ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 6/ मन्त्र 6
ऋषिः - मधुच्छन्दाः वैश्वामित्रः
देवता - मरूतः
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
दे॒व॒यन्तो॒ यथा॑ म॒तिमच्छा॑ वि॒दद्व॑सुं॒ गिरः॑। म॒हाम॑नूषत श्रु॒तम्॥
स्वर सहित पद पाठदे॒व॒ऽयन्तः॑ । यथा॑ । म॒तिम् । अच्छ॑ । वि॒दत्ऽव॑सुम् । गिरः॑ । म॒हाम् । अ॒नू॒ष॒त॒ । श्रु॒तम् ॥
स्वर रहित मन्त्र
देवयन्तो यथा मतिमच्छा विदद्वसुं गिरः। महामनूषत श्रुतम्॥
स्वर रहित पद पाठदेवऽयन्तः। यथा। मतिम्। अच्छ। विदत्ऽवसुम्। गिरः। महाम्। अनूषत। श्रुतम्॥
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 6; मन्त्र » 6
अष्टक » 1; अध्याय » 1; वर्ग » 12; मन्त्र » 1
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अष्टक » 1; अध्याय » 1; वर्ग » 12; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्ते कीदृशा भवन्तीत्युपदिश्यते।
अन्वयः
यथा देवयन्तो गिरो विद्वांसो मनुष्या विदद्वसुं महां महतीं मतिं बुद्धिं श्रुतं वेदशास्त्रार्थयुक्तं श्रवणं कथनं चानूषत प्रशस्तं कुर्वन्ति, तथैव मरुतः स्ववेगादिगुणयुक्ताः सन्तो वाक्श्रोत्रचेष्टामहच्छिल्पकार्य्यं च प्रशस्तं साधयन्ति ॥६॥
पदार्थः
(देवयन्तः) प्रकाशयन्त आत्मनो देवमिच्छन्तो मनुष्याः (यथा) येन प्रकारेण (मतिम्) बुद्धिम् (अच्छ) उत्तमरीत्या। निपातस्य चेति दीर्घः। (विदद्वसुम्) विदद्भिः सुखज्ञापकैर्वसुभिर्युक्ताम् (गिरः) गृणन्ति ये ते गिरो विद्वांसः (महाम्) महतीम् (अनूषत) प्रशस्तां कुर्वन्ति। णू स्तवन इत्यस्य लुङ्प्रयोगः। संज्ञापूर्वको विधिरनित्य इति गुणाभावः, लडर्थे लुङ् च। (श्रुतम्) सर्वशास्त्रश्रवणकथनम् ॥६॥
भावार्थः
अत्रोपमालङ्कारः। मनुष्यैर्मरुतां सकाशाल्लोकोपकारार्थं विद्याबुद्ध्यर्थं च सदा प्रयत्नः कार्य्यो येन सर्वे व्यवहाराः सिद्धेयुरिति। ‘धर्मात्मभिर्गायनैर्मरुद्भिरिन्द्राय जयजयेति श्राविताः’ इति मोक्षमूलरोक्तिरन्यथास्ति। कुतः, देवयन्त इत्यात्मनो देवं विद्वांसमिच्छन्त इत्यर्थान्मनुष्याणामेव ग्रहणम् ॥६॥
हिन्दी (4)
विषय
फिर वे पवन कैसे हैं, सो अगले मन्त्र में प्रकाश किया है-
पदार्थ
जैसे (देवयन्तः) सब विज्ञानयुक्त (गिरः) विद्वान् मनुष्य (विदद्वसुम्) सुखकारक पदार्थविद्या से युक्त (महाम्) अत्यन्त बड़ी (मतिम्) बुद्धि (श्रुतम्) सब शास्त्रों के श्रवण और कथन को (अच्छ) अच्छी प्रकार (अनूषत) प्रकाश करते हैं, वैसे ही अच्छी प्रकार साधन करने से वायु भी शिल्प अर्थात् सब कारीगरी को सिद्ध करते हैं ॥६॥
भावार्थ
इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। मनुष्यों को वायु के उत्तम गुणों का ज्ञान, सब का उपकार और विद्या की वृद्धि के लिये प्रयत्न सदा करना चाहिये, जिससे सब व्यवहार सिद्ध हों। गान करनेवाले धर्मात्मा जो वायु हैं, उन्होंने इन्द्र को ऐसी वाणी सुनाई कि तू जीत जीत। यह भी मोक्षमूलर का अर्थ अच्छा नहीं, क्योंकि देवयन्तः इस शब्द का अर्थ यह है कि मनुष्य लोग अपने अन्तःकरण से विद्वानों के मिलने की इच्छा रखते हैं। इस अर्थ से मनुष्यों का ग्रहण होता है ॥६॥
विषय
फिर वे पवन कैसे हैं, सो इस मन्त्र में प्रकाश किया है।
सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः
यथा देवयन्तः गिरः विद्वांसः मनुष्याःविदद्वसुं महां महतीं मतिं बुद्धिं श्रुतं वेदशास्त्रार्थयुक्तं श्रवणं कथनं च अनूषत प्रशस्तां कुर्वन्ति तथैव मरुतः स्ववेगादिगुणयुक्ताः सन्तो वाक् श्रोत्र चेष्टा महत् शिल्प कार्य्यं च प्रशस्तं साधयन्ति ॥६॥
पदार्थ
पदार्थ- (यथा) येन प्रकारेण=जिस प्रकार से, (देवयन्तः) प्रकाशयन्त आत्मनो देवमिच्छन्तो= आत्मा में देव की इच्छा रखने वाले प्रकाशित, (मनुष्याः)= मनुष्य, (गिरः) गृणन्ति ये ते गिरो विद्वांसः= विद्वान् मनुष्य, (विदद्वसुम्) विदद्भिः सुखज्ञापकैर्वसुभिर्युक्ताम्= विद्वानों के द्वारा सुखकारक पदार्थविद्या से युक्त, (महाम्) महतीम्= अत्यन्त बड़ी, (मतिम्) बुद्धिम्= बुद्धि को, (श्रुतम्) सर्वशास्त्रश्रवणकथनम्=सब शास्त्रों के श्रवण और कथन की (अनूषत) प्रशंसा करते हैं। (तथा) वैसे (एव) ही (मरुतः) पवन (स्ववेगादिगुणयुक्ताः) अपने वेग आदि गुण से युक्त (सन्तः) होती हुई (वाक्) वाणी, (श्रोत्र) श्रोत्र, (चेष्टा) कर्म [और] (महत्) महान्, (शिल्प) शिल्प कला सम्बन्धी (कार्य्यम्) कार्य (च) भी (प्रशस्तम्) प्रशंसनीय रूप से (साधयन्ति) सिद्ध करते हैं॥६॥
महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद
इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। मनुष्यों को वायु के उत्तम गुणों का ज्ञान, सब का उपकार और विद्या की वृद्धि के लिये प्रयत्न सदा करना चाहिये, जिससे सब व्यवहार सिद्ध हों। गान करनेवाले धर्मात्मा जो वायु हैं, उन्होंने इन्द्र को ऐसी वाणी सुनाई कि तू विजय को प्राप्त करता है।
विशेष
महर्षिकृत टिप्पणी- यह मोक्षमूलर का अर्थ भी अच्छा नहीं, क्योंकि देवयन्तः इस शब्द का अर्थ यह है कि मनुष्य लोग अपने अन्तःकरण से विद्वानों के मिलने की इच्छा रखते हैं। इस अर्थ से मनुष्यों का ग्रहण होता है ॥६॥
पदार्थान्वयः(म.द.स.)
