ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 51/ मन्त्र 5
त्वं मा॒याभि॒रप॑ मा॒यिनो॑ऽधमः स्व॒धाभि॒र्ये अधि॒ शुप्ता॒वजु॑ह्वत। त्वं पिप्रो॑र्नृमणः॒ प्रारु॑जः॒ पुरः॒ प्र ऋ॒जिश्वा॑नं दस्यु॒हत्ये॑ष्वाविथ ॥
स्वर सहित पद पाठत्वम् । मा॒याभिः॑ । अप॑ । मा॒यिनः॑ । अ॒ध॒मः॒ । स्व॒धाभिः॑ । ये । अधि॑ । शुप्तौ॑ । अजु॑ह्वत । त्वम् । पिप्रोः॑ । नृ॒ऽम॒नः॒ । प्र । अ॒रु॒जः॒ । पुरः॑ । प्र । ऋ॒जिश्चा॑नम् । द॒स्यु॒ऽहत्ये॑षु । आ॒वि॒थ॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
त्वं मायाभिरप मायिनोऽधमः स्वधाभिर्ये अधि शुप्तावजुह्वत। त्वं पिप्रोर्नृमणः प्रारुजः पुरः प्र ऋजिश्वानं दस्युहत्येष्वाविथ ॥
स्वर रहित पद पाठत्वम्। मायाभिः। अप। मायिनः। अधमः। स्वधाभिः। ये। अधि। शुप्तौ। अजुह्वत। त्वम्। पिप्रोः। नृऽमनः। प्र। अरुजः। पुरः। प्र। ऋजिश्वानम्। दस्युऽहत्येषु। आविथ ॥
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 51; मन्त्र » 5
अष्टक » 1; अध्याय » 4; वर्ग » 9; मन्त्र » 5
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अष्टक » 1; अध्याय » 4; वर्ग » 9; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनः सभाध्यक्षगुणा उपदिश्यन्ते ॥
अन्वयः
हे नृमणस्त्वं पुरः स्वधाभिः पिप्रोराज्ञामृजिश्वानं चाविथ ये मायिनो मायाभिः शुप्तावधि परपदार्थान्नजुह्वत तान् दस्यूनपाधमो दूरीकुरु दस्युहत्येषु प्रारुजः प्रभग्नान् कुरु ॥ ५ ॥
पदार्थः
(त्वम्) सेनाध्यक्षः (मायाभिः) प्रज्ञानोपायैः। मायेति प्रज्ञानामसु पठितम्। (निघं०३.९) (अप) दूरीकरणे (मायिनः) निन्दिता माया प्रज्ञा विद्यते येषां तान्मायिनः (अधमः) धम कम्पय (स्वधाभिः) अन्नादिभिरुदकादिभिर्वा। स्वधेत्यन्ननामसु पठितम्। (निघं०२.७) उदकनामसु पठितम्। (निघं०१.१२) (ये) चोरदस्य्वादयः परस्वापहर्त्तारः (अधि) उपरिभावे (शुप्तौ) शयने कृते सति। अत्र वर्णव्यत्ययेन शः। (अजुह्वत) स्पर्द्धन्ते (त्वम्) उक्तार्थः (पिप्रोः) न्यायपूर्त्तेः कर्त्त्रोः (नृमनः) नृषु मनो ज्ञानं यस्य तत्सम्बुद्धौ (प्र) प्रकृष्टार्थे (अरुजः) रुज (पुरः) अग्रतः (प्र) प्रकृष्टार्थे (ऋजिश्वानम्) य ऋजीन् ज्ञानादिसरलान् गुणानश्नुते तं धार्मिकं मनुष्यम्। अत्र इक् कृष्यादिभ्यः। (अष्टा०वा०३.३.१०८) इत्यृजधातोरिक्। अशूङ् धातोर्ङ्वनिप्। अकारलोपश्च। (दस्युहत्येषु) दस्यूनां हत्या हननानि येषु सङ्ग्रामादिव्यवहारेषु (आविथ) रक्ष ॥ ५ ॥
भावार्थः
यः सभाद्यध्यक्षः स्वसत्यन्यायेन श्रेष्ठदुष्टकर्मकारिभ्यो यथावत्फलानि दत्वा रक्षति, स एवाऽत्र मान्यभाग्भवेत् ॥ ५ ॥
हिन्दी (4)
विषय
फिर सभाध्यक्षादि के गुणों का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥
पदार्थ
हे (नृमणः) मनुष्यों में मन रखनेवाले सभाध्यक्ष ! (त्वम्) आप (पुरः) प्रथम (स्वधाभिः) अन्नादि पदार्थों से (पिप्रोः) न्याय को पूर्ण करने हारे न्यायाधीशों की आज्ञा और (ऋजिश्वानम्) ज्ञान आदि सरल गुणों से युक्त की (प्राविथ) रक्षा कर और जो (मायिनः) निन्दित बुद्धिवाले (मायाभिः) कपट छलादि से वा (शुप्तौ) सोने के उपरान्त पराये पदार्थों को (अजुह्वत) हरण करते हैं, उन डाकू आदि दुष्टों को (अपाधमः) दूर कीजिये और उन को (दस्युहत्येषु) डाकुओं के हननरूप संग्रामों में (प्रारुजः) छिन्न-भिन्न कर दीजिये ॥ ५ ॥
