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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 51 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 51/ मन्त्र 14
    ऋषिः - सव्य आङ्गिरसः देवता - इन्द्र: छन्दः - विराट्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    इन्द्रो॑ अश्रायि सु॒ध्यो॑ निरे॒के प॒ज्रेषु॒ स्तोमो॒ दुर्यो॒ न यूपः॑। अ॒श्व॒युर्ग॒व्यू र॑थ॒युर्व॑सू॒युरिन्द्र॒ इद्रा॒यः क्ष॑यति प्रय॒न्ता ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इन्द्रः॑ । अ॒श्रा॒यि॒ । सु॒ऽध्यः॑ । नि॒रे॒के । प॒ज्रेषु॑ । स्तोमः॑ । दुर्यः॑ । न । यूपः॑ । अ॒श्व॒ऽयुः । ग॒व्युः । र॒थ॒ऽयुः । व॒सु॒ऽयुः । इन्द्रः॑ । इत् । रा॒यः । क्ष॒य॒ति॒ । प्रऽय॒न्ता ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इन्द्रो अश्रायि सुध्यो निरेके पज्रेषु स्तोमो दुर्यो न यूपः। अश्वयुर्गव्यू रथयुर्वसूयुरिन्द्र इद्रायः क्षयति प्रयन्ता ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    इन्द्रः। अश्रायि। सुऽध्यः। निरेके। पज्रेषु। स्तोमः। दुर्यः। न। यूपः। अश्वऽयुः। गव्युः। रथऽयुः। वसुऽयुः। इन्द्रः। इत्। रायः। क्षयति। प्रऽयन्ता ॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 51; मन्त्र » 14
    अष्टक » 1; अध्याय » 4; वर्ग » 11; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनः स कीदृग्गुणो भवेदित्युपदिश्यते ॥

    अन्वयः

    योऽश्वयुर्गव्यूरथयुर्वसूयुरिदेवेन्द्रो रायः क्षयति स मनुष्यैर्ये सुध्यः सन्ति तैर्दुर्यो यूपो नेवायमिन्द्रो निरेके पज्रेषु स्तोमः स्तोतुमर्होऽश्रायि ॥ १४ ॥

    पदार्थः

    (इन्द्रः) सर्वाधीशः (अश्रायि) श्रियेत सेव्येत (सुध्यः) शोभना धीर्येषान्ते। अत्र छन्दस्युभयथा। (अष्टा०६.४.८६) अनेन पाक्षिको यणादेशः। (निरेके) निर्गता रेकाः शङ्का यस्मात्तस्मिन् (पज्रेषु) शिल्पव्यवहारेषु। अत्र पन धातोः बाहुलकाद् औणादिको रक् प्रत्ययो वर्णव्यत्ययेन जकारादेशश्च। (स्तोमः) स्तुतिसमूहः (दुर्यः) गृहसम्बन्धी द्वारस्थः। दुर्या इति गृहनामसु पठितम्। (निघं०३.४) (न) इव (यूपः) स्तम्भः (अश्वयुः) आत्मनोऽश्वानिच्छुः (गव्युः) आत्मनो गाः धेनुपृथिवीन्द्रियकिरणान्निच्छुः (इन्द्रः) विद्याद्यैश्वर्य्यवान् (इत्) एव (रायः) धनानि (क्षयति) प्राप्नुयात्। लेट्प्रयोगोऽयम् (प्रयन्ता) प्रकर्षेण यमनकर्त्ता सन् ॥ १४ ॥

    भावार्थः

    अत्रोपमालङ्कारः। यथा सूर्यस्याश्रयेण बहूनि कार्याणि सिध्यन्ति, तथा विदुषामग्निजलादीनां सकाशाद् रथसिद्ध्या धनप्राप्तिर्जायत इति ॥ १४ ॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    फिर वह कैसे गुणवाला हो, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥

    पदार्थ

    जो (अश्वयुः) अपने अश्वों (गव्युः) अपने गौ पृथिवी इन्द्रिय किरणों (रथयुः) अपने रथ और (वसूयुः) अपने द्रव्यों की इच्छा और (प्रयन्ता) अच्छे प्रकार नियम करनेवाले के (इत्) समान (इन्द्रः) विद्यादि ऐश्वर्ययुक्त विद्वान् (रायः) धनों को (क्षयति) निवासयुक्त करता है, वह (सुध्यः) जो उत्तम बुद्धिवाले विद्वान् मनुष्य हैं, उनसे (दुर्यः) गृहसम्बन्धी (यूपः) खंभा के (न) समान (इन्द्रः) विद्यादि ऐश्वर्यवान् विद्वान् (निरेके) शङ्कारहित (पज्रेषु) शिल्पादि व्यवहारों में (स्तोमः) स्तुति करने योग्य (अश्रायि) सेवनयुक्त होता है ॥ १४ ॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जैसे सूर्य से बहुत उत्तम-उत्तम कार्य सिद्ध होते हैं, वैसे विद्वान् वा अग्नि जलादि के सकाश से रथ की सिद्धि के द्वारा धन की प्राप्ति होती है ॥ १४ ॥

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    विषय

    प्रभुस्तवन का महत्त्व 

    पदार्थ

    १. (निरके) = [नितरां रेचनम्] सब प्रकार के मलों व रोगों के विरेचन व दूरीकरण के लिए (सुध्यः) = [सुष्ठु ध्यातुं योग्यः] उत्तमता से ध्यान करने योग्य (इन्द्रः) = सब शत्रुओं का विद्रावण करनेवाला प्रभु (अश्रायि) = सेवन किया जाता है । हम उस प्रभु का स्तवन करते हैं जो वस्तुतः ध्यान करने योग्य है, सर्वशक्तिमान् व सब शत्रुओं का विनाश करनेवाला है । इस प्रभु का स्तवन इसलिए आवश्यक है कि इससे हम नीरोग व निर्मल बन पाएँगे । २. (पज्रेषु) = [पन् स्तुतौ + रक् न - ज] स्तुति करनेवालों में (स्तोमः) = यह प्रभुस्तवन (दुर्यः) = (दुर) [door] में - द्वार में होनेवाले (यूपः न) = स्तम्भ के समान है । जैसे स्तम्भ द्वार के आधार होते हैं, इसी प्रकार स्तोता के जीवन में प्रभुस्तवन जीवन का आधार होता है । ३. हमसे स्तुति किये गये वे प्रभु ही (अश्वयुः) = [अश्वं यौति] हमारे साथ उत्तम कर्मेन्द्रियों के जोड़नेवाले होते हैं, (गव्युः) = उत्तम ज्ञानेन्द्रियों का हमारे साथ सम्पर्क करते हैं, (रथयुः) = वे प्रभु हमें उत्तम शरीररूप रथ को देनेवाले हैं, (वसूयुः) = उत्तम निवासक तत्त्वों व धनों को प्राप्त कराते हैं । ४. (इन्द्रः इत्) = वे परमैश्वर्यशाली प्रभु ही निश्चय से (रायः क्षयति) = सब धनों के स्वामी हैं [क्षयति - to be master of] 'अहं भुवं वसुनः पूर्व्यस्पतिः' - प्रभु कहते हैं कि सब धनों का मुख्य पति तो मैं ही हूँ । वे परमैश्वर्यशाली प्रभु ही (प्रयन्ता) = इन धनों को हमें श्रम व आवश्यकता के अनुसार देनेवाले हैं ।

    भावार्थ

    भावार्थ - आधि - व्याधियों के दूरीकरण के लिए प्रभुस्तवन आवश्यक है । प्रभु - स्तवन हमारे जीवन का आधार है । वे प्रभु हमें अश्व, गौवें, रथ व वसु प्राप्त कराते हैं । वे सब धनों के स्वामी हैं और सब धनों के दाता हैं ।

