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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 6 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 6/ मन्त्र 9
    ऋषिः - मधुच्छन्दाः वैश्वामित्रः देवता - मरूतः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः

    अतः॑ परिज्म॒न्ना ग॑हि दि॒वो वा॑ रोच॒नादधि॑। सम॑स्मिन्नृञ्जते॒ गिरः॑॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अतः॑ । प॒रि॒ज्म॒न् । आ । ग॒हि॒ । दि॒वः । वा॒ । रो॒च॒नात् । अधि॑ । सम् । अ॒स्मि॒न् । ऋ॒ञ्ज॒ते॒ । गिरः॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अतः परिज्मन्ना गहि दिवो वा रोचनादधि। समस्मिन्नृञ्जते गिरः॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अतः। परिज्मन्। आ। गहि। दिवः। वा। रोचनात्। अधि। सम्। अस्मिन्। ऋञ्जते। गिरः॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 6; मन्त्र » 9
    अष्टक » 1; अध्याय » 1; वर्ग » 12; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ मरुतां गमनशीलत्वमुपदिश्यते।

    अन्वयः

    यत्र गिरः समृञ्जते सोऽयं परिज्मा वायुरतः पृथिवीस्थानाज्जलकणानध्यागह्युपरि गमयति, स पुनर्दिवो रोचनात् सूर्य्यप्रकाशान्मेघमण्डलाद्वा जलादिपदार्थानागह्यागमयति। अस्मिन् सर्वे पदार्थाः स्थितिं लभन्ते॥९॥

    पदार्थः

    (अतः) अस्मात्स्थानात् (परिज्मन्) परितः सर्वतो गच्छन् उपर्य्यधः। सर्वान् पदार्थानितस्ततः क्षेप्ता। अयमजधातोः प्रयोगः। श्वनुक्षण० (उणा०१.१५९) इति कनिन्प्रत्ययान्तो मुडागमेनाकारलोपेन च निपातितः। (आगहि) गमयत्यागमयति वा। अत्र लडर्थे लोट्, पुरुषव्यत्ययेन गमेर्मध्यमपुरुषस्यैकवचने बहुलं छन्दसीति शपो लुक्, हेर्ङित्त्वादनुनासिकलोपश्च। (दिवः) प्रकाशात् (वा) पक्षान्तरे (रोचनात्) सूर्य्यप्रकाशाद्रुचिकरान्मेघमण्डलाद्वा (अधि) उपरितः (सम्) सम्यक् (अस्मिन्) बहिरन्तःस्थे मरुद्गणे (ऋञ्जते) प्रसाध्नुवन्ति। ऋञ्जतिः प्रसाधनकर्मा। (निरु०६.२१) (गिरः) वाचः॥९॥

    भावार्थः

    अयं बलवान् वायुर्गमनागमनशीलत्वात् सर्वपदार्थगमनागमनधारणशब्दोच्चारणश्रवणानां हेतुरस्तीति।।सायणाचार्य्येण परिज्मन्शब्दमुणादिप्रसिद्धमविदित्वा मनिन्प्रत्ययान्तो व्याख्यातोऽयमस्य भ्रमोऽस्तीति बोध्यम्। ‘हे इतस्ततो भ्रमणशील मनुष्याकृतिदेवदेहधारिन्निन्द्र ! त्वं सन्मुखात्पार्श्वतो वोपरिष्टादस्मत्समीपमागच्छ, इयं सर्वेषां गायनानामिच्छास्ति’ इति मोक्षमूलरव्याख्या विपरीतास्ति। कुतः, अस्मिन्मरुद्गण इन्द्रस्य सर्वा गिर ऋञ्जते इत्यनेन शब्दोच्चारणव्यवहारप्रसाधकत्वेनात्र प्राणवायोरेव ग्रहणात्॥९॥सायणाचार्य्येण परिज्मन्शब्दमुणादिप्रसिद्धमविदित्वा मनिन्प्रत्ययान्तो व्याख्यातोऽयमस्य भ्रमोऽस्तीति बोध्यम्। ‘हे इतस्ततो भ्रमणशील मनुष्याकृतिदेवदेहधारिन्निन्द्र ! त्वं सन्मुखात्पार्श्वतो वोपरिष्टादस्मत्समीपमागच्छ, इयं सर्वेषां गायनानामिच्छास्ति’ इति मोक्षमूलरव्याख्या विपरीतास्ति। कुतः, अस्मिन्मरुद्गण इन्द्रस्य सर्वा गिर ऋञ्जते इत्यनेन शब्दोच्चारणव्यवहारप्रसाधकत्वेनात्र प्राणवायोरेव ग्रहणात्॥९॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    अगले मन्त्र में गमनस्वभाववाले पवन का प्रकाश किया है॥

