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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 6 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 6/ मन्त्र 5
    ऋषिः - मधुच्छन्दाः वैश्वामित्रः देवता - मरूत इन्द्रश्च छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः

    वी॒ळु चि॑दारुज॒त्नुभि॒र्गुहा॑ चिदिन्द्र॒ वह्नि॑भिः। अवि॑न्द उ॒स्रिया॒ अनु॑॥

    स्वर सहित पद पाठ

    वी॒ळु । चि॒त् । आ॒रु॒ज॒त्नुऽभिः॑ । गुहा॑ । चि॒त् । इ॒न्द्र॒ । वह्नि॑ऽभिः । अवि॑न्दः । उ॒स्रियाः॑ । अनु॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    वीळु चिदारुजत्नुभिर्गुहा चिदिन्द्र वह्निभिः। अविन्द उस्रिया अनु॥

    स्वर रहित पद पाठ

    वीळु। चित्। आरुजत्नुऽभिः। गुहा। चित्। इन्द्र। वह्निऽभिः। अविन्दः। उस्रियाः। अनु॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 6; मन्त्र » 5
    अष्टक » 1; अध्याय » 1; वर्ग » 11; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    तैः सह सूर्य्यः किं करोतीत्युपदिश्यते।

    अन्वयः

    चिद्यथा मनुष्याः स्वसमीपस्थान् पदार्थानुपर्य्यधश्च नयन्ति, तथैवेन्द्रोऽयं सूर्य्यो वीळुबलेनोस्रियाः क्षेपयित्वा पदार्थान् विन्दतेऽनु पश्चात्तान् भित्त्वाऽऽरुजत्नुभिर्वह्निभिर्मरुद्भिः सह त्वामेतत्पदार्थसमूहं गुहायामन्तरिक्षे स्थापयति॥५॥

    पदार्थः

    (वीळु) दृढं बलम्। वीळु इति बलनामसु पठितम्। (निघं०२.९) (चित्) उपमार्थे। (निरु०१.४) (आरुजत्नुभिः) समन्ताद् भञ्जद्भिः। आङ्पूर्वाद् रुजो भङ्ग इत्यस्माद्धातोरौणादिकः क्त्नुः प्रत्ययः। (गुहा) गुहायामन्तरिक्षे। सुपां सुलुगिति ङेर्लुक्। गुहा गूहतेः। (निरु०१३.८) (चित्) एवार्थे। चिदिदं पूजायाम्। (निरु०१.४) (इन्द्रः) सूर्य्यः (वह्निभिः) वोढृभिर्मरुद्भिः सह। वहिशृ० (उणा०४.५१) इति वहेरौणादिको निः प्रत्ययः। (अविन्दः) लभते। पूर्ववदत्र पुरुषव्यत्ययः, लडर्थे लङ् च। (उस्रियाः) किरणाः। अत्र इयाडियाजीकाराणामुपसंख्यानमित्यनेन शसः स्थाने डियाजादेशः। उस्रेति रश्मिनामसु पठितम्। (निघं०१.५) (अनु) पश्चादर्थे॥५॥

    भावार्थः

    अत्रोपमालङ्कारः। यथा बलवन्तो मरुतो दृढेन स्ववेगेन दृढानपि वृक्षादीन् भञ्जन्ति तथा सूर्य्यस्तानहर्निशं किरणैश्छिनत्ति मरुतश्च तानुपर्य्यधो नयन्ति, एवमेवेश्वरनियमेन सर्वे पदार्था उत्पत्तिविनाशावपि प्राप्नुवन्ति। ‘हे इन्द्र ! त्वया तीक्ष्णगतिभिर्वायुभिः सह गूढस्थानस्था गावः प्राप्ता’ इति मोक्षमूलरव्याख्याऽसङ्गतास्ति। कुतः, उस्रेति रश्मिनामसु निघण्टौ (१.५) पठितत्वेनात्रैतस्यार्थस्यैवार्थस्य योग्यत्वात्। गुहेत्यनेन सर्वावरकत्वादन्तरिक्षस्यैव ग्रहणार्हत्वादिति॥५॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    उन पवनों के साथ सूर्य्य क्या करता है, सो अगले मन्त्र में उपदेश किया है-

