ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 51/ मन्त्र 15
ऋषिः - सव्य आङ्गिरसः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - विराट्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
इ॒दं नमो॑ वृष॒भाय॑ स्व॒राजे॑ स॒त्यशु॑ष्माय त॒वसे॑ऽवाचि। अ॒स्मिन्नि॑न्द्र वृ॒जने॒ सर्व॑वीराः॒ स्मत्सू॒रिभि॒स्तव॒ शर्म॑न्त्स्याम ॥
स्वर सहित पद पाठइ॒दम् । नमः॑ । वृ॒ष॒भाय॑ । स्व॒ऽराजे॑ । स॒त्यऽशु॑ष्माय । त॒वसे॑ । अ॒वा॒चि॒ । अ॒स्मिन् । इ॒न्द्र॒ । वृ॒जने॑ । सर्व॑ऽवीराः । स्मत् । सू॒रिऽभिः॑ । तव॑ । शर्म॑न् । स्या॒म॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
इदं नमो वृषभाय स्वराजे सत्यशुष्माय तवसेऽवाचि। अस्मिन्निन्द्र वृजने सर्ववीराः स्मत्सूरिभिस्तव शर्मन्त्स्याम ॥
स्वर रहित पद पाठइदम्। नमः। वृषभाय। स्वऽराजे। सत्यऽशुष्माय। तवसे। अवाचि। अस्मिन्। इन्द्र। वृजने। सर्वऽवीराः। स्मत्। सूरिऽभिः। तव। शर्मन्। स्याम ॥
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 51; मन्त्र » 15
अष्टक » 1; अध्याय » 4; वर्ग » 11; मन्त्र » 5
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अष्टक » 1; अध्याय » 4; वर्ग » 11; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
अथ सभाध्यक्षगुणा उपदिश्यन्ते ॥
अन्वयः
हे इन्द्र सभेश ! यथा सूरिभिर्वृषभाय सत्यशुष्माय तवसे स्वराजे जगदीश्वरायेदं नमोऽवाच्युच्यते तथास्मदादिभिरप्युच्यत एवं विधाय वयं तवास्मिन् वृजने शर्मन् स्मत् सुष्ठुतया सर्ववीराः स्याम भवेम ॥ १५ ॥
पदार्थः
(इदम्) प्रत्यक्षम् (नमः) सत्करणम् (वृषभाय) सुखवृष्टेः कर्त्रे (स्वराजे) स्वयं राजते तस्मै सर्वाधिपतये परमेश्वराय (सत्यशुष्माय) सत्यमविनश्वरं शुष्मं बलं यस्य तस्मै (तवसे) बलाय। तव इति बलनामसु पठितम्। (निघं०२.९) (अवाचि) उच्यते (अस्मिन्) जगति यक्ष्यमाणे वा (इन्द्र) परमपूज्य (वृजने) वर्जन्ति दुःखानि येन बलेन तस्मिन्। वृजनमिति बलनामसु पठितम्। (निघं०२.९) (सर्ववीराः) सर्वे च वीराश्च ते सर्ववीराः (स्मत्) श्रेष्ठार्थे (सूरिभिः) मेधाविभिः सह (तव) (शर्मन्) शर्मणि गृहे। शर्मेति गृहनामसु पठितम्। (निघं०३.४) (स्याम) भवेम ॥ १५ ॥
भावार्थः
सर्वैर्मनुष्यैर्विद्वद्भिः सह वर्त्तमानैर्भूत्वा परमेश्वरस्योपासनां पूर्णप्रीत्या विद्वत्सङ्गं च कृत्वाऽस्मिन् संसारे परमानन्दः प्राप्तव्यः प्रापयतिव्यश्चेति ॥ १५ ॥ अस्मिन् सूक्ते सूर्याग्निविद्युदादिपदार्थवर्णनं बलादिप्रापणमनेकालङ्कारोक्त्या विविधार्थवर्णनं सभाध्यक्षपरमेश्वरगुणप्रतिपादनं चोक्तमत एतत्सूक्तार्थस्य पूर्वसूक्तोक्तार्थेन सह सङ्गतिरस्तीति वेदितव्यम्।
हिन्दी (4)
विषय
अब अगले मन्त्र में सभाध्यक्ष के गुणों का उपदेश किया है ॥
पदार्थ
