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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 6 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 6/ मन्त्र 3
    ऋषिः - मधुच्छन्दाः वैश्वामित्रः देवता - इन्द्र: छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः

    के॒तुं कृ॒ण्वन्न॑के॒तवे॒ पेशो॑ मर्या अपे॒शसे॑। समु॒षद्भि॑रजायथाः॥

    स्वर सहित पद पाठ

    के॒तुम् । कृ॒ण्वन् । अ॒के॒तवे॑ । पेशः॑ । म॒र्याः॒ । अ॒पे॒शसे॑ । सम् । उ॒षत्ऽभिः॑ । अ॒जा॒य॒थाः॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    केतुं कृण्वन्नकेतवे पेशो मर्या अपेशसे। समुषद्भिरजायथाः॥

    स्वर रहित पद पाठ

    केतुम्। कृण्वन्। अकेतवे। पेशः। मर्याः। अपेशसे। सम्। उषत्ऽभिः। अजायथाः॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 6; मन्त्र » 3
    अष्टक » 1; अध्याय » 1; वर्ग » 11; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    येनेमे पदार्था उत्पादिताः स कीदृश इत्युपदिश्यते।

    अन्वयः

    हे मर्य्याः ! यो जगदीश्वरोऽकेतवे केतुमपेशसे पेशः कृणवन्सन् वर्त्तते तं सर्वा विद्याश्च समुषद्भिः सह समागमं कृत्वा यूयं यथावद्विजानीत। तथा हे जिज्ञासो मनुष्य ! त्वमपि तत्समागमेनाऽजायथाः, एतद्विद्याप्राप्त्या प्रसिद्धो भव॥३॥

    पदार्थः

    (केतुम्) प्रज्ञानम्। केतुरिति प्रज्ञानामसु पठितम्। (निघं०३.९) (कृण्वन्) कुर्वन्सन्। इदं कृवि हिंसाकरणयोश्चेत्यस्य रूपम्। (अकेतवे) अज्ञानान्धकारविनाशाय (पेशः) हिरण्यादिधनं श्रेष्ठं रूपं वा। पेश इति हिरण्यनामसु पठितम्। (निघं०१.२) रूपनामसु च। (निघं०३.७) (मर्य्याः) मरणधर्मशीला मनुष्यास्तत्सम्बोधने। मर्य्या इति मनुष्यनामसु पठितम्। (निघं०२.३) (अपेशसे) निर्धनतादारिद्र्यादिदोषविनाशाय (सम्) सम्यगर्थे (उषद्भिः) ईश्वरादिपदार्थविद्याः कामयमानैर्विद्वद्भिः सह समागमं कृत्वा (अजायथाः) एतद्विद्याप्राप्त्या प्रकटो भव। अत्र लोडर्थे लङ्॥३॥

    भावार्थः

    मनुष्यै रात्रेश्चतुर्थे प्रहर आलस्यं त्यक्त्वोत्थायाज्ञानदारिद्र्यविनाशाय नित्यं प्रयत्नवन्तो भूत्वा परमेश्वरस्य ज्ञानं पदार्थेभ्य उपकारग्रहणं च कार्य्यमिति। ‘यद्यपि मर्य्या इति विशेषतयाऽत्र कस्यापि नाम न दृश्यते, तदप्यत्रेन्द्रस्यैव ग्रहणमस्तीति निश्चीयते। हे इन्द्र ! त्वं प्रकाशं जनयसि यत्र पूर्वं प्रकाशो नाभूत्। ’ इति मोक्षमूलरकृतोऽर्थोऽसङ्गतोऽस्ति। कुतो, मर्य्या इति मनुष्यनामसु पठितत्वात् (निघं०२.३)। अजायथा इति लोडर्थे लङ्विधानेन मनुष्यकर्त्तृकत्वेन पुरुषव्यत्ययेन प्रथमार्थे मध्यमविधानादिति॥३॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    जिसने संसार के सब पदार्थ उत्पन्न किये हैं, वह कैसा है, यह बात अगले मन्त्र में प्रकाशित की है-

