ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 92/ मन्त्र 5
प्रत्य॒र्ची रुश॑दस्या अदर्शि॒ वि ति॑ष्ठते॒ बाध॑ते कृ॒ष्णमभ्व॑म्। स्वरुं॒ न पेशो॑ वि॒दथे॑ष्व॒ञ्जञ्चि॒त्रं दि॒वो दु॑हि॒ता भा॒नुम॑श्रेत् ॥
स्वर सहित पद पाठप्रति॑ । अ॒र्चिः । रुश॑त् । अ॒स्याः॒ । अ॒द॒र्शि॒ । वि । ति॒ष्ठ॒ते॒ । बाध॑ते । कृ॒ष्णम् । अभ्व॑म् । स्वरु॑म् । न । पेशः॑ । वि॒दथे॑षु । अ॒ञ्जन् । चि॒त्रम् । दि॒वः । दु॒हि॒ता । भा॒नुम् । अ॒श्रे॒त् ॥
स्वर रहित मन्त्र
प्रत्यर्ची रुशदस्या अदर्शि वि तिष्ठते बाधते कृष्णमभ्वम्। स्वरुं न पेशो विदथेष्वञ्जञ्चित्रं दिवो दुहिता भानुमश्रेत् ॥
स्वर रहित पद पाठप्रति। अर्चिः। रुशत्। अस्याः। अदर्शि। वि। तिष्ठते। बाधते। कृष्णम्। अभ्वम्। स्वरुम्। न। पेशः। विदथेषु। अञ्जन्। चित्रम्। दिवः। दुहिता। भानुम्। अश्रेत् ॥ १.९२.५
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 92; मन्त्र » 5
अष्टक » 1; अध्याय » 6; वर्ग » 24; मन्त्र » 5
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अष्टक » 1; अध्याय » 6; वर्ग » 24; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनः सा कीदृशीत्युपदिश्यते ।
अन्वयः
यस्या अस्या उषसो रुशदर्चिरभ्वं कृष्णं तमो बाधते। या दिवो दुहिता स्वरुं न चित्रं भानुं पेशोऽश्रेत्। यथर्त्विजो विदथेषु क्रिया अञ्जँस्तथा वितिष्ठते सोषा अस्माभिः प्रत्यदर्शि ॥ ५ ॥
पदार्थः
(प्रति) प्रतियोगे (अर्चिः) दीप्तिः (रुशत्) तमो हिंसत् (अस्याः) उषसः (अदर्शि) दृश्यते (वि) तिष्ठते (बाधते) (कृष्णम्) अन्धकारम्। कृष्णं कृष्यतेर्निकृष्टो वर्णः। निरु० २। २०। (अभ्वम्) महत्तरम् (स्वरुम्) तापकमादित्यम् (न) इव (पेशः) रूपम् (विदथेषु) यज्ञेषु (अञ्जन्) अञ्जन्ति गच्छन्ति (चित्रम्) अद्भुतम् (दिवः) सूर्यस्य (दुहिता) दुहिता दूरे हिता पुत्री वा (भानुम्) कान्तिम् (अश्रेत्) श्रयति। अत्र लडर्थे लङ् बहुलं छन्दसीति शपो लुक् च ॥ ५ ॥
भावार्थः
अत्रोपमावाचकलुप्तोपमालङ्कारौ। या सूर्य्यदीप्तिः स्वयं प्रकाशमाना सर्वान् प्रति दृश्यते सोषाः सूर्य्यदुहितेवास्तीति सर्वैर्मनुष्यैरवगन्तव्यम् ॥ ५ ॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर वह कैसी है, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।
पदार्थ
जिस (अस्याः) इस प्रातःसमय अन्धकार के विनाशरूप उषा की (रुशत्) अन्धकार का नाश करनेवाली (अर्चिः) दीप्ति (अभ्वम्) बड़े (कृष्णम्) काले वर्णरूप अन्धकार को (बाधते) अलग करती है जो (दिवः) प्रकाशरूप सूर्य की (दुहिता) पुत्री के तुल्य (स्वरुम्) तपनेवाले सूर्य के (न) समान (चित्रम्) अद्भुत (भानुम्) कान्ति (पेशः) रूप को (अश्रेत्) आश्रय करती है वा जैसे ऋत्विज् लोग (विदथेषु) यज्ञ की क्रियाओं में (अञ्जन्) प्राप्त होते हैं वैसे (वितिष्ठते) विविध प्रकार से स्थिर होती है, वह प्रातःसमय की वेला हम लोगों को (प्रत्यदर्शि) प्रतीत होती है ॥ ५ ॥
भावार्थ
इस मन्त्र में उपमा और वाचकलुप्तोपमालङ्कार हैं। जो सूर्य्य की उजेली आप ही उजाला करती ही सबको प्रकाशित कर सीधी-उलटी दिखलाती है, वह प्रातःकाल की वेला सूर्य्य की पुत्री के समान है, ऐसा मानना चाहिये ॥ ५ ॥
विषय
"दिवः दुहिता" उषा
पदार्थ
१. (अस्याः) = इस उषः काल का (रुशत्) = दीप्तिमान (अर्चिः) = तेजः (प्रत्यदर्शी) = प्रत्येक व्यक्ति द्वारा पूर्व दिशा में देखा जाता है । यह तेज (वितिष्ठते) = सब दिशाओं में विशेषरूप से स्थित होता है और सब दिशाओं में व्याप्त होकर यह तेज (अभ्वम्) = अतिशयेन विपुल - अत्यन्त विस्तृत (कृष्णम्) = अन्धकार को (बाधते) = दूर करता है । २. (विदथेषु) = यज्ञों में (न) = जैसे अध्वर्यु लोग (स्वरुम्) = स्तम्भविशेष को - स्तम्भ के एक अंशविशेष को (अञ्जन्) = घृत से संश्लिष्ट करते हैं, उसी प्रकार (दिवः दुहिता) = यह द्युलोक की पुत्री अथवा प्रकाश का पूरण करनेवाली उषा (पेशः) = अपने दीप्त रूप को आकाश में [अनक्ति] व्यक्त करती है और तदनन्तर (चित्रं भानुम्) = इस अद्भुत ज्योतिवाले सूर्य का (अश्रेत्) = सेवन करती है, सूर्य में ही मिल जाती है ।
