ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 90/ मन्त्र 9
ऋषिः - गोतमो राहूगणः
देवता - विश्वेदेवा:
छन्दः - निचृदनुष्टुप्
स्वरः - गान्धारः
शं नो॑ मि॒त्रः शं वरु॑णः॒ शं नो॑ भवत्वर्य॒मा। शं न॒ इन्द्रो॒ बृह॒स्पतिः॒ शं नो॒ विष्णु॑रुरुक्र॒मः ॥
स्वर सहित पद पाठशम् । नः॒ । मि॒त्रः । शम् । वरु॑णः॒ । शम् । नः॒ । भ॒व॒तु॒ । अ॒र्य॒मा । शम् । नः॒ । इन्द्रः॑ । बृह॒स्पतिः॑ । शम् । नः॒ । विष्णुः॑ । उ॒रु॒ऽक्र॒मः ॥
स्वर रहित मन्त्र
शं नो मित्रः शं वरुणः शं नो भवत्वर्यमा। शं न इन्द्रो बृहस्पतिः शं नो विष्णुरुरुक्रमः ॥
स्वर रहित पद पाठशम्। नः। मित्रः। शम्। वरुणः। शम्। नः। भवतु। अर्यमा। शम्। नः। इन्द्रः। बृहस्पतिः। शम्। नः। विष्णुः। उरुऽक्रमः ॥
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 90; मन्त्र » 9
अष्टक » 1; अध्याय » 6; वर्ग » 18; मन्त्र » 4
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अष्टक » 1; अध्याय » 6; वर्ग » 18; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनरीश्वरो विद्वांसश्च मनुष्येभ्यः किं कुर्वन्तीत्युपदिश्यते ॥
अन्वयः
हे मनुष्या ! यथाऽस्मदर्थमुरुक्रमो मित्रो नः शमुरुक्रमो वरुणो नः शमुरुक्रमोऽर्यमा नः शमुरुक्रमो बृहस्पतिरिन्द्रो नः शमुरुक्रमो विष्णुर्नः शं च भवतु तथा युष्मदर्थमपि भवतु ॥ ९ ॥
पदार्थः
(शम्) सुखकारी (नः) अस्मभ्यम् (मित्रः) सर्वसुखकारी (शम्) शान्तिप्रदः (वरुणः) सर्वोत्कृष्टः (शम्) आरोग्यसुखदः (नः) अस्मभ्यम् (भवतु) (अर्यमा) न्यायव्यवस्थाकारी (शम्) ऐश्वर्यसौख्यप्रदः (नः) अस्मदर्थम् (इन्द्रः) परमैश्वर्यप्रदः (बृहस्पतिः) बृहत्यो वाचो विद्यायाः पतिः पालकः (शम्) विद्याव्याप्तिप्रदः (नः) अस्मभ्यम् (विष्णुः) सर्वगुणेषु व्यापनशीलः (उरुक्रमः) बहवः क्रमाः पराक्रमा यस्य सः ॥ ९ ॥
भावार्थः
नहि परमेश्वरेण समः कश्चित्सखा श्रेष्ठो न्यायकार्यैश्वर्यवान् बृहत्स्वामी व्यापकः सुखकारी च विद्यते। नहि च विदुषा तुल्यः प्रियकारी धार्मिकः सत्यकारी विद्यादिधनप्रदो विद्यापालकः शुभगुणकर्मसु व्याप्तिमान् महापराक्रमी च भवितुं शक्यः। तत्स्मात्सर्वैर्मनुष्यैरीश्वरस्य स्तुतिप्रार्थनोपासना विदुषां सेवासङ्गौ च सततं कृत्वा नित्यमानन्दयितव्यमिति ॥ ९ ॥ अत्राऽध्यापकाऽध्येतॄणामीश्वरस्य च कर्त्तव्यफलस्योक्तत्वादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिरस्तीति वेद्यम् ॥
हिन्दी (6)
विषय
फिर ईश्वर और विद्वान् लोग मनुष्यों के लिये क्या-क्या करते हैं, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥
पदार्थ
हे मनुष्यो ! जैसे हमारे लिये (उरुक्रमः) जिसके बहुत पराक्रम हैं, वह (मित्रः) सबका सुख करनेवाला, (नः) हम लोगों के लिये (शम्) सुखकारी, वा जिसके बहुत पराक्रम हैं, वह (वरुणः) सबमें अति उन्नतिवाला, हम लोगों के लिये (शम्) शान्ति सुख का देनेवाला, वा जिसके बहुत पराक्रम हैं, वह (अर्य्यमा) न्याय करनेवाला, (नः) हम लोगों के लिये (शम्) आरोग्य सुख का देनेवाला, जिसके बहुत पराक्रम हैं, वह (बृहस्पतिः) महत् वेदविद्या का पालनेवाला, वा जिसके बहुत पराक्रम हैं वह (इन्द्रः) परमैश्वर्य देनेवाला, (नः) हम लोगों के लिये (शम्) ऐश्वर्य सुखकारी, वा जिसके बहुत पराक्रम हैं, वह (विष्णुः) सब गुणों में व्याप्त होनेवाला परमेश्वर तथा उक्त गुणोंवाला विद्वान् सज्जन पुरुष (नः) हम लोगों के लिये पूर्वोक्त सुख और (शम्) विद्या में सुख देनेवाला (भवतु) हो ॥ ९ ॥
भावार्थ