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    विषय

    वृषणश्व की मेना

    भावार्थ

    (वज्रेषु) स्तुति करने योग्य वचनों या स्तुति के कार्यों में जिस प्रकार (स्तोमः) वेद के सूक्त मुख्य रूप से ग्रहण करने योग्य हैं और (दुर्यः यूपः न ) द्वार पर स्थित मुख्य स्तम्भ जिस प्रकार घर के आश्रय के लिये मुख्य है उसी प्रकार (निरेके) संदेहरहित होकर, अथवा समस्त भोग योग्य विषयों को सर्वथा त्याग कर, केवल एकमात्र ( सुध्यः ) सुख पूर्वक ध्यान चिन्तन करने योग्य (इन्द्रः) वह परमेश्वर ही (अश्रायि) आश्रय करने और भजन सेवन करने योग्य है इसी प्रकार ( निरेके) सब धनों के व्यय हो जाने पर (वज्रेषु) युद्ध आदि कार्यों में (स्तोमः) सैनिक समूह तथा (दुर्यः यूपः ) द्वारस्थ स्तम्भ के समान या शत्रुओं को वारण करने वाली सैनिकों का एकमात्र स्तम्भ, ( सुध्यः) उत्तम रीति से चिन्तन या मनन करने में कुशल (इन्द्रः) ऐश्वर्यवान् शत्रुहन्ता, विद्वान् पुरुष ही (अश्रायि) आश्रय करने योग्य है । और ( इन्द्रः इत् ) वह ऐश्वर्यवान् राजा ही (अश्वयुः) अश्वों का स्वामी, (गव्युः ) गवादि पशुओं, आज्ञाओं और वाणियों का स्वामी (वसुयुः) समस्त राष्ट्र वासी प्रजा और ऐश्वर्यों का स्वामी और अन्यों को अश्व, रथ, गो, ऐश्वर्यादि देना और स्वयं प्राप्त करना चाहता हुआ (रायः) धनैश्वर्य का (प्रयन्ता) ऐश्वर्य को अच्छा देने वाला होकर और अपने पास रखता है अथवा—(सुध्यः=सुधीभिः इन्द्रः अश्रावि ) उत्तम बुद्धिशाली पुरुषों को उस परमेश्वर का या राजा का आश्रय लेना चाहिये ।

    टिप्पणी

    ‘अश्वयुः इत्यादि’—इदंयुरिदं कामयमानोऽथापि तद्वदर्थे भाष्यते । अश्वयुर्गव्युरित्यपि निगमो भवति । (निरु० ६।६।३) ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    सव्य आङ्गिरस ऋषिः । इन्द्रो देवता ॥ छन्दः— १, ९, १० जगती २, ५, ८ विराड् जगती । ११–१३ निचृज्जगती ३, ४ भुरिक् त्रिष्टुप् । ६,७ त्रिष्टुप् ॥ पंचदशर्चं सूक्तम् ।

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    विषय

    फिर वह मनुष्य कैसे गुणवाला हो, यह विषय इस मन्त्र में कहा है ॥

    सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः

    यः अश्वयुः गव्यूः रथयुः वसुयुः इत् एव इन्द्रः रायः क्षयति स मनुष्यैः ये सुध्यः सन्ति तैः दुर्यः यूपः न इव अयम् इन्द्रः निरेके पज्रेषु स्तोमः स्तोतुम् अर्हः अश्रायि ॥१४॥

