ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 6/ मन्त्र 4
ऋषिः - मधुच्छन्दाः वैश्वामित्रः
देवता - मरूतः
छन्दः - निचृद्गायत्री
स्वरः - षड्जः
आदह॑ स्व॒धामनु॒ पुन॑र्गर्भ॒त्वमे॑रि॒रे। दधा॑ना॒ नाम॑ य॒ज्ञिय॑म्॥
स्वर सहित पद पाठआत् । अह॑ । स्व॒धाम् । अनु॑ । पुनः॑ । ग॒र्भ॒ऽत्वम् आ॒ऽई॒रि॒रे । दधा॑नाः । नाम॑ । य॒ज्ञिय॑म् ॥
स्वर रहित मन्त्र
आदह स्वधामनु पुनर्गर्भत्वमेरिरे। दधाना नाम यज्ञियम्॥
स्वर रहित पद पाठआत्। अह। स्वधाम्। अनु। पुनः। गर्भऽत्वम् आऽईरिरे। दधानाः। नाम। यज्ञियम्॥
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 6; मन्त्र » 4
अष्टक » 1; अध्याय » 1; वर्ग » 11; मन्त्र » 4
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अष्टक » 1; अध्याय » 1; वर्ग » 11; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
अथ मरुतां कर्मोपदिश्यते।
अन्वयः
यथा मरुतो यज्ञियं नाम दधानाः सन्तो यदा स्वधामन्वप्सु पुनर्गर्भत्वमेरिरे, तथा आत् अनन्तरं वृष्टिं कृत्वा पुनर्जलानामहेति विनिग्रहं कुर्वन्ति॥४॥
पदार्थः
(आत्) आनन्तर्य्यार्थे (अह) विनिग्रहार्थे। अह इति विनिग्रहार्थीयः। (निरु०१.५) (स्वधाम्) उदकम्। स्वधेत्युदकनामसु पठितम्। (निघं०१.१२) (अनु) वीप्सायाम् (पुनः) पश्चात् (गर्भत्वम्) गर्भस्याधिकरणा वाक् तस्या भावस्तत् (एरिरे) समन्तात् प्राप्नुवन्तः। ईर गतौ कम्पने चेत्यस्यामन्त्र इति प्रतिषेधादामोऽभावे प्रयोगः। (दधानाः) सर्वधारकाः (नाम) उदकम्। नामेत्युदकनामसु पठितम्। (निघं०१.१२) (यज्ञियम्) यज्ञकर्मार्हतीति यज्ञियो देशस्तम्। तत्कर्मार्हतीत्युपसंख्यानम्। (अष्टा०५.१.७१) इति वार्तिकेन घः प्रत्ययः॥४॥
भावार्थः
यज्जलं सूर्य्याग्निभ्यां लघुत्वं प्राप्य कणीभूतं जायते, तद्धारणं घनाकारं कृत्वा मरुत एव वर्षयन्ति, तेन सर्वपालनं सुखं च जायते। ‘तदनन्तरं मरुतः स्वस्वभावानुकूल्येन बालकाकृतयो जाताः। यैः स्वकीयं शुद्धं नाम रक्षितम्।’ इति मोक्षमूलरोक्तिः प्रणाय्यास्ति। कस्मात्, न खल्वत्र बालकाकृतिशुद्धनामरक्षणयोरविद्यमानत्वेनेन्द्रसंज्ञिकानां मरुतां सकाशादन्यार्थस्य ग्रहणं सम्भवत्यतः॥४॥
हिन्दी (4)
विषय
अगले मन्त्र में वायु के कर्मों का उपदेश किया है-
पदार्थ
जैसे मरुतः वायु (नाम) जल और (यज्ञियम्) यज्ञ के योग्य देश को (दधानाः) सब पदार्थों को धारण किये हुए (पुनः) फिर-फिर (स्वधामनु) जलों में (गर्भत्वम्) उनके समूहरूपी गर्भ को (एरिरे) सब प्रकार से प्राप्त होते कम्पाते, वैसे (आत्) उसके उपरान्त वर्षा करते हैं, ऐसे ही वार-वार जलों को चढ़ाते वर्षाते हैं॥४॥
भावार्थ
जो जल सूर्य्य वा अग्नि के संयोग से छोटा-छोटा हो जाता है, उसको धारण कर और मेघ के आकार को बना के वायु ही उसे फिर-फिर वर्षाता है, उसी से सब का पालन और सब को सुख होता है।इसके पीछे वायु अपने स्वभाव के अनुकूल बालक के स्वरूप में बन गये और अपना नाम पवित्र रख लिया। देखिये मोक्षमूलर साहब का किया अर्थ मन्त्रार्थ से विरुद्ध है, क्योंकि इस मन्त्र में बालक बनना और अपना पवन नाम रखना, यह बात ही नहीं है। यहाँ इन्द्र नामवाले वायु का ही ग्रहण है, अन्य किसी का नहीं॥४॥
विषय