परमेश्वर के समान मित्र, उत्तम न्याय का करनेवाला, ऐश्वर्य्यवान्, बड़े-बड़े पदार्थों का स्वामी तथा व्यापक सुख देनेवाला और विद्वान् के समान प्रेम उत्पादन करने, धार्मिक सत्य व्यवहार वर्त्तने, विद्या आदि धनों को देने और विद्या पालनेवाला शुभ गुण और सत्कर्मों में व्याप्त महापराक्रमी कोई नहीं हो सकता। इससे सब मनुष्यों को चाहिये कि परमात्मा की स्तुति, प्रार्थना, उपासना, निरन्तर विद्वानों की सेवा और संग करके नित्य आनन्द में रहें ॥ ९ ॥ इस सूक्त में पढ़ने-पढ़ानेवालों के और ईश्वर के कर्त्तव्य काम तथा उनके फल का कहना है, इससे इस सूक्त के अर्थ के साथ पिछले सूक्त के अर्थ की संगति जाननी चाहिये ॥
पदार्थ
पदार्थ = ( मित्र: ) = सबसे स्नेह करनेवाला परमात्मा ( नः ) = हमारे लिए ( शम् ) = शांतिदायक हो ( वरुणः ) = सर्व उत्तम प्रभु ( शम् ) = शान्तिदायक हो ( अर्यमा ) = यम, न्यायकारी जगत्पति ( न: ) = हमारे लिए ( शम् ) = सुखदायक हो ( इन्द्रः ) = परम ऐश्वर्यवाला महाबली जगदीश ( नः शम् ) = हमारे लिए कल्याणदाता हो ( बृहस्पति: ) = बड़े-बड़े सूर्य चन्द्रादिकों का और वेदवाणी का स्वामी परमेश्वर, हमारे लिए कल्याणकारी हो ( उरुक्रमः ) = महाबली ( विष्णुः ) सर्वव्यापक अन्तर्यामी परमात्मा ( नः शम् ) = हमें बल देकर सदा सुखी बनावें ।
भावार्थ
भावार्थ = मित्र, वरुण, अय्यर्मा, इन्द्र, बृहस्पति, विष्णु आदि परमात्मा के अनन्त नाम हैं, ये सब सार्थक हैं निरर्थक एक भी नहीं । अनन्त शक्ति, अनन्त गुण और अनन्त ही ज्ञानवाले जगत्पिता में जगत् का उत्पन्न करना, अपने सब भक्तों को ज्ञान और शान्ति देकर उनका लोक परलोक सुधारना इत्यादि सब घट सकते हैं ।
विषय
स्तुतिविषयः
व्याखान
व्याख्यान – हे सच्चिदानन्दान्तस्वरूप ! हे नित्यशुद्धबुद्धमुक्तस्वभाव! हे अद्वितीयानुपमजगदादिकारण ! हे अज, निराकार, सर्वशक्तिमन्, न्यायकारिन् ! हे जगदीश, सर्व‘जगदुत्पादकाधार! हे सनातन, सर्वमङ्गलमय, सर्वस्वामिन् ! हे करुणाकरास्मत्पितः, परमसहायक! हे सर्वानन्दप्रद, सकलदुःखविनाशक! हे अविद्या अन्धकारनिर्मूलक, विद्यार्कप्रकाशक ! हे परमैश्वर्यदायक, साम्राज्य प्रसारक ! हे अधमोद्धारक, पतितपावन, मान्यप्रद ! हे विश्वविनोदक, विनयविधिप्रद! हे विश्वासविलासक! हे निरञ्जन, नायक, शर्मद, नरेश, निर्विकार ! हे सर्वान्तर्यामिन्, सदुपदेशक, मोक्षप्रद ! हे सत्यगुणाकर, निर्मल, निरीह, निरामय, निरुपद्रव, दीनदयाकर, परमसुखदायक ! हे दारिद्र्यविनाशक, निर्वैरिविधायक, सुनीतिवर्धक ! हे प्रीतिसाधक, राज्यविधायक, शत्रुविनाशक ! हे सर्वबलदायक, निर्बलपालक ! हे धर्मसुप्रापक! हे अर्थसुसाधक, सुकामवर्द्धक, ज्ञानप्रद! हे सन्ततिपालक, धर्मसुशिक्षक, रोगविनाशक! हे पुरुषार्थप्रापक, दुर्गुणनाशक, सिद्धिप्रद ! हे सज्जनसुखद, दुष्टसुताड़न, गर्वकुक्रोध-कुलोभविदारक ! हे परमेश, परेश, परमात्मन्,परब्रह्मन्! हे जगदानन्दक, परमेश्वर, व्यापक, सूक्ष्माच्छेद्य ! हे अजरामृताभय-निर्बन्धानादे! हे अप्रतिमप्रभाव, निर्गुणातुल, विश्वाद्य, विश्ववन्द्य, विद्वद्विलासक, इत्याद्यनन्तविशेषणवाच्य! हे मङ्गलप्रदेश्वर ! " शं नो मित्र: " आप सर्वथा सबके निश्चित मित्र हो, हमको सर्वदा सत्यसुखदायक हो । हे सर्वोत्कृष्ट, स्वीकरणीय, वरेश्वर ! “शं आप वरुण, अर्थात् सबसे परमोत्तम हो, सो आप हमको परमसुखदायक हो। “शन्नो भवत्वर्यमा" हे पक्षपातरहित, धर्मन्यायकारिन् ! आप अर्यमा ( यमराज) हो, इससे हमारे लिए न्याययुक्त सुख देनेवाले आप ही हो । (शन्नः इन्द्रः) हे परमैश्वर्यवन्, इन्द्रेश्वर ! आप हमको परमैश्वर्ययुक्त स्थिर सुख शीघ्र दीजिए। हे महाविद्यवाचोऽधिपते ! (बृहस्पतिः) बृहस्पते, परमात्मन्! हम लोगों को (बृहत् ) सबसे बड़े सुख को देनेवाले आप ही हो । (शन्नो विष्णुः उरुक्रमः) हे सर्वव्यापक, अनन्त - पराक्रमेश्वर, विष्णो ! आप हमको अनन्त सुख देओ, जो कुछ माँगेंगे सो आपसे ही हम लोग माँगेंगे, सब सुखों का देनेवाला आपके विना कोई नहीं है। हम लोगों को सर्वथा आपका ही आश्रय है, अन्य किसी का नहीं, क्योंकि सर्वशक्तिमान्, न्यायकारी, दयामय सबसे बड़े पिता को छोड़के नीच का आश्रय हम लोग कभी न करेंगे। आपका तो स्वभाव ही है कि अङ्गीकृत को कभी नहीं छोड़ते सो आप हमको सदैव सुख देंगे, यह हम लोगों को दृढ़ निश्चय है ॥ १ ॥
टिपण्णी
९. यह संख्या इस भाग में सर्वत्र यथावत् जान लेना, क्योंकि आगे केवल अङ्क संख्या लिखी जाएगी । ऋ० १।६।१८।९ इनसे अष्टक, अध्याय, वर्ग, मन्त्र जान लेना । – महर्षि दयानन्द सरस्वती ।
विषय
शान्ति - प्राप्ति के सात साधन
पदार्थ
१. (नः) = हमारे लिए (मित्रः) = प्राणिमात्र के साथ स्नेह करनेवाला प्रभु (शम्) = शान्ति देनेवाला हो । (वरुणः) = किसी के प्रति द्वेष न रखनेवाला वह श्रेष्ठ प्रभु (शम्) = हमें शान्ति प्राप्त कराए । (नः) = हमारे लिए (अर्यमा) = [अरीन् यच्छति] शत्रुओं का नियमन करनेवाला प्रभु (शं भवतु) = शान्ति देनेवाला हो । (इन्द्रः) = परमैश्वर्यशाली [इदि परमैश्वर्य] सर्वशक्तिमान् [इन्द् to be powerful] सब असुरों का संहार करनेवाला प्रभु (नः शम्) = हमें शान्ति प्रदान करे । (बृहस्पतिः) ऊँचे - से - ऊँचे ज्ञान का पति - निरतिशय ज्ञानवाला वह प्रभु (शम्) = शान्ति देनेवाला हो । (नः) = हमारे लिए (विष्णुः) वह सर्वव्यापक प्रभु (शम्) = शान्ति दे और अन्त में (उरुक्रमः )= वह महान् क्रम व्यवस्थावाला प्रभु हमारे लिए शान्ति देनेवाला हो । २. प्रस्तुतः मन्त्र में प्रभु को सात नामों से स्मरण किया गया है और उन सात नामों से स्मरण करते हुए प्रभु से शान्ति के लिए प्रार्थना की गई है । वस्तुतः ये सात नाम हमें निम्न सात बोध दे रहे हैं = [क] (मित्र) = सबके साथ स्नेह करनेवाले बनो, [ख] (वरुणः) = द्वेष का निवारण करके श्रेष्ठ बनने का प्रयत्न करो [ग] (अर्यमा) = काम = क्रोध व लोभरूप शत्रुओं का नियमन करो । काम शरीरों को नष्ट करता है, क्रोध मनों का अशान्त बनाता है और लोभ बुद्धि को विचलित कर देता है । [घ] (इन्द्रः) = जितेन्द्रिय बनकर शक्तिशाली बनो, [ङ] (बृहस्पतिः) = जितेन्द्रियता ही तुम्हें उत्कृष्ट ज्ञान का पति बनाए, [च] (विष्णुः) = हृदय को भी व्यापक वृत्तिवाला बनाओ, तथा [छ] (उरुक्रमः) = प्रत्येक कर्म बड़ा व्यवस्थित हो, तुम्हारे जीवन में व्यवस्था दिखाई दे । बस, ये सात बातें हो जाने पर आध्यात्मिक, आधिभौतिक व आधिदैविक - सभी दृष्टिकोणों से शान्ति प्राप्त होगी । शरीर, मन व बुद्धि सभी शान्ति से कार्य करनेवाले होंगे ।
भावार्थ
भावार्थ = हम मित्रता आदि उपायों को क्रियान्वित करते हुए शान्त जीवनवाले हों ।
विषय
शान्ति की कामना ।
भावार्थ
( नः ) हमें ( मित्रः ) सब का स्नेही, परमेश्वर ( शं ) शान्ति प्रदान करे। वह ( वरुणः ) सर्वश्रेष्ठ, दुःखों का निवारक ( शं ) शान्तिदायक हो । वह ( अर्यमा नः शं भवतु ) न्यायकारी, दुष्टों का नियन्ता शान्तिदायक हो । ( बृहस्पतिः ) वेद वाणी का पालक और बड़े बड़े लोकों का पालक (इन्द्रः) ऐश्वर्यवान् प्रभु, ( नः शम् ) हमें शान्तिदायक हो। ( उरुक्रमः विष्णुः ) बड़े भारी पराक्रम वाला, अनन्य बलशाली और सर्वव्यापक परमेश्वर ( नः शम्) हमें शान्तिदायक हो । इत्यष्टादशो वर्गः ॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