    पदार्थ

    जिस वायु में (गिरः) वाणी का सब व्यवहार (समृञ्जते) सिद्ध होता है, वह (परिज्मन्) सर्वत्र गमन करता हुआ सब पदार्थों को तले ऊपर पहुँचानेवाला पवन (अतः) इस पृथिवीस्थान से जलकणों का ग्रहण करके (अध्यागहि) ऊपर पहुँचाता और फिर (दिवः) सूर्य्य के प्रकाश से (वा) अथवा (रोचनात्) जो कि रुचि को बढ़ानेवाला मेघमण्डल है, उससे जल को गिराता हुआ तले पहुँचाता है। (अस्मिन्) इसी बाहर और भीतर रहनेवाले पवन में सब पदार्थ स्थिति को प्राप्त होते हैं॥९॥

    भावार्थ

    यह बलवान् वायु अपने गमन आमगन गुण से सब पदार्थों के गमन आगमन धारण तथा शब्दों के उच्चारण और श्रवण का हेतु है।इस मन्त्र में सायणाचार्य्य ने जो उणादिगण में सिद्ध परिज्मन् शब्द था, उसे छोड़कर मनिन्प्रत्ययान्त कल्पना किया है, सो केवल उनकी भूल है। हे इधर-उधर विचरनेवाले मनुष्यदेहधारी इन्द्र ! तू आगे पीछे और ऊपर से हमारे समीप आ, यह सब गानेवालों की इच्छा है। यह भी उन (मोक्षमूलर साहब) का अर्थ अत्यन्त विपरीत है, क्योंकि इस वायुसमूह में मनुष्यों की वाणी शब्दों के उच्चारणव्यवहार से प्रसिद्ध होने से प्राणरूप वायु का ग्रहण है॥९॥

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    विषय

    इस मन्त्र में गमनस्वभाववाले पवन का प्रकाश किया है॥

    सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः

    यत्र गिरः समृञ्जते सःअयं परिज्मा वायुरतः पृथिवीस्थानात् जलकणान् अधि आगहि उपरि गमयति, स पुनः दिवः रोचनात् सूर्य्यप्रकाशात् मेघमण्डलात्  वा जलादि पदार्थान् आगहि आगमयति। अस्मिन् सर्वे पदार्थाः स्थितिं लभन्ते॥९॥

    पदार्थ

    (यत्र)=जहां, (गिरः) वाचः=वाणी का सब व्यवहार (सम्) सम्यक्=अच्छी तरह से, (ऋञ्जते) प्रसाध्नुवन्ति= सिद्ध होता है, (सः)=वह, (अयम्)=इस वायु में, (परिज्मा) परितः सर्वतो गच्छन् उपर्य्यधः। सर्वान् पदार्थानितस्ततः क्षेप्ता= सर्वत्र गमन करता हुआ सब पदार्थों को तले ऊपर पहुँचानेवाला, (वायुरतः)= वायु में रत, (पृथिवीस्थानात्)= पृथिवी स्थान से, (जलकणान्)= जल के कणों को, (अधि) उपरितः=ऊपर की ओर, (आगहि) गमयत्यागमयति वा= पहुँचाता है, (स)=वह वायु, (पुनः)=फिर, (आगहि) गमयत्यागमयति वा= पहुँचाता है, (रोचनात्) सूर्य्यप्रकाशाद्रुचिकरान्मेघमण्डलाद्वा=जो कि रुचि को बढ़ानेवाला मेघमण्डल है, उससे जल को गिराता हुआ तले पहुँचाता है, (सूर्य्यप्रकाशात्)=सूर्य के प्रकाश से, (मेघमण्डलात्)= मेघमण्डल से, (वा) पक्षान्तरे=अथवा, (जलादि)= जलादि, (पदार्थान्)=पदार्थों से,  (आगहि) गमयत्यागमयति वा=पहुँचाता है, (अस्मिन्) बहिरन्तःस्थे मरुद्गणे= इसी बाहर और भीतर रहनेवाले पवन में, (पदार्थाः)=पदार्थ, (स्थितिम्)= स्थिति को, (लभन्ते)=प्राप्त होते हैं॥९॥ 

    महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद

    यह बलवान् वायु अपने गमन आमगन गुण से सब पदार्थों के गमन आगमन धारण तथा शब्दों के उच्चारण और श्रवण का हेतु है।