    पदार्थ

    (चित्) जैसे मनुष्य लोग अपने पास के पदार्थों को उठाते धरते हैं, (चित्) वैसे ही सूर्य्य भी (वीळु) दृढ बल से (उस्रियाः) अपनी किरणों करके संसारी पदार्थों को (अविन्दः) प्राप्त होता है, (अनु) उसके अनन्तर सूर्य्य उनको छेदन करके (आरुजत्नुभिः) भङ्ग करने और (वह्निभिः) आकाश आदि देशों में पहुँचानेवाले पवन के साथ ऊपर-नीचे करता हुआ (गुहा) अन्तरिक्ष अर्थात् पोल में सदा चढ़ाता गिराता रहता है॥५॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जैसे बलवान् पवन अपने वेग से भारी-भारी दृढ वृक्षों को तोड़ फोड़ डालते और उनको ऊपर नीचे गिराते रहते हैं, वैसे ही सूर्य्य भी अपनी किरणों से उनका छेदन करता रहता है, इससे वे ऊपर नीचे गिरते रहते हैं। इसी प्रकार ईश्वर के नियम से सब पदार्थ उत्पत्ति और विनाश को भी प्राप्त होते रहते हैं। ।हे इन्द्र ! तू शीघ्र चलनेवाले वायु के साथ अप्राप्त स्थान में रहनेवाली गौओं को प्राप्त हुआ। यह भी मोक्षमूलर साहब की व्याख्या असङ्गत है, क्योंकि उस्रा यह शब्द निघण्टु में रश्मि नाम में पढ़ा है, इससे सूर्य्य की किरणों का ही ग्रहण होना योग्य है। तथा गुहा इस शब्द से सबको ढाँपनेवाला होने से अन्तरिक्ष का ग्रहण है॥५॥

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    विषय

    उन पवनों के साथ सूर्य्य क्या करता है, सो इस मन्त्र में उपदेश किया है।

    सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः

    चिद् यथा मनुष्याः स्वसमीप स्थान् पदार्थान् उपरि अधः च  नयन्ति तथा एव इन्द्रः अयं  सूर्य्यः वीळु बलेनः उस्रियाः क्षेपयित्वा पदार्थान् विन्दते अनु पश्चात् तान् भित्त्वा आरुजत्नुभिः वर्ह्निभिः मरुर्द्भिः सह त्वाम् एतत् पदार्थ समूहं गुहायाम् अन्तरिक्षे स्थापयति॥५॥

    पदार्थ

    पदार्थ- (चित्) उपमार्थे=जैसे, (यथा)=जैसे, (मनुष्याः)=मनुष्य लोग, (स्व)=अपने, (समीप)=पास के, (स्थान्)=स्थान, (पदार्थान्)=पदार्थों को, (उपरि)=ऊपर, (अध्ः)=नीचे, (च)=और, (नयन्ति)=ले जाते हैं, (तथा)=वैसे ही, (एव)=ही, (इन्द्रः)=परमेश्वर, (अयम्)=यह, (सूर्य्यः)=सूर्य, (वीळु) दृढं बलम्=दृढ बल से, (बलेनः)=बल से, (उस्रियाः) किरणः=किरणों से, (क्षेपयित्वा)=फेंक करके, (पदार्थान्)=पदार्थों को, (विन्दते)=प्राप्त करने, (अनु-पश्चादर्थे)=के पश्चात्, (पश्चात्)=पश्चात्, (तान्)=उनको, (भित्वा)=टुकड़े - टुकड़े करके, (आरुजत्नुभिः) समन्ताद् भञ्जद्भिः=चारों ओर से भङ्ग करके, (वह्निभिः) वोढृभिर्मरुद्भिः सह= आकाश आदि देशों में पवन के साथ, (सह)=साथ, (त्वाम्)=तुम्हारे, (एतत्)=इस, (पदार्थ)=पदार्थ, (समूहम्)=समूह को, (गुहायाम्)=अन्तरिक्ष आदि के खाली स्थान में, (अन्तरिक्षे)=अन्तरिक्ष में, (स्थापयति)=स्थापित करता है।
     

    महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद

    इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जैसे बलवान् पवन अपने वेग से भारी-भारी दृढ वृक्षों को तोड़ फोड़ डालते हैं और उनको ऊपर-नीचे गिराते रहते हैं, वैसे ही सूर्य भी अपनी किरणों से उनका छेदन करता रहता है, इससे वे ऊपर नीचे गिरते रहते हैं। इसी प्रकार ईश्वर के नियम से सब पदार्थ उत्पत्ति और विनाश को भी प्राप्त होते रहते हैं। हे इन्द्र ! तू शीघ्र चलनेवाले वायु के साथ अप्राप्त स्थान में रहनेवाली गौओं को प्राप्त करे। ॥५॥

    विशेष

    अनुवादक की टिप्पणी- महर्षि के अनुसार यह भी मोक्षमूलर साहब की व्याख्या असङ्गत है, क्योंकि उस्रा यह शब्द निघण्टु में रश्मि नाम में पढ़ा है, इससे सूर्य्य की किरणों का ही ग्रहण होना योग्य है। तथा गुहा इस शब्द से सबको ढाँपनेवाला होने से अन्तरिक्ष का ग्रहण किया गया है॥५॥

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)

    (चित्) जैसे (मनुष्याः) मनुष्य लोग (स्व) अपने (समीप) पास के (स्थान्) स्थान के (पदार्थान्) पदार्थों को (उपरि) ऊपर (च) और (अधः) नीचे (नयन्ति) ले जाते हैं, (तथा) वैसे ही (एव) ही (इन्द्रः) परमेश्वर (अयम्) इस (सूर्य्यः) सूर्य (वीळु) के दृढ बल से (उस्रियाः) और इसकी किरणों से (क्षेपयित्वा) फेंक-फेंक करके (पदार्थान्) पदार्थों को (विन्दते) प्राप्त करती हैं। (अनु) इसके पश्चात् (तान्) उनको (भित्वा) टुकड़े-टुकड़े करके (आरुजत्नुभिः) चारों ओर से भङ्ग करके (वह्निभिः) आकाश आदि स्थानों में पवन के (सह) साथ (त्वाम्) तुम्हारे (एतत्) इस (पदार्थ) पदार्थ (समूहम्) समूह को (गुहायाम्) अन्तरिक्ष आदि के खाली स्थान में (स्थापयति) स्थापित करता है। 

    संस्कृत भाग

    पदार्थः(महर्षिकृतः)- (वीळु) दृढं बलम्। वीळु इति बलनामसु पठितम्। (निघं०२.९) (चित्) उपमार्थे। (निरु०१.४) (आरुजत्नुभिः) समन्ताद् भञ्जद्भिः। आङ्पूर्वाद् रुजो भङ्ग इत्यस्माद्धातोरौणादिकः क्त्नुः प्रत्ययः। (गुहा) गुहायामन्तरिक्षे। सुपां सुलुगिति ङेर्लुक्। गुहा गूहतेः। (निरु०१३.८) (चित्) एवार्थे। चिदिदं पूजायाम्। (निरु०१.४) (इन्द्रः) सूर्य्यः (वह्निभिः) वोढृभिर्मरुद्भिः सह। वहिशृ० (उणा०४.५१) इति वहेरौणादिको निः प्रत्ययः। (अविन्दः) लभते। पूर्ववदत्र पुरुषव्यत्ययः, लडर्थे लङ् च। (उस्रियाः) किरणाः। अत्र इयाडियाजीकाराणामुपसंख्यानमित्यनेन शसः स्थाने डियाजादेशः। उस्रेति रश्मिनामसु पठितम्। (निघं०१.५) (अनु) पश्चादर्थे॥५॥

