ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 92/ मन्त्र 11
व्यू॒र्ण्व॒ती दि॒वो अन्ताँ॑ अबो॒ध्यप॒ स्वसा॑रं सनु॒तर्यु॑योति। प्र॒मि॒न॒ती म॑नु॒ष्या॑ यु॒गानि॒ योषा॑ जा॒रस्य॒ चक्ष॑सा॒ वि भा॑ति ॥
स्वर सहित पद पाठवि॒ऽऊ॒र्ण्व॒ती । दि॒वः । अन्ता॑न् । अ॒बो॒धि॒ । अप॑ । स्वसा॑रम् । स॒नु॒तः । यु॒यो॒ति॒ । प्र॒ऽमि॒न॒ती । म॒नु॒ष्या॑ । यु॒गानि॑ । योषा॑ । जा॒रस्य॑ । चक्ष॑सा । वि । भा॒ति॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
व्यूर्ण्वती दिवो अन्ताँ अबोध्यप स्वसारं सनुतर्युयोति। प्रमिनती मनुष्या युगानि योषा जारस्य चक्षसा वि भाति ॥
स्वर रहित पद पाठविऽऊर्ण्वती। दिवः। अन्तान्। अबोधि। अप। स्वसारम्। सनुतः। युयोति। प्रऽमिनती। मनुष्या। युगानि। योषा। जारस्य। चक्षसा। वि। भाति ॥ १.९२.११
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 92; मन्त्र » 11
अष्टक » 1; अध्याय » 6; वर्ग » 26; मन्त्र » 1
Acknowledgment
अष्टक » 1; अध्याय » 6; वर्ग » 26; मन्त्र » 1
Acknowledgment
भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनः सा कीदृशीत्युपदिश्यते ।
अन्वयः
हे मनुष्या योषा जारस्य योषेव सर्वेषामायुः सनुतः प्रमिनती या स्वसारं व्यूर्ण्वत्यपयुयोति स्वयं विभाति चक्षसा दिवोऽन्तान् मनुष्या युगानि चाबोधि सा यथावत्सेव्या ॥ ११ ॥
पदार्थः
(व्यूर्ण्वती) विविधान् पदार्थानाच्छादयन्ती (दिवः) प्रकाशमयस्य सूर्यस्य (अन्तान्) समीपस्थान् पदार्थान् (अबोधि) बोधयति (अप) निवारणे (स्वसारम्) भगिनीस्वरूपां रात्रिम् (सनुतः) सततम् (युयोति) मिश्रयति (प्रमिनती) प्रकृष्टतया हिंसन्ती (मनुष्या) मनुष्याणां सम्बन्धीनी (युगानि) संवत्सरादीनि (योषा) कामिनी स्त्रीव (जारस्य) लम्पटस्य रात्रेर्जरयितुः सूर्यस्य वा (चक्षसा) तन्निमित्तभूतेन दर्शनेन (वि) विशेषे (भाति) प्रकाशते ॥ ११ ॥
भावार्थः
अत्रा वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। मनुष्यैर्यथा व्यभिचारिणी स्त्री जारपुरुषस्यायुः प्रणाशयति तथा सूर्यस्य सम्बन्ध्यन्धकारनिवारणेन दिनकारिण्युषा वर्त्तत इति बुध्वा रात्रिंदिवयोर्मध्ये युक्त्या वर्त्तित्वा पूर्णमायुर्भोक्तव्यम् ॥ ११ ॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर वह कैसी है, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ।
पदार्थ
हे मनुष्यो ! जो प्रातःकाल की वेला जैसे (योषा) कामिनी स्त्री (जारस्य) व्यभिचारी लम्पट कुमार्गी पुरुष की उमर का नाश करे, वैसे सब आयुर्दा को (सनुतः) निरन्तर (प्रमिनती) नाश करती (स्वसारम्) और अपनी बहिन के समान जो रात्रि है, उसको (व्यूर्ण्वती) ढाँपती हुई (अपयुयोति) उसको दूर करती अर्थात् दिन से अलग करती है और आप (वि) अच्छी प्रकार (भाति) प्रकाशित होती जाती है (चक्षसा) उस प्रातःसमय की वेला के निमित्त उससे दर्शन (दिवः) प्रकाशवान् सूर्य्य के (अन्तान्) समीप के पदार्थों को और (मनुष्या) मनुष्यों के सम्बन्धी (युगानी) वर्षों को (अबोधि) जनाती है, उसका सेवन तुम युक्ति से किया करो ॥ ११ ॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। मनुष्यों को चाहिये कि जैसे व्यभिचारिणी स्त्री जारकर्म करनेहारे पुरुष की उमर का विनाश करती है, वैसे सूर्य्य से सम्बन्ध रखनेहारे अन्धकार की निवृत्ति से दिन को प्रसिद्ध करनेवाली प्रातःकाल की वेला है, ऐसा जानकर रात और दिन के बीच युक्ति के साथ वर्त्ताव वर्त्तकर पूरी आयुर्दा को भोगें ॥ ११ ॥
