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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 6 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 6/ मन्त्र 10
    ऋषिः - मधुच्छन्दाः वैश्वामित्रः देवता - इन्द्र: छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः

    इ॒तो वा॑ सा॒तिमीम॑हे दि॒वो वा॒ पार्थि॑वा॒दधि॑। इन्द्रं॑ म॒हो वा॒ रज॑सः॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इ॒तः । वा॒ । सा॒तिम् । ईम॑हे । दि॒व । वा॒ । पार्थि॑वात् । अधि॑ । इन्द्र॑म् । म॒हः । वा॒ । रज॑सः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इतो वा सातिमीमहे दिवो वा पार्थिवादधि। इन्द्रं महो वा रजसः॥

    स्वर रहित पद पाठ

    इतः। वा। सातिम्। ईमहे। दिव। वा। पार्थिवात्। अधि। इन्द्रम्। महः। वा। रजसः॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 6; मन्त्र » 10
    अष्टक » 1; अध्याय » 1; वर्ग » 12; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    इदानीं सूर्य्यकर्मोपदिश्यते।

    अन्वयः

    वयमितः पार्थिवाद्वा दिवो वा सातिं कुर्वन्तं रजसोऽधि महान्तं वेन्द्रमीमहे विजानीमः॥१०॥

    पदार्थः

    (इतः) अस्मात् (वा) चार्थे (सातिम्) संविभागं कुर्वन्तम्। अत्र ऊतियूतिजूतिसातिहेति० (अष्टा०३.३.९७) अनेनायं शब्दो निपातितः। (ईमहे) विजानीमः। अत्र ईङ् गतौ, बहुलं छन्दसीति शपो लुकि श्यनभावः। (दिवः) प्रत्यक्षाग्नेः प्रकाशात् (वा) पक्षान्तरे लोकलोकान्तरेभ्योऽपि (पार्थिवात्) पृथिवीसंयोगात्। सर्वभूमिपृथिवीभ्यामणञौ। (अष्टा०५.१.४१) इति सूत्रेण पृथिवीशब्दादञ् प्रत्ययः। (अधि) अधिकार्थे (इन्द्रम्) सूर्य्यम् (महः) महान्तमति विस्तीर्णम् (वा) पक्षान्तरे (रजसः) पृथिव्यादिलोकेभ्यः। लोका रजांस्युच्यन्ते। (निरु०४.१९)॥१०॥

    भावार्थः

    सूर्य्यकिरणाः पृथिवीस्थान् जलादिपदार्थान् छित्त्वा लघून् सम्पादयन्ति। अतस्ते वायुना सहोपरि गच्छन्ति। किन्तु स सूर्य्यलोकः सर्वेभ्यो लोकेभ्यो महत्तमोऽस्तीति। ‘वयमाकाशात् पृथिव्या उपरि वा महदाकाशात्सहायार्थमिन्द्रं प्रार्थयामहे’ इति मोक्षमूलरव्याख्याऽशुद्धास्ति। कुतः ? अत्र परिमाणे सर्वेभ्यो महत्तमस्य सूर्य्यलोकस्यैवाभिधानेनेन्द्रमीमहे विजानीम इत्युक्तप्रामाण्यात्॥१०॥इन्द्रमरुद्भ्यो यथा पुरुषार्थसिद्धिः कार्य्या, ते जगति कथं वर्त्तन्ते कथं च तैरुपकारसिद्धिर्भवेदिति पञ्चमसूक्तेन सह षष्ठस्य सङ्गतिरस्तीति बोध्यम्। अस्यापि सूक्तस्य मन्त्रार्थाः सायणाचार्य्यादिभिर्यूरोपाख्यदेशनिवासिभिर्विलसनाख्यमोक्षमूलरादिभिश्चान्यथैव वर्णिता इति वेदितव्यम्॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    अगले मन्त्र में सूर्य्य के कर्म का उपदेश किया है-

    पदार्थ

    हम लोग (इतः) इस (पार्थिवात्) पृथिवी के संयोग (वा) और (दिवः) इस अग्नि के प्रकाश (वा) लोकलोकान्तरों अर्थात् चन्द्र और नक्षत्रादि लोकों से भी (सातिम्) अच्छी प्रकार पदार्थों के विभाग करते हुए (वा) अथवा (रजसः) पृथिवी आदि लोकों से (महः) अति विस्तारयुक्त (इन्द्रम्) सूर्य्य को (ईमहे) जानते हैं॥१०॥

    भावार्थ

    सूर्य्य की किरण पृथिवी में स्थित हुए जलादि पदार्थों को भिन्न-भिन्न करके बहुत छोटे-छोटे कर देती है, इसी से वे पदार्थ पवन के साथ ऊपर को चढ़ जाते हैं, क्योंकि वह सूर्य्य सब लोकों से बड़ा है। हम लोग आकाश पृथिवी तथा बड़े आकाश से सहाय के लिये इन्द्र की प्रार्थना करते हैं, यह भी डाक्टर मोक्षमूलर साहब की व्याख्या अशुद्ध है, क्योंकि सूर्य्यलोक सब से बड़ा है, और उसका आना-जाना अपने स्थान को छोड़ के नहीं होता, ऐसा हम लोग जानते हैं॥१०॥सूर्य्य और पवन से जैसे पुरुषार्थ की सिद्धि करनी चाहिये तथा वे लोक जगत् में किस प्रकार से वर्त्तते रहते हैं और कैसे उनसे उपकारसिद्धि होती है, इन प्रयोजनों से पाँचवें सूक्त के अर्थ के साथ छठे सूक्तार्थ की सङ्गति जाननी चाहिये। और सायणाचार्य्य आदि तथा यूरोपदेशवासी अङ्गरेज विलसन आदि लोगों ने भी इस सूक्त के मन्त्रों के अर्थ बुरी चाल से वर्णन किये हैं।

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    विषय

    इस मन्त्र में सूर्य्य के कर्म का उपदेश किया है।

    सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः

    वयम् इतः पार्थिवात् दिवः वा सातिं कुर्वन्तं रजसः अधि महान्तं वा इन्द्रम् ईमहे विजानीमः॥१०॥

    पदार्थ

    (वयम्)=हम, (इतः)=यहां, (पार्थिवात्)=पृथिवी से, (वा)=या, (दिवः) प्रत्यक्षाग्नेः प्रकाशात्=प्रत्यक्ष अग्नि के प्रकाश से, (वा)=और, (सातिम्) संविभाग=अच्छी प्रकार से  विभाग, (कुर्वन्तम्)=करते हुए, (रजसः) पृथ्विादिलोकेभ्यः= पृथिवी आदि लोकों से, (अधि) अधिकार्थे= अधिक, (महान्तम्) विस्तीर्णम्=विस्तृत, (वा)=अथवा, (इन्द्रम्)= सूर्य को, (ईमहे) विजानीमः=जानते हैं।

    महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद

    सूर्य्य की किरण पृथिवी में स्थित हुए जलादि पदार्थों को छिन्न-भिन्न करके बहुत छोटे-छोटे कर देती है, इसी से वे पदार्थ पवन के साथ ऊपर को चढ़ जाते हैं, क्योंकि वह सूर्य्य सब लोकों से बड़ा है। ॥१०॥

    विशेष

    सूक्त का भावार्थ(महर्षिकृत)- सूर्य्य और पवन से जैसे पुरुषार्थ की सिद्धि करनी चाहिये तथा वे लोक जगत् में किस प्रकार से रहते हैं और कैसे उनसे उपकार की सिद्धि होती है, इन प्रयोजनों से पाँचवें सूक्त के अर्थ के साथ छठे सूक्तार्थ की सङ्गति जाननी चाहिये। और सायणाचार्य्य आदि तथा यूरोपदेशवासी अङ्गरेज विलसन आदि लोगों ने भी इस सूक्त के मन्त्रों के अर्थ अन्यथा ही  वर्णित  किये हैं,ऐसा जानना चाहिए ॥१०॥
    महर्षिकृत टिप्पणी- इस मन्त्र पर मैक्षमूलर की टिप्पणी के विषय में महर्षि दयानन्द का कहना हे-हम लोग आकाश पृथिवी तथा बड़े आकाश से सहाय के लिये इन्द्र की प्रार्थना करते हैं, यह भी डाक्टर मोक्षमूलर साहब की व्याख्या अशुद्ध है, क्योंकि सूर्य्यलोक सब से बड़ा है, और उसका आना-जाना अपने स्थान को छोड़ के नहीं होता, ऐसा हम लोग जानते हैं ॥१०॥

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)

    (वयम्) हम (इतः) यहां  (पार्थिवात्) पृथिवी से (वा) या (दिवः) प्रत्यक्ष अग्नि के प्रकाश से (वा) और (सातिम्)  अच्छी प्रकार से  विभाग (कुर्वन्तम्) करते हुए (रजसः)  पृथिवी आदि लोकों से (अधि) अधिक (महान्तम्) विस्तृत (वा) अथवा (इन्दम्) सूर्य को (ईमहे) जानते हैं।

    संस्कृत भाग

    पदार्थः(महर्षिकृतः)- (इतः) अस्मात् (वा) चार्थे (सातिम्) संविभागं कुर्वन्तम्। अत्र ऊतियूतिजूतिसातिहेति० (अष्टा०३.३.९७) अनेनायं शब्दो निपातितः। (ईमहे) विजानीमः। अत्र ईङ् गतौ, बहुलं छन्दसीति शपो लुकि श्यनभावः। (दिवः) प्रत्यक्षाग्नेः प्रकाशात् (वा) पक्षान्तरे लोकलोकान्तरेभ्योऽपि (पार्थिवात्) पृथिवीसंयोगात्। सर्वभूमिपृथिवीभ्यामणञौ। (अष्टा०५.१.४१) इति सूत्रेण पृथिवीशब्दादञ् प्रत्ययः। (अधि) अधिकार्थे (इन्द्रम्) सूर्य्यम् (महः) महान्तमति विस्तीर्णम् (वा) पक्षान्तरे (रजसः) पृथिव्यादिलोकेभ्यः। लोका रजांस्युच्यन्ते। (निरु०४.१९)॥१०॥
    विषयः- इदानीं सूर्य्यकर्मोपदिश्यते।

    अन्वयः- वयमितः पार्थिवाद्वा दिवो वा सातिं कुर्वन्तं रजसोऽधि महान्तं वेन्द्रमीमहे विजानीमः॥१०॥

    महर्षिकृतः(भावार्थः)- सूर्य्यकिरणाः पृथिवीस्थान् जलादिपदार्थान् छित्त्वा लघून् सम्पादयन्ति। अतस्ते वायुना सहोपरि गच्छन्ति। किन्तु स सूर्य्यलोकः सर्वेभ्यो लोकेभ्यो महत्तमोऽस्तीति। 'वयमाकाशात् पृथिव्या उपरि वा महदाकाशात्सहायार्थमिन्द्रं प्रार्थयामहे' इति मोक्षमूलरव्याख्याऽशुद्धास्ति। कुतः ? अत्र परिमाणे सर्वेभ्यो महत्तमस्य सूर्य्यलोकस्यैवाभिधानेनेन्द्रमीमहे विजानीम इत्युक्तप्रामाण्यात्॥१०॥

    सूक्तस्य भावार्थः(महर्षिकृतः)- इन्द्रमरुद्भ्यो यथा पुरुषार्थसिद्धिः कार्य्या, ते जगति कथं वर्त्तन्ते कथं च तैरुपकारसिद्धिर्भवेदिति पञ्चमसूक्तेन सह षष्ठस्य सङ्गतिरस्तीति बोध्यम्। अस्यापि सूक्तस्य मन्त्रार्थाः सायणाचार्य्यादिभिर्यूरोपाख्यदेशनिवासिभिर्विलसनाख्यमोक्षमूलरादिभिश्चान्यथैव वर्णिता इति वेदितव्यम् ॥१०॥

