ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 90/ मन्त्र 2
ते हि वस्वो॒ वस॑वाना॒स्ते अप्र॑मूरा॒ महो॑भिः। व्र॒ता र॑क्षन्ते वि॒श्वाहा॑ ॥
स्वर सहित पद पाठते । हि । वस्वः॑ । वस॑वानाः । ते । अप्र॑ऽमूराः । महः॑ऽभिः । व्र॒ता । र॒क्ष॒न्ते॒ । वि॒श्वाहा॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
ते हि वस्वो वसवानास्ते अप्रमूरा महोभिः। व्रता रक्षन्ते विश्वाहा ॥
स्वर रहित पद पाठते। हि। वस्वः। वसवानाः। ते। अप्रऽमूराः। महःऽभिः। व्रता। रक्षन्ते। विश्वाहा ॥
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 90; मन्त्र » 2
अष्टक » 1; अध्याय » 6; वर्ग » 17; मन्त्र » 2
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अष्टक » 1; अध्याय » 6; वर्ग » 17; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्ते विद्वांसः कथंभूत्वा किं कुर्य्युरित्युपदिश्यते ॥
अन्वयः
ते पूर्वोक्ता वसवाना हि महोभिर्विश्वाहा विश्वाहानि वस्वो रक्षन्ते। ये अप्रमूरा धार्मिकास्ते महोभिर्विश्वाहानि व्रता रक्षन्ते ॥ २ ॥
पदार्थः
(ते) (हि) खलु (वस्वः) वसूनि द्रव्याणि। वा च्छन्दसि सर्वे विधयो भवन्तीति नुमभावे। जसादिषु छन्दसि वा वचनमिति गुणाभावे च यणादेशः। (वसवानाः) स्वगुणैः सर्वानाच्छादयन्तः। अत्र बहुलं छन्दसीति शपो लुङ् न शानचि व्यत्ययेन मकारस्य वकारः। (ते) (अप्रमूराः) मूढत्वरहिता धार्मिकाः। अत्रापि वर्णव्यत्येन ढस्य स्थाने रेफादेशः। (महोभिः) महद्भिर्गुणकर्मभिः (व्रता) सत्यपालननियतानि व्रतानि (रक्षन्ते) व्यत्ययेनात्मनेपदम् (विश्वाहा) सर्वदिनानि ॥ २ ॥
भावार्थः
नहि विद्वद्भिर्विना केनचिद्धनानि धर्माचरणानि च रक्षितुं शक्यन्ते, तस्मात् सर्वैर्मनुष्यैर्नित्यं विद्या प्रचारणीया यतः सर्वे विद्वांसो भूत्वा धार्मिका भवेयुरिति ॥ २ ॥
हिन्दी (4)
विषय
फिर वे विद्वान् कैसे होकर क्या करें, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥
पदार्थ
(ते) वे पूर्वोक्त विद्वान् लोग (वसवानाः) अपने गुणों से सबको ढाँपते हुए (हि) निश्चय से (महोभिः) प्रशंसनीय गुण और कर्मों से (विश्वाहा) सब दिनों में (वस्वः) धन आदि पदार्थों की (रक्षन्ते) रक्षा करते हैं तथा जो (अप्रमूराः) मूढ़त्वप्रमादरहित धार्मिक विद्वान् हैं (ते) वे प्रशंसनीय गुण कर्मों से सब दिन (व्रता) सत्यपालन आदि नियमों को रखते हैं ॥ २ ॥
भावार्थ
विद्वानों के विना किसी से धन और धर्मयुक्त आचार रक्खे नहीं जा सकते। इससे सब मनुष्यों को नित्य विद्याप्रचार करना चाहिये, जिससे सब मनुष्य विद्वान् होके धार्मिक हों ॥ २ ॥
विषय
तेजस्विता व अमूढ़ता
पदार्थ
१. (ते) = गतमन्त्र में वर्णित - 'वरुण, मित्र और अर्यमा' (हि) = निश्चय से (वस्वः वस्वानाः) = धनों के धारण करनेवाले हैं जोकि संसार में 'द्वेष न करना, प्रेम से चलना व काम - क्रोध तथा लोभ को वश में रखना' - इन सिद्धान्तों को अपनाकर चलते हैं, वे वसुओं के धारण करनेवाले होते हैं, वसुओं से अपने को आच्छादित करते हैं । इन्हें जीवन के लिए आवश्यक धनों की कमी नहीं रहती । २. (ते) = इन सिद्धान्तों को अपनानेवाले वे व्यक्ति (महोभिः) = तेजस्विताओं के साथ (अप्रमूराः) = अमूढ व ज्ञानयुक्त होते हैं । इनके शरीरों में बल होता है और मस्तिष्क ज्ञान से परिपूर्ण होते हैं । ३. इस प्रकार शरीर में बल और मस्तिष्क में ज्ञान को धारण करनेवाले ये व्यक्ति (विश्वाहा) = सदा (व्रता रक्षन्ते) = अपने व्रतों का रक्षण करते हैं । ये अपने पुण्य कर्मों को विच्छिन्न नहीं होने देते । इनका जीवन सदा यज्ञमय बना रहता है ।