गोतमो राहूगणपुत्र ऋषिः ॥ विश्वेदेवा देवताः ॥ छन्दः—१,८ पिपलिकामध्या निचृद्गायत्री । २, ७ गायत्री । ३ पिपीलिकामध्या विराड् गायत्री । ४ विराड् गायत्री । ५, ६ निचृद् गायत्री । ६ निचृत् त्रिष्टुप् ॥ नवर्चं सूक्तम् ॥
विषय
विषय (भाषा)- फिर ईश्वर और विद्वान् लोग मनुष्यों के लिये क्या-क्या करते हैं, यह विषय इस मन्त्र में कहा है ॥
सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः
सन्धिच्छेदसहितोऽन्वयः- हे मनुष्याः ! यथा अस्मदर्थम् उरुक्रमः मित्रः नः शम् उरुक्रमः वरुणः नः शम् उरुक्रमःअर्यमा नः शम् उरुक्रमः बृहस्पतिः इन्द्रः नः शम् उरुक्रमः विष्णुः नः शं च भवतु तथा युष्मदर्थम् अपि भवतु ॥९॥
पदार्थ
पदार्थः- हे (मनुष्याः)= मनुष्यों ! (यथा)=जिस प्रकार से, (अस्मदर्थम्)=हमारे लिये, (उरुक्रमः) बहवः क्रमाः पराक्रमा यस्य सः=बहुत पराक्रमवाला, (मित्रः) सर्वसुखकारी= मित्र के रूप में जाना गया सबको सुख देनेवाला परमेश्वर, (नः) अस्मभ्यम्= हमारे लिये, (शम्) सुखकारी= सुख देनेवाला होवे। (उरुक्रमः) बहवः क्रमाः पराक्रमा यस्य सः= बहुत पराक्रमवाला और (वरुणः) सर्वोत्कृष्टः= वरुण के रूप में जाना गया सर्वोत्कृष्ट परमेश्वर, (नः) अस्मभ्यम् = हमारे लिये, (शम्) शान्तिप्रदः= शान्ति प्रदान करनेवाली होवे। (उरुक्रमः) बहवः क्रमाः पराक्रमा यस्य सः= बहुत पराक्रमवाला और, (अर्यमा) न्यायव्यवस्थाकारी= अर्यमा के रूप में जाना गया न्याय की व्यवस्था करनेवाला परमेश्वर, (नः) अस्मभ्यम्= हमारे लिये, (शम्) सुखकारी= सुख देनेवाला होवे। (उरुक्रमः) बहवः क्रमाः पराक्रमा यस्य सः= बहुत पराक्रमवाला, (बृहस्पतिः) बृहत्यो वाचो विद्यायाः पतिः पालकः= बृहस्पति के रूप में जाना गया वाणी और विद्या का स्वामी परमेश्वर, (नः) अस्मभ्यम्= हमारे लिये, (शम्) सुखकारी= सुख देनेवाला होवे। (उरुक्रमः) बहवः क्रमाः पराक्रमा यस्य सः= बहुत पराक्रमवाला और, (इन्द्रः) परमैश्वर्यप्रदः= इन्द्रः के रूप में जाना गया परमेश्वर, (नः) अस्मभ्यम्= हमारे लिये, (शम्) ऐश्वर्यसौख्यप्रदः=ऐश्वर्य का सुख प्रादान करे, (विष्णुः) सर्वगुणेषु व्यापनशीलः= विष्णु के रूप में जाना गया सब गुणों में व्याप्त परमेश्वर, (नः) अस्मदर्थम्= हमारे लिये, (शम्) आरोग्यसुखदः=आरोग्य का सुख देनेवाला, (च)=भी, (भवतु)=होवे, (तथा)=वैसे ही, (युष्मदर्थम्)=तुम्हारे लिये, (अपि)=भी, (भवतु)= होवे ॥९॥
महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद
महर्षिकृत भावार्थ का अनुवादक-कृत भाषानुवाद- परमेश्वर के समानकोई मित्र श्रेष्ठ, न्यायकारी, ऐश्वर्य्यवान्, महान् स्वामी, व्यापक और सुख देनेवाला विद्यमान् नहीं है। विद्वानों के समान प्रिय कार्य करनेवाला, धार्मिक, सत्य व्यवहार करनेवाला, विद्या आदि धनों को देनेवाला, विद्या का पोषण करनेवाला, शुभ गुण और कर्मों में व्याप्त और महा पराक्रमी कोई नहीं हो सकता है। इसलिये सब मनुष्यों के द्वारा ईश्वर की स्तुति, प्रार्थना और उपासना तथा विद्वानों की संगति और सेवा निरन्तर करके नित्य आनन्दित होना चाहिए ॥९॥
विशेष
सूक्त के महर्षिकृत भावार्थ का अनुवादक-कृत भाषानुवाद- इस सूक्त में पढ़ने-पढ़ानेवालों को ईश्वर के कर्त्तव्य तथा उनके फल का कहे गये हैं, इसलिये इस सूक्त के अर्थ के साथ पिछले सूक्त के अर्थ के साथ संगति जाननी चाहिये ॥९॥
पदार्थान्वयः(म.द.स.)