    विषयः- तैः सह सूर्य्यः किं करोतीत्युपदिश्यते।

    अन्वयः- चिद्यथा मनुष्याः स्वसमीपस्थान् पदार्थानुपर्य्यधश्च नयन्ति, तथैवेन्द्रोऽयं सूर्य्यो वीळुबलेनोस्रियाः क्षेपयित्वा पदार्थान् विन्दतेऽनु पश्चात्तान् भित्त्वाऽऽरुजत्नुभिर्वह्निभिर्मरुद्भिः सह त्वामेतत्पदार्थसमूहं गुहायामन्तरिक्षे स्थापयति॥५॥

    भावार्थः(महर्षिकृतः) - अत्रोपमालङ्कारः। यथा बलवन्तो मरुतो दृढेन स्ववेगेन दृढानपि वृक्षादीन् भञ्जन्ति तथा सूर्य्यस्तानहर्निशं किरणैश्छिनत्ति मरुतश्च तानुपर्य्यधो नयन्ति, एवमेवेश्वरनियमेन सर्वे पदार्था उत्पत्तिविनाशावपि प्राप्नुवन्ति। 'हे इन्द्र ! त्वया तीक्ष्णगतिभिर्वायुभिः सह गूढस्थानस्था गावः प्राप्ता' इति मोक्षमूलरव्याख्याऽसङ्गतास्ति। कुतः, उस्रेति रश्मिनामसु निघण्टौ (१.५) पठितत्वेनात्रैतस्यार्थस्यैवार्थस्य योग्यत्वात्। गुहेत्यनेन सर्वावरकत्वादन्तरिक्षस्यैव ग्रहणार्हत्वादिति॥५॥
     

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    विषय

    वासना - विनाश

    पदार्थ

    १. गतमन्त्र के अनुसार अपने मन को वश में करने के लिए और उस मन को 'प्रभु - नामस्मरण' में लगाने के लिए आवश्यक है कि हम प्राणसाधना करें । यह प्राणसाधना ही चित्तवृतिनिरोध का एकमात्र साधन है । जब जीवात्मा काम - क्रोध - लोभ आदि वृत्तियों के साथ संग्राम कर रहा होता है तब वह स्वयं "इन्द्र' कहलाता है । वह इस युद्ध में सेनापति होता है और प्राण - मरुत् होते हैं इस इन्द्र के सैनिक । इन्द्र ने इन मरुतों के द्वारा विजय प्राप्त करनी है । ये मरुत् इन कामादि प्रबलतम भावनाओं को भी नष्ट - भ्रष्ट करनेवाले होते हैं । ये वासनाएँ कहीं भी हृदयगुहा में छिपी हों  , मरुत् उन्हें नष्ट करते ही हैं । इन वासनाओं के नष्ट होने पर हृदय में प्रकाश - ही - प्रकाश हो जाता है । 

    २. मन्त्र में इसी अर्थ का प्रतिपादन इन शब्दों में हुआ है कि - हे (इन्द्र) - इन्द्रियों को वश में करने के लिए यत्नशील जीव  ! (वीळुचित्) - अत्यन्त प्रबल भी (गुहाचित्) - कहीं हृदय - गुहा में छिपकर बैठी हुई भी इन वासनाओं को (आरुजत्नुभिः) - सब प्रकार से पूर्णतया नष्ट करनेवाले और इस प्रकार (वह्निभिः) - लक्ष्य - स्थान तक ले जानेवाले इन मरुतों [प्राणों] से युक्त होकर तू (उस्त्रियाः) - ज्ञानरश्मियों [Light] को (अन्वविन्दः) प्राप्त करता है । 

    ३. यहाँ मन्त्र में 'मरुत्' शब्द नहीं पढ़ा गया । मन्त्र का देवता 'मरुतः' है  , अतः मरुत् का ग्रहण आवश्यक ही है । 

    भावार्थ

    भावार्थ - प्राणसाधना से वासनाएँ नष्ट हो जाती हैं  , हृदयान्धकार दूर होता है और प्रकाश का प्रसार हो जाता है । 

