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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 95 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 95/ मन्त्र 3
    ऋषिः - कुत्सः आङ्गिरसः देवता - सत्यगुणविशिष्टोऽग्निः शुद्धोऽग्निर्वा छन्दः - विराट्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    त्रीणि॒ जाना॒ परि॑ भूषन्त्यस्य समु॒द्र एकं॑ दि॒व्येक॑म॒प्सु। पूर्वा॒मनु॒ प्र दिशं॒ पार्थि॑वानामृ॒तून्प्र॒शास॒द्वि द॑धावनु॒ष्ठु ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    त्रीणि॑ । जाना॑ । परि॑ । भू॒ष॒न्ति॒ । अ॒स्य॒ । स॒मु॒द्रे । एक॑म् । दि॒वि । एक॑म् । अ॒प्ऽसु । पूर्वा॑म् । अनु॑ । प्र । दिश॑म् । पार्थि॑वानाम् । ऋ॒तून् । प्र॒ऽशास॑त् । वि । द॒धौ॒ । अ॒नु॒ष्ठु ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    त्रीणि जाना परि भूषन्त्यस्य समुद्र एकं दिव्येकमप्सु। पूर्वामनु प्र दिशं पार्थिवानामृतून्प्रशासद्वि दधावनुष्ठु ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    त्रीणि। जाना। परि। भूषन्ति। अस्य। समुद्रे। एकम्। दिवि। एकम्। अप्ऽसु। पूर्वाम्। अनु। प्र। दिशम्। पार्थिवानाम्। ऋतून्। प्रऽशासत्। वि। दधौ। अनुष्ठु ॥ १.९५.३

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 95; मन्त्र » 3
    अष्टक » 1; अध्याय » 7; वर्ग » 1; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनः सोऽहोरात्रः किं करोतीत्युपदिश्यते।

    अन्वयः

    हे गणितविद्याविदो मनुष्या योऽहोरात्रः पूर्वां प्रदिशमनुष्ठु पार्थिवानां मध्ये ऋतून् प्रशासदनु तान् विदधौ। अस्याऽहोरात्रस्यैकं चरणं दिव्येकं समुद्र एकं चाप्स्वस्ति तथास्यावयवास्त्रीणि जाना परिभूषन्त्येतानि यूयं विजानीत ॥ ३ ॥

    पदार्थः

    (त्रीणि) भूतभविष्यद्वर्त्तमानविभागजन्यकर्माणि (जाना) जनेषु भवानि। अत्रोत्सादेराकृतिगणात्वाद्भवार्थेऽञ् शेश्छन्दसि बहुलमिति शेर्लोपः। अत्र सायणाचार्येण पृषोदराद्याकृतिगणत्वादाद्युदात्तत्वं प्रतिपादितं तदशुद्धम् अनुत्सर्गापवादत्वात्। (परि) सर्वतः (भूषन्ति) अलं कुर्वन्ति (अस्य) अहोरात्रस्य (समुद्रे) (एकम्) (चरणम्) (दिवि) द्योतमाने सूर्ये (एकम्) चरणम् (अप्सु) प्राणेषु अप्सु वा (पूर्वाम्) प्राचीम् (अनु) आनुकूल्ये (प्र) (दिशम्) दिश्यते सर्वैर्जनैस्ताम् (पार्थिवानाम्) पृथिव्यामन्तरिक्षे विदितानाम् (ऋतून्) वसन्तादीन् (प्रशासत्) प्रशासनं कुर्वन् सन् (वि) (दधौ) विदधाति (अनुष्ठु) अनुतिष्ठन्ति यस्मिंस्तत् ॥ ३ ॥

    भावार्थः

    नह्यहोरात्राद्यवयववर्त्तमानेन विना भूतभविष्यद्वर्त्तमानकालाः संभवितुं शक्याः। नैतैर्विना कस्यचिदृतोः सम्भवोऽस्ति। यः सूर्य्यान्तरिक्षस्थवायुगत्या कालावयवसमूहः प्रसिद्धोऽस्ति तं सर्वं विज्ञाय सर्वैर्मनुष्यैर्व्यवहारसिद्धिः कार्य्या ॥ ३ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर वह दिन और रात क्या करता है, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