इस मन्त्र में वायु के कर्मों का उपदेश किया है।
सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः
यथा मरुतः यज्ञियं नाम दधानाः सन्तः यदा स्वधाम् अनु अप्सु पुनः गर्भत्वम् एरिरे तथा आत् अनन्तरं वृष्टिं कृत्वा पुनः जलनाम् अह इति विनिग्रहं कुर्वन्ति॥४॥
पदार्थ
(यथा)=जैसे, (मरुतः)= वायु, (यज्ञियम्) यज्ञकर्मार्हतीति यज्ञियो देशस्तम् = यज्ञकर्मों के करने योग्य उस यज्ञीय देश में, (नाम) उदकम्=जल, (दधानाः) सर्वधारकाः=सब पदार्थों को धारण किये हुए, (सन्तः) सत्पुरुषाः= सज्जन लोग, (यदा)= जब, [स्वधाम् (अनु)-वीप्सायाम्=शब्द द्विरुक्ति]=अपने-अपने धाम में और (अप्सु)=जल में, (पुनः) पश्चात्=इसके बाद में, (गर्भत्वम्) गर्भस्याधिकरणा वाक् तस्या भावस्तत्=उस परमेश्वर के अधिकरण=अभिन्न अस्तित्व के गर्भ की वाणी का भाव, (एरिरे) समन्तात् प्राप्नुवन्तः=हर ओर से प्राप्त होते हुए, (तथा)=वैसे ही, (आत्) आनन्तर्य्यार्थे=बाद में होने वाली क्रिया के लिये, (वृष्टिम्)=वर्षा को, (कृत्वा)=करके, (पुनः)=फिर, (जलानाम्)=जलों को, (अह) विनिग्रहार्थे=नियंत्रण करने के लिये, (इति)=इस प्रकार, (विनिग्रहम्)=नियंत्रित (कुर्वन्ति)=करते हैं।
महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद
जो जल सूर्य या अग्नि के संयोग से छोटा-छोटा हो जाता है, उसको धारण कर और मेघ के आकार को बना के वायु ही उसे फिर-फिर बरसाता है, उसी से सब का पालन और सब को सुख होता है। इसके पीछे वायु अपने स्वभाव के अनुकूल बालक के स्वरूप में बन गये और अपना नाम पवित्र रख लिया। जो अपना शुद्ध नाम रख लिया है, इससे मैक्षमूलर असहमत होता है।
पदार्थान्वयः(म.द.स.)
(यथा) जैसे (मरुतः) वायु (यज्ञियम्) यज्ञकर्मों के करने योग्य उस यज्ञीय देश को (नाम) जल (दधानाः) सब पदार्थों को धारण किये हुए है। (सन्तः) सज्जन लोग (यदा) जब अपने-अपने धाम में और (अप्सु) जल में (पुनः) [और] इसके बाद में (गर्भत्वम्) उस परमेश्वर के अभिन्न अस्तित्व के गर्भ की वाणी का भाव (एरिरे) हर ओर से प्राप्त होते हुए, (तथा) वैसे ही (आत्) बाद में होने वाली क्रिया के लिये (वृष्टिम्) वर्षा (कृत्वा) करके (पुनः) फिर (जलानाम्) जलों को (इति) इस प्रकार (विनिग्रहम्) नियंत्रित (कुर्वन्ति) करते हैं।
संस्कृत भाग
पदार्थः(महर्षिकृतः)- (आत्) आनन्तर्य्यार्थे (अह) विनिग्रहार्थे। अह इति विनिग्रहार्थीयः। (निरु०१.५) (स्वधाम्) उदकम्। स्वधेत्युदकनामसु पठितम्। (निघं०१.१२) (अनु) वीप्सायाम् (पुनः) पश्चात् (गर्भत्वम्) गर्भस्याधिकरणा वाक् तस्या भावस्तत् (एरिरे) समन्तात् प्राप्नुवन्तः। ईर गतौ कम्पने चेत्यस्यामन्त्र इति प्रतिषेधादामोऽभावे प्रयोगः। (दधानाः) सर्वधारकाः (नाम) उदकम्। नामेत्युदकनामसु पठितम्। (निघं०१.१२) (यज्ञियम्) यज्ञकर्मार्हतीति यज्ञियो देशस्तम्। तत्कर्मार्हतीत्युपसंख्यानम्। (अष्टा०५.१.७१) इति वार्तिकेन घः प्रत्ययः॥४॥
विषयः- अथ मरुतां कर्मोपदिश्यते।
अन्वयः- यथा मरुतो यज्ञियं नाम दधानाः सन्तो यदा स्वधामन्वप्सु पुनर्गर्भत्वमेरिरे, तथा आत् अनन्तरं वृष्टिं कृत्वा पुनर्जलानामहेति विनिग्रहं कुर्वन्ति॥४॥