भावार्थ
भावार्थ = उषा अपने दीप्तिमान तेज से अन्धकार को नष्ट करती है । अपने प्रकाश से आकाश को शोभित करती है ।
विषय
उषा के वर्णन के साथ, उसके दृष्टान्त से उत्तम गृह-पत्नी के कर्तव्यों का वर्णन ।
भावार्थ
( अस्याः ) इस उषा की ( रुशत् ) देदीप्यमान कान्ति ( प्रति अदर्शि ) प्रत्येक स्थान पर दिखाई देती है और वह ( वि तिष्ठते ) विविध दिशाओं में फैल जाती है। और वह ( अभ्वम् ) नेत्रादि के सामर्थ्य को विनाश करदेने वाले ( कृष्णम् ) काले अन्धकार को ( वि बाधते ) दूर कर देती है । उसी प्रकार ( अस्याः ) इस कन्या की ( अर्चिः ) आदर सत्कार से देखने योग्य उत्तम गुण राशि ( प्रति अदर्शि ) प्रत्येक को दीखने लगती है । वह कीर्ति ( वि तिष्ठते ) सब देशों में फैलजाती है । वह गुण राशि ( अभ्वम् कृष्णं बाधते ) बड़े भारी कलंक को भी मिटा देता है । जिस प्रकार ( स्वरुम् ) प्रकाशमान् सूर्य को उषा प्रकट कर देती है उसी प्रकार ( विदथेषु ) ज्ञान सत्संगों में जहां अनेक विद्वान् एकत्र हों वहां ही ( पेशः न स्वरुं ) अपने रूप के समान ही ज्ञान और अध्ययन और वाक् पाटव को भी कन्या ( अञ्जन् ) प्रकट करे । तब ( दिवः दुहिता ) उषा जिस प्रकार ( भानुम् अश्रेत् ) सूर्य को प्रकाश से पूर्ण कर देने वाली आकाश का आश्रय लेती है उसी प्रकार ( दिवः दुहिता ) कामना युक्त पति के मनोरथों को पूर्ण करने वाली अथवा ( दिवः दुहिता ) ज्ञानी पुरुष की कन्या ( भानुम् अश्रेत् ) दीप्तिमान् तेजस्वी, ब्रह्मचारी पुरुष का आश्रय ग्रहण करे । इति चतुर्विंशो वर्गः ॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
गोतमो राहूगणपुत्र ऋषिः ॥ उषा देवता ॥ छन्दः—१, २ निचृज्जगती । ३ जगती । ४ विराड् जगती । ५, ७, १२ विराड् त्रिष्टुप् । ६, १२ निचृत्त्रिष्टुप् ८, ९ त्रिष्टुप् । ११ भुरिक्पंक्तिः । १३ निचृत्परोष्णिक् । १४, १५ विराट्परोष्णिक् । १६, १७, १८ उष्णिक् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात उपमा व वाचकलुप्तोपमालंकार आहेत. जो सूर्याचा प्रकाश (उषा) स्वतः प्रकाश करीत सर्वांना प्रकाशित करून सरळ व तिरपा पडतो. ती प्रातःकाळची वेळ सूर्याच्या कन्येप्रमाणे आहे, असे मानले पाहिजे. ॥ ५ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
The brilliant light of the dawn arises in the east, radiates and expands, it stalls and dispels the deep dark of the night. And just as an artist decorates a yajnic post in great congregations so, adorning the wondrous sun as an ornament of light, this daughter of heaven reveals the glory of the sun.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
How is Ushas is taught further in the fifth Mantra.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
Her (dawn's) brilliant light is first seen towards the east, it spreads and disperses the thick darkness. She is like like the daughter of the sun and puts on the brilliant form. She stands before us and is seen as the priests performing many sacrificial acts.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
(स्वरुम्) तापकमादित्यम् = The sun that gives heat. (अभ्वम्) महत्तरम् = Great, thick (विदधेषु) यज्ञेषु = In the Yajnas or non-violent sacrifices.
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
There is Upamalankara or simile in the Mantra. The light of the sun that illuminates all, being resplendent and is visible is the Ushas (Dawn) and she is like the daughter of the sun.
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