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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 6 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 6/ मन्त्र 7
    ऋषिः - मधुच्छन्दाः वैश्वामित्रः देवता - मरूत इन्द्रश्च छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः

    इन्द्रे॑ण॒ सं हि दृक्ष॑से संजग्मा॒नो अबि॑भ्युषा। म॒न्दू स॑मा॒नव॑र्चसा॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इन्द्रे॑ण । सम् । हि । दृक्ष॑से । स॒म्ऽज॒ग्मा॒नः । अबि॑भ्युषा । म॒न्दू इति॑ । स॒मा॒नऽव॑र्चसा ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इन्द्रेण सं हि दृक्षसे संजग्मानो अबिभ्युषा। मन्दू समानवर्चसा॥

    स्वर रहित पद पाठ

    इन्द्रेण। सम्। हि। दृक्षसे। सम्ऽजग्मानः। अबिभ्युषा। मन्दू इति। समानऽवर्चसा॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 6; मन्त्र » 7
    अष्टक » 1; अध्याय » 1; वर्ग » 12; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    केन सहैते कार्य्यसाधका भवन्तीत्युपदिश्यते।

    अन्वयः

    अयं वायुरबिभ्युषेन्द्रेणैव संजग्मानः सन् तथा वायुना सह सूर्य्यश्च सङ्गत्य संदृक्षसे दृश्यते दृष्टिपथमागच्छति हि यतस्तौ समानवर्चसौ वर्तेते तस्मात्सर्वेषां मन्दू भवतः॥७॥

    पदार्थः

    (इन्द्रेण) परमेश्वरेण सूर्य्येण सह वा (सम्) सम्यक् (हि) निश्चये (दृक्षसे) दृश्यते। अत्र लडर्थे लेट्मध्यमैकवचनप्रयोगः। अनित्यमागमशासनमिति वचनप्रामाण्यात् सृजिदृशोरित्यम् न भवति। (संजग्मानः) सम्यक् सङ्गतः (अबिभ्युषा) भयनिवारणहेतुना किरणसमूहेन वायुगणेन सह वा (मन्दू) आनन्दितावानन्दकारकौ। मन्दू इति पदनामसु पठितम्। (निघं०४.१) (समानवर्चसा) समानं तुल्यं वर्चो दीप्तिर्यर्योस्तौ। यास्काचार्य्येणायं मन्त्र एवं व्याख्यातः—इन्द्रेण सं हि दृश्यसे संजग्मानो अबिभ्युषा गणेन मन्दू मदिष्णू युवां स्थोऽपि वा मन्दुना तेनेति स्यात्समानवर्चसेत्येतेन व्याख्यातम्। (निरु०४.१२)॥७॥

    भावार्थः

    ईश्वरेणाभिव्याप्य स्वसत्तया सूर्य्यवाय्वादयः सर्वे पदार्था उत्पाद्य धारिता वर्त्तन्ते। एतेषां मध्य खलु सूर्य्यवाय्वोर्धारणाकर्षणप्रकाशयोगेन सह वर्त्तमानाः सर्वे पदार्थाः शोभन्ते। मनुष्यैरेते विद्योपकारं ग्रहीतुं योजनीयाः। ‘इदम्महदाश्चर्यं यद्बहुवचनस्यैकवचने प्रयोगः कृतोऽस्तीति। यच्च निरुक्तकारेण द्विवचनस्य स्थान एकवचनप्रयोगः कृतोऽस्त्यतोऽसङ्गतोऽस्ति।’ इति च मोक्षमूलरकल्पना सम्यङ् न वर्त्तते। कुतः, व्यत्ययो बहुलम्, सुप्तिङुपग्रह० इति वचनव्यत्ययविधायकस्य शास्त्रस्य विद्यमानत्वात्। तथा निरुक्तकारस्य व्याख्यानं समञ्जसमस्ति। कुतः, मन्दू इत्यत्र सुपां सुलुग्० इति पूर्वसवर्णादेशविधायकस्य शास्त्रस्य विद्यमानत्वात्॥७॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    उक्त पदार्थ किस के सहाय से कार्य्य के सिद्ध करनेवाले होते हैं, सो अगले मन्त्र में प्रकाश किया है-

    पदार्थ

    यह वायु (अबिभ्युषा) भय दूर करनेवाली (इन्द्रेण) परमेश्वर की सत्ता के साथ (संजग्मानः) अच्छी प्रकार प्राप्त हुआ, तथा वायु के साथ सूर्य्य (संदृक्षसे) अच्छी प्रकार दृष्टि में आता है, (हि) जिस कारण ये दोनों (समानवर्चसा) पदार्थों के प्रसिद्ध बलवान् हैं, इसी से वे सब जीवों को (मन्दू) आनन्द के देनेवाले होते हैं॥७॥

