॥ १३ ॥
हिन्दी (4)
विषय
फिर वह कैसा हो, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥
पदार्थ
हे (सुक्रतो) शोभनकर्मयुक्त (इन्द्र) शिल्प विद्या को जाननेवाले विद्वान् । तू (वचस्यवे) अपने को शास्त्रोपदेश की इच्छा करने वा (महते) महागुण विशिष्ट (सुन्वते) शिल्पविद्या को सिद्ध करने (कक्षीवते) विद्याप्रान्त अङ्गुलीवाले मनुष्य के लिये जिस (वृचयाम्) छेदन-भेदनरूप (अर्भाम्) थोड़ी भी शिल्पक्रिया को (अददाः) देते हो (सवनेषु) प्रेरणा करनेवाले कर्मों में (प्रवाच्या) अच्छे प्रकार कथन करने योग्य (मेना) वाणी (वृषणश्वस्य) शिल्पक्रिया की इच्छा करनेवाले (ते) आपके (विश्वा) सब कार्य्य हैं (ता) (इत्) उन ही के सिद्ध करने को समर्थ (अभवः) हूजिये ॥ १३ ॥
भावार्थ
विद्वान् मनुष्यों को अग्नि आदि पदार्थों से विद्यादान करके सब मनुष्यों के लिये हित के काम करने चाहिये ॥ १३ ॥
विषय
अर्भा - वृचया व मेना की प्राप्ति [विवाहत्रयी]
पदार्थ
१. हे (इन्द्र) = परमैश्वर्यशालिन् प्रभो ! (महते वचस्यवे) = महान् वचस्यु के लिए आपने (अर्भाम्) = अर्भा को (अददाः) = दिया । (सुन्वते कक्षीवते) = सुन्वन् कक्षीवान् के लिए (वृचयाम्) = वृचया को दिया । (मेना) = मेना (वृषणश्वस्य) = वृषणश्व की (अभवः) = हुई । हे (सुक्रतो) = उत्तम कर्मों व प्रज्ञानोंवाले प्रभो ! (ते) = आपके (ता) = वे (विश्वा इत्) = सारे ही कर्म (सवनेषु) = जीवन के प्रातः , मध्याह्न व सायन्तन सवनों में (प्रवाच्या) = प्रकर्षेण शंसन के योग्य हुए । २. जीवन के प्रातः सवन में - प्रथम २४ वर्षों में हम महान् वचस्युओं को अर्भा प्राप्त हुई । माध्यन्दिन सवन में - अगले ४४ वर्षों में हम 'सुन्वन् कक्षीवान्' बने और वृचया को प्राप्त हुए । सायन्तन सवन में - जीवन के अन्तिम ४८ वर्षों में हम वृषणश्व बनकर मेना को प्राप्त हुए । यह सब उत्तम ही हुआ । ३. प्रातः सवन ब्रह्मचर्यकाल है, बाल्यकाल । उसमें हमें चाहिए कि हम महान् बनें, 'मह पूजायाम्' - पूजा करनेवाले बनें, बड़ों का आदर करें । माता - पिता व आचार्यों को देव समझ उनको मान दें । इस प्रकार आदर देने की भावनावाले होकर वचस्यु बनें, खूब उच्चारण करनेवाले बनें । गुरु व अध्यापक जो कुछ बोलें, उसका अनुवचन करते हुए उस - उस ज्ञान को अपनाने का प्रयत्न करें । प्रभु - कृपा से इस काल में हमें 'अर्भा' की प्राप्ति हो । हम अर्भा - छोटेपन को प्राप्त हों, विनीत बने रहें । जितने विनीत होंगे, उतने ही तो ज्ञानी बनेंगे । 'तद्विद्धि प्रणिपातेन' - ज्ञान तो प्रणिपात से ही प्राप्त होता है । जिस नल का सिर जलाशय से ऊपर उठा होता है उसमें पानी नहीं आता । इसी प्रकार अकड़नेवाला विद्यार्थी भी ज्ञान को प्राप्त नहीं कर सकता । ४. जीवन का मध्याह्न गृहस्थकाल है । इसमें हमें सुन्वन् - यज्ञशील बनना है । पञ्चमहायज्ञों को करनेवाला गृहस्थ ही सद्गृहस्थ है । इन यज्ञों को करने के लिए सदा कक्षीवान् - कमर कसे हुए तैयार पर तैयार होना है - आलस्यशून्य । जब विवाह किया [वि - वह्] इतना बोझ उठाया तो पुरुषार्थ के लिए कमर तो कसनी ही है । इस सुन्वन् कक्षीवान् को प्रभु (वृचया) = [वृच् - to choose] वरणयोग्य पत्नी प्राप्त करते हैं, तभी तो घर स्वर्ग बनता है । ५. जीवन का सायन्तन सवन 'वानप्रस्थ' है । इस समय भी मुझे 'वृषणश्व' बने रहना है - शक्तिशाली इन्द्रियाश्वोंवाला । वस्तुतः इस समय हम सशक्त होते हैं तभी तो लोकहित के कार्यों में प्रवृत्त हो सकते हैं । वृषणव बनकर हम मेना को प्राप्त करते हैं ['मन्यते' इति मेना] - अपने ज्ञान को अधिक - से - अधिक बढ़ाते हैं । 'मेना' की भावना [मानयन्ति] उपासना की भी है, प्रभु का शंसन करना । वस्तुतः इस सायन्तन सवन में हमें ज्ञान व शंसन को ही अपनाना है अधिक - से - अधिक ज्ञान प्राप्त करना और प्रभु का शंसन करना । ६. प्रभुकृपा से हमारा जीवन इसी प्रकार का बनता है और हम प्रभु - शंसन करते हुए कहते हैं कि हे प्रभो ! आपने सचमुच बड़ी कृपा की और हमारे जीवनों को इस प्रकार सुन्दर बनाया ।
