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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 92 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 92/ मन्त्र 3
    ऋषिः - गोतमो राहूगणः देवता - उषाः छन्दः - जगती स्वरः - निषादः

    अर्च॑न्ति॒ नारी॑र॒पसो॒ न वि॒ष्टिभि॑: समा॒नेन॒ योज॑ने॒ना प॑रा॒वत॑:। इषं॒ वह॑न्तीः सु॒कृते॑ सु॒दान॑वे॒ विश्वेदह॒ यज॑मानाय सुन्व॒ते ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अर्च॑न्ति । नारीः॑ । अ॒पसः॑ । न । वि॒ष्टिऽभिः॑ । स॒मा॒नेन॑ । योज॑नेन । आ । प॒रा॒ऽवतः॑ । इष॒म् । वह॑न्तीः । सु॒ऽकृते॑ । सु॒ऽदान॑वे । विश्वा॑ । इत् । अह॑ । यज॑मानाय । सु॒न्व॒ते ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अर्चन्ति नारीरपसो न विष्टिभि: समानेन योजनेना परावत:। इषं वहन्तीः सुकृते सुदानवे विश्वेदह यजमानाय सुन्वते ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अर्चन्ति। नारीः। अपसः। न। विष्टिऽभिः। समानेन। योजनेन। आ। पराऽवतः। इषम्। वहन्तीः। सुऽकृते। सुऽदानवे। विश्वा। इत्। अह। यजमानाय। सुन्वते ॥ १.९२.३

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 92; मन्त्र » 3
    अष्टक » 1; अध्याय » 6; वर्ग » 24; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्ताः किं कुर्वन्तीत्युपदिश्यते ।

    अन्वयः

    या उषसो विष्टिभिः समानेन योजनेन परावतो देशान्नारीर्न पुरुषान् सुकृते सुदानवे सुन्वते यजमानाय विश्वान्यपस इषं चावहन्तीरह तद् दुःखविनाशनेनार्चन्तीदेव वर्त्तन्ते ता यथायोग्यं सर्वैः सेवनीयाः ॥ ३ ॥

    पदार्थः

    (अर्चन्ति) सत्कुर्वन्ति (नारीः) स्त्रीः (अपसः) उत्तमानि कर्माणि (न) इव (विष्टिभिः) व्याप्तिभिः (समानेन) तुल्येन (योजनेन) योगेन (आ) समन्तात् (परावतः) दूरदेशात् (इषम्) अन्नादिकम् (वहन्तीः) प्रापयन्तीः (सुकृते) धर्मात्मने (सुदानवे) सुष्ठुदानकरणशीलाय (विश्वा) विश्वानि सर्वाणि (इत्) एव (अह) दुःखविनिग्रहे (यजमानाय) पुरुषार्थिने (सुन्वते) ओषध्याद्यभिषवसेवनं कुर्वते ॥ ३ ॥

    भावार्थः

    अत्रोपमालङ्कारः। यथा पतिव्रताः स्त्रियः स्वस्वपतीन् सैवित्वा सत्कुर्वन्ति तथैव सूर्यस्य किरणा भूमिं प्राप्य ततो निवृत्यान्तरिक्षे प्रकाशं जनयित्वा सर्वाणि वस्तूनि संपोष्य सर्वान् प्राणिनः सुखयन्ति ॥ ३ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर वे क्या करती हैं, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

    पदार्थ

    सूर्य की किरणें (विष्टिभिः) अपनी व्याप्तियों से (समानेन) समान (योजनेन) योग से अर्थात् सब पदार्थों में एक सी व्याप्त होकर (परावतः) दूरदेश से (न) जैसे (नारीः) पुरुषों के अनुकूल स्त्रियाँ (सुकृते) धर्मिष्ठ (सुदानवे) उत्तम दाता (सुन्वते) ओषधि आदि पदार्थों के रस निकालकर सेवनकर्त्ता (यजमानाय) और पुरुषार्थी पुरुष के लिये (विश्वा) समस्त उत्तम-उत्तम (अपसः) कर्मों और (इषम्) अन्नादि पदार्थों को (आवहन्तीः) अच्छे प्रकार प्राप्त करती हुई उनके (अह) दुःखों के विनाश से (अर्चन्ति) सत्कार करती हैं वैसे उषा भी है, उनका सेवन यथायोग्य सबको करना चाहिये ॥ ३ ॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जैसे पतिव्रता स्त्रियाँ अपने-अपने पति का सेवन कर उनका सत्कार करती हैं, वैसे ही सूर्य की किरणें भूमि को प्राप्त हुई वहाँ से निवृत्त हो और अन्तरिक्ष में प्रकाश प्रकट कर समस्त वस्तुओं को पुष्ट करके सब प्राणियों को सुख देती हैं ॥ ३ ॥