    भावार्थ

    ईश्वर ने जो अपनी व्याप्ति और सत्ता से सूर्य्य और वायु आदि पदार्थ उत्पन्न करके धारण किये हैं, इन सब पदार्थों के बीच में से सूर्य्य और वायु ये दोनों मुख्य हैं, क्योंकि इन्हीं के धारण आकर्षण और प्रकाश के योग से सब पदार्थ सुशोभित होते हैं। मनुष्यों को चाहिये कि उन्हें पदार्थविद्या से उपकार लेने के लिये युक्त करें। यह बड़ा आश्चर्य्य है कि बहुवचन के स्थान में एकवचन का प्रयोग किया गया, तथा निरुक्तकार ने द्विवचन के स्थान में एकवचन का प्रयोग माना है, सो असङ्गत है। यह भी मोक्षमूलर साहब की कल्पना ठीक नहीं, क्योंकि व्यत्ययो ब० सुप्तिङुपग्रह० व्याकरण के इस प्रमाण से वचनव्यत्यय होता है। तथा निरुक्तकार का व्याख्यान सत्य है, क्योंकि सुपा सु० इस सूत्र से मन्दू इस शब्द में द्विवचन को पूर्वसवर्ण दीर्घ एकादेश हो गया है॥७॥

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    विषय

    उक्त पदार्थ किस के सहाय से कार्य्य के सिद्ध करनेवाले होते हैं, सो इस मन्त्र में प्रकाश किया है।

    सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः

    अयं वायुः अबिभ्युषा  इन्द्रेण एव संजग्मानः सन् तथा वायुना सह सूर्य्यः च सङ्गत्य संदृक्षसे दृश्यते दृष्टिपथम् आगच्छति हि यतः तौ समानवर्चसौ वर्तेते तस्मात् सर्वेषां  मन्दू भवतः॥७॥

    पदार्थ

    (अयम्)=यह, (वायुः)=वायु, (अबिभ्युषा) भयनिवारणहेतुना किरणसमूहेन वायुगणेन सह वा=भय दूर करने वाली किरणों के समूह और वायु के गणों के साथ, (इन्द्रेण) परमेश्वरेण सूर्य्येण सह वा=परमेश्वर या सूर्य के साथ, (एव)=ही, (संजग्मानः) सम्यक् सङ्गतः=अच्छी प्रकार प्राप्त होते, (सन्) हुए, (तथा)=वैसे ही, (वायुना)=वायु के द्वारा, (सह)=साथ,  (सूर्य्यः)=सूर्य, (च)=भी, (सङ्गत्य) एकीभूय=एक होकर, (दृश्यसे)=दिखाई देते हो,  (दृष्टिपथम्)=दृष्टि के मार्ग में, (आगच्छति)=आता है, (हि) निश्चये=निश्चय से, (यतः)=जिस प्रकार, (तौ)=वे दोनों, (समान)=समान, (वर्चसौ) वर्चसा-वर्चन्ते दीप्यन्ते सर्वे पदार्था यस्मिन् वेदाध्ययने तेन=वेदाध्ययन के द्वारा जिनसे सब पदार्थ प्रकाशित हो जाते हैं, वे दोनों, (वर्तेते)=वर्तमान हैं, (तस्मात्)=उन, (सर्वेषाम्)=सबको, (मन्दू) आनन्दितावानन्दकारकौ=आनन्दमय है और आन्दित करने वाला है, (भवतः)=आपको।  

    महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद

    ईश्वर ने जो अपनी व्याप्ति और सत्ता से सूर्य्य और वायु आदि पदार्थ उत्पन्न करके धारण किये हैं, इन सब पदार्थों के बीच में से सूर्य्य और वायु ये दोनों मुख्य हैं, क्योंकि इन्हीं के धारण आकर्षण और प्रकाश के योग से सब पदार्थ सुशोभित होते हैं। मनुष्यों को चाहिये कि उन्हें पदार्थविद्या से उपकार लेने के लिये युक्त करें॥७॥