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    विषय

    missing

    भावार्थ

    ( आरुजत्नुभिः ) तोड़ फोड़ करनेवाले ( वह्निभिः ) बलवान्, उठाकर फेंकने वाले अग्नियों से जिस प्रकार ( वीलु चित् ) दृढ़, बलवान् दुर्ग को भी तोड़ डाला जाता है और ( गुहाचित् ) गुफा में जैसे ( उस्त्रियाः ) ऊपर निकलने वाले रत्न आदि पदार्थ प्राप्त किये जाते हैं उसी प्रकार ( आरुजत्नुभिः ) शत्रुओं का गढ़ तोड़ने वाले ( वह्निभिः ) सेना के मुख्य पदों को धारण करने वाले नायकों के साथ ( गुहाचित् ) पर्वतों के गुप्त भागों में भी ( वीलु ) दृढ़ता से ( उस्त्रियाः ) नाना ऐश्वर्य देनेवाली भूमियों, गौवों-प्रजाओं को भी ( अनु अविन्दः ) प्राप्त कर । आत्मा के पक्ष में—हे ( इन्द्र ) आत्मन् ! अज्ञान के आवरणों को तोड़ने में समर्थ (वह्निभिः) शरीर के धारक प्राणों द्वारा ही ( वीळुचित् ) अति दृढ़ता से तू ( गुहाचित् ) भीतरी पुरीतत् नाम गुहा में प्रवेश करके ( अनु ) अनन्तर ( उस्रिया: ) प्रकाशमय किरणों को प्राप्त कर । सूर्य के पक्ष में—( आरुजत्नुभिः ) छेदन भेदन, संयोग विभाग करने वाले वायुओं द्वारा (गुहाचित्) आकाश में ही गति उत्पन्न करके ( उस्त्रियाः अनु ) किरणों से ही जलादि पदार्थों को धारण करता है [दया०] । अथवा—इन्द्र = विद्युत् ही वायुओं द्वारा ( उत्रियाः ) बह निकलने वाली जल धाराओं को प्रकट करता है [ग्री०] । सूर्य अन्तरिक्ष में ( उस्रियाः ) दिनों को प्रकट करता है [ मैक्स० ]। विद्वान् के पक्ष में—अज्ञान का नाश करने वाले ( वह्निभिः) अग्निस्वरूप आचार्यों से ( वीलु ) दृढ़ सत्य, ज्ञान प्राप्त कर हृदय गुहा में ज्ञान वाणियों को प्राप्त करता है । इत्येकादशो वर्गः ॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    १ — १० मधुच्छन्दा ऋषिः ॥ १—३ इन्द्रो देवता । ४, ६, ८, ९ मरुतः । ५, ७ मरुत इन्द्रश्च । १० इन्द्रः ॥ गायत्र्यः । दशर्चं सूक्तम् ।

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात उपमालंकार आहे. जसा बलवान वायू आपल्या वेगाने मोठमोठ्या मजबूत वृक्षांना तोडून टाकतो व त्यांचा विध्वंस करतो. तसेच सूर्यही आपल्या किरणांनी पदार्थांना छिन्न भिन्न करतो. त्यामुळे ते खाली-वर होत असतात. याचप्रकारे ईश्वराच्या नियमाने सर्व पदार्थांची उत्पत्ती व विनाश होतो. ॥ ५ ॥

    टिप्पणी

    ‘‘हे इंद्र! तू जलद वाहणाऱ्या वायूबरोबर अप्राप्त स्थानी राहणाऱ्या गायींना प्राप्त केलेस’’ ही मोक्षमूलर साहेबाची व्याख्याही अनुचित आहे. कारण उस्रा हा शब्द निघण्टुमध्ये रश्मि या अर्थाने वापरलेला आहे. यामुळे सूर्याची किरणे हाच अर्थ योग्य आहे. ‘गुहा’ या शब्दाचा अर्थ सर्वांना आच्छादित करणारा असल्यामुळे अंतरिक्ष असा ग्रहण केलेला आहे. ॥ ५ ॥

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    इंग्लिश (4)

    Meaning

    The mighty sun with its piercing rays breaks down things in the sky, and the wind with its currents after the sunbeams reconstructs and replaces new forms of things in the sky.