भावार्थ
भावार्थ = निर्द्वेषता, स्नेह व जितेन्द्रियता को अपनानेवाले लोग जहाँ आवश्यक धनों को प्राप्त करते हैं वहाँ वे अकुण्ठित - बुद्धि व तेजस्वी होते हैं और सदा यज्ञमय कर्मों में लगे रहते हैं ।
विषय
धर्मात्मा विद्वान् राजा और उसके अधीन वीर जनों और विद्वानों का कर्तव्य ।
भावार्थ
जो लोग ( विश्वाहा ) सब दिनों, नित्य ( व्रता ) नियत धर्म नियमों को ( रक्षन्ते ) स्वयं पालन करते और औरों से पालन कराते हैं (ते हि ) वे ही वस्तुतः ( वस्वः ) बसे हुए प्रजाजन और ऐश्वर्य के ( बसवानाः ) सुख से बसाने और उनकी रक्षा करने में समर्थ होते हैं और (ते) वे ( विश्वाहा ) सब दिनों ( महोभिः ) बड़े २ गुणों, कर्मों और नाना उपायों द्वारा ( अप्रमूराः ) असावधानता मोह, प्रमाद और आलस्य से रहित होकर रहें ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
गोतमो राहूगणपुत्र ऋषिः ॥ विश्वेदेवा देवताः ॥ छन्दः—१,८ पिपलिकामध्या निचृद्गायत्री । २, ७ गायत्री । ३ पिपीलिकामध्या विराड् गायत्री । ४ विराड् गायत्री । ५, ६ निचृद् गायत्री । ६ निचृत् त्रिष्टुप् ॥ नवर्चं सूक्तम् ॥
विषय
विषय (भाषा)- फिर वे विद्वान् अपने गुणों से सबको पछाड़ते हुए क्या करें, यह विषय इस मन्त्र में कहा है ॥
सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः
सन्धिच्छेदसहितोऽन्वयः- ते पूर्वोक्ता वसवानाः हि महोभिर्विश्वाहा-विश्वाहानि वस्वः रक्षन्ते। ये अप्रमूराः धार्मिकाः ते महोभिः विश्वाहा नि व्रता रक्षन्ते ॥२॥
पदार्थ
पदार्थः- (ते)=वे, (पूर्वोक्ता)=पहले कहे गये विद्वान् लोग, (वसवानाः) स्वगुणैः सर्वानाच्छादयन्तः=अपने गुणों से सबको आच्छादित करते हुए, (हि) खलु=निश्चित रूप से, [महोभिर्विश्वाहा]= (विश्वाहा) सर्वदिनानि=समस्त दिनों में, (नि) नितराम= लगातार, (वस्वः) वसूनि द्रव्याणि=धन और वस्तुओं की, (रक्षन्ते)= रक्षा करते हैं, (ये)=जो, (अप्रमूराः) मूढत्वरहिता धार्मिकाः=मूर्खता से रहित धार्मिक लोग हैं, (ते)=वे, (महोभिः) महद्भिर्गुणकर्मभिः=महान् गुण और कर्मों से, (विश्वाहा) सर्वदिनानि= समस्त दिनों में, (नि)= लगातार, (व्रता) सत्यपालननियतानि व्रतानि= सत्य पालन करने के नियत व्रतों की, (रक्षन्ते) व्यत्ययेनात्मनेपदम्=रक्षा करते हैं ॥२॥
महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद
पदार्थान्वयः(म.द.स.)- ते) वे (पूर्वोक्ता) पहले कहे गये विद्वान् लोग (वसवानाः) अपने गुणों से सबको पछाड़ते हुए, (हि) निश्चित रूप से [महोभिर्विश्वाहा] समस्त दिनों में लगातार (वस्वः) धन और वस्तुओं की (रक्षन्ते) रक्षा करते हैं। (ये) जो (अप्रमूराः) मूर्खता से रहित धार्मिक लोग हैं, (ते) वे (महोभिः) महान् गुण और कर्मों से (विश्वाहा) समस्त दिनों में (नि) लगातार (व्रता) सत्य पालन करने के नियत व्रतों की (रक्षन्ते) रक्षा करते हैं ॥२॥
पदार्थान्वयः(म.द.स.)
