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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 6 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 6/ मन्त्र 2
    ऋषिः - मधुच्छन्दाः वैश्वामित्रः देवता - इन्द्र: छन्दः - विराड्गायत्री स्वरः - षड्जः

    यु॒ञ्जन्त्य॑स्य॒ काम्या॒ हरी॒ विप॑क्षसा॒ रथे॑। शोणा॑ धृ॒ष्णू नृ॒वाह॑सा॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यु॒ञ्जन्ति॑ । अ॒स्य॒ । काम्या॑ । हरी॒ इति॑ । विप॑क्षसा । रथे॑ । शोणा॑ । धृ॒ष्णू इति॑ । नृ॒ऽवाह॑सा ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    युञ्जन्त्यस्य काम्या हरी विपक्षसा रथे। शोणा धृष्णू नृवाहसा॥

    स्वर रहित पद पाठ

    युञ्जन्ति। अस्य। काम्या। हरी इति। विपक्षसा। रथे। शोणा। धृष्णू इति। नृऽवाहसा॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 6; मन्त्र » 2
    अष्टक » 1; अध्याय » 1; वर्ग » 11; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    उक्तार्थस्य कीदृशौ गुणौ क्व योक्तव्यावित्युपदिश्यते।

    अन्वयः

    हे विद्वांसोऽस्य काम्यौ शोणौ धृष्णू विपक्षसौ नृवाहसौ हरी रथे युञ्जन्ति युञ्जन्तु॥२॥

    पदार्थः

    (युञ्जन्ति) युञ्जन्तु। अत्र लोडर्थे लट्। (अस्य) सूर्य्यस्याग्नेः (काम्या) कामयितव्यौ। अत्र सर्वत्र सुपां सुलुगित्याकारादेशः। (हरी) हरणशीलावाकर्षणवेगगुणौ पूर्वपक्षापरपक्षौ वा। इन्द्रस्य हरी ताभ्यामिदꣳ सर्वं हरतीति। (षड्विंशब्रा०प्रपा०१.ख०१) (विपक्षसा) विविधानि यन्त्रकलाजलचक्रभ्रमणयुक्तानि पक्षांसि पार्श्वे स्थितानि ययोस्तौ (रथे) रमणसाधने भूजलाकाशगमनार्थे याने। यज्ञसंयोगाद्राजा स्तुतिं लभेत, राजसंयोगाद्युद्धोपकरणानि। तेषां रथः प्रथमगामी भवति। रथो रंहतेर्गतिकर्मणः स्थिरतेर्वा स्याद्विपरीतस्य रममाणोऽस्मिँस्तिष्ठतीति वा रपतेर्वा रसतेर्वा। (निरु०९.११) रथ इति पदनामसु पठितम्। (निघं०५.३) आभ्यां प्रमाणाभ्यां रथशब्देन विशिष्टानि यानानि गृह्यन्ते। (शोणा) वर्णप्रकाशकौ गमनहेतू च (धृष्णू) दृढौ (नृवाहसौ) सम्यग्योजितौ नॄन् वहतस्तौ॥२॥

    भावार्थः

    ईश्वर उपदिशति-न यावन्मनुष्या भूजलाग्न्यादिपदार्थानां गुणज्ञानोपकारग्रहणाभ्यां भूजलाकाशगमनाय यानानि सम्पादयन्ति नैव तावत्तेषां दृढे राज्यश्रियौ सुसुखे भवतः। शारमण्यदेशनिवासिनाऽस्य मन्त्रस्य विपरीतं व्याख्यानं कृतमस्ति। तद्यथा-‘अस्येति सर्वनाम्नो निर्देशात् स्पष्टं गम्यत इन्द्रस्य ग्रहणम्। कुतः, रक्तगुणविशिष्टावश्वावस्यैव सम्बन्धिनौ भवतोऽतः। नात्र खलु सूर्य्योषसोर्ग्रहणम्। कुतः, प्रथममन्त्र एकस्याश्वस्याभिधानात्।’ इति मोक्षमूलरकृतोऽर्थः सम्यङ् नास्तीति। कुतः, अस्येति पदेन भौतिकपदार्थयोः सूर्य्याग्न्योर्ग्रहणं, न कस्यचिद्देहधारिणः। हरी इति सूर्य्यस्य धारणाकर्षणगुणयोर्ग्रहणम्। शोणेति पदेनाग्ने रक्तज्वालागुणयोर्ग्रहणम्। पूर्वमन्त्रे ब्रध्नाभिधान एकवचनं जात्यभिप्रायेण चास्त्यतः। इदं शब्दप्रयोगः खलु प्रत्यक्षार्थवाचित्वात् संनिहितार्थस्य सूर्य्यादेरेव ग्रहणाच्च तत्कल्पितोऽर्थोऽन्यथैवास्तीति॥२॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    उक्त सूर्य्य और अग्नि आदि के कैसे गुण हैं, और वे कहाँ-कहाँ उपयुक्त करने योग्य हैं, सो अगले मन्त्र में उपदेश किया है-