विषय
युग - परिवर्तन
पदार्थ
१. (दिवः) = आकाश के (अन्तान्) = प्रान्तों को (वि ऊर्ण्वती) = विवृत अर्थात् अन्धकार से वियुक्त [अनाच्छादित] करती हुई (उषा) = उषा (अबोधि) = सब प्राणियों से ज्ञात होती है । सब प्राणी यही अनुभव करते हैं कि उषा ने सब दिशाओं के अन्धकार को दूर करके प्रकाश - ही - प्रकाश कर दिया है । २. अब यह उषा (स्वसारम्) = [स्वयं सरति] अपने - आप ही जाने के लिए प्रवृत्त होती हुई इस अपनी बहिनरूप निशा को (सनुतः) = [अन्तर्हितानाम्] किसी अन्तर्हित प्रदेश में (अपयुयोति) = [अपगम्य पृथक् करोति] दूर करके पृथक् कर देती है, मानो रात्रि को कहीं छिपा - सा देती है । ३. यह उषा (मनुष्या युगानि) = मनुष्य - सम्बन्धी युगों को (प्रमिनती) = प्रतिदिन आने और जाने से हिंसित करती है । मनुष्यों का आयुष्य तो एक - एक दिन करके यह कम कर ही रही है, साथ ही इसके आवागमन से युग बीतते जाते हैं - कृतयुग गया, त्रेता आया ; त्रेता गया, द्वापर आया द्वापर गया, कलि आया । इस प्रकार यह उषा युगों को समाप्त कर रही है । ४. (जारस्य) = रात्रि को जीर्ण करनेवाले सूर्य की (योषा) = पत्नी के समान यह उषा [या+उषा] (चक्षसा) = अपने पतिरूप सूर्य के प्रकाश से (विभाति) = विशेषरूपेण दीप्त होती है । उषा को आनेवाले सूर्य की किरणें ही दीप्त कर रही होती हैं । यहाँ यह संकेत सुव्यक्त है कि पत्नी की शोभा पति की शोभा से ही है ।
भावार्थ
भावार्थ = उषा आती है, रात्रि को छिपा - सा देती है । इसके आवागमन से युग बदलते हैं । यह प्रतिदिन आनेवाले सूर्य के प्रकाश से प्रकाशित होती है ।
विषय
उत्तम गृहपत्नी का स्वरूप ।
भावार्थ
( उषा ) सूर्य की प्रातःकालिक प्रभा जिस प्रकार (वि ऊर्ण्वती) रात्रि के अन्धकार को दूर करती हुई ( दिवः अन्तान् अबोधि ) आकाश के पर्यन्त अर्थात् दूर २ तक के भागों को भी जगा देती या प्रकाशित कर देती है । ( सनुतः ) निरन्तर, नित्य ( स्वसारम् ) प्रकाश के आगमन से आप से आप भाग जाने वाली या अपनी बड़ी भगिनी के समान साथ रहने वाली रात्रि को ( अप युयोति ) दूर कर देती है और वह ( मनुष्या युगानि ) मनुष्यों के आयु के वर्षों को या स्त्री पुरुष आदि के बने जोड़ों को काल धर्म से ( प्र मिनती ) नाश करती हुई ( जारस्य चक्षसा योषा ) अपने प्रेमी पुरुष के दर्शन से स्त्री के समान मानो प्रसन्न होकर ( जारस्य ) रात्रि को या उषाः-काल को अपने उदय से विनाश कर देने वाले सूर्य के ( चक्षसा ) दर्शन से वह ( विभाति ) विशेष शोभा से खिल उठती है । उसी प्रकार स्त्री ( वि ऊर्ण्वती ) दोषों को दूर करती हुई अपने गुणों से ( दिवः ) ज्ञान प्रकाश के ( अन्तान् ) परली सीमाओं को ( अबोधि ) जानले अर्थात् उत्तम कोटि के शास्त्रों का भी ज्ञान करे । ( स्वसारं ) अपनी भगिनी को ( सनुतः ) निरन्तर, सदा, ( अप युयोति ) अपने से दूर देश में सम्बन्ध करावे । अर्थात् एक ही घर में कई बहनें न विवाही जावें । नहीं तो कलह हो जाने से परस्पर भगिनी-पन का स्नेह भी नाश हो जाता है । वह स्त्री ( मनुष्या युगानि प्र मिनती ) मनुष्य के आयु के वर्षों को व्यतीत करती हुई ( जारस्य ) विद्वान् धर्मोपदेष्टा पुरुष के ( चक्षसा ) दर्शन, ज्ञान, सत्संग या कथनोपकथनों द्वारा ( विभाति ) विशेष शोभा को प्राप्त हो । अथवा—( जारस्य चक्षसा ) अपने आयु को वृद्धावस्था तक पहुंचा देने वाले अपने प्रिय पति के दर्शन या उपदेश से विशेष शोभा को प्राप्त हो ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