    पदार्थ

    हे गणितविद्या को जाननेवाले मनुष्यो ! जो दिन-रात (पूर्वाम्) पूर्व (प्र, दिशम्) प्रदेश जिसका कि मनुष्य उपदेश किया करते हैं उसको (अनुष्ठु) तथा उसके अनुकूल (पार्थिवानाम्) पृथिवी और अन्तरिक्ष में विदित हुए पदार्थों के बीच (ऋतून्) वसन्त आदि ऋतुओं को (प्रशासत्) प्रेरणा देता हुआ (अनु) तदनन्तर उनका (वि, दधौ) विधान करता है (अस्य) इस दिन-रात का (एकम्) एक पाँव (दिवि) सूर्य्य में, एक (समुद्रे) समुद्र में और (एकम्) एक (अप्सु) प्राण आदि पवनों में है तथा इस दिन-रात के अङ्ग (त्रीणि) अर्थात् भूत, भविष्यत् और वर्त्तमान के पृथग्भाव से उत्पन्न (जाना) मनुष्यों में हुए व्यवहारों को (परि, भूषन्ति) शोभित करते हैं, इन सबको जानो ॥ ३ ॥

    भावार्थ

    दिन-रात आदि समय के अङ्गों के वर्त्ताव के विना भूत, भविष्यत् और वर्त्तमान कालों की संभावना भी नहीं हो सकती और न इनके विना किसी ऋतु के होने का सम्भव है। जो सूर्य्य और अन्तरिक्ष में ठहरे हुए पवन की गति से समय के अवयव अर्थात् दिनरात्रि आदि प्रसिद्ध हैं, उन सबको जान के सब मनुष्यों को चाहिये कि व्यवहारसिद्धि करें ॥ ३ ॥

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    विषय

    वसन्तादि ऋतुओं का उपदेश

    पदार्थ

    १. (अस्य) = गतमन्त्र में वर्णित इस अग्नि के (त्रीणि जाना) = तीन जन्म (परिभूषन्ति) = इस ब्रह्माण्ड को सर्वतः अलंकृत करते हैं । (समुद्रे एकम्) = इसका एक जन्म समुद्र में है । समुद्र में वडवानल के रूप में यह अग्नि रहता है । (दिवि एकम्) = इसका एक जन्म द्युलोक में है । द्युलोक में यह सूर्य के रूप में है तथा इसका तीसरा जन्म (अप्सु) = अन्तरिक्षलोक में [आपः अन्तरिक्षनामसु निघण्टौ , Sky निरुक्त] वैद्युत अग्नि के रूप में है । 

    २. इन तीनों अग्नियों में द्युलोक में वर्तमान आदित्यरूप अग्नि (पार्थिवानाम्) = इस पृथिवी पर रहनेवाले प्राणियों के लिए (ऋतून्) = वसन्तादि ऋतुओं को (प्रशासत्) = प्रकर्षेण उपदिष्ट करता हुआ (पूर्वां प्रदिशम्) = पूर्व नामवाली इस प्रकृष्ट दिशा को (अनुष्ठु) = सम्यक् (अनु) = अनुक्रम से (विदधौ) = बनाता है । 

    ३. वस्तुतः काल व देश में मूल में अभिन्नता है । काल में होनेवाला वसन्तादि का भेद तथा देश में होनेवाला पूर्वादि का भेद सूर्य की गति से उत्पन्न होता है । सूर्य की गति ही संवत्सरात्मक काल को वसन्तादि छह ऋतुओं में बाँटती है और देश को भी सूर्य की गति ही पूर्व - पश्चिमादि भागों में बाँटनेवाली होती है । 