भावार्थ
भावार्थ - हम अपने जीवन में क्रमशः 'अर्भा, वृचया व मेना' को प्राप्त करनेवाले बनें ।
विषय
वृषणश्व की मेना
भावार्थ
हे (इन्द्र) ऐधर्यवन् विद्वन् ! जिस प्रकार (महते वचस्यवे) बड़े गुणों से युक्त एवं ज्ञानोपदेश के वचनों की इच्छा करने वाले (कक्षीवते) उत्तम सिद्ध हस्तांगुलियों वाले, प्रवीण ( सुन्वते ) क्रियाकुशल शिष्य को आचार्य (अर्माम्) थोड़ी ही (वृचयाम्) विवेचनकारिणी अथवा छेदन भेदन करने की शिल्प विद्या का (अददाः) उपदेश करता है और वही (मेना) उपदेशयुक्त वाणी से ( वृषणश्वस्य ) वेगवान्, बलवान् अश्व या उपकरणों के के स्वामी को (सवनेषु) प्रेरण कार्यों में (प्रवाच्या) कहनी आवश्यक होती है उसी प्रकार हे राजन् ! ( वचस्यवे ) तेरी आज्ञा को चाहनेवाले (कक्षीवते) अगल बगलों के बन्धनों से कसे अश्व के समान पार्श्वों की सेनाओं से युक्त (महते) बड़े भारी (सुन्वते) सेना के शासक पुरुष को भी तू (अर्भाम्) छोटीसी ही (वृचयाम्) छेदन भेदन करने की संक्षिप्त आज्ञा को (अददाः) संकेतरूप से दिया कर । हे (सुक्रतो) उत्तम कर्म और प्रज्ञा सामर्थ्य वाले पुरुष ! तेरी (मेना) मान करने योग्य आज्ञा जब (वृषणश्वस्य) बलवान, वेगवान् अश्वों वाले वीर पुरुष के (सवनेषु) प्रेरण या शासन के कार्यों में भी ( प्रवाच्या ) अच्छी प्रकार दी जाती है तब तू (विश्वा इत् ता) समस्त कार्यों के करने में (अभवः) समर्थ होता है ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
सव्य आङ्गिरस ऋषिः । इन्द्रो देवता ॥ छन्दः— १, ९, १० जगती २, ५, ८ विराड् जगती । ११–१३ निचृज्जगती ३, ४ भुरिक् त्रिष्टुप् । ६,७ त्रिष्टुप् ॥ पंचदशर्चं सूक्तम् ।
विषय
फिर वहशिल्प विद्या का विद्वान् कैसा हो, इस विषय का उपदेश इस मन्त्र में किया है ॥
सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः
हे सुक्रतः इन्द्र ! शिल्पविद्याविद् विद्वन् त्वं वचस्यवे महते सुन्वते कक्षीवते जनाय मां वृचयाम् अर्भां स्वल्पाम् अपि क्रियाम् अददाः या सवनेषु प्रवाच्या मेना वाक् क्रिया वा वृषणश्वस्य शिल्पक्रियाम् इच्छोस्ते यानि विश्वा कार्य्याणि सन्ति, ता इत् एव संसाधितुं समर्थः अभवः भव ॥१३॥
पदार्थ
हे (सुक्रतो) शोभनाः क्रतवः प्रज्ञाः कर्माणि वा यस्य तत्सम्बुद्धौ= शोभनीय बुद्धि से कर्म करनेवाले, (इन्द्र) शिल्पक्रियाविद्विद्वन्= शिल्प क्रिया के जाननेवाले विद्वान् ! (त्वम्) तुम (वचस्यवे) आत्मनो वचः शास्त्रोपदेशमिच्छवे= आत्मा की वाणी या शास्त्र के उपदेश की इच्छा से (महते) महागुणविशिष्टाय= विशेष महान् गुणों के लिये, (सुन्वते) शिल्पविद्यानिष्पादकाय=शिल्पविद्या के निष्पादन के लिये और (कक्षीवते) कक्षाः प्रशस्ताङ्गुलय इव विद्या प्रान्ता विद्यन्ते यस्य तस्मै=प्रशस्त विद्या जिसमे हैं, ऐसे (जनाय)= व्यक्ति के लिये, (माम्)=मुझको, (वृचयाम्) छेदनभेदनप्रकारम्= छेदने और भेदने से, (अर्भाम्) अल्पामपि शिल्पक्रियां वाचं वा=अल्प शिल्प क्रिया या वाणी को, (अददाः) देहि=दीजिये, (या)=जो, [ते] तव=तुम्हारे, (सवनेषु) सुन्वन्ति यैः कर्मभिस्तेषु=यज्ञ आदि कर्मों में, (प्रवाच्या) प्रकृष्टतया वक्तुं योग्या= प्रकृष्ट रूप से बोलने योग्य, (मेना) वाणी= वाणी, (वा)=और, (क्रिया)= क्रिया, (वृषणश्वस्य) वृषणो वृष्टिहेतवो यानगमयितारो वाऽश्वा यस्य तस्य=वृष्टि का कारण या यानों को ले जानेवाली, (शिल्पक्रियाम्)= शिल्पक्रिया की, (इच्छाः) = इच्छा हैं, (ते) =वे, (यानि) =जो, (विश्वा) सर्वाणि=समस्त, (कार्य्याणि) =कार्य, (सन्ति) =हैं, (ता) तानि=उनके ही, (इत्) एव=ही, (संसाधितुम्) =अच्छी तरह से सिद्ध करने में, (समर्थः)= समर्थ, (अभवः) भव=होओ ॥१३॥
महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद
इस मन्त्र में वाचक लुप्तोपमालङ्कार है। विद्वान् मनुष्यों के द्वारा अग्नि आदि पदार्थों और विद्यादान करके, सब मनुष्यों के लिये हित के काम करने चाहिये ॥१३॥
पदार्थान्वयः(म.द.स.)
हे (सुक्रतो) शोभनीय बुद्धि से कर्म करनेवाले [और] (इन्द्र) शिल्प क्रिया के जाननेवाले विद्वान् ! (त्वम्) तुम (वचस्यवे) आत्मा की वाणी या शास्त्र के उपदेश की इच्छा से (महते) विशेष महान् गुणों के लिये, (सुन्वते) शिल्पविद्या के निष्पादन के लिये [और] (कक्षीवते) प्रशस्त विद्या जिसमे हैं, ऐसे (जनाय) व्यक्ति के लिये (माम्) मुझको (वृचयाम्) छेदन-भेदन की (अर्भाम्) अल्प शिल्प क्रिया या वाणी को (अददाः) दीजिये। (या) जो [ते] तुम्हारे, (सवनेषु) यज्ञ आदि कर्मों में (प्रवाच्या) प्रकृष्ट रूप से बोलने योग्य (मेना) वाणी (वा) और (क्रिया) क्रिया है। (वृषणश्वस्य) वृष्टि का कारण या यानों को ले जानेवाली (शिल्पक्रियाम्) शिल्पक्रिया की (इच्छाः) इच्छा हैं, (ते) वे (यानि) जो (विश्वा) समस्त (कार्य्याणि) कार्य (सन्ति) हैं, (ता) उनके (इत्) ही (संसाधितुम्) अच्छी तरह से सिद्ध करने में (समर्थः) समर्थ, (अभवः) होओ ॥१३॥
संस्कृत भाग
पदार्थः(महर्षिकृतः)- (अददाः) देहि (अर्भाम्) अल्पामपि शिल्पक्रियां वाचं वा (महते) महागुणविशिष्टाय (वचस्यवे) आत्मनो वचः शास्त्रोपदेशमिच्छवे (कक्षीवते) कक्षाः प्रशस्ताङ्गुलय इव विद्या प्रान्ता विद्यन्ते यस्य तस्मै। कक्षा इत्यङ्गुलिनामसु पठितम्। (निघं०२.५) (वृचयाम्) छेदनभेदनप्रकारम् (इन्द्र) शिल्पक्रियाविद्विद्वन्। (सुन्वते) शिल्पविद्यानिष्पादकाय (मेना) वाणी। मेनेति वाङ्नामसु पठितम्। (निघं०१.११) (अभवः) भव (वृषणश्वस्य) वृषणो वृष्टिहेतवो यानगमयितारो वाऽश्वा यस्य तस्य। वृषण्वस्वश्वयोः। (अष्टा०वा०१.४.१८) अनेन भसंज्ञाकरणान्नलोपो न, णत्वं च भवति (सुक्रतो) शोभनाः क्रतवः प्रज्ञाः कर्माणि वा यस्य तत्सम्बुद्धौ (विश्वा) सर्वाणि (इत्) एव (ता) तानि (ते) तव (सवनेषु) सुन्वन्ति यैः कर्मभिस्तेषु (प्रवाच्या) प्रकृष्टतया वक्तुं योग्या ॥१३॥ विषयः- पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते ॥ अन्वयः- हे सुक्रतो इन्द्र ! शिल्पविद्याविद्विद्वँस्त्वं वचस्यवे महते सुन्वते कक्षीवते जनाय मां वृचयामर्भां स्वल्पामपि क्रियामददाः या सवनेषु प्रवाच्या मेना वाक् क्रिया वा वृषणश्वस्य शिल्पक्रियामिच्छोस्ते यानि विश्वा कार्य्याणि सन्ति, ता इदेव संसाधितुं समर्थोऽभवो भव ॥१३॥ भावार्थः(महर्षिकृतः)- अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। विद्वद्भिरग्न्यादिपदार्थविद्यादानं कृत्वा सर्वेभ्यो हितं निष्पादनीयमिति॥१३॥
मराठी (1)
भावार्थ
विद्वान माणसांनी अग्नी इत्यादी पदार्थाच्या विद्येने सर्व माणसांसाठी हिताचे काम करावे. ॥ १३ ॥
इंग्लिश (3)
Meaning
Indra, wondrous lord of science and vision, knowledge and power, you gave just a limited amount of new knowledge of analytical and creative technology in short indicative formulae to the distinguished and dexterous man of discipline keen to listen and create. And that word of yours, generous lord of noble yajnic action, became worthy of proclamation and celebration in world meets for eminent achievements. Generous lord of vision and wisdom, carry on the order of creation.
Subject of the mantra
