ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 92/ मन्त्र 16
अश्वि॑ना व॒र्तिर॒स्मदा गोम॑द्दस्रा॒ हिर॑ण्यवत्। अ॒र्वाग्रथं॒ सम॑नसा॒ नि य॑च्छतम् ॥
स्वर सहित पद पाठअश्वि॑ना । व॒र्तिः । अ॒स्मत् । आ । गोऽम॑त् । द॒स्रा॒ । हिर॑ण्यऽवत् । अ॒र्वाक् । रथ॑म् । सऽम॑नसा । नि । य॒च्छ॒त॒म् ॥
स्वर रहित मन्त्र
अश्विना वर्तिरस्मदा गोमद्दस्रा हिरण्यवत्। अर्वाग्रथं समनसा नि यच्छतम् ॥
स्वर रहित पद पाठअश्विना। वर्तिः। अस्मत्। आ। गोऽमत्। दस्रा। हिरण्यऽवत्। अर्वाक्। रथम्। सऽमनसा। नि। यच्छतम् ॥ १.९२.१६
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 92; मन्त्र » 16
अष्टक » 1; अध्याय » 6; वर्ग » 27; मन्त्र » 1
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अष्टक » 1; अध्याय » 6; वर्ग » 27; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनरश्विभ्यां किं कर्त्तव्यमित्युपदिश्यते ।
अन्वयः
हे जनाः ! यथा वयं यौ दस्रा समनसाऽश्विनाऽस्मद् गोमद्धिरण्यवद्वर्त्तिरर्वाग्रथं न्यायच्छतं प्रापयतस्ताभ्यामुषर्युक्ताभ्यां युक्तं रथं प्रतिदिनं साध्नुयाम तथा यूयमपि साध्नुत ॥ १६ ॥
पदार्थः
(अश्विना) अश्विनावग्निजले (वर्त्तिः) वर्त्तन्ते यस्मिन् गमनागमनकर्मणि तत् (अस्मत्) अस्माकम्। सुपां सुलुगिति षष्ठ्या लुक्। (आ) (गोमत्) प्रशस्ता गावो भवन्ति यस्मिंस्तत् (दस्रा) कलाकौशलादिनिमित्तैर्दुःखोपक्षयितारौ (हिरण्यवत्) प्रशस्तानि हिरण्यादीनि विद्यादीनि वा तेजांसि विद्यन्ते यस्मिंस्तत् (अर्वाक्) अधः (रथम्) भूजलान्तरिक्षेषु रमणसाधनं विमानादियानसमूहम् (समनसा) समानेन मनसा विचारेण सह वर्त्तमानौ (नि) नितराम् (यच्छतम्) यच्छतो यमनं कुरुतः ॥ १६ ॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। मनुष्यैः प्रतिदिनं क्रियाकौशलाभ्यामग्निजलादीनां सकाशाद्विमानादीनि यानानि साधित्वाऽक्षय्यधनं प्राप्य सुखयितव्यम् ॥ १६ ॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उससे क्या करना चाहिये, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ।
पदार्थ
हे मनुष्यो ! जैसे हम लोग जो (दस्रा) कला-कौशलादि निमित्त से दुःख आदि की निवृत्ति करनेहारे (समनसा) एक से विचार के साथ वर्त्तमान के तुल्य (अश्विना) अग्नि, जल (अस्मत्) हम लोगों के (गोमत्) जिसमें इन्द्रियाँ प्रशंसित होतीं वा (हिरण्यवत्) प्रशंसित सुवर्ण आदि पदार्थ वा विद्या आदि गुणों के प्रकाश विद्यमान वा (वर्त्तिः) आने-जाने के काम में वर्त्तमान उस (अर्वाक्) नीचे अर्थात् जल, स्थलों तथा अन्तरिक्ष में (रथम्) रमण करानेवाले विमान आदि रथसमूह को (न्यायच्छतम्) अच्छे प्रकार नियम में रखते हैं, वे उषःकाल से युक्त अग्नि, जल तथा उनसे युक्त उक्त रथसमूह को प्रतिदिन सिद्ध करते हैं, वैसे तुम लोग भी सिद्ध करो ॥ १६ ॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। मनुष्यों को चाहिये कि प्रतिदिन क्रिया और चतुराई तथा अग्नि और जल आदि की उत्तेजना से विमान आदि यानों को सिद्ध करके नित्य उन्नति को प्राप्त होनेवाले धन को प्राप्त होकर सुखयुक्त हों ॥ १६ ॥
विषय
गोमद् - हिरण्यवद् = 'गृह'
पदार्थ
१. उषा देवता के सूक्त की समाप्ति पर अश्विनीदेवों के तीन मन्त्र यह संकेत कर रहे हैं कि प्रातः काल इन अश्विनोदेवों का आराधन भी आवश्यक है । इनका आराधन यह है कि प्राणसाधना के लिए प्राणायाम किया जाए । प्राणापान ही तो अश्विनीदेव हैं । इनसे प्रार्थना करते हैं कि हे (दस्रा) = 'शत्रूणामुपक्षपयितारौ' = रोगकृमिरूप शत्रुओं को, इन्द्रियों के दोषों को काम - क्रोधादि को तथा बुद्धि की कुण्ठता को नष्ट करनेवाले (अश्विना) = प्राणापानो ! आप (समनसा) = [सम् अनसा] = उत्तम [अन प्राणने] प्राणशक्तिवाले व जीवन में उत्साह का सञ्चार करनेवाले हो । आप (रथम्) = अपने रथ को (अस्मत्) = हमारे (वर्तिः) = इस शरीररूप गृह के [शरीर वर्ति है, सब क्रियाओं का वर्तन इसी में चलता है] (अर्वाक्) = अभिमुख (नियच्छतम्) = रोको, जिससे हमारा यह शरीररूप (गृह आ) = सब प्रकार से (गोमत्) = उत्तम