पदार्थान्वयः(म.द.स.)- हे (मनुष्याः) मनुष्यों ! (यथा) जिस प्रकार से (अस्मदर्थम्) हमारे लिये (उरुक्रमः) बहुत पराक्रमवाला और (मित्रः) ‘मित्र’ के रूप में जाना गया, सबको सुख देनेवाला परमेश्वर (शम्) सुख देनेवाला होवे। (उरुक्रमः) बहुत पराक्रमवाला और (वरुणः) ‘वरुण’ के रूप में जाना गया सर्वोत्कृष्ट परमेश्वर (नः) हमारे लिये (शम्) शान्ति प्रदान करनेवाली होवे। (उरुक्रमः) बहुत पराक्रमवाला और (अर्यमा) ‘अर्यमा’ के रूप में जाना गया, न्याय की व्यवस्था करनेवाला परमेश्वर (नः) हमारे लिये (शम्) सुख देनेवाला होवे। (उरुक्रमः) बहुत पराक्रमवाला और (बृहस्पतिः) ‘बृहस्पति’ के रूप में जाना गया वाणी और विद्या का स्वामी परमेश्वर (नः) हमारे लिये (शम्) सुख देनेवाला होवे। (उरुक्रमः) बहुत पराक्रमवाला और (इन्द्रः) ‘इन्द्र’ के रूप में जाना गया परमेश्वर (नः) हमारे लिये (शम्) ऐश्वर्य का सुख प्रादान करे। (विष्णुः) ‘विष्णु’ के रूप में जाना गया सब गुणों में व्याप्त परमेश्वर (नः) हमारे लिये (शम्) आरोग्य का सुख देनेवाला (च) भी (भवतु) होवे। (तथा) वैसे ही (युष्मदर्थम्) तुम्हारे लिये (अपि) भी (भवतु) होवे ॥९॥
संस्कृत भाग
शम् । नः॒ । मि॒त्रः । शम् । वरु॑णः॒ । शम् । नः॒ । भ॒व॒तु॒ । अ॒र्य॒मा । शम् । नः॒ । इन्द्रः॑ । बृह॒स्पतिः॑ । शम् । नः॒ । विष्णुः॑ । उ॒रु॒ऽक्र॒मः ॥ विषयः- पुनरीश्वरो विद्वांसश्च मनुष्येभ्यः किं कुर्वन्तीत्युपदिश्यते ॥ भावार्थः(महर्षिकृतः)- नहि परमेश्वरेण समः कश्चित्सखा श्रेष्ठो न्यायकार्यैश्वर्यवान् बृहत्स्वामी व्यापकः सुखकारी च विद्यते। नहि च विदुषा तुल्यः प्रियकारी धार्मिकः सत्यकारी विद्यादिधनप्रदो विद्यापालकः शुभगुणकर्मसु व्याप्तिमान् महापराक्रमी च भवितुं शक्यः। तत्स्मात्सर्वैर्मनुष्यैरीश्वरस्य स्तुतिप्रार्थनोपासना विदुषां सेवासङ्गौ च सततं कृत्वा नित्यमानन्दयितव्यमिति ॥९॥ सूक्तस्य भावार्थः(महर्षिकृतः)- अत्राऽध्यापकाऽध्येतॄणामीश्वरस्य च कर्त्तव्यफलस्योक्तत्वादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिरस्तीति वेद्यम् ॥९॥
मराठी (2)
भावार्थ
परमेश्वराप्रमाणे मित्र, उत्तम न्यायकर्ता, ऐश्वर्यवान मोठमोठ्या पदार्थांचा स्वामी व व्यापक सुख देणारा आणि विद्वानाप्रमाणे प्रेम उत्पन्न करणारा, धार्मिक सत्य व्यवहाराने वागणारा, विद्या इत्यादी धन देणारा आणि विद्येचे पालन करणारा, शुभ गुण व सत्कर्मामध्ये व्याप्त, महापराक्रमी कोणी असू शकत नाही. त्यासाठी सर्व माणसांनी परमेश्वराची स्तुती, प्रार्थना, उपासना, सतत विद्वानांची सेवा व संगती करून सदैव आनंदात राहावे. ॥ ९ ॥
विषय
प्रार्थना
व्याखान