हे (इन्द्र) परम पूजनीय सभापते ! जैसे (सूरिभिः) विद्वान् लोग (वृषभाय) सुख की वृष्टि करने (सत्यशुष्माय) विनाशरहित बलयुक्त (तवसे) अति बल से प्रवृद्ध (स्वराजे) अपने आप प्रकाशमान परमेश्वर को (इदम्) इस (नमः) सत्कार को (अवाचि) कहते हैं, वैसे हम भी करें, ऐसे करके हम लोग (तव) आपके (अस्मिन्) इस जगत् वा इस (वृजने) दुःखों को दूर करनेवाले बल से युक्त (शर्मन्) गृह में (स्मत्) अच्छे प्रकार सुखी (स्याम) होवें ॥ १५ ॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। सब मनुष्यों को विद्वान् के साथ वर्त्तमान रह कर परमेश्वर ही की उपासना, पूर्णप्रीति से विद्वानों का सङ्ग कर परम आनन्द को प्राप्त करना और कराना चाहिये ॥ १५ ॥ इस सूक्त में सूर्य अग्नि और बिजुली आदि पदार्थों का वर्णन, बलादि की प्राप्ति, अनेक अलङ्कारों के कथन से विविध अर्थों का वर्णन और सभाध्यक्ष तथा परमेश्वर के गुणों का प्रतिपादन किया है। इससे इस सूक्तार्थ की पूर्व सूक्तार्थ के साथ सङ्गति जाननी चाहिये।
विषय
प्रभु की शरण में
पदार्थ
१. (इदं नमः) = यह नमन (अवाचि) = हमसे किया जाता है, यह स्तुतिवचन हमसे उच्चारण किया जाता है । उस प्रभु का हम स्तवन करते हैं जो (वृषभाय) = हमपर सब सुखों का वर्षण करनेवाले हैं, (स्वराजे) = जो स्वयं देदीप्यमान हैं, जिनकी दीप्ति से सूर्य, विद्युत् व अग्नि देदीप्यमान हो रहे हैं; (सत्यशुष्माय) = जो सत्यबलवाले हैं, जिनका बल कभी भी वितथ व व्यर्थ नहीं होता और जो (तवसे) = अत्यन्त प्रवृद्ध हैं - सब गुणों के दृष्टिकोण से अधिक - से - अधिक बढ़े हुए हैं । २. हे (इन्द्र) = शत्रुविद्रावक, सर्वशक्तिमन् प्रभो ! (अस्मिन् वृजने) = इस आध्यात्मिक संग्राम में हम (सर्ववीराः) ="काम - क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्सर" नामक सब शत्रुओं का नाश कर सकें । ३. (स्मत्) = उत्तम (सूरिभिः) = विद्वानों के साथ उनके संग में जीवन - यापन करते हुए और इस प्रकार अपने ज्ञान को बढ़ाते हुए हम (तव) = आपकी (शर्मन्) = शरण में (स्याम) = सदा रहनेवाले हों ।
भावार्थ
भावार्थ - हम प्रभु का स्तवन करें । यह प्रभुस्तवन हमें सब शत्रुओं को कम्पित करनेवाला बनाये । हम उत्तम विद्वानों के सम्पर्क से ज्ञानवर्धन करते हुए प्रभु की शरण में रहनेवाले बनें ।
विशेष / सूचना
विशेष - सूक्त का आरम्भ इन शब्दों से होता है कि वे प्रभु वसु के अर्णव हैं [१] । प्रभु - कृपा से हम शरीर में दक्ष व प्रवृद्ध शक्तिवाले, मन में ऊति - वासनाओं से अपना रक्षण करनेवाले तथा मस्तिष्क में 'ऋभु' ज्ञान से दीप्त बनते हैं [२] । हम वेदज्ञान को प्राप्त करें, जीवन - मार्ग के द्रष्टा बनें, वसुओं का अर्जन करें, अविद्या के पर्वत को जड़ से हिला दें [३] । दानयुक्त धनवाले हों [४] । माया से दूर रहते हुए सरल वृत्ति को अपनाएँ [५] । काम, ईर्ष्या व अभिमान से ऊपर उठे [६] । क्रियाशीलता से अशुभ वृत्तियों की शक्ति को क्षीण करनेवाले हों [७] । हमारे राष्ट्र में राजा आर्यों के वर्धन के लिए दस्युओं को उचित रूप से दण्डित करें [८] । राजा अनुव्रतों के वर्धन के लिए अपव्रतों को समाप्त करने का यत्न करें [९] । इस सुव्यवस्थित राष्ट्र में हम ज्ञान व यश की ओर चलें [१०] । प्रभु - उपासना के द्वारा कुटिलता से दूर हों [११] । सोम - रक्षण के द्वारा ज्ञान व यश को बढ़ाएँ [१२] । जीवन के तीन सवनों में हमारा क्रमशः 'अर्भा, वृचया व मेना' से सम्पर्क हो [१३] । प्रभु - स्तवन द्वारा आधि - व्याधियों को दूर करें [१४] । विद्वानों के सम्पर्क से प्रभु की शरण में रहने के अभ्यासी हों [१५] । 'हम अपने शरीररूप रथ को प्रभु की ओर ले - चलें' - इन शब्दों से अगला सूक्त आरम्भ होता -