इन्द्रियोंवाला [गावः इन्द्रियाणि] तथा (हिरण्यवत्) = [हिरण्यं वै ज्योतिः] उत्तम ज्योतिवाला हो । प्राणसाधना करने पर इन्द्रियों के दोष तो दूर होते ही है, साथ ही बुद्धि भी बड़ी तीन बनती है और उससे ज्ञान की दीप्ति होकर विवेकख्याति प्राप्त होती है । आत्मा व शरीर के पार्थक्य का दर्शन सुस्पष्ट हो जाता है । २. अश्विनीदेवों का रथ को हमारे घर के अभिमुख रोकने का अभिप्राय यही है कि हमारे जीवन में प्राणायाम पूरे बल से चले । प्राणसाधना होने पर शरीर में किसी प्रकार के नाशक तत्त्व न रह पाएंगे । ये प्राणापान उनका उपदसन व क्षय कर देंगे ।
भावार्थ
भावार्थ = प्राणापान सब मलों का क्षय करके इन्द्रियों को निर्दोष बनाते हैं और हमारे ज्ञान को दीप्त करते हैं ।
विषय
प्रिय वर वधू के कर्तव्य ।
भावार्थ
हे ( अश्विना ) एक दूसरे के हृदय में व्यापने वाले वर वधू ! पति पत्नी ! तुम दोनों (दस्त्रा) विरोधी अपवादों का नाश करने हारे एवं गुणों और अनुरागों से दर्शनीय ! हे ( समनसा ) समान चित्त वाले तुम दोनों ( अस्मत् ) हमारे (वर्तिः अर्वाग्) घर के सामने आकर ( गोमत् ) गोचर्म से मढ़े या तांत से बंधे ( हिरण्यवत् ) लोह, पीतल धातुओं से सजे ( रथं ) रथ को ( नि यच्छतम् ) रोको और हमारा आतिथ्य स्वीकार करो । अध्यात्म में— शरीर में प्राण और अपान दोनों ( दस्रा ) रोगों के नाशकारी होकर इन्द्रियों और आत्म से युक्त रमण योग्य सुखकारी देह को ( अस्मद् वर्तिः अर्वाग ) हमारे वर्तमान जीवन के अनुकूल ( नियच्छतम् ) नियम में रखें ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
गोतमो राहूगणपुत्र ऋषिः ॥ उषा देवता ॥ छन्दः—१, २ निचृज्जगती । ३ जगती । ४ विराड् जगती । ५, ७, १२ विराड् त्रिष्टुप् । ६, १२ निचृत्त्रिष्टुप् ८, ९ त्रिष्टुप् । ११ भुरिक्पंक्तिः । १३ निचृत्परोष्णिक् । १४, १५ विराट्परोष्णिक् । १६, १७, १८ उष्णिक् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. क्रिया करून चतुराईने व अग्नी आणि जलाच्या साह्याने विमान इत्यादी यानांना सिद्ध करून सदैव उन्नती करणारे धन प्राप्त करून माणसांनी सुखी व्हावे. ॥ १६ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Generous scientists of fire and waters, Ashvins, expert technologists working together with equal cooperative mind, bring hither before us a chariot sensitive in reception and communication of signals, golden in quality and extremely fast in motion anywhere on earth, over water and in the sky.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
What should Usha do is taught further in the sixteenth Mantra.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O men, as we accomplish the construction of Vehicles like the aeroplanes etc. which can take us to all distant places on earth, water and sky with the help of the Ashvins (fire and water) which are destroyers of sufferings on account of various machines, which are like one-minded persons and which are endowed with the cattle, knowledge splendour or gold, you should also do like that.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
(अश्विना) अश्विनौ अग्निजले = Fire and water. (दस्रा) कला कौशलादिनिमितैर्दुःखोपक्षयितारौ = Destroyers of all sufferings through the proper use of arts and dexterity. (रथम्) भजलान्तरिक्षेषु रमरणसाधनं विमानादियानसमूहम् ॥ = The group of various vehicles by which one can travel on earth, in waters and in the firmament.
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Men should construct various vehicles like the aeroplanes with the help of fire and water etc. and with the machines and should then enjoy happiness by acquiring abundant and un-diminishable wealth.
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