व्याख्या — हे सच्चिदानंद अनंत स्वरूप, हे नित्य शुद्ध बुद्ध मुक्त स्वभाव, हे अद्वितीय, अनुपम, जगाचे कारण असणाऱ्या, हे अज, निराकर व सर्वशक्तिमान, न्यायी, हे जगदीश, सर्वजगनिर्माता व जगाचा आधार, हे सनातन, सर्व मंगलमय सर्वाचा स्वामी, हे करुणाकरा, आमच्या पित्या, सहायकर्ता, सर्वांना आनंद देणारा, सकलदुःखविनाशक, हे अविद्यारूपी अंधःकार नष्ट करणारा, विद्येचे महत्व सारतत्व प्रकाशित करणाऱ्या, हे परम ऐश्वर्य देणाऱ्या, हे विश्वविनायक, विनयविधि देणाऱ्या, हे विश्वविलासक, हे निरंजन, नायक, शर्मद, नरेश, निर्विकार, हे सर्वांतर्यामी, सदुपदेशक, मोक्ष देणाच्या, हे सत्यगुणाच्या सागरा, निर्मळ, [निरीह] सरळ, निरामय, निरुपद्रवी, दीनदयाकर, अतिशय सुखदायक, हे दारिद्र्य विनाशक, निर्वैर विधायक, सुनीतिवर्धक, हे प्रीतीसाधक, राज्यविधायक, शत्रुविनाशक, हे सर्व बलदायक, निर्बल पालक, हे सुधर्म प्रपालक, हे अर्थसुधारक, सुकामवर्धक, ज्ञानप्रद, हे संततिपालक, धर्मसुशिक्षक, हे पुरुषार्थप्रापक, दुर्गुणनाशक, सिद्धीप्रद, हे सज्जनसुखद, दुष्टसुताडन, गर्वकुक्रोधकुलोभविदारक, हे परमेश, परेश, परमात्मा, परब्रह्म, हे जगदानंदक परमेश्वर, व्यापक सूक्ष्माच्छेद्य हे अजरामृताभयनिर्बन्धानादी, हे अप्रतिम प्रभाव, निर्गुणातुल, विश्वाध्य, विश्ववंद्य, विद्विलासक इत्यादी अनंत विशेषण वाच्य, हे मंगलप्रदेश्वर! तू सर्वथा सर्वांचा मित्र आहेस. आम्हाला सदैव सुख देणारा हो. हे सर्वोत्कृष्ट, स्वीकारणीय परमेश्वरा ! तू ‘वरुण’ अर्थात सर्वात उत्तम आहेस. म्हणूनच आम्हला परम सुख देणारा हो. हे पक्षपात रहित, धर्मन्यायकर्ता ! तू अर्यमा [यमराज] आहेस. म्हणूनच न्यायमार्गाने आम्हाला सुख देणारा तूच आहेस. हे परम ऐश्वर्यवान इंद्रेश्वर तू आम्हाला अत्यंत ऐश्वर्य युक्त असे स्थिर सुख शीघ्र दे. हे महाज्ञानी, वाणीचा अधिपती बृहस्पती परमात्मा आम्हाला खूप मोठे सुख देणारा तूच आहेस. हे सर्वव्यापक अनंत पराक्रमी ईश्वरा [विष्णू]! तू आम्हाला अत्यंत सुख दे. आमचे मागणे आम्ही तुझ्याकडेच मागू. सर्व सुख देणारा तुझ्याखेरीज कोणी ही नाही. आम्ही तुझ्या आश्रयाने जगतो, इतर कुणाच्या नाही. कारण सर्वशक्तिमान, न्यायी, दयाळू, अशा सर्वश्रेष्ठ पित्याला सोडून नीच लोकांचा आश्रय आम्ही कधीच घेणार नाही. ज्याला तू आपले म्हणतोस त्याला कधीच अंतर देणार नाहीस हा तुझा स्वभावच आहे. म्हणून तू आम्हाला सर्व प्रकारचे सुख देशील असा आमचा विश्वास आहे.
इंग्लिश (4)
Meaning
May Mitra bless us with peace. May Varuna bring us peace. May Aryama lead us to peace. May Indra and Brhaspati shower us with peace. May Vishnu, lord of mighty action, bless us with peace and action.