    विशेष

    महर्षिकृत टिप्पणी- यह बड़ा आश्चर्य्य है कि बहुवचन के स्थान में एकवचन का प्रयोग किया गया, तथा निरुक्तकार ने द्विवचन के स्थान में एकवचन का प्रयोग माना है, सो असङ्गत है। यह भी मोक्षमूलर साहब की कल्पना ठीक नहीं, क्योंकि व्यत्ययो ब० सुप्तिङुपग्रह० व्याकरण के इस प्रमाण से वचनव्यत्यय होता है। तथा निरुक्तकार का व्याख्यान सत्य है, क्योंकि सुपा सु० इस सूत्र से मन्दू इस शब्द में द्विवचन को पूर्वसवर्ण दीर्घ एकादेश हो गया है॥७॥

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)

    (अयम्) यह (वायुः) वायु (अबिभ्युषा) भय दूर करने वाली  किरणों के समूह और वायु के गणों के साथ, (इन्द्रेण) परमेश्वर या सूर्य के साथ (एव) ही (संजग्मानः+सन्) अच्छी प्रकार प्राप्त होते हुए (तथा) वैसे ही (वायुना) वायु के द्वारा (सूर्य्यः) सूर्य के (सह) साथ  (च) भी (सङ्गत्य) साहचर्य में (दृश्यसे) दिखाई देता है।  [और] (दृष्टिपथम्) दृष्टि के मार्ग में (आगच्छति) आता है। (हि) निश्चय से (यतः) जिस प्रकार से (तौ) वे दोनों (समान) समान (वर्चसौ)  वेदाध्ययन के द्वारा जिनसे सब पदार्थ प्रकाशित हो जाते  (वर्तेते) हैं। (तस्मात्) उनसे (सर्वेषाम्) सब जीवों  [और]  (भवतः) आपको   (मन्दू) आन्दित करने वाला है॥७॥ 

    संस्कृत भाग

    पदार्थः(महर्षिकृतः)- (इन्द्रेण) परमेश्वरेण सूर्य्येण सह वा (सम्) सम्यक् (हि) निश्चये (दृक्षसे) दृश्यते। अत्र लडर्थे लेट्मध्यमैकवचनप्रयोगः। अनित्यमागमशासनमिति वचनप्रामाण्यात् सृजिदृशोरित्यम् न भवति। (संजग्मानः) सम्यक् सङ्गतः (अबिभ्युषा) भयनिवारणहेतुना किरणसमूहेन वायुगणेन सह वा (मन्दू) आनन्दितावानन्दकारकौ। मन्दू इति पदनामसु पठितम्। (निघं०४.१) (समानवर्चसा) समानं तुल्यं वर्चो दीप्तिर्यर्योस्तौ। यास्काचार्य्येणायं मन्त्र एवं व्याख्यातः—इन्द्रेण सं हि दृश्यसे संजग्मानो अबिभ्युषा गणेन मन्दू मदिष्णू युवां स्थोऽपि वा मन्दुना तेनेति स्यात्समानवर्चसेत्येतेन व्याख्यातम्। (निरु०४.१२)॥७॥
    विषयः- केन सहैते कार्य्यसाधका भवन्तीत्युपदिश्यते।

    अन्वयः- अयं वायुरबिभ्युषेन्द्रेणैव संजग्मानः सन् तथा वायुना सह सूर्य्यश्च सङ्गत्य संदृक्षसे दृश्यते दृष्टिपथमागच्छति हि यतस्तौ समानवर्चसौ वर्तेते तस्मात्सर्वेषां मन्दू भवतः॥७॥

    भावार्थः(महर्षिकृतः)- ईश्वरेणाभिव्याप्य स्वसत्तया सूर्य्यवाय्वादयः सर्वे पदार्था उत्पाद्य धारिता वर्त्तन्ते। एतेषां मध्य खलु सूर्य्यवाय्वोर्धारणाकर्षणप्रकाशयोगेन सह वर्त्तमानाः सर्वे पदार्थाः शोभन्ते। मनुष्यैरेते विद्योपकारं ग्रहीतुं योजनीयाः। 'इदम्महदाश्चर्यं यद्बहुवचनस्यैकवचने प्रयोगः कृतोऽस्तीति। यच्च निरुक्तकारेण द्विवचनस्य स्थान एकवचनप्रयोगः कृतोऽस्त्यतोऽसङ्गतोऽस्ति।' इति च मोक्षमूलरकल्पना सम्यङ् न वर्त्तते। कुतः, व्यत्ययो बहुलम्, सुप्तिङुपग्रह० इति वचनव्यत्ययविधायकस्य शास्त्रस्य विद्यमानत्वात्। तथा निरुक्तकारस्य व्याख्यानं समञ्जसमस्ति। कुतः, मन्दू इत्यत्र सुपां सुलुग्० इति पूर्वसवर्णादेशविधायकस्य शास्त्रस्य विद्यमानत्वात्॥७॥