पदार्थान्वयः(म.द.स.)- ते) वे (पूर्वोक्ता) पहले कहे गये विद्वान् लोग (वसवानाः) अपने गुणों से सबको पछाड़ते हुए, (हि) निश्चित रूप से [महोभिर्विश्वाहा] समस्त दिनों में लगातार (वस्वः) धन और वस्तुओं की (रक्षन्ते) रक्षा करते हैं। (ये) जो (अप्रमूराः) मूर्खता से रहित धार्मिक लोग हैं, (ते) वे (महोभिः) महान् गुण और कर्मों से (विश्वाहा) समस्त दिनों में (नि) लगातार (व्रता) सत्य पालन करने के नियत व्रतों की (रक्षन्ते) रक्षा करते हैं ॥२॥
संस्कृत भाग
ते । हि । वस्वः॑ । वस॑वानाः । ते । अप्र॑ऽमूराः । महः॑ऽभिः । व्र॒ता । र॒क्ष॒न्ते॒ । वि॒श्वाहा॑ ॥ विषयः- पुनस्ते विद्वांसः कथंभूत्वा किं कुर्य्युरित्युपदिश्यते ॥ भावार्थः(महर्षिकृतः)- नहि विद्वद्भिर्विना केनचिद्धनानि धर्माचरणानि च रक्षितुं शक्यन्ते, तस्मात् सर्वैर्मनुष्यैर्नित्यं विद्या प्रचारणीया यतः सर्वे विद्वांसो भूत्वा धार्मिका भवेयुरिति ॥२॥
मराठी (1)
भावार्थ
विद्वानांशिवाय कुणालाही धन व धर्माचरणाचे रक्षण करता येऊ शकत नाही. त्यामुळे सर्व माणसांनी नित्य विद्याप्रचार करावा, ज्यामुळे सर्व माणसे विद्वान बनून धार्मिक व्हावीत ॥ २ ॥
इंग्लिश (3)
Meaning
They are the wealth, they are the values. They shower all with wealth and the values of life. They are intelligent, they know, they are great with great things and grandeur of existence. They guard and maintain the discipline and laws of life for all time.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
What should learned persons do is taught in the second Mantra.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
Those learned persons covering all with their virtues or being virtuous protect all good objects with their great attributes and actions. They being scholars and righteous observe day and night the vows of truth and harmlessness etc.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
(अप्रमूराः) मूढत्वरहिता धार्मिकाः | अत्रवर्णव्यत्ययेन ढस्यस्थाने रेफादेश: = Devoid of foolishness, Wise and righteous. (वसवानाः) स्वगुणैः सर्वान् आच्छादयन्त: = Covering all with their virtues or being virtuous.
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
It is God or His devotee absolutely truthful person that lead an industrious and seeker after wisdom and knowledge, towards righteousness and noble acts.
Subject of the mantra
Then, what should those scholars do by surpassing everyone with their qualities? This matter is mentioned in this mantra.
Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-
(te) =They, (pūrvoktā)=learned people mentioned earlier, (vasavānāḥ)=surpassing everyone with their virtues, (hi)=certainly, [mahobhirviśvāhā] =continuously throughout all day, (vasvaḥ)= of wealth and goods, (rakṣante)= protect, (ye) =those, (apramūrāḥ)=there are righteous people without foolishness, (te) =they, (mahobhiḥ) =with great qualities and deeds, (viśvāhā)= in all the days, (ni) =continuously, (vratā)=of vows to follow the truth (rakṣante) =protect.
English Translation (K.K.V.)
Those learned people mentioned earlier, surpassing everyone with their virtues, certainly continuously protect wealth and things throughout in all days. Those who are virtuous and free from foolishness, by noble virtues and deeds, protect their vows of following the truth continuously in all the days.
TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand
Without scholars, one's wealth and righteous conduct cannot be protected. Therefore, knowledge should be propagated daily by all human beings, so that everyone becomes learned and righteous.
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