    पदार्थ

    हे विद्वान् लोगो ! (अस्य) सूर्य्य और अग्नि के (काम्या) सब के इच्छा करने योग्य (शोणा) अपने-अपने वर्ण के प्रकाश करनेहारे वा गमन के हेतु (धृष्णू) दृढ (विपक्षसा) विविध कला और जल के चक्र घूमनेवाले पांखरूप यन्त्रों से युक्त (नृवाहसा) अच्छी प्रकार सवारियों में जुड़े हुए मनुष्यादिकों को देशदेशान्तर में पहुँचानेवाले (हरी) आकर्षण और वेग तथा शुक्लपक्ष और कृष्णपक्षरूप दो घोड़े जिनसे सब का हरण किया जाता है, इत्यादि श्रेष्ठ गुणों को पृथिवी जल और आकाश में जाने आने के लिये अपने-अपने रथों में (युञ्जन्ति) जोड़ें॥२॥

    भावार्थ

    ईश्वर उपदेश करता है कि-मनुष्य लोग जब तक भू जल आदि पदार्थों के गुण ज्ञान और उनके उपकार से भू जल और आकाश में जाने आने के लिये अच्छी सवारियों को नहीं बनाते, तब तक उनको उत्तम राज्य और धन आदि उत्तम सुख नहीं मिल सकते। जरमन देश के रहनेवाले मोक्षमूलर साहब ने इस मन्त्र का विपरीत व्याख्यान किया है। सो यह है कि-अस्य सर्वनामवाची इस शब्द के निर्देश से स्पष्ट मालूम होता है कि इस मन्त्र में इन्द्र देवता का ग्रहण है, क्योंकि लाल रंग के घोड़े इन्द्र ही के हैं। और यहाँ सूर्य्य तथा उषा का ग्रहण नहीं, क्योंकि प्रथम मन्त्र में एक घोड़े का ही ग्रहण किया है। यह उनका अर्थ ठीक नहीं, क्योंकि अस्य इस पद से भौतिक जो सूर्य्य और अग्नि हैं, इन्हीं दोनों का ग्रहण है, किसी देहधारी का नहीं। हरी इस पद से सूर्य्य के धारण और आकर्षण गुणों का ग्रहण तथा शोणा इस शब्द से अग्नि की लाल लपटों के ग्रहण होने से और पूर्व मन्त्र में एक अश्व का ग्रहण जाति के अभिप्राय से अर्थात् एकवचन से ब्रध्न जाति का ग्रहण होता है। और अस्य यह शब्द प्रत्यक्ष अर्थ का वाची होने से सूर्य्यादि प्रत्यक्ष पदार्थों का ग्राहक होता है, इत्यादि हेतुओं से मोक्षमूलर साहब का अर्थ सच्चा नहीं॥२॥

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    विषय

    उक्त सूर्य्य और अग्नि आदि के कैसे गुण हैं, और वे कहाँ-कहाँ उपयुक्त करने योग्य हैं, सो इस मन्त्र में उपदेश किया है।

    सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः

    हे विद्वांसः अस्य काम्यौ शोणौ धृष्णू विपक्षसौ नृवाहसौ हरी रथे युञ्जन्ति युञ्जन्तु॥२॥