    पदार्थ

    (मर्य्याः) हे मनुष्य लोगो ! जो परमात्मा (अकेतवे) अज्ञानरूपी अन्धकार के विनाश के लिये (केतुम्) उत्तम ज्ञान, और (अपेशसे) निर्धनता दारिद्र्य तथा कुरूपता विनाश के लिये (पेशः) सुवर्ण आदि धन और श्रेष्ठ रूप को (कृण्वन्) उत्पन्न करता है, उसको तथा सब विद्याओं को (समुषद्भिः) जो ईश्वर की आज्ञा के अनुकूल वर्त्तनेवाले हैं, उनसे मिल कर जानो। तथा हे जानने की इच्छा करनेवाले मनुष्य ! तू भी उस परमेश्वर के समागम से (अजायथाः) इस विद्या को यथावत् प्राप्त हो॥३॥

    भावार्थ

    मनुष्यों को प्रति रात्रि के चौथे प्रहर में आलस्य छोड़कर फुरती से उठ कर अज्ञान और दरिद्रता के विनाश के लिये प्रयत्नवाले होकर तथा परमेश्वर के ज्ञान और संसारी पदार्थों से उपकार लेने के लिये उत्तम उपाय सदा करना चाहिये। यद्यपि मर्य्याः इस पद से किसी का नाम नहीं मालूम होता, तो भी यह निश्चय करके जाना जाता है कि इस मन्त्र में इन्द्र का ही ग्रहण है कि-हे इन्द्र तू वहाँ प्रकाश करनेवाला है कि जहाँ पहिले प्रकाश नहीं था। यह मोक्षमूलरजी का अर्थ असङ्गत है, क्योंकि मर्य्याः यह शब्द मनुष्य के नामों में निघण्टु में पढ़ा है, तथा अजायथाः यह प्रयोग पुरुषव्यत्यय से प्रथम पुरुष के स्थान में मध्यम पुरुष का प्रयोग किया है॥३॥

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    विषय

    जिसने संसार के सब पदार्थ उत्पन्न किये हैं, वह कैसा है, यह बात इस मन्त्र में प्रकाशित की है।

    सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः

    हे मर्य्याः ! यो जगदीश्वरः अकेतवे केतुम् अपेशसे पेशः कृणवन्सन् वर्त्तते तं सर्वा विद्याः च सम् उषद्भिः सह समागमं  कृत्वा यूयं यथावत् विजानीत। तथा हे जिज्ञासो मनुष्य ! त्वम् अपि तत् समागमेन अजायथाः, एतत् विद्या प्राप्त्या प्रसिद्धः भव॥३॥

    पदार्थ

    हे (मर्य्याः) मरणधर्मशीला मनुष्यास्तत्सम्बोध्ने= मरणशील मनुष्य! (यो)=जो, (जगदीश्वरः)=परमेश्वर, (अकेतवे) अज्ञानान्धकारविनाशाय=अज्ञानरूपी अन्धकार के विनाश के लिये, (केतुम्) प्रज्ञानम्=उत्तम ज्ञान, (अपेशसे) निर्धनतादारिद्र्यादिदोषविनाशाय  निर्धनता और दरिद्रता आदि दोषों के विनाश के लिये, (पेशः) हिरण्यादिधनं श्रेष्ठं रूपं वा= सुवर्ण आदि धन श्रेष्ठ रूप से, (कृण्वन्+सन्) कुर्वन्सन्=उत्पन्न करते हुए, (वर्त्तते)=उपस्थित हैं, (तम्)=उसको, (सर्वा)=सब, विद्याः=विद्यायें, (च)=और, (सम्) सम्यगर्थे=समान, (उषद्भिः) ईश्वरादिपदार्थविद्याः कामयमानैर्विद्वद्भिः=ईश्वर आदि पदार्थ विद्याओं, (समागमम्)=मिलन, (कृत्वा)=करके, (यूयम्)=आप सब, (यथावत्)=ऐसे ही,  (विजानीत)=जानकर, (तथा)=वैसे ही, (जिज्ञासु)=जिज्ञासु, (मनुष्य)=मनुष्य, (त्वम्)=तुम, (अपि)=भी, (तत्)=उसके, (समागमेन)=मिलने से, (अजायथाः) एतद्विद्याप्राप्त्या प्रकटो भव=इस प्रकार विद्या को प्राप्त करके प्रकट होओ, (एतत्)=इस प्रकार, (विद्या)=विद्या, (प्राप्त्या)=प्राप्त करके, (प्रसिद्ध)=प्रसिद्ध, (भव)=होओ।

    महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद

    मनुष्यों को प्रति रात्रि के चौथे प्रहर में आलस्य छोड़कर फुरती से उठ कर अज्ञान और दरिद्रता के विनाश के लिये प्रयत्नवाले होकर तथा परमेश्वर के ज्ञान और संसारी पदार्थों से उपकार लेने के लिये उत्तम उपाय सदा करना चाहिये। यद्यपि “मर्य्याः” इस पद से किसी का नाम नहीं मालूम होता, तो भी यह निश्चय करके जाना जाता है कि इस मन्त्र में इन्द्र का ही ग्रहण है कि-हे इन्द्र तू वहाँ प्रकाश करनेवाला है कि जहाँ पहिले प्रकाश नहीं था। यह मोक्षमूलरजी का अर्थ असङ्गत है, क्योंकि “मर्य्याः”  यह शब्द मनुष्य के नामों में निघण्टु में पढ़ा है, तथा अजायथाः यह प्रयोग पुरुषव्यत्यय से प्रथम पुरुष के स्थान में मध्यम पुरुष का प्रयोग किया है॥३॥

    विशेष

    अनुवादक की टिप्पणी- महर्षि के अनुसार मैक्षमूलरजी का अर्थ असङ्गत है, क्योंकि “मर्य्याः”   यह शब्द मनुष्य के नामों में निघण्टु में पढ़ा है, तथा अजायथाः यह प्रयोग पुरुषव्यत्यय से प्रथम पुरुष के स्थान में मध्यम पुरुष का प्रयोग किया है। महर्षि दयानन्द सरस्वती ने जर्मन विद्वान् मैक्षमूलर को सदैव मोक्षमूलर नाम से सम्बोधित किया है। महर्षि के अनुसार पुरुषव्यत्यय से प्रथम पुरुष के स्थान में मध्यम पुरुष का प्रयोग किया है। व्यत्यय व्याकरण में एक प्रक्रिया है, जिसमें सुप्-व्यत्यय होने से प्रथम पुरुष के स्थान में मध्यम पुरुष का प्रयोग हुआ है ॥३॥

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)

    हे (मर्य्याः) मरणशील मनुष्य! (यो) जो (जगदीश्वरः) परमेश्वर (अकेतवे) अज्ञानरूपी अन्धकार के विनाश के लिये (केतुम्) उत्तम ज्ञान से (अपेशसे) निर्धनता और दरिद्रता आदि दोषों के विनाश के लिये (पेशः) स्वर्ण आदि धन श्रेष्ठ रूप से, (कृण्वन्+सन्) उत्पन्न करते हुए (वर्त्तते) उपस्थित हैं। (तम्) उन (सर्वा) सब (विद्याः) विद्याओं (च) और (सम्) समान (उषद्भिः) ईश्वर आदि पदार्थ विद्याओं से (समागमम्)=मिला (कृत्वा) करके (यूयम्) आप सब (यथावत्) ऐसे ही  (विजानीत) जानकर, (तथा)=वैसे ही (जिज्ञासु) जिज्ञासु (मनुष्य) मनुष्य (त्वम्) तुम (अपि) भी (तत्) उसके (समागमेन) मिलने से (अजायथाः) इस प्रकार विद्या को प्राप्त करके प्रकट होओ। (एतत्) इस प्रकार (विद्या) विद्या (प्राप्त्या) प्राप्त करके (प्रसिद्ध) प्रसिद्ध (भव) होओ।

    संस्कृत भाग

    पदार्थः(महर्षिकृतः)- (केतुम्) प्रज्ञानम्। केतुरिति प्रज्ञानामसु पठितम्। (निघं०३.९) (कृण्वन्) कुर्वन्सन्। इदं कृवि हिंसाकरणयोश्चेत्यस्य रूपम्। (अकेतवे) अज्ञानान्धकारविनाशाय (पेशः) हिरण्यादिधनं श्रेष्ठं रूपं वा। पेश इति हिरण्यनामसु पठितम्। (निघं०१.२) रूपनामसु च। (निघं०३.७) (मर्य्याः) मरणधर्मशीला मनुष्यास्तत्सम्बोधने। मर्य्या इति मनुष्यनामसु पठितम्। (निघं०२.३) (अपेशसे) निर्धनतादारिद्र्यादिदोषविनाशाय (सम्) सम्यगर्थे (उषद्भिः) ईश्वरादिपदार्थविद्याः कामयमानैर्विद्वद्भिः सह समागमं कृत्वा (अजायथाः) एतद्विद्याप्राप्त्या प्रकटो भव। अत्र लोडर्थे लङ्॥३॥
    विषयः- येनेमे पदार्था उत्पादिताः स कीदृश इत्युपदिश्यते।

    अन्वयः- हे मर्य्याः ! यो जगदीश्वरोऽकेतवे केतुमपेशसे पेशः कृणवन्सन् वर्त्तते तं सर्वा विद्याश्च समुषद्भिः सह समागमं कृत्वा यूयं यथावद्विजानीत। तथा हे जिज्ञासो मनुष्य ! त्वमपि तत्समागमेनाऽजायथाः, एतद्विद्याप्राप्त्या प्रसिद्धो भव॥३॥

    भावार्थः(महर्षिकृतः)- मनुष्यै रात्रेश्चतुर्थे प्रहर आलस्यं त्यक्त्वोत्थायाज्ञानदारिद्र्यविनाशाय नित्यं प्रयत्नवन्तो भूत्वा परमेश्वरस्य ज्ञानं पदार्थेभ्य उपकारग्रहणं च कार्य्यमिति। 'यद्यपि मर्य्या इति विशेषतयाऽत्र कस्यापि नाम न दृश्यते, तदप्यत्रेन्द्रस्यैव ग्रहणमस्तीति निश्चीयते। हे इन्द्र ! त्वं प्रकाशं जनयसि यत्र पूर्वं प्रकाशो नाभूत्। ' इति मोक्षमूलरकृतोऽर्थोऽसङ्गतोऽस्ति। कुतो, मर्य्या इति मनुष्यनामसु पठितत्वात् (निघं०२.३)। अजायथा इति लोडर्थे लङ्विधानेन मनुष्यकर्त्तृकत्वेन पुरुषव्यत्ययेन प्रथमार्थे मध्यमविधानादिति॥३॥
     

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    विषय

    प्रभु - भक्त के तीन लक्षण

    पदार्थ

    १. जो व्यक्ति इन्द्रियों को शरीर - रथ में जोतकर प्रभु - प्राप्ति के मार्ग पर चलता है [अस्य काम्या ६.२] वह (अकेतवे) - ज्ञानरहित के लिए (केतुं कृण्वन्) - ज्ञान को करनेवाला बनता है  , अर्थात् ज्ञानप्रसार को यह अपने जीवन का ध्येय बना लेता है । 

    २. हे (मर्याः) - मनुष्यो । यह प्रभुभक्त (अपेशसे) - [पेशस् brightness  , lustre] - न दीप्तिवाले के (लिए पेशः) - दीप्ति को कृण्वन् - करता हुआ होता है । उन्हें स्वास्थ्य का ज्ञान देकर स्वास्थ्य की दीप्ति प्राप्त कराता है 

    और पारस्परिक व्यवहार के तरीकों को समझकर पारस्परिक प्रेम की वृद्धि के द्वारा और संघर्षों की कमी के द्वारा भी उनकी दीप्ति को यह बढ़ानेवाला होता है । 

    ३. यह सदा (उषद्भिः) - उषः कालों के साथ ही (सम् अजायथाः) - [जन् to rise  , spring up] उठ खड़ा होता है । उषः काल में यह सोया नहीं रह जाता । इसे यह अच्छी प्रकार पता है कि प्रातः सोये हुओं के तेज को उदय होता हुआ सूर्य हर लेता है । 

    भावार्थ

    भावार्थ - प्रभु - प्राप्ति के मार्ग पर चलनेवाला व्यक्ति १. अज्ञानियों को ज्ञान देता है  , २. प्रसाद व दीप्ति से रहितों को दीप्ति प्राप्त कराने का प्रयत्न करता है  , ३. सदा उषः काल में उठ खड़ा होता है । 

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    विषय

    जीव आत्मा का वर्णन ।

    भावार्थ

    हे परमेश्वर ! हे राजन् ! हे विद्वन् ! हे (मर्याः) मनुष्यो ! तू (अकेतवे) अज्ञानी के अज्ञान को नाश करने के लिये उसको ( केतुम् ) विशेष ज्ञान और ( अपेशसे ) सुवर्णादि रहित धनहीन पुरुष के दारिद्र्य को नाश करने के लिये (पेशः) सुवर्णादिधन (कृण्वन्) प्रदान करता हुआ (उषद्भिः)सूर्य जिस प्रकार उषाकालों सहित उदय को प्राप्त होता है उसी प्रकार ( उषद्भिः ) प्रजा के अज्ञान और पाप दोषों को नष्ट कर डालने वाले विद्वान् और वीर पुरुषों सहित ( अजायथाः ) सामर्थ्यवान् प्रबल और प्रसिद्ध हो । हे ( मर्याः ) मनुष्यो ! आप लोग भी उसका सत्संग करो । सूर्य के पक्ष में—सूर्य रात्रि में सोते हुए अचेत को प्रातः सचेत करता और अन्धकार में रूपरहित पदार्थ को पुनः रूप प्रदान करता है । अध्यात्म में—हे जीव तू (अकेतवे) केतु अर्थात् ज्ञान रहित देह को ज्ञानवान् और ( अपेशासे पेशः कृण्वन् ) रूप रहित प्राणों को रूपवान् करता हुआ ( उषद्भिः सम् अजायथाः ) प्राणों के सहित देहवान् होकर प्रकट होता है ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    १ — १० मधुच्छन्दा ऋषिः ॥ १—३ इन्द्रो देवता । ४, ६, ८, ९ मरुतः । ५, ७ मरुत इन्द्रश्च । १० इन्द्रः ॥ गायत्र्यः । दशर्चं सूक्तम् ।

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    माणसांनी प्रत्येक रात्री चौथ्या प्रहरी आळस सोडून स्फूर्तीने उठावे. अज्ञान व दारिद्र्याचा नाश करण्याचा प्रयत्न करावा. परमेश्वराचे ज्ञान व जगातील पदार्थांचा उपयोग करून घेण्यासाठी सदैव उत्तम उपाय योजावेत. ॥ ३ ॥

    टिप्पणी

    जरी ‘मर्य्या’ या पदाने एखाद्याचे नाव माहीत होत नाही तरीही हा निश्चय करून जाणलेले आहे की, या मंत्रात इंद्राचे ग्रहण केलेले आहे - ‘हे इंद्रा! तू तेथे प्रकाश करणारा आहेस जेथे पूर्वी प्रकाश नव्हता’, हा मोक्षमूलरजींचा अर्थ अनुचित आहे कारण ‘मर्य्याः’ हा शब्द माणसांच्या नावाने निघंटुमध्ये आहे. व ‘अजायथाः’ हा प्रयोग पुरुषव्यत्ययाने प्रथम पुरुषाच्या स्थानी मध्यम पुरुषाचा प्रयोग केलेला आहे. ॥ ३ ॥

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    इंग्लिश (4)

    Meaning

    Children of the earth, know That who creates light and knowledge for the ignorant in darkness and gives form and beauty to the formless and chaotic, and regenerate yourselves by virtue of the men of knowledge and passion for action.

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    Subject of the mantra

    The one, who has produced all materials of the world, how is He? This fact has been elucidated in this mantra.

    Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-

    He=O! (maryyāḥ)=mortal human beings, (yo)=which,(jagadīśvaraḥ)=God, (aketave)=to destroy the darkness of nescience, (ketum) uttama jñāna se (apeśase)=for the destruction of defects like poverty and necessitude. (peśaḥ)=best wealth like gold etc., (kṛṇvan+san)=creating, (varttate)=are present, (tam =those, (sarvā)=all, (vidyāḥ)=knowledge, (ca)=and, (sam)=like, (uṣadbhiḥ)=by God etc. material sciences, (samāgamam+kṛtvā)=by combining, (yūyam)=all of you, (yathāvat)=exactly, (vijānīta)=knowing, (tathā)=similarly, (jijñāsu)=curious, (manuṣya)=human being,(tvam)=you, (api)=also, (tat)=his, (samāgamena)=by meeting, (ajāyathāḥ)=appear in this way by acquiring knowledge. (etat)=in this way, (vidyā)=knowledge, (prāptyā)=attaning (prasiddha)=famous, (bhava)=be.

    English Translation (K.K.V.)

    O mortal human beings! The God, present for the destruction of the darkness of nescience with the best knowledge for destruction of poverty and necessitude et cetera. By combining them with all those disciplines and God etcetera material like them, knowing you all rightly, in the same way, a curious person, by meeting him in this way, you may manifest yourself by acquiring knowledge. Become famous by acquiring knowledge in this way.

    TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand

    In the fourth quarter of every night, one should always get up hurriedly, making efforts for the extermination of ignorance and poverty, and always taking good measures for the knowledge of the God and for taking favour from worldly objects. Although the name of one is not known from this mantra, it is known with certainty that “Indra” is assumed in this mantra, “O Indra! you are the one who illuminates where there was no light before”. This is the interpretation of Mr. Maxmuller, which is incompatible, because the word “maryyāḥ” is read in the names of human beings in the Nighantu, and the word ‘ajāyathāḥ” has been mentioned after manipulation by a grammatical manipulation. Middle person is used in place of first person.

    TRANSLATOR’S NOTES-

    According to the Maharishi, the translation of Maxmuller is incompatible, because the word “maryyāḥ” is read in the names of human beings in Nighantu, and Ajayatha: This has been used in place of the first person by change in declension (puruṣavyatyaya), the middle person. Maharishi Dayanand Saraswati has always addressed the German scholar Maxmüller by the name Mokshamüller. According to Maharishi, in place of the first person, the middle person has been used by puruṣavyatyaya. Vyattaya is a process of grammar, in which the middle person has been used in place of the first person due to sup-vyatyaya (change of declension) , that is the process of grammar.

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    Translation

    O mortals, you owe your rise to eminence to that resplendent God who with the rays of the dawn awakens life in the lifeless and gives form to the formless.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    Subject-How is he who is the Creator of all these things is taught in the 3rd Mantra.,

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O men ! You must know that God Who gives the Light of knowledge in order to dispel the darkness of ignorance and Who gives wealth in the form of gold and other articles for the removal of poverty. Know that Merciful God and acquire the knowledge of various sciences by keeping company with the learned who desire to get the knowledge of God and all other objects. O man eager to learn, you should also become famous by keeping company with such wise learned persons.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    Men should get up early in the morning (before the dawn) by giving up all idleness, should exert themselves for dispelling ignorance and poverty, should acquire the knowledge of God and get the proper benefit out of all objects. Prof. Maxmuller has misinterpreted the Mantra thinking that the word मर्या: stands here for Indra, though it clearly means mortals as stated in the Vedic Lexicon named Nighantu. “मर्या इति मनुष्यनामसु ( निघ० २.३ ) " Prof. Maxmuller's translation is “Thou who createst light where there was no light and form. O men ! where there was no form, hast been born together with the dawns." (Vedic Hymns Part I. P. 14) It (Maryah) is not used here in the general sense of men. The poet addresses here Indra (M.M.).

    Translator's Notes

    How absurd and ridiculous are the imaginations of Sayanacharya, Maxmuller, Wilson and Roth ? Sayanacharya interprets the Mantra strangely as- हे मर्याः मनुष्याः । इदमाचर्यं पश्यतेत्यध्याहारः । किमाचर्यमिति तदुच्यते आदित्यरूपोऽयमिन्द्रः उषद्भिः दाहकैः रश्मिभिः प्रतिदिनमुषः काले वा संभूय अजायथाः । उदपद्यत अथवा सूर्यस्यैवास्तमये मरणमुपचर्य व्यत्ययेन बहुवचनं कृत्वा सम्बोधनं क्रियते । हे मर्य प्रतिदिनं त्वम् अजायथाः किं कुर्वन् ! अकेतवे रात्रौ निद्राभिभूतत्वेन प्रज्ञानरहिताय प्राणिने केतुं कृण्वन् इत्यादि || i. e. Omen ! see the wonder. This Indra in the form of the sun is born with his rays of burning nature, along with the dawns, or taking the sun as dead after sunset; he is addressed as being born in the morning giving light where there was no light etc. Wilson translates it as- “Mortals ! you owe your (daily) birth to such an Indra who with the rays of the morning gives sense to the senseless and to the formless form." Griffith's translation is still worse - “Thou making light where no light was, and form O men, where form was not, wast born together with the Dawn. In he foot note he (Griffith) says "Thou i.e. the sun. O men is perhaps an exclamation expressive of admiration. If Maryah (Men), be taken to mean the Maruts the words thou making, wast born, although in the singular number, may apply to these Gods regarded as one host or Company and born at one birth." Such are the strange imaginations of some of these translators, while Rishi Dayananda's interpretation is straight forward and there is no far-fetched meaning attached to the words used in the Mantra.

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