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    विषय

    त्रिलोकी का धन

    पदार्थ

    १. गतमन्त्र के अनुसार सब लोकों में प्रभु की महिमा को देखता हुआ भक्त कहता है कि - हम (इन्द्रम्) - उस परमैश्वर्यशाली प्रभु से (इतः पार्थिवात् अधि सातिम्) - इस पार्थिव लोक से धनदान को (ईमहे) - माँगते हैं । वे प्रभु हमें इस पार्थिव लोक के धन को देनेवाले हों । पार्थिव लोक का धन 'इस पृथिवीरूप शरीर की दृढ़ता ही है । [सो हम चाहते हैं कि प्रभुकृपा से हमारा शरीर वजतुल्य हो 'अश्मा भवतु नस्तनूः' अथवा 'इत्थं वज्रमाददे' - हमारा शरीर पत्थर की तरह दृढ़ हो अथवा उत्तम भोजन व व्यायाम के द्वारा हम शरीर को वज्रतुल्य बनाएँ ।] 

    २. हम उस प्रभु से (दिवः वा) - द्युलोक का धन माँगते हैं । द्युलोक का धन दीप्ति है । हमारा मस्तिष्करूप द्युलोक ज्ञान से दीप्त हो । द्युलोक में जैसे सूर्य चमकता है हमारे मस्तिष्क में भी ज्ञान का सूर्य चमके । 

    ३. हम (महो वा रजसः) इस महान् अन्तरिक्ष से धनदान माँगते हैं  , जैसे अन्तरिक्ष चन्द्र की शीतल किरणों से ज्योत्स्नामय हो रहा है उसी प्रकार हमारा हृदयान्तरिक्ष प्रेम की स्निग्धभावना से शीतल रस को प्रवाहित करनेवाला हो । 

    भावार्थ

    भावार्थ - प्रभुभक्त चाहता है कि उसका शरीर दृढ़ हो  , मस्तिष्क उज्ज्वल हो तथा हृदय प्रेम की स्निग्ध - भावना से पूर्ण हो । 

    विशेष / सूचना

    विशेष - इस छठे सूक्त का प्रारम्भ मन को सूर्यादि के ज्ञान की प्राप्ति में लगाकर विषयों में जाने से रोकने के साथ होता है [१] । यह मनस्वी पुरुष ज्ञान के प्रकाश को तथा सौन्दर्य को फैलाता हुआ प्रातः काल उठता है [२] । और अपने को सदा प्रभु - गर्भ में अनुभव करता हुआ प्रभु के पवित्र नाम का स्मरण करता है [३] । वासनाओं को प्राण - निरोध द्वारा नष्ट करता हुआ यह प्रकाश की किरणों को देखता है [४] । प्रभु - स्तवन करता हुआ  , प्रभु से संगत होकर  , प्रभु के समान आनन्दमय व दीप्तियुक्त यह दिखता है [५] । प्रभु की अर्चना करता है और चाहता है कि प्रभु - कृपा से उसे शरीर  , मस्तिष्क व हृदय का धन प्राप्त हो [६] । इन धनों की प्राप्ति के लिए ही 'ऋग् - यजु - साम - वाणियों से प्रभु की अर्चना करता है  , इस भावना के साथ सातवाँ सूक्त प्रारम्भ होता है - 

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    विषय

    missing

    भावार्थ

    (इतः) इस ( पार्थिवात् ) पृथिवी लोक से, (वा) और ( दिवः ) धौलोक से, (वा) और (रजसः) अन्तरिक्ष लोक से भी ( महः ) बड़े (इन्द्रम् ) ऐश्वर्यवान् और उनके ( अधि ) ऊपर शासकरूप से विद्यमान् सूर्य को ही हम ( सातिम् ) सब पदार्थों के संयोग विभाग करने और प्रदान करने वाला ( ईयते ) जानते हैं । इति द्वादशो वर्गः ॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    १ — १० मधुच्छन्दा ऋषिः ॥ १—३ इन्द्रो देवता । ४, ६, ८, ९ मरुतः । ५, ७ मरुत इन्द्रश्च । १० इन्द्रः ॥ गायत्र्यः । दशर्चं सूक्तम् ।