    पदार्थ

    हे (विद्वांसः)= विद्वान् लोगों, (अस्य) सूर्य्यस्याग्नेः = सूर्य और अग्नि के, (काम्या)  कामयितव्यौ= इच्छा करने योग्य, (शोणा)  वर्णप्रकाशकौ गमनहेतू च = अपने-अपने वर्ण के प्रकाशकरने हारे या गमन के कारण, (धृष्णू) दृढौ= दृढ़, विपक्षसा - विविधनि यन्त्राकलाजलचक्र भ्रमणयुक्तानि पक्षांसि पश्र्वे स्थितानि ययोस्ततौ = विविध् कला और जल के चक्र घूमनेवाले पंखरूप यन्त्रों से युक्त, (नृवाहसौ) सम्यग्योजितौ नृन् वहतस्तौ= अच्छी प्रकार सवारियों से जुड़े हुए मनुष्यादि  को देश देशान्तर में पहुँचाने वाले, (हरी) हरणशीलावाकर्षणवेगगुणौ पूर्वपक्षापरपक्षौ वा = आकर्षण ओर वेग तथा शुक्ल पक्ष और कृष्णपक्षरूप दो घोड़े जिन से सब का हरण किया जाता है, (रथे) रमण साध्ने = रमण के साध्न में (युञ्जन्ति-युञ्जन्तु)= जोड़ें हैं।
     

    महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद

    ईश्वर उपदेश करता है-मनुष्य लोग जब तक भू जल आदि पदार्थों के गुण ज्ञान और उनके उपकार से भू जल और आकाश में जाने आने के लिये अच्छी सवारियों को नहीं बनाते, तब तक उनको उत्तम राज्य और धन आदि उत्तम सुख नहीं मिल सकते। जरमन देश के रहनेवाले मोक्षमूलर साहब ने इस मन्त्र का विपरीत व्याख्यान किया है। सो यह है कि-'अस्य', इस सर्वनामवाची शब्द के निर्देश से स्पष्ट मालूम होता है कि इस मन्त्र में इन्द्र देवता का ग्रहण है, क्योंकि लाल रंग के घोड़े इन्द्र ही के हैं। और यहाँ सूर्य्य तथा उषा का ग्रहण नहीं, क्योंकि प्रथम मन्त्र में एक घोड़े का ही ग्रहण किया है।  यह उनका अर्थ ठीक नहीं, क्योंकि अस्य इस पद से भौतिक जो सूर्य्य और अग्नि हैं, इन्हीं दोनों का ग्रहण है, किसी देहधारी का नहीं। हरी इस पद से सूर्य्य के धारण और आकर्षण गुणों का ग्रहण तथा शोणा इस शब्द से अग्नि की लाल लपटों के ग्रहण होने से और पूर्व मन्त्र में एक अश्व का ग्रहण जाति के अभिप्राय से अर्थात् एकवचन से ब्रध्न जाति का ग्रहण होता है। और अस्य यह शब्द प्रत्यक्ष अर्थ का वाची होने से सूर्य्यादि प्रत्यक्ष पदार्थों का ग्राहक होता है, इत्यादि हेतुओं से मोक्षमूलर साहब का अर्थ सच्चा नहीं॥२॥

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)

    हे (विद्वांसः) विद्वान् लोगों! (अस्य) सूर्य और अग्नि के (काम्या)  इच्छा करने योग्य (शोणा)  अपने-अपने वर्ण के प्रकाश करने हारे या गमन के कारण (धृष्णू) दृढ़  (विपक्षसौ)  विविध कला और जल के चक्र घूमनेवाले पंखरूप यन्त्रों से युक्त, (नृवाहसौ) अच्छी प्रकार सवारियों से जुड़े हुए मनुष्यादि  को देश देशान्तर में पहुँचाने वाले, (हरी) आकर्षण और वेग तथा शुक्ल पक्ष और कृष्ण पक्ष रूप दो घोड़े जिन से सब का हरण किया जाता है, (रथे) रमण के साधन में (युञ्जन्ति) ये जोड़ें हैं।