Purport
I pay my homage to God Almighty who is Absolute Truth. O Be, Being, Bliss and Infinite Soul! O Eternal, Pure and Liberated [free from all bondage] by nature ! O Incomparable, Matchless [One without a second], primitive cause of the whole universe! O Unborn! Formless! Omnipotent! Dispenser. [Ordainar] of Justice ! O Lord of the whole universe ! O Creator and Sustainer of the whole world! O Most Ancient ! O Benefactor and Lord of all ! O our merciful Father ! O Supreme Helper. O Bestower of divine bliss ! O Destroyer of all our pains and sorrows! O Dispeller of our darkness of ignorance ! O The Illuminator of the sun of knowledge [wisdom]. O Donor of supreme wealth and riches. O The Expander of sovereignty. O Uplifter of downtrodden and low! O Purifier of the fallen! O Bestower of honour and fame! O Entertainer [Amuser] of the whole world ! O Preacher of the way how to perform actions in a better manner ! O Enkindler of the fire of faith. O Spotlessdevoid of all evils ! O Leader of all. Bestower of happiness and shelter for all! Ruler of men! Immutable-devoid of all shortcomings! O Omniscient ! O Right preceptor and instructor ! Bestower of liberation [Librater of the soul] ! O Ocean of Virtues [good qualites and attributes] ! O Pure and Pious [free from all impurities]! O Desireless! O diseaseless! O ever Peacefulfree from all inclinations to injure! O Merciful upon the poor [miserable and wretches] ! O bestower of greatest happiness ! O Destroyer of poverty! O Remover of hatred ! O Enhancer of good behaviour-morals ! O Friendly towards all ! O Establisher of kingdoms! O Destroyer of our foes-wicked enemies ! O Bestower of all kind of strength [Physical, mental, intellectual etc.]! O Protector of the weak! Inducer in righteousness! O fulfiler of the motives-desires! O Granter of good wishesrighteous desires ! O Bestower of right knowledge ! O Protector
of off-springs! O teacher of Dharma-good morals and duties! Destroyer of diseases! O Procurer of four objects of human life! O Destroyer of vices-evil actions. O Bestower of perfection in life! O Bestower of happiness on the noble ! O Punisher of the wicked. O Tearer of vanity-pride, unrighteous wrath, and evil greed ! O supreme Lord ! O Ruler of the world! O the Supreme spirit! O The Greatest of all! O Exhilarator of the world! O Highest soul ! O Omnipresent! O The Most Subtle ! O Indivisible impossible to be cut off ! O Undecaying [ever young], Immortal, Fearless, Free from bondage and Eternal-without Beginning and end. O Posseser of Incomparable Majesty-Mighty power! O Matchless in innocency-Sinless and Flawless! O Primary cause of the universe! O Adorable by the whole world! Radiator [shiner] of the learned! O Lord! You are describable by such infinite epithets-attributes !
Bestower of welfare, O God! You are ever the Friend of all in every way, therefore you are the Bestower of real happiness and pleasure to us. O the Most Excellent, Acceptable, Supreme Lord! You are [Varuna] Highest and Best of all. You are the bestower of highest-bliss to us. O Impartial, Righteous dispenser of Justice! You are [Aryama] Administrator of real justice. You are the Granter of happiness combined with Justice to us.
O the Bounteous Lord ! Master of power and pelf ! Grant us
soon permanent happiness combined with prosperity and pleasure. [Brhaspatih] O the Vast treasure of knowledge ! The Supreme soul! You alone are the Granter of the Greatest happiness to us. [Vişnuh] Omnipresent and Lord of infinite Valour! Grant us endless happiness.
Whatever we want, we shall demand-beg from you alone. There is none without you who can give all sorts of pleasures and happiness to us. We depend entirely on you, none else, for we shall never ask refuge from a mean being, leaving the Omnipotent, Just, Merciful and Supreme father. O Lord! It is your very nature that you do not forsake one, whom you have once accepted. We have firm belief that you will always shower peace, happiness and bliss upon us.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
What do God and learned persons do for men is taught in the ninth Mantra.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
(1) May the Almighty God the friend of all be gracious to us. May Varuna the most acceptable Supreme Master be bestower of peace on us. Many God the Divine Judge Despenser of justice be the granter of peace to us. May the Lord of all power and pelf be gracious to us. May the Lord of all great world and the Vedic Speech be giver of peace to us. May the Almighty Omnipresent God bestow peace upon us. (2) The Mantra is also applicable to a learned righteous person who is मित्र friendly to all वरुण the most acceptable अर्यमा dispenser of justice इन्द्र: giver of great wealth of wisdom बृहस्पति: Protector of the great Vedic Speech विष्णु pervading in all virtues i. e. virtuous उरुक्रम = mighty or doing works methodically. May such learned persons be givers of peace to us.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
(वरुण:) सर्वोत्कृष्ट: = The best, the most, exalted Excellent. (विष्णु:) सर्वगुणेषु व्यापनशील: = The most virtuous.
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
There is none who is a true friend like God, Dispenser of justice, great Lord, Omnipresent and Giver of happiness. There is none who can be a better friend, acceptable, doer of dear deeds, righteous, true, the giver of knowledge and other wealth, the protector of knowledge virtuous and mighty. Therefore all men should enjoy bliss by glorifying God, by praying to Him and by having communion with Him. They should serve learned persons and should have association with them and thus enjoy bliss.