    विशेष

    महर्षिकृत टिप्पणी- इस मन्त्र में सायणाचार्य्य ने जो उणादिगण में सिद्ध परिज्मन् शब्द था, उसे छोड़कर मनिन्प्रत्ययान्त कल्पना किया है, सो केवल उनकी भूल है। हे इधर-उधर विचरनेवाले मनुष्यदेहधारी इन्द्र ! तू आगे पीछे और ऊपर से हमारे समीप आ, यह सब गानेवालों की इच्छा है। यह भी उन (मोक्षमूलर साहब) का अर्थ अत्यन्त विपरीत है, क्योंकि इस वायुसमूह में मनुष्यों की वाणी शब्दों के उच्चारणव्यवहार से प्रसिद्ध होने से प्राणरूप वायु का ग्रहण है॥९॥

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)

    (यत्र) जहां (गिरः) वाणी का सब व्यवहार (सम्) अच्छी तरह से (ऋञ्जते)  सिद्ध होता है (सः) वह (अयम्) इस वायु में, (परिज्मा) सर्वत्र गमन करता हुआ सब पदार्थों को तले ऊपर पहुँचाने वाला (वायुरतः) वायु में व्याप्त, (पृथिवीस्थानात्)  पृथिवी में स्थित स्थान से (जलकणान्) जल के कणों को (अधि) ऊपर की ओर (आगहि) पहुँचाता है। (रोचनात्) जो रुचि को बढ़ानेवाला मेघमण्डल है, उससे जल को गिराता हुआ तले पहुँचाता है। (सूर्य्यप्रकाशात्) सूर्य के प्रकाश से (मेघमण्डलात्) मेघमण्डल से (वा) अथवा (जलादि) जलादि (पदार्थान्) पदार्थों से, (आगहि) पहुँचाता है। (अस्मिन्) इसी बाहर और भीतर रहने वाले पवन में (पदार्थाः) पदार्थ, (स्थितिम्) स्थिति को (लभन्ते) प्राप्त होते हैं॥९॥  

    संस्कृत भाग

    पदार्थः(महर्षिकृतः)- (अतः) अस्मात्स्थानात् (परिज्मन्) परितः सर्वतो गच्छन् उपर्य्यधः। सर्वान् पदार्थानितस्ततः क्षेप्ता। अयमजधातोः प्रयोगः। श्वनुक्षण० (उणा०१.१५९) इति कनिन्प्रत्ययान्तो मुडागमेनाकारलोपेन च निपातितः। (आगहि) गमयत्यागमयति वा। अत्र लडर्थे लोट्, पुरुषव्यत्ययेन गमेर्मध्यमपुरुषस्यैकवचने बहुलं छन्दसीति शपो लुक्, हेर्ङित्त्वादनुनासिकलोपश्च। (दिवः) प्रकाशात् (वा) पक्षान्तरे (रोचनात्) सूर्य्यप्रकाशाद्रुचिकरान्मेघमण्डलाद्वा (अधि) उपरितः (सम्) सम्यक् (अस्मिन्) बहिरन्तःस्थे मरुद्गणे (ऋञ्जते) प्रसाध्नुवन्ति। ऋञ्जतिः प्रसाधनकर्मा। (निरु०६.२१) (गिरः) वाचः॥९॥
    विषयः- अथ मरुतां गमनशीलत्वमुपदिश्यते।

    अन्वयः- यत्र गिरः समृञ्जते सोऽयं परिज्मा वायुरतः पृथिवीस्थानाज्जलकणानध्यागह्युपरि गमयति, स पुनर्दिवो रोचनात् सूर्य्यप्रकाशान्मेघमण्डलाद्वा जलादिपदार्थानागह्यागमयति। अस्मिन् सर्वे पदार्थाः स्थितिं लभन्ते॥९॥

    भावार्थः(महर्षिकृतः)- अयं बलवान् वायुर्गमनागमनशीलत्वात् सर्वपदार्थगमनागमनधारणशब्दोच्चारणश्रवणानां हेतुरस्तीति।।सायणाचार्य्येण परिज्मन्शब्दमुणादिप्रसिद्धमविदित्वा मनिन्प्रत्ययान्तो व्याख्यातोऽयमस्य भ्रमोऽस्तीति बोध्यम्। 'हे इतस्ततो भ्रमणशील मनुष्याकृतिदेवदेहधारिन्निन्द्र ! त्वं सन्मुखात्पार्श्वतो वोपरिष्टादस्मत्समीपमागच्छ, इयं सर्वेषां गायनानामिच्छास्ति' इति मोक्षमूलरव्याख्या विपरीतास्ति। कुतः, अस्मिन्मरुद्गण इन्द्रस्य सर्वा गिर ऋञ्जते इत्यनेन शब्दोच्चारणव्यवहारप्रसाधकत्वेनात्र प्राणवायोरेव ग्रहणात्॥९॥