    संस्कृत भाग

    पदार्थः(महर्षिकृतः)- (युञ्जन्ति) युञ्जन्तु। अत्र लोडर्थे लट्। (अस्य) सूर्य्यस्याग्नेः (काम्या) कामयितव्यौ। अत्र सर्वत्र सुपां सुलुगित्याकारादेशः। (हरी) हरणशीलावाकर्षणवेगगुणौ पूर्वपक्षापरपक्षौ वा। इन्द्रस्य हरी ताभ्यामिद सर्वं हरतीति। (षड्विंशब्रा०प्रपा०१.ख०१) (विपक्षसा) विविधानि यन्त्रकलाजलचक्रभ्रमणयुक्तानि पक्षांसि पार्श्वे स्थितानि ययोस्तौ (रथे) रमणसाधने भूजलाकाशगमनार्थे याने। यज्ञसंयोगाद्राजा स्तुतिं लभेत, राजसंयोगाद्युद्धोपकरणानि। तेषां रथः प्रथमगामी भवति। रथो रंहतेर्गतिकर्मणः स्थिरतेर्वा स्याद्विपरीतस्य रममाणोऽस्मिँस्तिष्ठतीति वा रपतेर्वा रसतेर्वा। (निरु०९.११) रथ इति पदनामसु पठितम्। (निघं०५.३) आभ्यां प्रमाणाभ्यां रथशब्देन विशिष्टानि यानानि गृह्यन्ते। (शोणा) वर्णप्रकाशकौ गमनहेतू च (धृष्णू) दृढौ (नृवाहसौ) सम्यग्योजितौ नॄन् वहतस्तौ॥२॥

    विषयः- उक्तार्थस्य कीदृशौ गुणौ क्व योक्तव्यावित्युपदिश्यते।

    अन्वयः- हे विद्वांसोऽस्य काम्यौ शोणौ धृष्णू विपक्षसौ नृवाहसौ हरी रथे युञ्जन्ति युञ्जन्तु॥२॥

    भावार्थः(महर्षिकृतः)- ईश्वर उपदिशति-न यावन्मनुष्या भूजलाग्न्यादिपदार्थानां गुणज्ञानोपकारग्रहणाभ्यां भूजलाकाशगमनाय यानानि सम्पादयन्ति नैव तावत्तेषां दृढे राज्यश्रियौ सुसुखे भवतः। शारमण्यदेशनिवासिनाऽस्य मन्त्रस्य विपरीतं व्याख्यानं कृतमस्ति। तद्यथा-'अस्येति सर्वनाम्नो निर्देशात् स्पष्टं गम्यत इन्द्रस्य ग्रहणम्। कुतः, रक्तगुणविशिष्टावश्वावस्यैव सम्बन्धिनौ भवतोऽतः। नात्र खलु सूर्य्योषसोर्ग्रहणम्। कुतः, प्रथममन्त्र एकस्याश्वस्याभिधानात्।' इति मोक्षमूलरकृतोऽर्थः सम्यङ् नास्तीति। कुतः, अस्येति पदेन भौतिकपदार्थयोः सूर्य्याग्न्योर्ग्रहणं, न कस्यचिद्देहधारिणः। हरी इति सूर्य्यस्य धारणाकर्षणगुणयोर्ग्रहणम्। शोणेति पदेनाग्ने रक्तज्वालागुणयोर्ग्रहणम्। पूर्वमन्त्रे ब्रध्नाभिधान एकवचनं जात्यभिप्रायेण चास्त्यतः। इदं शब्दप्रयोगः खलु प्रत्यक्षार्थवाचित्वात् संनिहितार्थस्य सूर्य्यादेरेव ग्रहणाच्च तत्कल्पितोऽर्थोऽन्यथैवास्तीति॥२॥

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    विषय

    रथ - योजन

    पदार्थ

    १. गतमन्त्र के अनुसार जो व्यक्ति मन आदि को सूर्यादि के ज्ञान की प्राप्ति में लगाते हैं  , वे इन्द्रियों को वशीभूत करनेवाले होते हैं और वे इन (हरी) - ज्ञानेन्द्रिय व कर्मेन्द्रियरूप घोड़ों को (रथे) - शरीररूप रथ में (युञ्जन्ति) - जोतते हैं । वे इन इन्द्रियरूप घोड़ो को सदा चरने के लिए ही खुला नहीं छोड़े रखते  , अर्थात् 'इन्द्रियाँ विषयों में ही चरती रहें ऐसा नहीं होता । 

    २. इनकी ये इन्द्रियाँ (अस्य काम्या) - इस प्रभु की प्राप्ति की कामनावाली होती हैं । उनका लक्ष्य प्रभु तक पहुँचना होता है । 

    ३. (विपक्षसा) [पक्ष परिग्रहे] ये इन्द्रियरूप घोड़े विशिष्ट परिग्रहवाले होते हैं । इन्होंने एक विशेष लक्ष्य स्वीकार किया होता है । उस लक्ष्य तक तो इन्हें पहुँचना ही है  , अतः ये विषयों के चरने में ही समय को कैसे विनष्ट कर सकते हैं? 