भावार्थ
जो सभाध्यक्ष अपने सत्यरूपी न्याय से उत्तम वा दुष्टकर्मों के करनेवाले मनुष्यों के लिये फलों को देकर दोनों की यथायोग्य रक्षा करता है, वही इस जगत् में सत्कार के योग्य होता है ॥ ५ ॥
विषय
मायी vs ऋजिश्वा
पदार्थ
१. हे प्रभो ! (त्वम्) = आप (मायिनः) = मायायुक्त, छल - छिद्र से युक्त व्यवहार करनेवाले पुरुष को (मायाभिः) = प्रज्ञानों के द्वारा (अप , अधमः) = दूर सन्तप्त करते हैं [माया शची इति प्रज्ञानाम - नि०] अथवा (मायाभिः) = माया के द्वारा ही (अपाधमः) = दूर करते हैं । मायावी पुरुषों को जब दूसरे मायावी पुरुषों से टक्कर मिलती है तब वे इस माया की निरर्थकता व हेयता का अनुभव करते हैं । २. ये मायावी पुरुष वे हैं (ये) = जो (स्वधाभिः) = अन्नों के द्वारा (अधिशुप्तौ) = खूब शोभायमान अपने मुखों में ही (अजुह्वत्) = आहुति देते हैं, इसीलिए इनका 'असुर' नाम पड़ गया । 'स्वेष्वास्येषु जुह्वतश्चेरुः' - ये अपने ही मुखों में आहुति देते हुए विचरण करते थे । वस्तुतः इतना अधिक स्वार्थ न होने की स्थिति में छल - छिद्र की आवश्यकता ही नहीं होती । स्वार्थ के बढ़ने पर ही हमारा झुकाव मायायुक्त कार्यों की ओर होता है । ३. हे (नृमणः) = [नृषु मनो यस्य] लोकहित के विचार से परिपूर्ण प्रभो ! (त्वम्) = आप (पिप्रोः) = इस निरन्तर अपना ही पूरण करनेवाले पितृ की (पुरः) = नगरियों को (प्रारुजः) = छिन्न - भिन्न कर देते हो । इसके किलों को तोड़ देते हो । इनकी शक्ति के नष्ट होने से ही सामान्य जनता का कल्याण सम्भव होता है, अन्यथा ये मायावी - आसुरवृत्ति के पुरुष अपने स्वार्थ के लिए सदा ही समाज की हानि करते रहते हैं । ४. हे प्रभो ! (दस्यु - हत्येषु) = इन दस्युओं की हत्या होने पर (ऋजिश्वानम्) = [श्वि गतौ] ऋजु - सरल मार्ग से चलनेवाले पुरुषों का आप (प्राविथ) = प्रकर्षेण रक्षण करते हो । ५. राष्ट्र में राजा का भी यह कर्तव्य है कि वह मायावी पुरुषों को दण्डित करके सामान्य प्रजा को व्यर्थ की हानियों से बचाए ।
भावार्थ
भावार्थ - हम 'मायावी - पिप्रु - दस्यु' न बनें । 'ऋजिश्वा' बनकर प्रभुरक्षण के पात्र हों ।
विषय
ऋजिश्वा की रक्षा, पिप्रु का नाश
भावार्थ
( ये ) जो दुष्ट, डाकू जन (शुप्तौ अधि) दूसरों के सोते हुए (अजुह्वत ) दूसरों के पदार्थों को हर लेते हैं, अथवा जो स्वार्थी ( मायाभिः) छल कपटों से सब कुछ (शुप्तौ) अपने भोग विलास में ही फूंक देते हैं, उन (मायिनः) मायावी छली कपटी, पुरुषों को ( मायाभिः) अपनी नाना उपाय युक्त, या ज्ञानबुद्धियों द्वारा ( अप अधमः ) दूर मार भगा, उनको भयभीत कर, या उपदेश कर हे (नृमणः) मनुष्यों को वश करने हारे! उन द्वारा मान, आदर योग्य, एवं मनुष्यों की चित्तवृत्ति के जाननेहारे अथवा उनके हित में मनोयोग देनेहारे ( त्वं ) तू ( पिप्रोः ) अपने ही को निरन्तर भरने पूरनेवाले शत्रु के ( पुरः) दुर्गों को ( प्र अरुजः ) तोड़फोड़ डाल। और (दस्युहत्येषु) दस्युओं को मारने के अवसरों में, संग्रामों के बीच (ऋजिश्वानम्) सरल, धार्मिक मार्गों पर चलने वाले उत्तम मनुष्य समूह, या कुत्तों के समान सुशिक्षित अपनी इन्द्रियों और अधीन सैनिकों के वशकारी पुरुष की ( प्र आविथ ) अच्छी प्रकार रक्षा कर । अथवा—(पिप्रोः ऋजिश्वानम्) पालनकर्ता माता पिता के प्रति सरल व्यवहारकारी उत्तम प्रकृति के पुरुष की रक्षा कर। परमेश्वर और विद्वान्गण के पक्ष में—वे अपनी (स्वधाभिः) अमृतमयी ज्ञानवाली वाणी से जो लोग (अधि शुप्तौ अजुह्वत) सब कुछ अपने भोगविलास में फूकते हैं उनको उपदेश करें । परमेश्वर (पिप्रोः) शरीर को पालन करने वाले देही आत्मा के ( पुरः अरुजः ) देहबन्धनों को काटें । धार्मिकजन की रक्षा करें । इति नवमो वर्गः ॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
सव्य आङ्गिरस ऋषिः । इन्द्रो देवता ॥ छन्दः— १, ९, १० जगती २, ५, ८ विराड् जगती । ११–१३ निचृज्जगती ३, ४ भुरिक् त्रिष्टुप् । ६,७ त्रिष्टुप् ॥ पंचदशर्चं सूक्तम् ।
विषय
फिर सभाध्यक्ष आदि के गुणों का उपदेश इस मन्त्र में किया है ॥
सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः
हे नृमणः त्वं पुरः स्वधाभिः पिप्रोः आज्ञाम् ऋजिश्वानं च आविथ ये मायिनः मायाभिः शुप्तौ अधि परपदार्थान् अजुह्वत तान् दस्यून् अप अधमः दूरीकुरु दस्युहत्येषु प्र अरुजः प्र भग्नान् कुरु ॥ ५ ॥
पदार्थ
हे (नृमनः) नृषु मनो ज्ञानं यस्य तत्सम्बुद्धौ=पुरुषों के मनोविज्ञानवाले, (त्वम्) सेनाध्यक्षः= सेनाध्यक्ष, (पुरः) अग्रतः= अग्रसर रहनेवाले, (स्वधाभिः) अन्नादिभिरुदकादिभिर्वा=अन्न और जल की, (पिप्रोः) न्यायपूर्त्तेः कर्त्त्रोः=न्यायपूर्वक पूर्ति करनेवाले, (आज्ञाम्)= आज्ञा को, (ऋजिश्वानम्) य ऋजीन् ज्ञानादिसरलान् गुणानश्नुते तं धार्मिकं मनुष्यम्= तेज़ी से ज्ञान आदि सरल गुणों को सुननेवाले धार्मिक मनुष्य, (च) =भी, (आविथ) रक्ष=रक्षा करें, (ये) चोरदस्य्वादयः परस्वापहर्त्तारः=चोर और दस्यु आदि दूसरों की नींद को समाप्त कर देनेवाले, (मायिनः) निन्दिता माया प्रज्ञा विद्यते येषां तान्मायिनः= निन्दित प्रज्ञा वाले, (मायाभिः) प्रज्ञानोपायैः=विशेष ज्ञान के उपायवाले, (शुप्तौ) शयने कृते सति=सोने उपाय करनेवाले, (अधि) उपरिभावे=ऊपर, (परपदार्थान्)= दूसरे के पदार्थों से, (अजुह्वत) स्पर्द्धन्ते= स्पर्द्धा करते हैं, (तान्)=उन, (दस्यून्) = दस्युओं को, (अप) दूरीकरणे= दूर भगाओ, (दस्युहत्येषु) दस्यूनां हत्या हननानि येषु सङ्ग्रामादिव्यवहारेषु=दस्युओं की हत्या करानेवाले व्यवहार में, (प्र) प्रकृष्टार्थे =प्रकृष्ट रूप से, (अरुजः) रुज -भग्नान् =छिन्न भिन्न, (कुरु)= कर दो ॥ ५ ॥
महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद
जो सभाध्यक्ष अपने सत्यरूपी न्याय से श्रेष्ठ और दुष्ट कर्मों के करनेवालों को ठीक-ठीक फलों को देकर रक्षा करता है, वही यहाँ मान्य होवे ॥५॥
पदार्थान्वयः(म.द.स.)