    महर्षिकृतः टिप्पणीः- सायणाचार्य्येण परिज्मन्शब्दमुणादिप्रसिद्धमविदित्वा मनिन्प्रत्ययान्तो व्याख्यातोऽयमस्य भ्रमोऽस्तीति बोध्यम्। 'हे इतस्ततो भ्रमणशील मनुष्याकृतिदेवदेहधारिन्निन्द्र ! त्वं सन्मुखात्पार्श्वतो वोपरिष्टादस्मत्समीपमागच्छ, इयं सर्वेषां गायनानामिच्छास्ति' इति मोक्षमूलरव्याख्या विपरीतास्ति। कुतः, अस्मिन्मरुद्गण इन्द्रस्य सर्वा गिर ऋञ्जते इत्यनेन शब्दोच्चारणव्यवहारप्रसाधकत्वेनात्र प्राणवायोरेव ग्रहणात्॥९॥

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    विषय

    सर्वव्यापक प्रभु में

    पदार्थ

    १. गतमन्त्र का आराधक आराधना करते हुए प्रभु से कहता है कि - (परिज्मन्) - हे चारों ओर गये हुए - सर्वव्यापिन् ! (आगहि) - आप हमें प्राप्त होओ । अतः इस पृथिवीलोक से (दिवः वा) - या द्युलोक से तथा (रोचनात् अधि) - इस चन्द्र व विद्युत् की दीप्तिवाले अन्तरिक्ष से (आगहि) - आप हमें प्राप्त होओ  , अर्थात् पृथिवीस्थ अग्नि आदि देवों का चिन्तन करता हुआ मैं उन देवों में आपसे स्थापित किये गये देवता का दर्शन करू । इसी प्रकार अन्तरिक्ष के देवों में मैं आपकी महिमा को देखूं तथा द्युलोक के देवों में मुझे आपका प्रकाश मिले । मैं सर्वत्र आपकी महिमा का दर्शन करू । मुझे पृथिवी  , अन्तरिक्ष व द्युलोक सभी स्थानों से आप प्राप्त हों । 

    २. इस प्रकार प्रभु की महिमा देखनेवाले (गिरः) - [स्तोतारः] स्तोता लोग (अस्मिन्) - इस परमात्मा में (समृञ्जते) - अपने जीवन को सुभाषित करते हैं [ऋज to decorate]  , उस परमात्मा का स्तवन करते हुए ये स्तोता अपने जीवन को उस प्रभु के अनुरूप बनाने का निश्चय करते हैं । इस प्रकार इनका जीवन अधिक और अधिक सुन्दर बनता चलता है । 

    भावार्थ

    भावार्थ - उस सर्वव्यापी प्रभु की महिमा को हम प्रत्येक लोक में देखें । सदा अपने को उस प्रभु में स्थित देखते हुए ये प्रभु - स्तवन करते हैं और अपने जीवन को गुणालंकृत करते हैं ।

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    विषय

    missing

    भावार्थ

    हे वायो ! हे ( परिज्मन् ) सब दिशाओं में जाने में समर्थ ! एवं सब पदार्थों को ऊपर नीचे फेकने में समर्थ ! तू (दिवः) सूर्य के प्रकाश से (वा) और ( रोचनात् ) मेघमण्डल से ( अधि आगहि) आ । (अस्मिन् ) इस तुझ में ही ( गिरः ) वाणियां ( सम् ऋञ्जते ) प्रकट होती हैं । जिस प्रकार वायु ही सब दिशाओं में बहता है, वही मेघों में विचरता है उसीके कारण मेध गर्जनरूप अन्तरिक्षस्थ वाणियें प्रकट होती हैं । अध्यात्म में—हे सर्वत्र व्याप्त प्राण ! तू ( दिवः ) मूर्धा भाग और ( रोचनात् ) अन्तःकरण से भी आता है । तेरे ही आश्रय पर कण्ठ की वाणियां प्रकट होती हैं । सेनापति के पक्ष में—हे ( परिज्मन् ) क्षत्रुक्षेप्तः, तू राजसभा या अपने ( रुचिकर ) गृह से भी हमें प्राप्त हो । सब आज्ञाएं, या प्रजा की स्तुतियां तुझमें ही आश्रित हैं ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    १ — १० मधुच्छन्दा ऋषिः ॥ १—३ इन्द्रो देवता । ४, ६, ८, ९ मरुतः । ५, ७ मरुत इन्द्रश्च । १० इन्द्रः ॥ गायत्र्यः । दशर्चं सूक्तम् ।

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    हा बलवान वायू आपल्या गमन, आगमन गुणाने सर्व पदार्थांचे गमन आगमन, धारण, शब्दाचे उच्चारण व श्रवण यांचा हेतू आहे.

    टिप्पणी

    या मंत्रात सायणाचार्याने जो उणादिगणात सिद्ध ‘परिज्मन’ शब्दाला सोडून मनिन्प्रत्ययान्त कल्पना केलेली आहे, ती त्यांची चूक आहे. ‘हे इकडे तिकडे फिरणाऱ्या मनुष्यदेहधारी इंद्रा! तू पुढून मागून व वरून आमच्या जवळ ये. ही सर्व गायकांची इच्छा आहे. ’ हाही मोक्षमूलर साहेबांचा अर्थ अत्यंत विपरीत आहे. कारण या वायूसमूहात माणसांची वाणी शब्दांच्या उच्चारण व्यवहाराने प्रसिद्ध असल्यामुळे प्राणरूप वायूचे ग्रहण केलेले आहे. ॥ ९ ॥

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    इंग्लिश (4)

    Meaning

    The currents of energy, Maruts, travel up from here, the earth, to the region of the sun, and from up there down to the earth. And in this space they sustain all the objects of the world and all the voices divine and human.

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    Subject of the mantra

    Air of dynamic nature has been elucidated in this mantra.

    Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-

    (yatra)=where, (giraḥ)=all manner of speech, (sam)=properly, (ṛñjate)=is accomplished, (saḥ)=that, (ayam)=in this air, (parijmā)=The one who moves all things up and down the floor (vāyurataḥ)=permeated in the air, (pṛthivīsthānāt)=from earth, (jalakaṇān)=water particles, (adhi)=upwards, (āgahi)=delivers. (sa)=that air, (punaḥ)=then, (āgahi)=delivers, (rocanāt)=Which is the cloud which increases light, pours water from it and reaches it under the bottom, (sūryyaprakāśāt) =by the Sun light, (meghamaṇḍalāt)=from the cloud (vā)=or, (jalādi)=water etc. (padārthān)=by matters, (āgahi)=delivers, (asmin)=In this wind that lives outside and inside (padārthāḥ)=substances, (sthitim)=to the situation (labhante)= receive.

    English Translation (K.K.V.)

    Where, all the manner of speech is accomplished well. That moving everywhere carries all the substances under the air, carries the particles of water upwards from the place situated in the earth. It is transmitted by the light of the Sun, by the cloud or by water substances. In this air placed outwards and inwards only substances get the required form.

    TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand

    This mighty wind is the means for the movement and arrival of all objects, and for the pronunciation and hearing of words, by its transitory quality. In this mantra, Sayanacharya has conceived without leaving the word accomplished as Parijman through Unadi sets of that grammar, leaving that, has conceived manin as suffix so it is only his mistake. O man-bodied Indra who wanders here and there! You come back and forth and come near us from above, it is the desire of all the singers. This also is the translation of him (Maxmuller Sahib) is very opposite, because in this air group, the speech of human beings is famous because of the utterance of words, the meaning as life-form air is taken.

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    Translation

    Therefore, O compound faculties, may all of you come here whether from celestial space (knowledge-phase) or from far-off galaxies (bliss-phase) ; as in this rite we are reciting hymns in your adoration alone.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The wandering nature of the Maruts (winds) is taught.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    The air which is the cause of all dealings of the speech, going every where taking things from this place to that, raises the drops of water from the earth, carries them upwards and then along with the light of the sun or the clouds, it rains down water on earth. All objects are based upon this air which dwells within and out side.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    This powerful air is the cause of the going, coming, sustenance, utterance and the hearing of all things. Sayanacharya interprets परिज्मन् as अज-गतिक्षेपणयोः अन्येभ्योऽपि दृश्यन्ते (अष्टाः ३.२.५) इतिमनिन् कारलोपश्छान्दस : But it is wrong as in the unadi kosha-1.159 it is stated. श्वन्नुक्षन् पूषन्प्लीहन् क्लेदनूस्नेहन् मूर्धन्मजन्नर्यमन् विश्वप्सन् परिज्वन् मातरिश्वन् मधवन्निति । From Yonder, O traveler (Indra) come hither, or from the light of heaven, the singers all yearn for it.” ( Prof. Maxmuller in the Vedic Hymns, Part 1). It is because the expression समस्मिन् ऋजते गिर: particularly denotes that here by Maruts is meant Prana Vayu and not storm Gods etc. as supposed by him. ( Maxmuller )

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