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    Subject of the mantra

    What does the Sun do with those airs, has been preached in this mantra.

    Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-

    (cit)=Just as, (manuṣyāḥ)=men, (sva)=own, (samīpa)=near, (sthān)=place, (padārthān)=to materials, (upari)=upwards, (adhḥ)=downwards, (ca)=and, (nayanti)=take away, (tathā)=in the same way, (eva)=only, (indraḥ)=God, (ayam)=it, (sūryyaḥ)=sun, (vīḻu)=by firm power, Baleyanah=by power, (usriyāḥ)=by rays, (kṣepayitvā)=by throwing, (padārthān)=to materials, (vindate)=to obtain, (anu-paścādarthe)after it, (tān)=to them, (bhitvā)=by cutting in pieces, (ārujatnubhiḥ)=by destroying from all directions, (vahnibhiḥ)= of the wind in the sky etc. (saha)=in company, (tvām) =your, (etat)=it, (padārtha)=material, (samūham)=Group, (guhāyām)=in vaccum of sky et cetera, antarikshey=in sky, (sthāpayati)=installs.

    English Translation (K.K.V.)

    Just as human beings carry up and down the objects around them, in the same way the God receives the objects by the strong force of the Sun and by throwing them away from its rays. After this, breaking them into pieces from all sides, along with the wind in the sky etc. places, this material group of yours and is established in the empty space of space et cetera.

    TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand

    There is latent silmile as a figurative in this mantra. Just as the mighty wind breaks down heavy trees and makes them fall up and down, so the Sun also pierces them with its rays, causing them to fall up and down. In the same way, by the rule of God, all things continue to be created and destroyed. O Indra! You should get the cows living in the unexplored places with the fast moving wind.

    TRANSLATOR’S NOTES-

    According to Maharishi Dayananda as per his comments on the interpretation of Maxmuller on this mantra is as noted below- This interpretation of Maxmular is also inconsistent, because the word 'Usra' is read in the name Rashmi (Rays of the Sun) in Nighantu, due to which only the rays of the Sun are eligible to be received; and because of the word cavity that covers all, the space has been assumed.

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    Translation

    Aided by the speedy vital and mental faculties, may you traverse places difficult of access, and discover divine enlightenment as a cowherd recovers cows hidden in a Cave.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    What does the sun do is taught in the 5th Mantra.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    As men carry things and put them in proper places, so the sun scatters his rays with his force and attains (touches) all objects. Then he pierces them and with the winds that break down things, he places them in the middle region.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    There is the simile here. As powerful winds break even strong trees with their force, so the sun pierces them with his rays and the winds take them above and below. Thus according to the eternal laws ordained by God, all objects are produced and perish at the end. Wilson's translation is.... "O Indra thou hast discovered the cows hidden in the caven” is absurd. The word उस्रिया : (Usriyah) used in this Mantra stands for the rays according to the Vedic Lexicon ( Nighantu 1.5 उस्रा इति रश्मिनामसु ( निघ० १.५ ) By गुहा is meant the middle region गुहा गूहते: निरु० १३.८ सर्वावर केत्वात् अत्रान्तरिक्षस्य ग्रहणम् as it covers all. “Thou O Indra, with the Swift Maruts (Storm Gods) who break through the even strong hold, hast found even in their hiding place the bright ones (days or clouds) (V. H. P. 14).

    Translator's Notes

    Griffith follows Prof. Maxmuller translating the mantra 'Thou, Indra, with the tempest Gods, the breakers down of what is firm. Foundest the Kine even in the cave. To translate the word मरुत: (Marutah ) as Storm Gods (as done by Prof. Maxmuller) or tempest Gods as done by Griffith is entirely erroneous. It means Pranas ( breaths ). Winds, priests and heroes मरुतः मितराविणोऽमितरोचिनो महद् द्रवन्तीति वा निरुक्ते ११.१३ These Western Translators were always obsessed with the idea of finding out Gods and Godesses in the Vedas, forgetting the very fundamental principle of the Vedic Monotheism.

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