    पदार्थ

    (यः)=जो, (अश्वयुः) आत्मनोऽश्वानिच्छुः= अपने अश्वों का इच्छुक, (गव्युः) आत्मनो गाः धेनुपृथिवीन्द्रियकिरणान्निच्छुः=अपनी गाय, पृथिवी, इन्द्रियों और किरणों का इच्छुक, [रथयुः]=रथों को इच्छुक, [वसुयुः] आत्मनो धनमिच्छुः (जनः) मन्त्र {5.29.15}=अपने धन के इच्छुक लोग, (इत्) एव=ही, (इन्द्रः) सर्वाधीशः=परमेश्वर, (रायः) धनानि=धनों को, (क्षयति) प्राप्नुयात्=प्राप्त करते हैं, (सः)=वह, [प्रयन्ता]= प्रकर्षेण यमनकर्त्ता सन्= मार्गदर्शक अच्छी तरह से नियंत्रण कर्त्ता होते हुए, (मनुष्यैः)= मनुष्य के द्वारा, (ये) =जो, (सुध्यः)=सुधी मनुष्य, (सन्ति)=हैं, (तैः) =उनके द्वारा, (दुर्यः) गृहसम्बन्धी द्वारस्थः=गृहों के द्वारों के, (यूपः) स्तम्भः=खम्बे के, (न) इव=समान, (अयम्)=यह, (इन्द्रः) विद्याद्यैश्वर्य्यवान्=विद्या आदि से ऐश्वर्यवान्, (निरेके) निर्गता रेकाः शङ्का यस्मात्तस्मिन्=शंका रहित, (पज्रेषु) शिल्पव्यवहारेषु= शिल्प कला के व्यवहार में, (स्तोमः) स्तुतिसमूहः= स्तुतियों के समूह से, (स्तोतुम्)=स्तुति करने के, (अर्हः) =योग्य है, उसकी ही (अश्रायि) श्रियेत सेव्येत= पूजा या सम्मान करना चाहिए ॥ १४ ॥

    महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद

    इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जैसे सूर्य के सहारे से बहुत उत्तम कार्य सिद्ध होते हैं, वैसे ही विद्वानों के द्वारा अग्नि और जल आदि के निकट से से रथों की सिद्धि से धन की प्राप्ति होती है ॥१४॥

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)

    (यः) जो (अश्वयुः) अपने अश्वों के, (गव्युः) गायों, पृथिवी, इन्द्रियों और किरणों के, [रथयुः] रथों [और] [वसुयुः] अपने धन के इच्छुक लोग (इत्) ही (इन्द्रः) परमेश्वर से (रायः) धनों को (क्षयति) प्राप्त करते हैं। (सः) वह [प्रयन्ता] मार्गदर्शक अच्छी तरह से नियंत्रण कर्त्ता होते हुए, (ये) जो (सुध्यः+मनुष्यैः) सुधी मनुष्य (सन्ति) हैं। (तैः) उनके द्वारा (दुर्यः) गृहों के द्वारों के (यूपः) खम्बों के (न) समान (अयम्) यह (इन्द्रः) विद्या आदि से ऐश्वर्यवान्, (निरेके) शंका रहित (पज्रेषु) शिल्प कला के व्यवहार में (स्तोमः) स्तुतियों के समूह से (स्तोतुम्) स्तुति करने के (अर्हः) योग्य है, उसकी ही (अश्रायि) पूजा या सम्मान करना चाहिए ॥ १४ ॥