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    विषय

    आनन्द व दीप्ति

    पदार्थ

    १. गतमन्त्र के अनुसार निरन्तर प्रभु - स्तवन से तू (अबिभ्युषा) - भय के लवलेश से भी शून्य (इन्द्रेण) - उस परमैश्वर्यशाली प्रभु से (संजग्मानः) - मेल को प्राप्त होता हुआ (हि) - निश्चय से (संदृक्षसे) - प्रभु की उपासना में उन्नत होता चलता है । 

    २. यह स्वाभाविक ही है कि उस भीतिरहित प्रभु से मेल होने के कारण तेरा जीवन भी भय से मुक्त हो जाए तथा उस परमैश्वर्यशाली प्रभु का सान्निध्य तुझे भी ऐश्वर्यशाली बना दे । 

    ३. इस प्रकार निर्भय व ऐश्वर्यसम्पन्न होने पर उस प्रभु की समीपता में दोनों ही (मन्दू)  - सदा प्रसन्न दिखते हो । प्रभु तो सदा आनन्दमय हैं ही  , जीव भी प्रभु के सान्निध्य में आनन्दमय प्रतीत होता है  , निर्भयता में ही आनन्द है । 

    ४. प्रभु की समीपता होने पर तुम दोनों (समानवर्चसा) - तुल्य दीप्तिवाले दिखते हो  , जैसे होता अग्नि - सान्निध्य में अग्नि - जैसा हो जाता है उसी प्रकार जीव प्रभु के सान्निध्य में प्रभु जैसा हो जाता है । इनका ऐश्वर्य वेदान्तदर्शन के शब्दों में परमात्मा जैसा ही हो जाता है । बस  , इतनी ही तो कमी रह जाती है कि ये नयी सृष्टि का निर्माण नहीं कर पाते । 

     

     

    भावार्थ

    भावार्थ - प्रभु - सान्निध्य से हम भीति - रहित  , ऐश्वर्यसम्पन्न होकर प्रभु - जैसे ही हो जाएँगे और आनन्दमय व प्रभु - तुल्य दीप्तिवाले दिखेंगे । 

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    विषय

    missing

    भावार्थ

    वायु जिस प्रकार सूर्य से युक्त होता है, दोनों समान रूप से तेजस्वी और हर्षजनक होते हैं उसी प्रकार हे वायु के समान तीव्र गति से शत्रु पर आक्रमण करने वाले निर्भय ! (इन्द्रेण) शत्रुहन्ता सेनापति के साथ (संजग्मानः ) युक्त होकर ही ( सं दिदृक्षसे ) तू शोभा पाता है। तुम दोनों ( समान वर्चसा ) समान रूप से, तेज को धारण करनेवाले और ( मन्दू ) सदा प्रसन्न और एक दूसरे को आनन्दित करने वाले हो । विद्वान् के पक्ष में —हे विद्वन् जीव ! तू ( अबिभ्युषा इन्द्रेण ) अभयस्वरूप आचार्य या परमेश्वर के साथ संगत होकर दीख रहा है । हे प्राणगण ! तू अभय आत्मा के साथ संगत है । दोनों समान तेजस्वी और एक दूसरे को आनन्दप्रद हों ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    १ — १० मधुच्छन्दा ऋषिः ॥ १—३ इन्द्रो देवता । ४, ६, ८, ९ मरुतः । ५, ७ मरुत इन्द्रश्च । १० इन्द्रः ॥ गायत्र्यः । दशर्चं सूक्तम् ।

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    ईश्वराने स्वव्याप्ती व सत्ता यांनी सूर्य व वायू इत्यादी पदार्थ उत्पन्न करून धारण केलेले आहेत. या सर्व पदार्थांत सूर्य व वायू हे दोन मुख्य आहेत. कारण यांच्या धारण, आकर्षण व प्रकाशाच्या योगाने सर्व पदार्थ शोभायमान होतात. माणसांनी पदार्थविद्येचा लाभ घेताना त्यांचा उपयोग करून घ्यावा.

    टिप्पणी

    ‘हे मोठे आश्चर्य आहे की अनेकवचनाच्या स्थानी एकवचनाचा प्रयोग केलेला आहे व निरुक्तकाराने तर द्विवचनाच्या स्थानी एकवचनाचा प्रयोग मानलेला आहे, त्यासाठी तो असंगत आहे. ’ ही मोक्षमूलर साहेबांची कल्पना योग्य नाही. कारण ‘व्यत्ययो ब. सुप्तिङ्पग्रहे. ’ व्याकरणाच्या या प्रमाणाने वचनव्यत्यय होतो व निरुक्तकाराची व्याख्या सत्य आहे, कारण ‘सुपां सु. ’ या सूत्राने ‘मन्दू’ या शब्दात द्विवचनाला पूर्वसवर्ण दीर्घ एकादेश झालेला आहे. ॥ ७ ॥

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    इंग्लिश (4)

    Meaning

    Marut, wind energy, is seen while moving alongwith the indomitable sun, both beautiful and joyous, divinities coexistent, equal in splendour by virtue of omnipresent Indra, Lord Supreme.

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    Subject of the mantra

    Aforesaid materials are capable of accomplishing work with whose help, this has been elucidated in this mantra.

    Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-

    (ayam)=it, (vāyuḥ)=air, (abibhyuṣā)=group of rays who dissipate fear and with genus of air, (indreṇa)=with God or sun, (eva)=only, (saṃjagmānaḥ+san)=being well received, (tathā)=similarly, (vāyunā)=by air, (saha)=with, (sūryyaḥ)=sun, (ca)=also, (saṅagatya)=in companionship, (varttamānaḥ)=is present, (dṛśyase)=appear, (dṛṣṭipatham)=in the path of vision, (āgacchati)=comes, (hi)=definitely, (yataḥ)=which way, (tau)=those two, (samāna)=equal, (varcasau)=all materials are elucidated by whom both with the help of study of Vedas, (vartete)=are, (tasmāt)=by those, (sarveṣām)=to all living beings, (mandū)=is making delighted, (bhavataḥ)=to you.

    English Translation (K.K.V.)

    This air is present with group of rays who dissipate fear and with genus of air, being well received with the God or the Sun. Similarly, it is also visible in association with the Sun through the air and comes in the path of vision. Surely in the same way, by the study of the same Vedas, by which all things are illuminated. He is the one to delight all living beings and you.

    TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand

    Out of all these substances which God has created by creating and imbibing the Sun and air etc., among all these substances, both Sun and the air are the main ones, because by the sum of their holding, attraction and light, all things are adorned. Human beings should equip them to take favour from material science.

    TRANSLATOR’S NOTES-

    It is very surprising that singular is used in place of plural, and the composer of Nirukta has considered the use of singular in place of plural, so it is inconsistent. For this too, being Maxmuller’s hypothesis is not proper, because this proof of “vyatyayo ba0 suptiṅupagraha0” (change of case due to certain vedic grammatical rules). This proof of grammar leads that Vachanavyatyya (change of singular to plural etc.) and the explanation of the composer of Nirukta is right, because by grammatical process this word becomes dual and then this becomes belonging to the same class of letters as the previous alphabet.

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    Translation

    The vital powers, strengthened by the mental conciousness of the inner self, rejoice and shine with equal splendour.

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    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    The air or the wind is seen with the presence of the Omnipotent All-pervading God and the rays of the sun. Both of them (the air and the sun) are givers of joy and are of equal splendor.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    God has created and sustained the sun, the air and other objects of the universe by His immanence and Power. Among these various objects, all shine with the sustaining power, attraction and light of the sun and the air. Men should get proper benefit from them through knowledge. Prof. Maxmuller has expressed surprise at the use of singular form instead of the plural and also criticized Yaskacharya-the author of Nirukta for taking मन्दू as मन्दुना third case singular. But he is really mistaken. In the Vedas, this change of case etc. takes place as stated by great grammarians in the aphorisms and verses like the following- व्यत्ययो बहुलम् || अष्टाध्यायाम् । सुप्तिडुपग्रहलिंगनराणां, कालहलच्स्वरकर्तृयङांच । व्यत्ययमिच्छतिशास्त्रकृदेषां, सोऽपि च सिद्धयति बाहुलकेन ॥ ( महाभाष्ये ३.१.८५ ) Mahabhashya 3, 185. सुपां सुलुक् पूर्व सवर्णाच्छेया डाड्यायाजालः ॥ अष्टा० ७. १. ३९ ) Ashtadhyayi 7.1.39. So Yaskacharya is right and Prof. Maxmuller himself is mistaken.

    Translator's Notes

    From the social point of view, the Mantra may also mean - O hero attacking the enemy with wind like speed, you shine when united with the commander of the army ( इन्द्र:- ईन् शत्रून् दारयितेति निरुक्ते ) Both of you are givers of joy and of equal splendor.

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