गोतमो राहूगणपुत्र ऋषिः ॥ उषा देवता ॥ छन्दः—१, २ निचृज्जगती । ३ जगती । ४ विराड् जगती । ५, ७, १२ विराड् त्रिष्टुप् । ६, १२ निचृत्त्रिष्टुप् ८, ९ त्रिष्टुप् । ११ भुरिक्पंक्तिः । १३ निचृत्परोष्णिक् । १४, १५ विराट्परोष्णिक् । १६, १७, १८ उष्णिक् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जसे व्यभिचारिणी स्त्री जारकर्म करणाऱ्या पुरुषाच्या आयूचा नाश करते तसे सूर्याशी संबंध ठेवणारी अंधकाराचा नाश करून दिवस प्रकट करणारी प्रातःकाळची वेळ आहे हे जाणून रात्र व दिवस यांच्यामध्ये युक्तीने वर्तन करून पूर्ण आयुष्य भोगावे. ॥ ११ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
The Dawn wakes up, illuminating and revealing the bounds of heaven and expanse of the sky, and constantly dispels her sister, the dark night. Wearing away and counting out the ages of humanity, she shines by the light of the sun like a maiden blooming and blushing at the sight of her admirer.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
How is Usha is further taught in the 11th Mantra.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
The Usha (dawn) has been seen illuminating all objects and the boundaries of the sky, and driving into disappearance the spontaneously retiring night that is like her sister. Like the wife of a debaucherous person, she being like the wife of the sun, diminishes the life of all beings and denotes the various periods of the years and cycle of ages. She must be served or utllised properly.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
(दिव:) प्रकाशमयस्य सूर्यस्य = Of the radiant sun. (अन्तान्) समीपस्थान पदार्थान् = The objects lying near.
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Men should know that as an un-chaste woman diminishes the age of her. paramour a debauchee, in the same manner Usha which is related to the sun dispels the darkness and manifests, the day and thus in a way gradually diminishes the age of all creatures. Knowing this, men should utilise well the interval between day and night and attain full age.
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
N/A
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
N/A
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
N/A
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
Shri Virendra Agarwal
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal