ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 51/ मन्त्र 8
वि जा॑नी॒ह्यार्या॒न्ये च॒ दस्य॑वो ब॒र्हिष्म॑ते रन्धया॒ शास॑दव्र॒तान्। शाकी॑ भव॒ यज॑मानस्य चोदि॒ता विश्वेत्ता ते॑ सध॒मादे॑षु चाकन ॥
स्वर सहित पद पाठवि । जा॒नी॒हि॒ । आर्या॑न् । ये । च॒ । दस्य॑वः । ब॒र्हिष्म॑ते । र॒न्ध॒य॒ । शास॑त् । अ॒व्र॒तान् । शाकी॑ । भ॒व॒ । यज॑मानस्य । चो॒दि॒ता । विश्वा॑ । इत् । ता । ते॒ । स॒ध॒ऽमादे॑षु । चा॒क॒न॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
वि जानीह्यार्यान्ये च दस्यवो बर्हिष्मते रन्धया शासदव्रतान्। शाकी भव यजमानस्य चोदिता विश्वेत्ता ते सधमादेषु चाकन ॥
स्वर रहित पद पाठवि। जानीहि। आर्यान्। ये। च। दस्यवः। बर्हिष्मते। रन्धय। शासत्। अव्रतान्। शाकी। भव। यजमानस्य। चोदिता। विश्वा। इत्। ता। ते। सधऽमादेषु। चाकन ॥
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 51; मन्त्र » 8
अष्टक » 1; अध्याय » 4; वर्ग » 10; मन्त्र » 3
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अष्टक » 1; अध्याय » 4; वर्ग » 10; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनः स किं कुर्य्यादित्युपदिश्यते ॥
अन्वयः
हे मनुष्य ! त्वं बर्हिष्मत आर्य्यान् विजानीहि ये दस्यवः सन्ति ताँश्च विदित्वा रन्धयाऽव्रतान् शासत् यजमानस्य चोदिता सन् शाकी भव यतस्ते तवोपदेशेन सङ्गेन वा सधमादेषु ता तानि विश्वा विश्वान्येतानि सर्वाणि कर्माणीदेवाहं चाकन ॥ ८ ॥
पदार्थः
(वि) विशेषार्थे (जानीहि) विद्धि (आर्य्यान्) धार्मिकानाप्तान् विदुषः सर्वोपकारकान् मनुष्यान् (ये) वक्ष्यमाणाः (च) समुच्चये (दस्यवः) परपीडका मूर्खा धर्मरहिता दुष्टा मनुष्याः (बर्हिष्मते) बर्हिषः प्रशस्ता ज्ञानादयो गुणा विद्यन्ते यस्मिन् व्यवहारे तन्निष्पत्तये (रन्धय) हिंसय (शासत्) शासनं कुर्वन्। (अव्रतान्) सत्यभाषणादिरहितान् (शाकी) प्रशस्तः शाकः शक्तिर्विद्यते यस्य सः (भव) निर्वर्त्तस्व (यजमानस्य) यज्ञनिष्पादकस्य (चोदिता) प्रेरकः (विश्वा) सर्वाणि (इत्) एव (ता) तानि (ते) तव (सधमादेषु) सुखेन सह वर्त्तमानेषु स्थानेषु (चाकन) कामये। अत्र कनधातोर्वर्त्तमाने लिट् तुजादीनां दीर्घोऽभ्यासस्य (अष्टा०६.१.७) इत्यभ्यासदीर्घत्वं च ॥ ८ ॥
भावार्थः
मनुष्यैर्दस्युस्वभावं विहायाऽऽर्य्यस्वभावयोगेन नित्यं भवितव्यम्। त आर्य्या भवितुमर्हन्ति ये सद्विद्यादिप्रचारेण सर्वेषामुत्तमभोगसिद्धयेऽधर्मदुष्टनिवारणाय च सततं प्रयतन्ते न खलु कश्चिदार्यसङ्गाध्ययनोपदेशैर्विना यथावद्विद्वान् धर्मात्माऽऽर्य्यस्वभावो भवितुं शक्नोति, तस्मात् किल सर्वैरुत्तमानि गुणकर्माणि सेवित्वा दस्युकर्म्माणि हित्वा सुखयितव्यम् ॥ ८ ॥
हिन्दी (5)
विषय
फिर वह सभाध्यक्ष क्या करे, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥
पदार्थ
हे मनुष्य ! तू (बर्हिष्मते) उत्तम सुखादि गुणों के उत्पन्न करनेवाले व्यवहार की सिद्धि के लिये (आर्य्यान्) सर्वोपकारक धार्मिक विद्वान् मनुष्यों को (विजानीहि) जान और (ये) जो (दस्यवः) परपीड़ा करनेवाले अधर्मी दुष्ट मनुष्य हैं, उनको जान कर (बर्हिष्मते) धर्म की सिद्धि के लिये (रन्धय) मार और उन (अव्रतान्) सत्यभाषणादि धर्मरहित मनुष्यों को (शासत्) शिक्षा करते हुए (यजमानस्य) यज्ञ के कर्ता का (चोदिता) प्रेरणाकर्त्ता और (शाकी) उत्तम शक्तियुक्त सामर्थ्य को (भव) सिद्ध कर, जिससे (ते) तेरे उपदेश वा सङ्ग से (सधमादेषु) सुखों के साथ वर्त्तमान स्थानों में (ता) उन (विश्वा) सब कर्मों को सिद्ध करने की (इत्) ही मैं (चाकन) इच्छा करता हूँ ॥ ८ ॥
भावार्थ
मनुष्यों को दस्यु अर्थात् दुष्ट स्वभाव को छोड़ कर आर्य्य अर्थात् श्रेष्ठ स्वभावों के आश्रय से वर्त्तना चाहिये। वे ही आर्य हैं कि जो उत्तम विद्यादि के प्रचार से सबके उत्तम भोग की सिद्धि और अधर्मी दुष्टों के निवारण के लिये निरन्तर यत्न करते हैं। निश्चय करके कोई भी मनुष्य आर्य्यों के संग, उनसे अध्ययन वा उपदेशों के विना यथावत् विद्वान्, धर्मात्मा, आर्यस्वभाव युक्त होने को समर्थ नहीं हो सकता। इससे निश्चय करके आर्य के गुण और कर्मों को सेवन कर निरन्तर सुखी रहना चाहिये ॥ ८ ॥
विषय
प्रार्थनाविषयः
व्याखान
सबको यथायोग्य जाननेवाले हे ईश्वर! आप (आर्यान्) विद्या, धर्मादि उत्कृष्ट स्वभावाचरणयुक्त आर्यों को जानो, (ये च दस्यवः) और जो नास्तिक, डाकू, चोर, विश्वासघाती, मूर्ख, विषयलम्पट, हिंसादिदोषयुक्त, उत्तम कर्म में विघ्न करनेवाले, स्वार्थी, स्वार्थसाधन में तत्पर, वेदविद्याविरोधी, अनार्य अनाड़ी मनुष्य (बर्हिष्मते) सर्वोपकारक यज्ञ का विध्वंस करनेवाले हैं – इन सब दुष्टों को आप (रन्धय) [समूलान् विनाशय] मूलसहित नष्ट कर दीजिए और (शासदव्रतान्) ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ, संन्यासादि धर्मानुष्ठानव्रतरहित, वेदमार्गोच्छेदक अनाचारियों का यथायोग्य शासन करो [शीघ्र उनपर दण्ड निपातन करो], जिससे वे भी शिक्षायुक्त होके शिष्ट हों अथवा उनका प्राणान्त हो जाए, किंवा हमारे वश में ही रहें, “शाकी" तथा जीव को परम शक्तियुक्त शक्ति देने और (यजमानस्य चोदिता) यजमान को उत्तम कामों में प्रेरणा करनेवाले हो, आप हमें दुष्ट कामों से निरोधक हो। मैं भी (सधमादेषु) उत्कृष्ट स्थानों में निवास करता हुआ (विश्वेत्ता ते) तुम्हारी आज्ञानुकूल सब उत्तम कर्मों की (चाकन) कामना करता हूँ, सो आप पूरी करें ॥ १४ ॥
विषय
राजा का कर्तव्य
पदार्थ