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    विषय

    उषः काल की प्रेरणा

    पदार्थ

    १. (नारीः) = [नृ नये] अपने प्रकाश के द्वारा सुपथ पर आगे ले - चलनेवाली उषाएँ (विष्टाभिः) = अपनी व्यापक [pervading] किरणों व तेजों से (समानेन योजनेन) = एक ही उद्योग से (आ परावतः) = दूर देश तक - अर्थात् पश्चिम दिग्भाग तक (अर्चन्ति) = नभः प्रदेश को सत्कृत करती हैं (न) = उसी प्रकार जैसे (अपसः) = युद्धकर्म से युक्त पुरुषों - योद्धा लोगों को राजा लोग (विष्टिभिः) = वेतन के द्वारा (अर्चन्ति) = सत्कृत करते हैं, अर्थात् उषाएँ प्रकाश से दिशाओं को उसी प्रकार अर्चित करती हैं जैसे कि राजा योद्धाओं व सेवकों को वेतन से । २. ये उषः काल (सुकृते) = उत्तम कर्मों को करनेवाले (सुदानवे) = उत्तम दानशील [दा दाने], अच्छी प्रकार बुराइयों को काटनेवाले [दाप् लवने] तथा जीवन का शोधन करनेवाले (यजमानाय) = यज्ञशील, (सुन्वते) = सोमाभिषव करनेवाले पुरुष के लिए = शरीर में सोमशक्ति का सम्पादन करनेवाले पुरुष के लिए (इषम्) = प्रेरणा (वहन्तीः) = प्राप्त कराते हुए (विश्वा इत् अह) = सभी दुः खों का विनिग्रह करनेवाले होते हैं । अह [separation] । उषा की प्रेरणा उत्साह, प्रकाश व आनन्द को लिये हुए होती है । इस प्रेरणा को 'सुकृत् , सुदानु , यजमान व सुन्वतु' पुरुष प्राप्त कराते हैं ।

    भावार्थ

    भावार्थ = उषा सब दिग्भागों में प्रकाश फैलाती है । इसकी 'प्रकाश व उत्साह' की प्रेरणा सब दुःखों का विनिग्रह करनेवाली होती है ।

    विशेष / सूचना

    सूचना - अह = दुःखविनिग्रहे - सा०, अह = विनिग्रहार्थीयः = न० १/१५

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    विषय

    उषा के वर्णन के साथ, उसके दृष्टान्त से उत्तम गृह-पत्नी के कर्तव्यों का वर्णन ।

    भावार्थ

    ( अपसः ) कर्म करने वाले अधीन भृत्यों को जिस प्रकार विष्टिभिः ) वेतनों द्वारा ( अर्चन्ति ) अपने वश करते या उनका सत्कार करते हैं उसी प्रकार ( समानेन योजनेन ) समान योग द्वारा अर्थात् गुण, शरीर, बल और विद्या आदि में समान पुरुष के साथ संयुक्त करने से ही ( परावतः नारीः ) दूर देश से प्राप्त करने योग्य स्त्रियों का ( अर्चन्ति ) सत्कार करें। कन्याओं को दूर देश में पुरुषों से योग्य जोड़ा मिलाकर विवाह देना ही कन्याओं का सत्कार करना है। और ( सुकृते ) उत्तम क्रियाकुशल, सदाचारी, ( सुदानवे ) उत्तम दानशील या उत्तम रक्षक, ( सुन्वते यजमानाय ) ओषधि आदि रस का सेवन करने वाले या उत्तम रीति से निषेक करने हारे सुसंगत पति के लिये अपने ( इषं ) समस्त कामना और अन्नादि सुख सम्पदा को ( वहन्ती ) प्राप्त कराने वाली हों । उनका ही सब लोग आदर करते हैं ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    गोतमो राहूगणपुत्र ऋषिः ॥ उषा देवता ॥ छन्दः—१, २ निचृज्जगती । ३ जगती । ४ विराड् जगती । ५, ७, १२ विराड् त्रिष्टुप् । ६, १२ निचृत्त्रिष्टुप् ८, ९ त्रिष्टुप् । ११ भुरिक्पंक्तिः । १३ निचृत्परोष्णिक् । १४, १५ विराट्परोष्णिक् । १६, १७, १८ उष्णिक् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात उपमालंकार आहे. जशा पतिव्रता स्त्रिया आपापल्या पतीचा स्वीकार करून त्यांचा सत्कार करतात, तसेच सूर्याची किरणे भूमीवर पडतात तेथून परावर्तित होतात व अंतरिक्षात प्रकाश होतो व संपूर्ण वस्तूंना पुष्ट करून सर्व प्राण्यांना ती सुख देतात. ॥ ३ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    The lights of the dawn, like blessed women expert in their noble work, serve and illumine from afar with equal brilliance various regions of the world, bearing vital food and rejuvenating energy for the pious and generous yajamana dedicated to the creative service of life and nature everywhere every day.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    What do the dawns do is taught further in the Mantra.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    The dawns or the early rays of the sun illuminate with their inherent radiance the remotest parts of the heaven, with a simultaneous effort like wives who respect their husbands of charitable disposition, performers of Yajnas and doers of other noble deeds, bringing every kind of good desirable food, doing acts of service. and destroying ail their sufferings.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (अपसः) उत्तमानि कर्माणि = Noble deeds. (विष्टिभिः) व्याप्तिभिः = By their pervasion. (इषम्) अन्नादिकम् = Food etc.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    There is Upamálankara or simile used in the Mantra. As chaste wives serve and gladden their husbands, in the same manner, the rays of the sun come to the earth and then going up create light in the firmament, give nourishment to all articles by their heat and thus make all people happy.

    Translator's Notes

    अप इति कर्मनाम (निघ० २.१ ) इषम् इत्यन्ननाम (निघे २. ७) (Besides the above, the spiritual interpretation of the Mantra taking Ushas as the Divine dawns of the Illumination is to the following effect. The Divine Dawns of illumination sing their songs like women active in their tasks and through the contemplation (Samadhi) give all knowledge even of the distant objects bringing all desirable wisdom and power to the pious liberal devotee.)

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