(यथा) जिस प्रकार से (देवयन्तः) आत्मा में देव की इच्छा रखने वाले प्रकाशित (गिरः) और विद्वान् मनुष्य (विदद्वसुम्) सुखकारक पदार्थविद्या से युक्त (महाम्) अत्यन्त बड़ी (मतिम्) बुद्धि की (श्रुतम्) सब शास्त्रों के श्रवण और कथन की (अनूषत) प्रशंसा करते हैं। (तथा) वैसे, (एव) ही, (मरुतः) पवन, (स्ववेगादिगुणयुक्ताः) अपने वेग आदि गुण से युक्त (सन्तः) होती हुई (वाक्) वाणी, (श्रोत्र) श्रोत्र, (चेष्टा) कर्म (महत्) [और] महान् (शिल्प) शिल्प कला सम्बन्धी (कार्य्यम्) कार्य (च) भी (प्रशस्तम्) प्रशंसनीय रूप से (साधयन्ति) सिद्ध करते हैं॥६॥
संस्कृत भाग
पदार्थः(महर्षिकृतः)- (देवयन्तः) प्रकाशयन्त आत्मनो देवमिच्छन्तो मनुष्याः (यथा) येन प्रकारेण (मतिम्) बुद्धिम् (अच्छ) उत्तमरीत्या। निपातस्य चेति दीर्घः। (विदद्वसुम्) विदद्भिः सुखज्ञापकैर्वसुभिर्युक्ताम् (गिरः) गृणन्ति ये ते गिरो विद्वांसः (महाम्) महतीम् (अनूषत) प्रशस्तां कुर्वन्ति। णू स्तवन इत्यस्य लुङ्प्रयोगः। संज्ञापूर्वको विधिरनित्य इति गुणाभावः, लडर्थे लुङ् च। (श्रुतम्) सर्वशास्त्रश्रवणकथनम् ॥६॥
विषयः- पुनस्ते कीदृशा भवन्तीत्युपदिश्यते।
अन्वयः- यथा देवयन्तो गिरो विद्वांसो मनुष्या विदद्वसुं महां महतीं मतिं बुद्धिं श्रुतं वेदशास्त्रार्थयुक्तं श्रवणं कथनं चानूषत प्रशस्तं कुर्वन्ति, तथैव मरुतः स्ववेगादिगुणयुक्ताः सन्तो वाक्श्रोत्रचेष्टामहच्छिल्पकार्य्यम् च प्रशस्तम् साधयन्ति ॥६॥
भावार्थः(महर्षिकृतः)- अत्रोपमालङ्कारः। मनुष्यैर्मरुतां सकाशाल्लोकोपकारार्थं विद्याबुद्ध्यर्थं च सदा प्रयत्नः कार्य्यो येन सर्वे व्यवहाराः सिद्धेयुरिति। 'धर्मात्मभिर्गायनैर्मरुद्भिरिन्द्राय जयजयेति श्राविताः' इति मोक्षमूलरोक्तिरन्यथास्ति। कुतः, देवयन्त इत्यात्मनो देवं विद्वांसमिच्छन्त इत्यर्थान्मनुष्याणामेव ग्रहणम् ॥६॥
विषय
प्रभु - स्तवन
पदार्थ
१. गतमन्त्र के अनुसार प्रकाश को देखनेवाले व्यक्ति (देवयन्तः) [देवमात्मन इच्छन्तः] - उस प्रभु को प्राप्त करने की कामनावाले (गिरः) [स्तोतारः] - स्तोता लोग (यथामतिम्) - यथार्थ ज्ञानवाले (विदद्वसुम्) - सब वसुओं , निवास के लिए आवश्यक वसुओं के प्राप्त करानेवाले (महाम्) - सर्वमहान् (श्रुतम्) - सर्वज्ञत्वादि गुणों से प्रसिद्ध प्रभु को (अच्छ) - लक्ष्य करके (अनूषत) - स्तवन करते हैं ।
२. प्रभु के स्तवन से प्रभु के उस - उस गुण में रुचिवाले होकर हम भी उन गुणों को धारण करनेवाले बनते हैं और इस प्रकार दिव्यगुणों को अपनाते हुए हम उस देव के अधिकाधिक समीप होते जाते हैं ।
३. हम इस जीवन में यह अनुभव कर पाते हैं कि हम पुरुषार्थ में कमी न आने दें तो प्रभु हमें निवास के लिए सब आवश्यक वस्तुओं को प्राप्त कराते ही हैं ।
४. जितना - जितना उस प्रभु का व प्रभु से बनाई गई इस सृष्टि का हम चिन्तन करते हैं , हमें प्रभु उतने ही अधिक महान् प्रतीत होते हैं । हमें इस सृष्टि में उनकी सर्वज्ञता व सर्वशक्तिमत्ता का आभास मिलने लगता है । इसप्रकार हम प्रभु के अधिक समीप हो जाते हैं , हमें कण - कण में उनकी सत्ता दिखने लगती है और हम हृदयस्थ उस प्रभु से प्रकाश प्राप्त करते हैं ।
भावार्थ
भावार्थ - प्रभु का स्तवन हमें प्रभु के समीप प्राप्त कराता है ।
विषय
missing
भावार्थ
विद्वान् पुरुष (यथा) जिस प्रकार से (देवयन्तः) देव, परमेश्वर की उपासना करना चाहते हैं उसी प्रकार ( गिरः) स्तोता विद्वान् पुरुष (विदद्-वसुम्) ऐश्वर्य को प्राप्त कराने वाले, (मतिम्) मननशील, (महाम्) बड़े भारी ( श्रुतम् ) विद्वान, बहुश्रुत, एवं प्रसिद्ध परमेश्वर की ( अनूषत ) स्तुति करते हैं ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
१ — १० मधुच्छन्दा ऋषिः ॥ १—३ इन्द्रो देवता । ४, ६, ८, ९ मरुतः । ५, ७ मरुत इन्द्रश्च । १० इन्द्रः ॥ गायत्र्यः । दशर्चं सूक्तम् ।
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात उपमालंकार आहे. माणसाला वायूच्या उत्तम गुणांचे ज्ञान, सर्वांवर उपकार व विद्येच्या वृद्धीसाठी सदैव प्रयत्न केले पाहिजेत, ज्यामुळे सर्व व्यवहार सिद्ध व्हावेत. ॥ ६ ॥
टिप्पणी
‘‘गान करणारे धर्मात्मा जे वायू आहेत त्यांनी इंद्राला अशी वाणी ऐकविली की तू जिंक जिंक’’ हा मोक्षमूलर साहेबांचा अर्थ योग्य नाही. कारण ‘देवयन्तः’ या शब्दाचा अर्थ हा आहे की, माणसे आपल्या अंतःकरणाने विद्वानांना भेटण्याची इच्छा बाळगतात. याप्रमाणे माणसांच्या अर्थाचे ग्रहण केलेले आहे. ॥ ६ ॥