भावार्थः(महर्षिकृतः)- यज्जलं सूर्य्याग्निभ्यां लघुत्वं प्राप्य कणीभूतं जायते, तद्धारणं घनाकारं कृत्वा मरुत एव वर्षयन्ति, तेन सर्वपालनं सुखं च जायते। 'तदनन्तरं मरुतः स्वस्वभावानुकूल्येन बालकाकृतयो जाताः। यैः स्वकीयं शुद्धं नाम रक्षितम्।' इति मोक्षमूलरोक्तिः प्रणाय्यास्ति। कस्मात्, न खल्वत्र बालकाकृतिशुद्धनामरक्षणयोरविद्यमानत्वेनेन्द्रसंज्ञिकानां मरुतां सकाशादन्यार्थस्य ग्रहणं सम्भवत्यतः॥४॥
विषय
प्रभु - नामस्मरण
पदार्थ
सा०] उषः काल में उठे और उठते ही (स्वधाम् अनु) [स्व+धा] आत्मतत्त्व को भारण करने का लक्ष्य करके (पुनः) - फिर (गर्भत्वम्) - उस प्रभु के गर्भ में होने की भावना को (एरिरे) - अपने में प्रेरित करते हैं , [अर्थात् इस प्रकार चिन्तन करने लगते हैं कि 'अमृतोपस्तरणमसि , अमृतापिधानमसि]' - हे अमृत परमात्मन् ! आप ही हमारे उपस्तरण हो और आप ही हमारे अपिधान हो , आप ही हमारे सब ओर हो , हम आपकी अमृत - गोद में छिपे हुए हैं , उसी प्रकार जैसे कि माता की गोद में शिशु । आपसे रक्षित हमें भय ही किस बात का? इस स्थिति में न तो हमें रोग सता सकते हैं और न ही काम - क्रोध आदि आक्रान्त कर सकते हैं ।
२. हम तो (यज्ञियम् नाम) - आपके पवित्र नाम को (दधानाः) - धारण किये हुए हैं । सदा आपके नाम का जप करते हैं और यह नाम का जप व उसका चिन्तन हमें शान्त , सशक्त व पवित्र बनाये रखता है ।
भावार्थ
भावार्थ - हम उठते ही आत्मतत्व को धारण करने के लिए इस भावना को अपने में प्रेरित करें कि हम प्रभु की अमृतमयी गोद में हैं और उस प्रभु के पवित्र नाम का जप व अर्थचिन्तन करने में अपने अवकाश को बिताने का ध्यान करें ।
विषय
जीव आत्मा का वर्णन ।
भावार्थ
( आत् अह ) सूर्य ताप के अनन्तर ही ( स्वधाम् अनु ) जल को प्राप्त करके, अथवा अपनी धारण शक्ति के अनुसार वायुएं ( पुनः ) बार २ ( गर्भत्वम् ) जल को ग्रहण करनेवाले स्वरूप को ( एरिरे ) प्राप्त करते हैं और उसी समय ( यज्ञियम् ) परस्पर मिलने या संयोग से उत्पन्न होने वाले (नाम) जल को भी धारण करते हैं । सूर्योत्ताप के बाद वायुगण अपने भीतर जल को धारण करने के सामर्थ्य के अनुसार, परस्पर संयोग से उत्पन्न जल को धारण कर लेते हैं वही दशा ‘गर्भ’ रूप कहाती है । वृष्टि आदि के पूर्व वायु जलों से गर्भित हो जाते हैं । अध्यात्म में—( यज्ञियं नाम दधानाः ) परस्पर स्त्री पुरुष के रजोवीर्यांश के संयोग से उत्पन्न स्वरूप को धारण करते हुए प्राण गण ( स्वधाम् अनु ) स्वधा अर्थात् जीव के साथ ही उसके लिङ्ग शरीर सहित प्रविष्ट हो कर माता की कुक्षि में गर्भ रूप को प्राप्त होते हैं ।
टिप्पणी
‘स्वधा’ –अन्ननामसु उदकनामसु च स्वधाशब्दः पट्यते । स्वं दधाति इति वा ।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
१ — १० मधुच्छन्दा ऋषिः ॥ १—३ इन्द्रो देवता । ४, ६, ८, ९ मरुतः । ५, ७ मरुत इन्द्रश्च । १० इन्द्रः ॥ गायत्र्यः । दशर्चं सूक्तम् ।
मराठी (1)
भावार्थ
जे जल सूर्याग्नीच्या संयोगाने सूक्ष्म सूक्ष्म होत जाते. त्यांना धारण करून मेघाच्या आकाराचे बनवितो व त्यानंतर पुन्हा त्यांची वृष्टी वायूच करवितो त्यामुळेच सर्वांचे पालन होते व सुख लाभते.