विषय
स्वराट् वृषभ इन सबका रहस्य ।
भावार्थ
( ऋषभाय ) सुखों और समस्त ऐश्वर्यों को वर्षण करने वाले परमेश्वर और शत्रु पर शस्त्रादि वर्षाने वाले वलवान् सर्वश्रेष्ठ (सत्यशुष्माय) सत्य के वल वाले, या सदा विद्यमान, सज्जनों के हितकारी बलवाले, (स्वराजे) स्वयं अपने तेज से देदीप्यमान, प्रतापी (तवसे) महान बलवान् पुरुष को (इदं नमः) यह नमस्कार (अवाचि) कहा जाता है। हे (इन्द्र) ऐश्वर्यवन् ! ( अस्मिन् ) इस (बृजने ) शत्रु और कष्टों के निवारण के अवसर पर संग्रामादि कार्य में इस तेरे शत्रुवारक बल पर हम (सर्ववीराः) समस्त वीर गण ( सूरिभिः) विद्वान तेजस्वी नायक पुरुषों सहित (तव) तेरे (स्मत् शर्मन्) उत्तम शरण या आश्रय में (स्याम) रहें । इत्येकादशो वर्गः॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
सव्य आङ्गिरस ऋषिः । इन्द्रो देवता ॥ छन्दः— १, ९, १० जगती २, ५, ८ विराड् जगती । ११–१३ निचृज्जगती ३, ४ भुरिक् त्रिष्टुप् । ६,७ त्रिष्टुप् ॥ पंचदशर्चं सूक्तम् ।
विषय
अब इस मन्त्र में सभाध्यक्ष के गुणों का उपदेश किया है ॥
सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः
हे इन्द्र सभेश ! यथा सूरिभिः वृषभाय सत्यशुष्माय तवसे स्वराजे जगदीश्वराय इदं नमःअवाचि उच्यते तथा अस्मद् आदिभिः अप्युच्यत एवं विधाय वयं तव अस्मिन् वृजने शर्मन् स्मत् सुष्ठुतया सर्ववीराः स्याम भवेम ॥१५॥
पदार्थ
हे (इन्द्र) परमपूज्य= परमपूज्य, (सभेश)=सभा के स्वामी ! (यथा)=जैसे, (सूरिभिः) मेधाविभिः सह=मेधावियों के साथ, (वृषभाय) सुखवृष्टेः कर्त्रे=सुख की वर्षा करनेवाले, (सत्यशुष्माय) सत्यमविनश्वरं शुष्मं बलं यस्य तस्मै=सत्य, अविनाश्य बलवाले, (तवसे) बलाय=बल के लिये, (स्वराजे) स्वयं राजते तस्मै सर्वाधिपतये परमेश्वराय =स्वयं प्रकाशित होनेवाले ईश्वर के लिये, (इदम्) प्रत्यक्षम्=प्रत्यक्ष, (नमः) सत्करणम्= सत्कार, (अवाचि) उच्यते=कहते हैं, (तथा)=वैसे ही, (अस्मद्) अहं=मुझ, (आदिभिः)= आदि के द्वारा, (अप्युच्यत)=भी कहा जाता है, (एवम्)=ऐसे ही, (विधाय) =कल्पित करके, (वयम्)=हम, (तव) =तुम्हारे, (अस्मिन्) जगति यक्ष्यमाणे वा=संसार में इच्छित, (वृजने) वर्जन्ति दुःखानि येन बलेन तस्मिन्=जिस बल से दुःख दूर हो जाते हैं, (शर्मन्) शर्मणि गृहे=घर में, (स्मत्) श्रेष्ठार्थे=(सुष्ठुतया) =उत्तम रूप से, (सर्ववीराः) सर्वे च वीराश्च ते सर्ववीराः=सब लोग वीर, (स्याम) भवेम= होवें ॥१५॥
महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद
इस सूक्त में सूर्य, अग्नि और बिजली आदि पदार्थों का वर्णन, बलादि की प्राप्ति, अनेक अलङ्कारों के कथन से विविध अर्थों का वर्णन और सभाध्यक्ष तथा परमेश्वर के गुणों का प्रतिपादन किया है। इससे इस सूक्तार्थ की पूर्व सूक्तार्थ के साथ सङ्गति जाननी चाहिये ॥१५॥
पदार्थान्वयः(म.द.स.)
हे (इन्द्र) परमपूज्य (सभेश) सभा के स्वामी ! (यथा) जैसे (सूरिभिः) मेधावियों के साथ (वृषभाय) सुख की वर्षा करनेवाले, (सत्यशुष्माय) सत्य, अविनाशी बल के लिये [और] (स्वराजे) स्वयं प्रकाशित होनेवाले ईश्वर के लिये (इदम्) प्रत्यक्ष (नमः) सत्कार (अवाचि) कहते हैं, (तथा) वैसे ही (अस्मद्) मेरे (आदिभिः) आदि के द्वारा (अप्युच्यत)भी कहा जाता है, (एवम्) ऐसे ही (विधाय) कल्पित करके (वयम्) हम (तव) तुम्हारे (अस्मिन्) संसार में इच्छित, (वृजने) जिस बल से दुःख दूर हो जाते हैं, (शर्मन्) घर में (स्मत्) उत्तम रूप से (सर्ववीराः) सब लोग वीर (स्याम) होवें ॥ १५ ॥
संस्कृत भाग
पदार्थः(महर्षिकृतः)- (इदम्) प्रत्यक्षम् (नमः) सत्करणम् (वृषभाय) सुखवृष्टेः कर्त्रे (स्वराजे) स्वयं राजते तस्मै सर्वाधिपतये परमेश्वराय (सत्यशुष्माय) सत्यमविनश्वरं शुष्मं बलं यस्य तस्मै (तवसे) बलाय। तव इति बलनामसु पठितम्। (निघं०२.९) (अवाचि) उच्यते (अस्मिन्) जगति यक्ष्यमाणे वा (इन्द्र) परमपूज्य (वृजने) वर्जन्ति दुःखानि येन बलेन तस्मिन्। वृजनमिति बलनामसु पठितम्। (निघं०२.९) (सर्ववीराः) सर्वे च वीराश्च ते सर्ववीराः (स्मत्) श्रेष्ठार्थे (सूरिभिः) मेधाविभिः सह (तव) (शर्मन्) शर्मणि गृहे। शर्मेति गृहनामसु पठितम्। (निघं०३.४) (स्याम) भवेम ॥ १५ ॥ विषयः- अथ सभाध्यक्षगुणा उपदिश्यन्ते ॥ अन्वयः- हे इन्द्र सभेश ! यथा सूरिभिर्वृषभाय सत्यशुष्माय तवसे स्वराजे जगदीश्वरायेदं नमोऽवाच्युच्यते तथास्मदादिभिरप्युच्यत एवं विधाय वयं तवास्मिन् वृजने शर्मन् स्मत् सुष्ठुतया सर्ववीराः स्याम भवेम ॥१५॥ भावार्थः(महर्षिकृतः)- सर्वैर्मनुष्यैर्विद्वद्भिः सह वर्त्तमानैर्भूत्वा परमेश्वरस्योपासनां पूर्णप्रीत्या विद्वत्सङ्गं च कृत्वाऽस्मिन् संसारे परमानन्दः प्राप्तव्यः प्रापयतिव्यश्चेति ॥१५॥ महर्षिकृत भावार्थ का अनुवादक-कृत भाषानुवाद- सब मनुष्यों और विद्वान् के साथ वर्त्तमान रह कर परमेश्वर ही की उपासना, पूर्णप्रीति से विद्वानों का सङ्ग करके परम आनन्द को प्राप्त करना और कराना चाहिये ॥१५॥ सूक्तस्य भावार्थः(महर्षिकृतः)- अस्मिन् सूक्ते सूर्याग्निविद्युदादिपदार्थवर्णनं बलादिप्रापणमनेकालङ्कारोक्त्या विविधार्थवर्णनं सभाध्यक्षपरमेश्वरगुणप्रतिपादनं चोक्तमत एतत्सूक्तार्थस्य पूर्वसूक्तोक्तार्थेन सह सङ्गतिरस्तीति वेदितव्यम् ॥१५॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. सर्व माणसांनी विद्वानांबरोबर राहून, त्यांचा संग करून पूर्ण भक्तीने परमेश्वराची उपासना करून आनंद प्राप्त केला व करविला पाहिजे. ॥ १५ ॥
इंग्लिश (3)
Meaning
This salutation in words of homage is offered to Indra, lord virile of generosity, sovereign lord of indestructible power, universal protector, so that, O Lord Adorable, in this world we may live in happy homes, blest with brave children, in the company of high and sagely intellectuals.
Subject of the mantra
Now, in this mantra the qualities of the chairman have been preached.
Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-
He=O! (indra) =extremely worshipful, (sabheśa) =lord of the gathering, (yathā) =like, (sūribhiḥ)=with the brilliants,(vṛṣabhāya)=showers of happiness, (satyaśuṣmāya)= for truthful indestructible force, [aura]=and, (svarāje) =for self effulgent God, (idam) =from front, (namaḥ) =welcome, (avāci) =say, (tathā) =in the same way, (asmad+ādibhiḥ)=by me etc., (apyucyata) =is also called, (evam) =in the same way, (vidhāya) =assuming, (vayam) =we, (tava) =your, (asmin) =desired in the world, (vṛjane)=the power by which sorrows go away, (śarman) =in the haome, (smat)=perfectly, (sarvavīrāḥ) =all be brave, (syāma)=be.
English Translation (K.K.V.)
O extremely worshipful! Just as we say respect to the one who showers happiness from the front, along with the intelligent ones, to the truthful, to the imperishable power and to the self-revealed God, in the same way it is also said by my ancestors, by imagining in the same way, we will achieve the desired power in your world. Sorrows go away, may everyone in the home be brave in the best way.
TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand
All should worship God by being present with all human beings and scholars, and one should attain supreme happiness by associating with scholars with full love and happiness. Translation of gist of the hymn by Maharshi Dayanand- In this hymn, description of substances like Sun, fire and electricity, attainment of power etc., description of various meanings from the statement of many figuratives and rendering of the qualities of the chairman of assembly and God have been given. From this one should know the consistency of this hymn with the previous hymn.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
Now the attributes of the President of the Assembly are taught further in the fifteenth mantra.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O President of the Assembly, as wise men utter the praise of God who is the showerer of happiness, Self resplendent, Lord of all, whose might is always true, i. e. who is Almighty, in the same way others should also glorify that God. Thus adoring the Lord, all may remain under thy mighty shelter that destroys all miseries, with all wise and brave men.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
[वृषभाय] सुखवृष्टे: कर्त्रे = Showerer of happiness. [वर्जने] वर्जन्ति दुःखानि येन बलेन वृजनमिति बालानाम् [निघ० २.९] = In the power that removes all misery. [शर्मन्] शर्मणि गृहे । शर्मेति गृहनाम [ निघ० ३.४ = Under the shelter or home. In this hymn also there is the description of the sun, fire, electricity and other articles along with God and the President of the Assembly, so it is connected with the previous hymn. Here ends the commentary on the fifty-first hymn of the 1st Mandala of the Rigveda Sanhita.
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
All men should associate themselves with learned persons and enjoy happiness and bliss in this world by adoring God and keeping company with the wise learned people with perfect love.
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