इंग्लिश (4)
Meaning
Just as noble scholars develop and brighten up their generous mind and intelligence after the principles of Vedic revelation, so do the Maruts, currents of energy, intensify, magnify and adorn the sound that is produced and heard.
Subject of the mantra
Then again, how the air is, has been elucidated in this mantra.
Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-
(yathā)=as, (devayantaḥ)=desiring the soul of deities enlightened men, (giraḥ)=learned men, (mahām)=extremely large, [aura]=and, (vidadvasum) = gratifying having material science, (matim)=wisdom, (śrutam)=listening of all branches of knowledge, (anūṣata)=praise, (tathā)=in the same way, (eva)=only, (marutaḥ)=air, [aura]=and, (svavegādiguṇayuktāḥ)=having its velocity etc. qualities, (santaḥ)= going through, (vāk)=speech, (śrotra)= listening, (ceṣṭā)=deeds, (mahat)=great, [aura]=and, (śilpa)=work relating to Architect, (kāryyam)=deeds, (ca)=also, (praśastam) =in praiseworthy way, (sādhayanti)=accomplish.
English Translation (K.K.V.)
Just as the enlightened and learned men, who have the desire of God in the soul, praise the listening and utterance of all the scriptures, having a very great intellect with the special knowledge of pleasurable material science. In the same way, the wind, being with its velocity etc., accomplishes praiseworthy works related to speech, listening, deeds and great craftsmanship.
TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand
There is simile as a figurative in this mantra. Human beings should always make efforts for the knowledge of the best qualities of air, for the benefit of all and for the growth of knowledge, so that all practice is accomplished. The singing virtuous souls, who are air, they narrated such a voice to Indra that He must attain victory.
TRANSLATOR’S NOTES-
The translation of Maxmular is also not good, because the meaning of the word is ‘Devayant:” that human beings desire to see scholars from their conscience. Human beings are taken in this sense.
Translation
Illustrious seekers of divine wisdom, conscious of the greatness of supreme Self, glorify the all-wise and self-resplendent God, in the same manner as the reciters of hymns do for enlightenment.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
As learned persons who desire to become enlightened truthful people, make their great intellect full of the knowledge of all objects which bring about happiness and the ears which listen to the teachings of the Vedas that are noble and sublime, in the same manner, the maruts possessing great speed and other qualities, accomplish well the proper use of all powers of the sciences and arts enabling them in every way.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Men should try to take all benefit out of the Maruts (airs etc.) for doing good to all and for the acquisition of knowledge and intelligence. Prof. Maxmuller's translation is...." The pious singers (the Maruts ) have after their own mind, showed towards the giver of wealth, the great, the glorious (Indra). V. H. P. 14, M. M. is incorrect, as देवयन्तः stands for men and it means आत्मनो देवं विद्वांसम् इच्छन्त: desiring to make themselves learned. It does not stand for मरुतः or Storm Gods as translated by Prof. Maxmuller and Griffith who take the word to mean “Tempest or Storm Gods." Griffith following Prof. Maxmuller translates as follows- "Worshipping even as they list, singers laud him who findeth wealth. The far-renowned, the mighty one." Rishi Dayananda's criticism of Prof. Maxmuller's Translation is also applicable in this case.
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