हे (नृमनः) पुरुषों के मनोविज्ञानवाले (त्वम्) सेनाध्यक्ष! (पुरः) अग्रसर रहनेवाले, (स्वधाभिः) अन्न और जल की, (पिप्रोः) न्यायपूर्वक पूर्ति करनेवाले, (आज्ञाम्) आज्ञा को (ऋजिश्वानम्) तेज़ी से ज्ञान आदि सरल गुणों को सुननेवाले धार्मिक मनुष्य (च) भी (आविथ) रक्षा करें। (ये) चोर और दस्यु आदि दूसरों की नींद को समाप्त कर देनेवाले, (मायिनः) निन्दित प्रज्ञा वाले, (मायाभिः) विशेष ज्ञान के उपायवाले, (शुप्तौ) सोने का उपाय करनेवाले, (अधि) ऊपर (परपदार्थान्) दूसरे के पदार्थों से (अजुह्वत) स्पर्द्धा करते हैं। (तान्) उन (दस्यून्) दस्युओं को (अप) दूर भगाओ। (दस्युहत्येषु) दस्युओं की हत्या करानेवाले व्यवहार में (प्र) प्रकृष्ट रूप से (अरुजः+कुरु) छिन्न भिन्न कर दो ॥ ५ ॥
संस्कृत भाग
पदार्थः(महर्षिकृतः)- (त्वम्) सेनाध्यक्षः (मायाभिः) प्रज्ञानोपायैः। मायेति प्रज्ञानामसु पठितम्। (निघं०३.९) (अप) दूरीकरणे (मायिनः) निन्दिता माया प्रज्ञा विद्यते येषां तान्मायिनः (अधमः) धम कम्पय (स्वधाभिः) अन्नादिभिरुदकादिभिर्वा। स्वधेत्यन्ननामसु पठितम्। (निघं०२.७) उदकनामसु पठितम्। (निघं०१.१२) (ये) चोरदस्य्वादयः परस्वापहर्त्तारः (अधि) उपरिभावे (शुप्तौ) शयने कृते सति। अत्र वर्णव्यत्ययेन शः। (अजुह्वत) स्पर्द्धन्ते (त्वम्) उक्तार्थः (पिप्रोः) न्यायपूर्त्तेः कर्त्त्रोः (नृमनः) नृषु मनो ज्ञानं यस्य तत्सम्बुद्धौ (प्र) प्रकृष्टार्थे (अरुजः) रुज (पुरः) अग्रतः (प्र) प्रकृष्टार्थे (ऋजिश्वानम्) य ऋजीन् ज्ञानादिसरलान् गुणानश्नुते तं धार्मिकं मनुष्यम्। अत्र इक् कृष्यादिभ्यः। (अष्टा०वा०३.३.१०८) इत्यृजधातोरिक्। अशूङ् धातोर्ङ्वनिप्। अकारलोपश्च। (दस्युहत्येषु) दस्यूनां हत्या हननानि येषु सङ्ग्रामादिव्यवहारेषु (आविथ) रक्ष ॥५॥ विषयः- पुनः सभाध्यक्षगुणा उपदिश्यन्ते ॥ अन्वयः- हे नृमणस्त्वं पुरः स्वधाभिः पिप्रोराज्ञामृजिश्वानं चाविथ ये मायिनो मायाभिः शुप्तावधि परपदार्थान्नजुह्वत तान् दस्यूनपाधमो दूरीकुरु दस्युहत्येषु प्रारुजः प्रभग्नान् कुरु ॥५॥ भावार्थः(महर्षिकृतः)- यः सभाद्यध्यक्षः स्वसत्यन्यायेन श्रेष्ठदुष्टकर्मकारिभ्यो यथावत्फलानि दत्वा रक्षति, स एवाऽत्र मान्यभाग्भवेत् ॥५॥
मराठी (1)
भावार्थ
जो सभाध्यक्ष आपल्या सत्यरूपी न्यायाने उत्तम व दुष्ट कर्म करणाऱ्या माणसांना फळ देतो व यथायोग्य रक्षण करतो. तोच या जगात सत्कार करण्यायोग्य असतो. ॥ ५ ॥
इंग्लिश (3)
Meaning
With your intelligence and tactics, blow off the cunning fellows of wicked designs, who cheat the sleeping unwary people and who offer the oblations into their own mouth. Admirable hero, pride of all, break down the forts of the demons, and in the conflicts of good and evil, protect those who follow the paths of rectitude.