    संस्कृत भाग

    पदार्थः(महर्षिकृतः)- (इन्द्रः) सर्वाधीशः (अश्रायि) श्रियेत सेव्येत (सुध्यः) शोभना धीर्येषान्ते। अत्र छन्दस्युभयथा। (अष्टा०६.४.८६) अनेन पाक्षिको यणादेशः। (निरेके) निर्गता रेकाः शङ्का यस्मात्तस्मिन् (पज्रेषु) शिल्पव्यवहारेषु। अत्र पन धातोः बाहुलकाद् औणादिको रक् प्रत्ययो वर्णव्यत्ययेन जकारादेशश्च। (स्तोमः) स्तुतिसमूहः (दुर्यः) गृहसम्बन्धी द्वारस्थः। दुर्या इति गृहनामसु पठितम्। (निघं०३.४) (न) इव (यूपः) स्तम्भः (अश्वयुः) आत्मनोऽश्वानिच्छुः (गव्युः) आत्मनो गाः धेनुपृथिवीन्द्रियकिरणान्निच्छुः (इन्द्रः) विद्याद्यैश्वर्य्यवान् (इत्) एव (रायः) धनानि (क्षयति) प्राप्नुयात्। लेट्प्रयोगोऽयम् (प्रयन्ता) प्रकर्षेण यमनकर्त्ता सन् ॥१४॥ विषयः- पुनः स कीदृग्गुणो भवेदित्युपदिश्यते ॥ अन्वयः- योऽश्वयुर्गव्यूरथयुर्वसूयुरिदेवेन्द्रो रायः क्षयति स मनुष्यैर्ये सुध्यः सन्ति तैर्दुर्यो यूपो नेवायमिन्द्रो निरेके पज्रेषु स्तोमः स्तोतुमर्होऽश्रायि॥१४॥ भावार्थः(महर्षिकृतः)- अत्रोपमालङ्कारः। यथा सूर्यस्याश्रयेण बहूनि कार्याणि सिध्यन्ति, तथा विदुषामग्निजलादीनां सकाशाद् रथसिद्ध्या धनप्राप्तिर्जायत इति ॥१४॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात उपमालंकार आहे. जसे सूर्यामुळे उत्तम कार्य सिद्ध होते तसे विद्वान, अग्नी व जल इत्यादींच्या साह्याने रथ (यान) तयार करून धनाची प्राप्ती होते. ॥ १४ ॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    Indra, lord of power and governance, who invites and maintains high intellectuals in the study and practical programmes of definite sciences has his reputation among people as sure and prominent as a column at the door or a sacrificial post in the yajna. Progressive and advancing, developing the wealth of cows, lands and intellectuals, horses and other modes of fast communication, chariots and other modes of travel and transport, he augments, manages and rules over all forms of national wealth and takes the country forward.

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    Subject of the mantra

    Then what kind of qualities should that person have? This subject has been discussed in this mantra.

    Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-

    (yaḥ) =That, (aśvayuḥ)=of his horses, (gavyuḥ) =of cows, earth, senses and rays, [rathayuḥ] =of chariots, [aura]=and, [vasuyuḥ]=people interested in their money, (it)=only, (indraḥ) =from God, (rāyaḥ) =wealth, (kṣayati) =obtain, (saḥ) =that, [prayantā] =controlling well, (ye) =those, (sudhyaḥ+manuṣyaiḥ)=intelligent person, (santi) =are, (taiḥ) =by them, (duryaḥ)=of the doors of houses, (yūpaḥ) =of pillars, (na) =like, (ayam) =this, (indraḥ)=rich with knowledge etc., (nireke)=without doubt, (pajreṣu)=in the practice of craftsmanship, (stomaḥ)=from the group of praises, (stotum)= to praise, (arhaḥ)=deserves, his only, (aśrāyi)=should be worshiped or respected.

    English Translation (K.K.V.)

    Only those who are desirous of their horses, cows, earth, chariots of senses and rays and their wealth receive wealth from God. That guide being well controlled, who is a wise man. Like the pillars of the doors of the houses by them, it is worthy of being praised by the group of praises, in the practice of knowledge etc., without doubt, craftsmanship, it should be worshiped or respected only.

    TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand

    There is simile as figurative in this mantra. Just as great works are accomplished with the help of the Sun, in the same way wealth is obtained by the scholars by the attainment of chariots by the proximity of fire and water et cetera.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    How should he (Indra) be is further taught in the 14th Mantra.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    A learned king who is endowed with wisdom and all kinds of wealth, who is possessed of horses, cattle land and good senses, chariots and riches and who desires to give them to deserving persons has been approached by wise men that he may assist the righteous in their distress and on the occasions of industrial undertaking without doubt or with certainty. He is certainly the giver and stable support like a pillar or door way. He should be praised by all. He is the good man's refuge in his need.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (निरेके) निर्गता: रेका: शंका यस्मात् तस्मिन् = Where there is no doubt. (रेकृ-शंकायाम् ) (पज्त्रेषु) शिल्पव्यवहारेषु अत्र पन् धातोर्बाहुलकादौणादिको रक् प्रत्ययो वर्णव्यत्ययेन जकारादेशश्च = In technical works or undertakings.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    As it is with the help of the light of the sun that many works are accomplished, the same way, with the guidance given by the learned and with the proper combination of fire, water etc. that men can acquire wealth by making various kinds of vehicles and using them.

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