    ४. विशिष्ट उद्देश्य के कारण (शोणा) - ये तेजस्वी होते हैं । इनकी तेजस्विता इनके रक्तवर्ण में प्रकट हो रही होती है । 

    ५. (धृष्णु) - ये शत्रुओं का धर्षण करनेवाले होते हैं  , मार्ग में आये विघ्नों को दूर करके ये सदा आगे बढते चलते हैं । 

    ६. (नृवाहसा) - ये अपने को आगे ले - चलनेवाले मनुष्यों को [नृ] लक्ष्यस्थान तक पहुँचानेवाले होते हैं । मनुष्य में अग्रगति की भावना हो । फिर इस मनुष्य की इन्द्रियाँ विषयों में न भटककर आगे और आगे बढ़ती चलती हैं । 

    भावार्थ

    भावार्थ - हमारे इन्द्रियरूप अश्व विषयों को चरते न रहकर रथ में जुतकर हमें लक्ष्य स्थान पर पहुँचानेवाले हों । 

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    विषय

    परमेश्वर का वर्णन, पक्षान्तर में सूर्य, राजा का वर्णन योगी के योगाभ्यास का वर्णन ।

    भावार्थ

    ( अस्य ) इस आत्मा के प्राप्त करने के लिये ( रथे ) रमण करने योग्य इस देह में ( काम्या ) कामना करने योग्य ( हरी ) गतिशील, एवं इन्द्रियों को गति देने वाले ( विपक्षसा ) विविध पार्श्वो में स्थित, ( शोणा) गतिशील, ( धृष्णू ) दृढ़, ( नृवाहसा ) नेता आत्मा को वहन करने वाले प्राण और अपान दोनों को ( युञ्जन्ति ) योगी जन योगाभ्यास द्वारा वश करते हैं। सूर्य और अग्नि के पक्ष में —( रथे हरी ) रथ में जिस प्रकार दोनों पार्श्वों पर दो अश्व लगाये जाते हैं उसी प्रकार वे दोनों ( घृष्णू, शोणा, नृवाहसा ) दृढ़ और रक्तवर्ग, क्षत्रिय रथस्थ मनुष्यों को उठाने में समर्थ होते हैं उसी प्रकार ( अस्य हरी ) इस सूर्य और अग्नि के हरणशील आकर्षण और वेग दोनों गुण जो ( विपक्षसा ) विविध यन्त्रकला जलचक्रादि को पार्श्वों पर धारण करने में समर्थ, ( काम्या ) उत्तम इच्छा योग्य, ( शोणा ) गतिप्रद, दृढ़, बहुत मनुष्यों को उठाकर लेजाने में समर्थ हैं उनको ( रथे युञ्जन्ति ) विद्वान् शिल्पी रथ आदि यानों में लगावें । राजा के पक्ष में—इस राजा के रथ में कामनानुकूल गति करने वाले दोनों बाजू पर दृढ़ अश्वों को नियुक्त करते हैं।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    १ — १० मधुच्छन्दा ऋषिः ॥ १—३ इन्द्रो देवता । ४, ६, ८, ९ मरुतः । ५, ७ मरुत इन्द्रश्च । १० इन्द्रः ॥ गायत्र्यः । दशर्चं सूक्तम् ।

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    ईश्वर उपदेश करतो की - माणसे जोपर्यंत भू, जल इत्यादी पदार्थांच्या गुणांचे ज्ञान घेऊन त्यांच्याकडून उपकारित होऊन भूजल व आकाशात गमनागमनासाठी चांगली वाहने तयार करीत नाहीत, तोपर्यंत त्यांना उत्तम राज्य व धन इत्यादी उत्तम सुख मिळू शकत नाहीत. ॥ २ ॥

    टिप्पणी

    जर्मनीतील मोक्षमूलर साहेबांनी या मंत्राची विपरीत व्याख्या केलेली आहे. ‘अस्य’ सर्वनामवाची शब्दनिर्देश करून हे दर्शविलेले आहे की, या मंत्रात इंद्रदेवतेचे ग्रहण आहे. कारण लाल रंगाचे घोडे इंद्राचे आहेत. येथे सूर्य व उषेचे ग्रहण केलेले नाही, कारण प्रथम मंत्रात एका घोड्याचेच ग्रहण केलेले आहे. हा त्यांचा अर्थ योग्य नाही, कारण ‘अस्य’ या पदाने भौतिक सूर्य व अग्नी या दोन्हींचा स्वीकार केलेला आहे. एखाद्या देहधारीचा नव्हे. ‘हरी’ या पदाने सूर्याचे धारण व आकर्षण गुणांचा स्वीकार व ‘शोणा’ या शब्दाने अग्नीच्या लाल ज्वाळांचा स्वीकार केलेला आहे. पूर्व मंत्रात एका अश्वाचा स्वीकार जातीच्या अभिप्रायाने अर्थात एकवचनाने अश्वजातीचे ग्रहण केलेले आहे. ‘अस्य’ हा शब्द प्रत्यक्ष अर्थवाची असल्यामुळे सूर्य इत्यादी प्रत्यक्ष पदार्थांचा ग्राहक असतो. यामुळे मोक्षमूलर साहेबांचा अर्थ खरा नव्हे. ॥ २ ॥

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    इंग्लिश (4)

    Meaning

    Scholars of science dedicated to Indra study and meditate on the lord’s omnipotence of light, fire and wind, and harness the energy like two horses to a chariot, both beautiful, equal and complementary as positive negative currents, fiery red, powerful and carriers of people.

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    Subject of the mantra

    What qualities do aforesaid Sun and fire et cetera possess and they are able to be applied where, such matter has been preached in this mantra

    Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-

    He=O! (vidvāṃsaḥ)=scholars, (asya)=of sun and fire, (kāmyā) =desirable, (śoṇā) = enlightening by own different colours or cause of movement, (dhṛṣṇū)=firm, (vipakṣasau) =full of fan like machines which move through different artifacts and cycles of water, (nṛvāhasau)=attached properly to passengers and transporting men etc. to different countries, (harī)=attraction, speed and bright-fortnight and dark-fortnight periods like two horses by whom all are seized, (rathe)= modes of seizure, (yuñjanti)=these two jointed horses.

    English Translation (K.K.V.)

    O scholars! Desirable of the Sun and fire, enlightening by own different colours or cause of movement are attached firmly and properly to different artifacts and cycles of water full of fan like machines which move through these with passengers. They carry men et cetera to different countries through attraction and speed; and with bright-fortnight and dark-fortnight periods like two horses by whom all are seized and taken as modes of movement of these two jointed horses.

    TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand

    God exhorts that until human beings do not make good riders to go to ground water and sky with their knowledge of the qualities of earth water etc. Maxmular, a resident of Germany, has given the opposite interpretation of this mantra. That interpretation is - 'Asya', it is clear from the instructions of this pronoun that the deity has been interpreted for Indra in this mantra, because the horses of red color belong to Indra only. And there is no interpretation, because in the first mantra only one horse has been interpreted. His, this interpretation is not correct, because from this term “asya”, the physical Sun and fire, both of them are interpreted and not of any incarnate. From this mantra, the interpretation of the Sun's holding and attraction qualities and Shona from this word is the interpretation eclipse of the red flames of fire and in the previous mantra the interpretation of a horse is from the meaning of genus that is, from the singular, the interpretation of the bradhna genus. And because of this word being the speaker of the direct meaning, the Sun is a subscriber of visible substances, etc. The interpretation of Maxmuller is not correct.

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    Translation

    May they harness to the car of their human body of lovely highly-spirited, enduring and speedy compound faculties (mental and vital) to reach their destination.

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    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O learned persons, harness the two attributes of the sun or the fire in the form of attraction and speed, or the bright and the dark half of the month, making proper use of them in various kinds of conveyances for travelling on earth, in water and the sky, which are means of motion, carrying people far away and are firm.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    God gives the instruction that unless men manufacture various chariots or cars by making proper use and taking advantage of the earth, the water and fire etc. they cannot have proper prosperity and splendor. Prof. Maxmuller has misinterpreted the mantra. He says that by the use of term अस्य it is clear that the Mantra relates to Indra who has two. red coloured steeds. Prof. Maxmuller's translation referred to here is as follows- "They harness to the chariot on each side his (Indra's) two favourite boys, the brown the bold, who can carry the hero (Vedic Hymns Part 1. P. 14). As a matter of fact, by the use of the pronoun अस्य the sun is to be taken here.

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