१. गतमन्त्र में वर्णन था कि प्रभुकृपा से हमारे शत्रु नष्ट होते हैं । राष्ट्र में राजा का भी यह कर्तव्य होता है कि वह दस्युओं का नाश और आर्यों का रक्षण करे । वस्तुतः राजा प्रभु का प्रतिनिधि ही होना चाहिए । राजा के द्वारा प्रभु प्रजा का कल्याण करते हैं, इसीलिए राजा के लिए कहा गया है कि 'महती देवता ह्येषा नररूपेण तिष्ठति' - राजा तो नररूप में महादेव ही है । उस राजा के लिए प्रभु कहते हैं कि हे राजन् ! तू (आर्यान् विजानीहि) = अपने राष्ट्र के आर्यपुरुषों को जान । 'ऋ गतौ' से बना आर्य शब्द यह संकेत करता है वह अपने कर्म में सदा लगा रहे । २. हे राजन् ! तू उन पुरुषों को (च) = भी जान (ये दस्यवः) = जो दस्यु है - जो निर्माणात्मक कार्यों में न लगकर ध्वंसात्मक कार्यों में ही रुचि रखते हैं । ३. आर्यों और दस्युओं को जानकर तू (शासत्) = शासन करता हुआ (बर्हिष्मते) = यज्ञशील पुरुषों के लिए (अव्रतान्) = कुत्सित कर्मों में लगे हुए पुरुषों को (रन्धय) = विनष्ट कर । तेरे राष्ट्र में अव्रती पुरुषों की प्रबलता न हो जाए । 'यज्ञशील पुरुष ही राष्ट्र में फूलें - फलेंगे' तभी तो राष्ट्र का उत्थान होगा । ४. (शाकी भव) = हे राजन् ! तू राष्ट्र के शासन के लिए शक्तिशाली बन । निर्बल राजा के राष्ट्र में तो "मात्स्यन्याय" ही प्रवृत्त होता है । हे राजन् ! तू शक्तिशाली बनकर शासन करता हुआ (यजमानस्य) = यज्ञशील पुरुषों का (चोदिता) = प्रेरक बन, उन्हें उत्साहित करनेवाला हो । ५. (सधमादेषु) = [सह माद्यन्ति अत्र] मिलकर प्रसन्नतापूर्वक स्तवनादि कार्यों को करने के स्थलों में (ते) = तेरे (ता) = उन 'दस्यु - रन्धन व यजमान - वर्धन' आदि (विश्वा इत्) = सभी कार्यों को (चाकन) = दीप्त करते हैं, अर्थात् उन कार्यों का शंसन करते हैं । सज्जनों की रक्षा व दस्युओं के दूरीकरण से ही राजा प्रशंसित होता है । एक शब्द में राजा का कार्य 'प्रजा - पालन' ही तो है । इस प्रजा - पालन के लिए उसे राष्ट्र के भीतर के दस्युओं को दण्ड देना होता है और प्रजा - पालन के लिए ही राष्ट्र के बाह्य शत्रुओं से युद्ध आवश्यक हो जाता है । सब दण्डन व युद्ध प्रजा - पालन के उद्देश्य से ही होते हैं । इस कर्तव्य को शक्तिशाली शासक ही निभा सकता है ।
भावार्थ
भावार्थ - राजा अपने को प्रभु का प्रतिनिधि समझे और राष्ट्र में आर्यों के वर्धन के लिए दस्युओं को दण्डित करे । वह शक्तिशाली बने, जिससे सभाओं में सर्वत्र उसके कार्यों का प्रशंसन ही हो ।
विषय
शाकी इन्द्र
भावार्थ
हे विद्वन् ! सेनापते ! तू (आर्यान् ) श्रेष्ठ पुरुषों को, सम्पति के वास्तविक स्वामियों को भी (विजानीहि ) विशेष विवेक से जान । (ये च ) और जो ( दस्यवः) प्रजा के पीड़क या वास्तविक स्वामी के सम्पत्ति को लूट खसोट लेने वाले, चोर डाकू, दुष्ट पुरुष हैं उनको भी (विजानीहि ) विवेक पूर्वक जान अर्थात् मालिक और चोर दस्युओं का विवेक भली प्रकार कर, जिससे राज्य में न्याय उचित रीति से हो । अव्यवस्था फैल कर चोर डाकू स्वयं गरीब निर्बलों को सताकर उनके माल के स्वामी न बन जावें । हे राजन् ! तू (अव्रतान् ) व्रत, धर्म नियम, सत्य व्यवहार सत्य भाषण आदि को पालन करने वाले, उद्दण्ड पुरुषों को ( बर्हिष्मते) प्रजा से युक्त राष्ट्र या भूस्वामी के हित के लिये ( शासत् ) शासन करता हुआ उनको ( रन्धय ) दण्डित कर । तू ( यजमानस्य ) कर देने वाले या तेरा मान आदर करने वाले, तेरे संग घर न बना कर रहने वाले राष्ट्र वासी जन का तू ( चोदिता ) आज्ञापक होकर (शाकी) शक्तिमान् (भव ) होकर रह । (ते) तेरे ( ता ) उन २ नाना प्रकार के ( विश्वा ) समस्त कर्मों और अद्भुत व्यवहारों की (सधमादेषु) एक साथ मिल कर होने वाले हर्ष, विनोद और उत्सवों के अवसरों पर मैं ( चाकन) प्रसिद्धि चाहता हूं ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
सव्य आङ्गिरस ऋषिः । इन्द्रो देवता ॥ छन्दः— १, ९, १० जगती २, ५, ८ विराड् जगती । ११–१३ निचृज्जगती ३, ४ भुरिक् त्रिष्टुप् । ६,७ त्रिष्टुप् ॥ पंचदशर्चं सूक्तम् ।
विषय
फिर वह सभाध्यक्ष क्या करे, इस विषय का उपदेश इस मन्त्र में किया है ॥
सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः
हे मनुष्य ! त्वं बर्हिष्मते आर्य्यान् वि जानीहि ये दस्यवः सन्ति तान् च विदित्वा रन्धया अव्रतान् शासत् यजमानस्य चोदिता सन् शाकी भव यतस्ते तव उपदेशेन सङ्गेन वा सधमादेषु ता तानि विश्वा विश्वान्यि एतानि सर्वाणि कर्माणि इत् एवाहं एवअहं चाकन ॥८॥
पदार्थ
हे (मनुष्य) = मनुष्य! (त्वम्)=तुम. (बर्हिष्मते) बर्हिषः प्रशस्ता ज्ञानादयो गुणा विद्यन्ते यस्मिन् व्यवहारे तन्निष्पत्तये= आकाश के समान प्रसस्त ज्ञान आदि गुणवाले, (आर्य्यान्) धार्मिकानाप्तान् विदुषः सर्वोपकारकान् मनुष्यान्= धार्मिक आप्त विद्वान् और सबका उपकार करनेवाले मनुष्यों को, (वि) विशेषार्थे =विशेष, (जानीहि) विद्धि=विवेक से जानो, (ये) वक्ष्यमाणाः=कहे गये, (दस्यवः) परपीडका मूर्खा धर्मरहिता दुष्टा मनुष्याः=दूसरों को पीड़ा देनेवाले धर्म से रहित दुष्ट मनुष्य, (सन्ति)= हैं, (च) समुच्चये=और, (तान्) =उनको, (विदित्वा)=जानकर, (रन्धया) हिंसय=मारो, (अव्रतान्) सत्यभाषणादिरहितान्= सत्य भाषण आदि से रहित, (शासत्) शासनं कुर्वन्=शासन करते हुए, (यजमानस्य) यज्ञनिष्पादकस्य =यज्ञ का निष्पादन करनेवाले के, (चोदिता) प्रेरकः= प्रेरक, (सन्)=होते हुए, (शाकी) प्रशस्तः शाकः शक्तिर्विद्यते यस्य सः= प्रशस्त शक्तिवाले, (भव) निर्वर्त्तस्व=होओ, (यतः)=क्योंकि, (ते) तव =तुम्हारे, (उपदेशेन)=उपदेश द्वारा, (वा)=अथवा, (सङ्गेन)=संगति से, (सधमादेषु) सुखेन सह वर्त्तमानेषु स्थानेषु =सुख के साथ वर्त्तमान स्थान में, (ता) तानि=उनके, (विश्वा) सर्वाणि=समस्त, (एतानि) =ये, (सर्वाणि)=सब, (कर्माणि)=कर्म, (इत्) एव =ही, (अहम्)=मैं, (चाकन) कामये=कामना करता हूँ ॥ ८ ॥
महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद
मनुष्यों को दस्यु अर्थात् दुष्ट स्वभाव को छोड़ कर आर्य अर्थात् श्रेष्ठ स्वभाव से युक्त होना चाहिये। वे ही आर्य होने के योग्य हैं, जो कि सत्य विद्या आदि के प्रचार से सर्वोत्तम भोग की सिद्धि के लिये अधर्म और दुष्टता को दूर करने के लिये निरन्तर प्रयत्न करते हैं। निश्चय करके कोई भी मनुष्य आर्यों के संग, उनसे अध्ययन और उपदेशों के विना यथावत् विद्वान्, धर्मात्मा, आर्यस्वभाव युक्त होने में समर्थ नहीं हो सकता है। इससे निश्चय करके सबको उत्तम गुण और कर्मों को सेवन करके, दस्यु के कर्मों को छोड़कर सुखी रहना चाहिये ॥८॥
पदार्थान्वयः(म.द.स.)
हे (मनुष्य) मनुष्य! (त्वम्) तुम (बर्हिष्मते) आकाश के समान प्रशस्त ज्ञान आदि गुणवाले, (आर्य्यान्) धार्मिक आप्त विद्वान् और सबका उपकार करनेवाले मनुष्यों को, (वि) विशेष (जानीहि) विवेक से जानो। (ये) कहे गये, (दस्यवः) दूसरों को पीड़ा देनेवाले (च) और धर्महीन दुष्ट मनुष्य (सन्ति) हैं। (तान्) उनको (विदित्वा) जानकर (रन्धया) मारो। (अव्रतान्) सत्य भाषण आदि से रहित (शासत्) शासन करते हुए, (यजमानस्य) यज्ञ का निष्पादन करनेवाले के (चोदिता) प्रेरक (सन्) होते हुए [और] (शाकी) प्रशस्त शक्तिवाले (भव) होओ, (यतः) क्योंकि (ते) तुम्हारे (उपदेशेन) उपदेश द्वारा (वा) अथवा (सङ्गेन) संगति से, (सधमादेषु) सुख के साथ वर्त्तमान स्थान में (ता) उनके (विश्वा) समस्त, (एतानि) ये (सर्वाणि) सब (कर्माणि) कर्म करने की (इत्) ही (अहम्) मैं (चाकन) कामना करता हूँ ॥ ८ ॥
संस्कृत भाग
पदार्थः(महर्षिकृतः)- (वि) विशेषार्थे (जानीहि) विद्धि (आर्य्यान्) धार्मिकानाप्तान् विदुषः सर्वोपकारकान् मनुष्यान् (ये) वक्ष्यमाणाः (च) समुच्चये (दस्यवः) परपीडका मूर्खा धर्मरहिता दुष्टा मनुष्याः (बर्हिष्मते) बर्हिषः प्रशस्ता ज्ञानादयो गुणा विद्यन्ते यस्मिन् व्यवहारे तन्निष्पत्तये (रन्धय) हिंसय (शासत्) शासनं कुर्वन्। (अव्रतान्) सत्यभाषणादिरहितान् (शाकी) प्रशस्तः शाकः शक्तिर्विद्यते यस्य सः (भव) निर्वर्त्तस्व (यजमानस्य) यज्ञनिष्पादकस्य (चोदिता) प्रेरकः (विश्वा) सर्वाणि (इत्) एव (ता) तानि (ते) तव (सधमादेषु) सुखेन सह वर्त्तमानेषु स्थानेषु (चाकन) कामये। अत्र कनधातोर्वर्त्तमाने लिट् तुजादीनां दीर्घोऽभ्यासस्य (अष्टा०६.१.७) इत्यभ्यासदीर्घत्वं च ॥८॥ विषयः- पुनः स किं कुर्य्यादित्युपदिश्यते ॥ अन्वयः- हे मनुष्य ! त्वं बर्हिष्मत आर्य्यान् विजानीहि ये दस्यवः सन्ति ताँश्च विदित्वा रन्धयाऽव्रतान् शासत् यजमानस्य चोदिता सन् शाकी भव यतस्ते तवोपदेशेन सङ्गेन वा सधमादेषु ता तानि विश्वा विश्वान्येतानि सर्वाणि कर्माणीदेवाहं चाकन ॥८॥ भावार्थः(महर्षिकृतः)- मनुष्यैर्दस्युस्वभावं विहायाऽऽर्य्यस्वभावयोगेन नित्यं भवितव्यम्। त आर्य्या भवितुमर्हन्ति ये सद्विद्यादिप्रचारेण सर्वेषामुत्तमभोगसिद्धयेऽधर्मदुष्टनिवारणाय च सततं प्रयतन्ते न खलु कश्चिदार्यसङ्गाध्ययनोपदेशैर्विना यथावद्विद्वान् धर्मात्माऽऽर्य्यस्वभावो भवितुं शक्नोति, तस्मात् किल सर्वैरुत्तमानि गुणकर्माणि सेवित्वा दस्युकर्म्माणि हित्वा सुखयितव्यम् ॥८॥
मराठी (2)
भावार्थ
माणसांनी दस्यू अर्थात दुष्ट स्वभाव सोडून आर्य अर्थात श्रेष्ठ स्वभावयुक्त बनून वागावे. आर्यच (श्रेष्ठ लोक) उत्तम विद्या इत्यादींच्या प्रचाराने सर्वांच्या उत्तम भोगाची सिद्धी व अधर्मी दुष्टांचे निवारण करण्यासाठी निरंतर प्रयत्न करतात. कोणताही माणूस आर्यांच्या संगतीने अध्ययन किंवा उपदेशाशिवाय यथायोग्य विद्वान धर्मात्मा आर्य स्वभावयुक्त होण्यास समर्थ बनू शकत नाही. यामुळे आर्याचे गुण व कर्म यांचे सेवन करून निरंतर सुखी झाले पाहिजे. ॥ ८ ॥
विषय
प्रार्थना
व्याखान
सर्वाना यथायोग्य जाणणाऱ्या हे ईश्वरा! तु (आर्यान्) विद्या धर्म इत्यादींनी व उत्कृष्ट स्वभाव व आचरण युक्त असलेल्या आर्यांना जाणून घे. (ये च दस्यवः) जे नास्तिक, डाकू, चोर, विश्वासघातकी, मूर्ख, विषयलंपट हिंसा इत्यादी दोषांनी युक्त उत्तम कार्यात विघ्न आणणारे [विघ्नसंतोषी] स्वार्थी, स्वार्थ साधण्यास तत्पर असलेले, वेदविद्या विरोधी, [अडाणी] मनुष्य (बर्हिष्मते) सर्वांवर उपकार करणाऱ्या यज्ञाचा विध्वंस करणारे आहेत, त्या सर्व दुष्टांचा (रन्धय) तू मूळापासून नाश कर, आणि (शासदव्रतान्) ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ, संन्यास इत्यादी धर्मानुष्ठान रहित अशा वेदमार्गाचे उच्छेदन करणाऱ्या अनाचारी लोकांना शिक्षा कर. त्यांना दंड दे. त्यामुळे त्यांच्यात सुधारणा होईल व सभ्यता शिकतील किंवा ते आमच्या आधीन राहू दे अथवा त्यांना मृत्यू येऊ — दे. (शाकी) जीवाला शक्तियुक्त बनवून उत्तम कर्माची प्रेरणा देणारा तूच आहेस. तू आमच्या दुष्ट कार्याचा विरोधक हो. मीही (सधमादेषु) उत्कृष्ट स्थानी राहून (विश्वेत्ता ते) तुझ्या आज्ञेचा अनुकूल सर्व उत्तम कर्माची (चाकन) कामना करतो. ती तू पूर्ण कर. ॥१४॥
इंग्लिश (4)
Meaning
Know the good, know the evil too, eliminate the wicked, for the sake of the man of yajnic action.$Ruling over and controlling the lawless, be a source of strength and inspiration for the yajamana. May all your actions in yajnas and pious homes be for success of the good. This is my prayer and earnest desire.