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    सूर्याचे किरण पृथ्वीवरील जल वगैरे पदार्थांना वेगवेगळे करून सूक्ष्मातिसूक्ष्म करतात. त्यामुळेच ते पदार्थ वायूबरोबर वर जातात. कारण सूर्य सर्व गोलांपेक्षा मोठा गोल आहे. ॥ १० ॥

    टिप्पणी

    ‘आम्ही आकाश, पृथ्वी व मोठ्या आकाशाच्या साह्यासाठी इन्द्राची प्रार्थना करतो. ’ ही मोक्षमूलर साहेबांची व्याख्या अशुद्ध आहे. कारण सूर्यलोक सर्वात मोठा आहे तो आपले स्थान सोडून जाणे-येणे करीत नाही, हे आम्ही जाणतो. ॥ १० ॥ सायणाचार्य इत्यादी व युरोपदेशवासी इंग्रज विल्सन इत्यादींनी या सूक्ताचा अर्थ विकृत पद्धतीने लावलेला आहे. ॥ १० ॥

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    इंग्लिश (4)

    Meaning

    From here we rise to the sun, and to Indra, lord omnipotent blazing in the sun, with prayers, with homage and oblations, Indra who is greater and higher than the earth, the skies and the heavens and rules over all these.

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    Subject of the mantra

    In this mantra works of the Sun have been preached.

    Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-

    (vayam)=We, (itaḥ)=from here, (pārthivāt)from earth, (vā)=or, (divaḥ)= by evident light of fire, (vā)=and, (sātim)=doing division properly, (kurvantam)=doing, (rajasaḥ) from earth etc. worlds, (adhi)=more, (mahāntam)= widespread, (vā) in other words, (indam)=to Sun, (īmahe)=know.

    English Translation (K.K.V.)

    We know here from the earth or through the light of evident fire, and by dividing it well, the earth or the Sun is more widespread than other worlds.

    Footnote

    Translation of gist of the hymn by Maharshi Dayanand- Human object: as the gratification of desire should be accomplished with the help of Sun and wind, and how they live in the world and how they get the accomplishment of beneficence, for these purposes the association of the sixth hymn with the meaning of the fifth hymn should be known. And people like Sayanacharya etc. and people of Europe, English Wilson etc. have also described the translation of the mantras of this hymn otherwise, it should be known like that.

    TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand

    The Sun's ray disintegrates the water-based substances located on the earth and makes them very small, with this, those things go up with the wind, because that Sun is greater than all the worlds.

    TRANSLATOR’S NOTES-

    Maharishi Dayanand says about Maxmuller's comment on this mantra - We pray to Indra for help from the sky, the earth and the big sky, this also Maxmuller's explanation is wrong, because the Sun world is the largest of all, and it’s coming and going does not happen by leaving its place, we know that.

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    Translation

    Verily, we seek the gift for light for inner-self ; may be it comes from this earthly region (physico-material-phase),or from this celestial space (knowledge-phase) or from the vast firmament (bliss-phase).

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The function of the sun is told in the tenth Mantra.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    We know this (sun) which divides various things i. e. helps as to distinguish them by his light to be greater than the earth, the moon, the stars, the heaven and other worlds. maxmuller's Translation is wrong as here the word "Indra" stands for the sun whose greatness or vastness is stated in the Mantra. “We ask Indra for help from here, or from heaven, or from above the earth or from the "Great sky.". . (M.M.)

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    The rays of the sun pierce the objects like water etc. on the carth and make them subtle, so that they go upwards along with the air but solar world is the greatest among the worlds. In this hymn it is taught how we should take benefit from the sun and the air, what is their nature and how we should utilize them. So it has direct connection with the previous hymn. This hymn also has been misinterpreted by Sayanacharya, Prof. Wilson, Prof. Maxmuller and others. We have already pointed out some of their glaring mistakes in our notes. Tr.

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