Then, how to be a scholar of craft education, this subject has been preached in this mantra.
Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-
He=O! (sukrato)= doers with good intelligence, [aura]=and, (indra)= scholar of craftsmanship’ (tvam) =you, (vacasyave) =by the voice of the Spirit or by the instruction of the scriptures, (mahate)=for special great qualities, (sunvate)= for execution of craftsmanship, [aura]=and, (kakṣīvate)= which has vast knowledge, such, (janāya)= for the person, (mām) =to me, (vṛcayām)= of piercing, (arbhām)= short craft action or speech, (adadāḥ) =provide, (yā) =which, [te] =your, (savaneṣu) =in yajña etc. deeds, (pravācyā)= eminently eloquent, (menā) =speech, (vā) =and, (kriyā) =action is, (vṛṣaṇaśvasya)= cause of rain or carrier of vehicles, (śilpakriyām)= of craftsmanship, (icchāḥ) =desires are, (te) =those, (yāni) =which, (viśvā) =all, (kāryyāṇi) =deeds, (santi) =are, (tā) =their, (it) =only, (saṃsādhitum) =in accomplishing properly, (samarthaḥ) =capable, (abhavaḥ) =be.
English Translation (K.K.V.)
O one who works with a graceful intellect and a scholar who knows the art of craft! You, by the desire of the speech of the soul or the advice of the scriptures, give me a small craft, action or speech of piercing for a person who has special great qualities, for the execution of craftsmanship and for such a person who has vast knowledge. Which is a speech and action, worthy of speaking in your yajna etc. activities. Whatever tasks you wish to perform such as causing rain or carrying vehicles, be capable of performing them well.
TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand
There is simile as a silent vocal figurative in this mantra. Learned people should do beneficial things for all human beings by donating things like fire and knowledge.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
How is he (Indra) is further taught in the 13th Mantra.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O noble actioned expert in technical sciences, even the brief instruction that thou hast given to an earnest virtuous student who is industrious and whose fingers and hands are engaged in accomplishing various technical and industrial works, the instruction about the analysis and incision of things given by thee who possessest swift horses or electrical instrument) is admirable and worth saying in all Yajnas or philanthropic acts. Thou shouldst be able to do all these wonderful works of art and industry.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
( कक्षीवते ) कक्षाः प्रशस्तांगुलय इव विद्याप्रान्ता विद्यन्ते यस्य तस्मै । कक्षा इत्यंगुलिनाम ( निघ० २.५ ) = Industrious and learned. ( वृचयाम् ) छेदनभेवनप्रकाराम् ( वृङ्-संभक्तौ) = Analysis and incision etc. (इन्द्र) शिल्पक्रियाविद् विद्वन् = Expert in technology. ( मेना) वाणी मेनेतिवाङ्नाम ( निघ० १.११) = Speech or instruction.
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Learned persons should bring about the welfare of all beings by giving instructions about fire, electricity and other scientific and technical subjects.
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