Purport
Knower of all beings and things aptly and justly O God! You know the Aryan, who are endowed with good education, righteousness, excellent nature and conduct. Kindly exterminate all those from their very root, who are atheists, decoits, thieves, treacherous, foolish, sensualist, who indulge in violence, who are obstructers of good deeds, who are selfish, and who have their own axe to grind, who are opponents of Vedic learning, the Anāryās the demons, who are destroyers of yajña the good works of public interest. O God! Also punish them who do not abide by the rules of Dharma i.e. right conduct, who are characterless, who violate the Vedic path, who do not perform the duties or vows of celebates, house-holders, Vānaprastha [preparing for renunciation], and monks, so that being punished they may become cultured or they may be put to an end or they may be under our control. O Lord! You confer great powers upon human souls and impel your devotees to do great and good deeds. You prevent us from doing evil deeds and going astray. I also living in good places-in good company, intend to perform good deeds, strictly in accordance with your directions. Kindly fulfil my cherished desire.
Subject of the mantra
Then what should that chairman of the assembly do, this subject has been preached in this mantra.
Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-
He=O! (manuṣya) =human, (tvam) =you, (barhiṣmate)=having qualities like the sky as vast as the sky, (āryyān)=to righteous minded scholars and people who help everyone, (vi) =special, (jānīhi)=know with discretion, (ye) =said, (dasyavaḥ)= Wicked man without religion who hurts others, (ca)=and, (santi) =are, (tān) =to them, (viditvā)=knowing, (randhayā) =kill, (avratān)=untruthful, staying away from truthful speech, (śāsat)=ruling, (yajamānasya) =of the one who performs the yajna, (coditā) =motivator, (san) =being, [aura]=and, (śākī) = having abundant power, (bhava) =be, (yataḥ) =because, (te) =your, (upadeśena) =by preaching, (vā)=or, (saṅgena) =by company, (sadhamādeṣu)=happily in the present place, (tā) =their, (viśvā) =all, (etāni) =these, (sarvāṇi) =all, (karmāṇi) =of dong karmas, (it) =olnly, (aham) =I, (cākana) =desiring.
English Translation (K.K.V.)
O human! You should know with special discretion the humans who have vast knowledge like the sky, righteous, scholar and who do good to everyone. It is said that those who hurt others and are unrighteous are evil people. Kill them after knowing them. May you be devoid of truthful speech, ruling, inspiring those who perform Yajna and having immense power, because through your advice or association, I wish to perform all these deeds with happiness in the present place.
TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand
Human beings should leave bandits i.e. evil nature and be united with Arya i.e. noble nature. Only those are eligible to be Arya, who constantly try to remove unrighteousness and wickedness for the attainment of the best enjoyment by the promotion of truthful knowledge etc. Certainly, no human being can be capable of being truly learned, righteous and having Aryan nature without study and teachings from the Aryans. Resolved by this, everyone should remain happy by adopting good qualities and deeds and by giving up the deeds of bandits.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
What again should he (Indra) is taught in the 8th Mantra.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O man, thou shouldst discriminate between the Aryas and the dasyus. The Aryas are righteous learned, benevolent absolutely truthful persons who are engaged in dealings full of noble virtues like knowledge etc. Knowing and restraining those who are devoid of the vows of truthfulness etc., compel them to submit to the Aryas or noble persons. Be thou powerful and encourager of the performer of Yajnas or noble philanthropic deeds, because by thy teachings and association, I also desire to perform all these noble acts dwelling in pleasant places. Dasyus are those that cause suffering to others, and are foolish, unrighteous wicked persons. They should either be brought under the control of the righteous noble persons or annihilated if incorrigible.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
(आर्यान) धार्मिक आप्तान विदुष: सर्वोपकारकान् मनुष्यान् = Men who are righteous, truthful, learned and benevolent. (दस्यवः) परपीडका मूर्खा धर्मरहिता दुष्टा मनुष्या: = Wicked persons who trouble others, are foolish and unrighteous. ( बर्हिष्मते ) बर्हिषः प्रशस्ता ज्ञानादयो गुणा विद्यन्ते यस्मिन् व्यवहारे तन्निष्पत्तये = For the accomplishment of a dealing which is full of knowledge and other virtues.
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Men should give up the bad habits of wicked ignoble people and cultivate noble disposition. Those persons only can become Aryas who constantly endeavor to spread knowledge for the accomplishment of good or legitimate enjoyment of all articles and for the removal of un-righteousness and unrighteous persons. None can become a learned, righteous person of noble disposition without the company, study and teaching of the Aryas. Therefore everyone should always perform good deeds, cultivate good habits and give up all ignoble acts and should thus enjoy happiness.
Translator's Notes
It is thus clear that there is no racial difference between 'Aryas and Dasyus as erroneously supposed by many westerners and their followers, but it is only cultural difference which can be changed. That is why there is the Vedic injunction कृण्वन्तो विश्वमार्यम् ( ऋ० ९.६३.५ ) = Make all people Aryas or noble.
नेपाली (1)
विषय
प्रार्थनाविषयः
व्याखान
सबैलाई यथायोग्य जाननु हुने हे ईश्वर ! तपाईं आर्यान् = विद्या, धर्मादि उत्कृष्ट स्वभावाचरणयुक्त आर्यहरुको ख्याल राख्नुहोस्, येच दस्यवः = अरू जुन नास्तिक, डाँका, चोर, विश्वासघाती, मूर्ख, विषयलम्पट, हिंसादिदोषयुक्त, असल काम हरु मा विघ्नखडा गर्ने, स्वार्थी, स्वार्थ साधन तत्पर, वेदविद्याविरोधी, अनार्य [अनाडी] मानिस बर्हिष्मते= सर्वोपकारक 'यज्ञ' लाई विध्वंशकारी छन्, ई सबै दुष्ट हरु लाई तपाईं रन्धय= [ समूलान् विनाशय ] मूल सहित नष्ट गरिदिनुहोस् र शासदव्रतान् = ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ एवं संन्यासादि धर्मानुष्ठानव्रत रहित, वेदमार्गोच्छदक अनाचारी हरु माथि यथा योग्य शासन गर्नु होस् । [तिनीहरु माथि चाँडै दण्ड निपातन गर्नु होस् ] जसले गर्दा तिनीहरु पनि शिक्षायुक्त भएर शिष्ट हुन् अथवा तिनको प्राणान्तै होओस्, किंवा ती हाम्रा वश मा नै रहून । शाकी= तथा जीव लाई परम शक्ति ले युक्त तेज दिने र यजमानस्य चोदिता =यजमान लाई असल काम हरु मा प्रेरणाकारी हुनुन्छ, हजुर हामीलाई ननिका काम हरु मा निरोधक हुनुहोस् । मँ पनि सधमादेषु= उत्कृष्ट स्थान हरु मा निवास गर्दै विश्वेत्ताते - तपाईंको आज्ञा का अनुकूल सम्पूर्ण उत्तम कर्म हरु को चाकन = कामना गर्दछु, र त्यो हजुरले पूर्ण गरिदिनु होला ॥१४॥
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