Translator's Notes
This hymn is connected with the previous hymn, as there is mention of God and duties of the teachers and the taught as in that hymn. Here ends the commentary on the 90th hymn the first Mandala of the Rig Veda.
Subject of the mantra
Then, what God and learned people do for humans? This is discussed in this mantra.
Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-
He=O! (manuṣyāḥ)=humans, (yathā)=just as, (asmadartham) =for us, (urukramaḥ) =the very mighty and, (mitraḥ)= known as 'mitraḥ', God who gives happiness to all, (śam)=may it give happiness, (urukramaḥ) =the very mighty and, (varuṇaḥ) =The Supreme God known as 'varuṇaḥ', (naḥ) =for us, (śam)=may He provide peace, (urukramaḥ) =the very mighty and, (aryamā) =known as 'aryamā', God who administers justice, (naḥ) =for us, (śam)=may He give happiness, (urukramaḥ)=the very mighty and, (bṛhaspatiḥ)= God, the lord of speech and knowledge known as 'bṛhaspatiḥ', (naḥ) =for us, (śam)= may He give happiness, (urukramaḥ) =the very mighty and, (indra)= God known as 'Indra, (naḥ) =for us, (śam)=may provide the happiness of opulence, (viṣṇuḥ) =God who is omnipresent in all virtues known as ‘viṣṇuḥ’ (naḥ) =for us, (śam)= giver of good health, (ca) =also, (bhavatu) =be, (tathā) =similarly, (yuṣmadartham) =for you, (api) =as well, (bhavatu) =be.
English Translation (K.K.V.)
O humans! Just as He is known to us as a very mighty and as ‘Mitra’, may God be the giver of happiness who gives happiness to all. May the very mighty and Supreme God known as ‘Varuṇa’ provide us peace. May the God who is very mighty and known as ‘Aryamā’, may He bring happiness to us. May the God, who is very mighty and the lord of speech and knowledge known as ‘Bṛhaspati’, be the one who gives happiness to us. May the God, who is very mighty and known as ‘Indra’, grant us the happiness of opulence. May the Supreme Lord, who is known as “Viṣṇu’, who is present in all virtues, be the one who gives us the happiness of good health. Let it be the same for you as well.
TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand
There exists no one as superior, just, glorious, great master, all-pervading and giving happiness as God. No one can be like a scholar who does such a good work, who is righteous, who behaves truthfully, who gives vidya etc. wealth, who nurtures knowledge, who is immersed in auspicious virtues and deeds and who is very brave. Therefore, all human beings should always be happy by praising, praying and worshiping God and by constantly associating with scholars and serving them.
TRANSLATOR’S NOTES-
Translation of gist of the mantra by Maharshi Dayanand- In this hymn, the duties of God and their results have been told to the students and teachers, hence the interpretation of this hymn should be consistent with the interpretation of the previous hymn.
बंगाली (1)
পদার্থ
শং নো মিত্রঃ শং বরুণঃ শং নো ভবত্বর্য্যমা ।
শং ন ইন্দ্রো বৃহস্পতিঃ শং নো বিষ্ণুরুরুক্রমঃ।।১০০।।
(ঋগ্বেদ ১।৯০।৯)
পদার্থঃ (মিত্রঃ) সর্বাধিক স্নেহকারী পরমাত্মা (নঃ) আমাদের জন্য (শম্) শান্তিদায়ক হও। (বরুণঃ) সর্বোত্তম পরমাত্মা (শম্) শান্তিদায়ক হও। (অর্যমা) সকলের প্রতি ন্যায়কারী জগৎপতি (নঃ) আমাদের জন্য (শম্) সুখদায়ক (ভবতু) হও। (ইন্দ্রঃ) পরম ঐশ্বর্যযুক্ত সর্বশক্তিমান (নঃ শম্) আমাদের জন্য কল্যাণদাতা হও। (বৃহস্পতিঃ) সমগ্র ভূ ও দ্যুলোকের স্বামী ও বেদবাণীর দাতা পরমেশ্বর আমাদের জন্য কল্যাণকারী হও। (উরুক্রমঃ) মহাপরাক্রমশালী, (বিষ্ণুঃ) সর্বব্যাপক, অন্তর্যামী পরমাত্মা (নঃ শম্) আমাদের বল প্রদান করে সদা সুখী করো।
ভাবার্থ
ভাবার্থঃ মিত্র, বরুণ, অর্যমা, ইন্দ্র, বৃহস্পতি, বিষ্ণু আদি পরমাত্মার অনন্ত সব নাম-এ সকলই সার্থক, নিরর্থক একটিও নয়। সেই অনন্ত শক্তি, অনন্ত গুণ ও অনন্ত জ্ঞানযুক্ত জগৎপিতা হতেই সর্বজগৎ উৎপন্ন। হে ঈশ্বর! নিজের সকল ভক্তকে জ্ঞান, শান্তি ও কল্যাণ দান কর।।১০০।।
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