Subject of the mantra
Then in this mantra the virtues of the chairman of the assembly etc. have been preached.
Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-
He=O! (nṛmanaḥ) =having male psychology, (tvam) =army chief, (puraḥ)= pioneers, (svadhābhiḥ) =of food and water, (piproḥ) =making supply judiciously, (ājñām) =to the command, (ṛjiśvānam) =righteous listening knowledge etc. virtues speedily, (ca) =also. (āvitha) =protect, (ye)=thieves and bandits etc. who destroy the sleep of others, (māyinaḥ)= having condemned wisdom, (māyābhiḥ)=those with special knowledge, (śuptau) =making practice for sleeping, (adhi)=above, (parapadārthān) =with material of others, (ajuhvata) =have rivalry,| (tān) =to those, (dasyūn)= to the bandits,. (apa) =drive away, (dasyuhatyeṣu)= in the act of killing bandits, (pra)= excellently, (arujaḥ+ kuru)= tear apart.
English Translation (K.K.V.)
O army chief with the psychology of men! Those who are moving forward, those who supply food and water justly, those who listen quickly to orders, those who have simple qualities like knowledge etc. should also be protected. Thieves and bandits etc., those who destroy the sleep of others, those who have slandered intelligence, those who have remedies for special knowledge, those who have remedies for gold, compete with other's things above all. Drive those bandits away. In the behaviour of killing the bandits, tear apart them in a very different way.
TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand
The head of the assembly who protects the best from his true justice and gives the right rewards to the doers of evil deeds, He should be respectable here.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The attributes of the President of the Assembly are further taught in the fifth Mantra.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O wise Indra (Commander of the Army or the President of the Assembly) Thou preservest with food, water and other necessary articles, the person who is just and bears in himself knowledge, straightforwardness and other virtues. By thy devices full of intelligence of a high order, thou shouldst put down the deceivers, thieves and robbers who take away others' property when they are asleep. In battles where thieves, robbers and other wicked people are slain, thou shouldst destroy the malignant completely.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
( मायाभिः ) प्रज्ञानोपायैः मायेति प्रज्ञानाम (निघo ३.९) = By intelligent devices. (स्वधाभिः) अन्नादिभि: उदकादिभिर्वा स्वधेत्यन्ननाम (निध० २.७) स्वधेत्युदकनाम ( निघ० १.१२ ) = With food and water etc. ( ऋजिश्वानम् ) यः ऋजीन् ज्ञानाविसरलान् गुणान् अश्नुते तं धार्मिकं मनुष्यम् । अत्र इक् कृषादिभ्य इति ॠज धातोरिक् । अशूङ् धातोर्डः कनिप् अकारलोपश्च । (ऋज-गति-स्थानार्जनोपार्जनेषु भ्वा० अशूङ् व्याप्तौ ) = To a person who bears in himself knowledge, straightforwardness and other virtues. (पिप्रोः) न्यायपूर्तेः कर्त्रा: = Of the persons who are just.
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Only that president of the assembly or the Commander of the army commands respect of the people who with his truth and justice, gives good or bad fruit to the righteous and unrighteous persons respectively and thus protects the people.
Translator's Notes
It is wrong on the part of Sayanacharya, Prof. Wilson, Griffith and others to take Pipru and Rijishva as proper nouns, as that is against the fundamental principles of the Vedic terminology as pointed out before. All Vedic words are derivative and should be taken and explained so. That is what Rishi Dayananda has consistently done throughout. The most surprising and the most objectionable thing about Shri Sayanacharya is that though he has accepted and propounded this principle of all Vedic Words being derivative and eternity of the Vedas in his introduction to the commentary on the Rigveda, he has not been able to follow it consistently.
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