टिप्पणी
‘त्यानंतर वायू आपल्या स्वभावाच्या अनुकूल बालकाच्या स्वरूपात आले व आपले नाव पवित्र ठेवले. ’ मोक्षमूलर साहेबांचा हा अर्थ मंत्रार्थाच्या विरुद्ध आहे. कारण या मंत्रात बालक बनणे व आपले नाव पवन ठेवणे ही गोष्टच नाही. येथे इंद्र नाव वायूचेच स्वीकारलेले आहे, इतर कोणते नाही. ॥ ४ ॥
इंग्लिश (4)
Meaning
Bearing the sacred vapours of yajna as is their wont and nature, the winds rise to the sky, hold the clouds in their womb, and after the rain carry on the cycle with the sun-rays and yajna-fire.
Subject of the mantra
The actions of the air have been preached in this mantra.
Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-
(yathā)= Just as, (marutaḥ)=air, (yajñiyam)=to the country capable of performing the sacrificial works, (aura)=and, (nāma)=water, (dadhanāḥ)=holding all materials, (santaḥ)=gentleman, (yadā)=when in their respective abodes and, (anvapsu)=in different waters, (punaḥ)=afterwards, (garbhatvam)= the voice of the location of her womb, which by its sentiments, (erire)=being obtained from all directions, (tathā)=in the same way (āt-anantaram)=for the action to be done afterwards, (vṛṣṭim)=to rain, (kṛtvā)=being done, (punaḥ)=afterwards, (jalānām)=to waters, (aha-vinigraham) =to control, (iti)=in this way, (kurvanti)=do.
English Translation (K.K.V.)
Just like air and water in that sacrificial place are capable of performing Yajan karma and are holding all the things. Gentlemen, when in their respective abode and in the water, then after receiving the sense of the voice of the interior of that God's integral existence from all sides, in the same way, by raining for the later action, then control the waters in this way.
TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand
The water which becomes small due to the combination of the Sun or fire, holding it and making it in the shape of a cloud, it is the wind that makes it rain again and again, that is what sustains all and brings happiness to all. Behind this, air according to its nature, became in the form of a child and they named themselves as pavitra (holy). Machmüller disagrees with that who has kept that as proper name.
Translation
Thereafter the compound faculties, inspired by the inner self for work and worship, resume to conceive their task as the mother conceives life in the embryo.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The function of the Maruts is mentioned in the fourth Mantra.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
After the heat of the sun, the winds bear the water-carrying form. Before the rain, the winds (monsoons) are full of watery vapours.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
स्वधा इति उदकनामसु पठितम् ( निघ० १.१२ ) = water. नाम इति उदकनामसु पठितम् ( निघ० १.१२ ) =water. यज्ञियम् – यज्ञ कर्म अर्हतीति यज्ञियो देशः तम् तत्कर्माहतीत्युपसंख्यानम् अष्टाध्याय्याम् ५.१.७१ इति वार्तिकेन घ प्रत्ययः ।।
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
The water that becomes like the drops being lightened by the heat of the sun and the fire, it is the monsoons that cause it to rain as clouds and thus sustain all. Prof. Maxmuller's translation as “The Maruts according to their want assumed again the form of new born babes". (V. H. Page 141). is not correct and is not in accordance with the letter and the spirit of the Mantra.
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