    ४. सूर्य इन वसन्तादि ऋतुओं से इन पार्थिव प्राणियों [मनुष्यों] को उपदेश देता प्रतीत होता है कि [क] वसन्त की भाँति खिले हुए चित्त - पुष्पवाला तुम्हें बनना है और वसन्त की भाँति ही शुभकर्मों की यश - सुगन्धिवाला होना है , [ख] ग्रीष्म की भाँति तेजस्वी व मलों को दूर करनेवाला बनकर [ग] वर्षा की भाँति सबके सन्ताप को हरनेवाला व सब पर सुखों का वर्षण करनेवाला होना है , [घ] शरत् से मर्यादा का पाठ पढ़ना है । इस शरत् में जल पुनः अपनी मर्यादा में बहने लगते हैं; वर्षा में ये कितने उद्वृत्त हो गये थे ! [ङ] जीवन के मर्यादित होने पर हेमन्त से तुम्हें उपचय - वृद्धि का पाठ पढ़ना है और [च] शिशिर से [शश प्लुतगतौ] प्लुतगति का पाठ पढ़ते हुए अत्यन्त क्रियाशील होना है । इस प्रकार हम इन ऋतुओं का उपदेश सुनकर , उसे क्रियान्वित करते हुए सूर्यमण्डल का भेदन करके ब्रह्मलोक को प्राप्त करनेवाले होंगे । 
     

    भावार्थ

    भावार्थ - समुद्र , द्युलोक व अन्तरिक्ष में अग्नि - “वडवाग्नि , सूर्य व विद्युत्” रूप में रहती है । सूर्य की गति ही वसन्तादि कालभेद का तथा पूर्वादि दिशाभेद का कारण है । वसन्तादि ऋतुएँ हमारे लिए अति मनोहर उपदेश दे रही हैं । 
     

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    विषय

    नायक के तीन रूप, अग्नि के तीन रूप, अध्यात्म में आत्मा और परमेश्वर के तीन रूप ।

    भावार्थ

    ( १ ) ( अस्य ) इस अग्रणी नायक के ( जाना ) प्रजा जनों के हितार्थ ( त्रीणि ) तीन रूप ( परिभूषन्ति ) होते हैं । ( एकं समुद्रे ) एक रूप उसका समुद्र में है। अर्थात् वह समुद्र के समान गम्भीर हो । ( एकं दिवि ) एक रूप उसका महान् आकाश या सूर्य में है, अर्थात् वह सूर्य के समान तेजस्वी और आकाश के समान महान्, सब पर वशी हो । तीसरा रूप ( अप्सु ) जलों या प्राणों में है, अर्थात् वह सबके जीवनों का आधार और शान्तिदायक हो । वह तीन ही कार्य करता है जैसे प्रथम, वह ( पूर्वाम् दिशम् अनु प्रशासत् ) अपने मुख्य दिशा या देश को शासन करता है । दूसरे, ( पार्थिवानां मध्ये ) राजाओं और पृथिवी निवासी प्रजाजनों के बीच में ( ऋतून् ) प्राणस्वरूप मुख्य राजसभा के सदस्यों को ( प्र शासत् ) अच्छी प्रकार शासन करे। तीसरा ( अनुष्ठु ) सब काम ठीक २ प्रकार से ( वि दधौ ) धारण करे और विधान अर्थात् कायदे कानून की व्यवस्था करे । ( २ ) अनि के पक्ष में—अग्नि के तीन रूप हैं एक समुद्र में वाडवाग्नि, दूसरा आकाश में सूर्य, एक प्राणों में जाठर या अन्तरिक्ष में विद्युत् वह सूर्य रूप से उदय होकर पूर्व दिशा को प्रकट करता है ऋतुओं को बनाता है। सब काम ठीक २ नियम से निभाता है। इसी प्रकार काल के तीन रूप भूत, भवत् और भविष्यत् । वह सर्वत्र हैं। वह सूर्य रूप से उक्त तीनों कार्य करता है। आत्मा के भी तीन जन्म या रूप हैं। एक (समुद्रे) समुद्र अर्थात् जल में, जीवनोत्पादक अंश दूसरे आकाश में तेजो रूप, तीसरा ( अप्सु ) प्राणों में वायु रूप । वह आत्मा पार्थिव देहों के बीच मुख्य दिशा अर्थात् चेतना को प्रकट करता है, ( ऋतून् ) प्राणों को वश करता और अपने अनुकूल समस्त कर्म करता है। इसी प्रकार परमेश्वर के तीन रूप—एक महान् आकाश में, एक सूर्य में, एक प्राणों में, वह सब लोकों मुख्य शक्ति धरता है, वह गतिमान् पदार्थों को चलाता और सब को (अनुष्ठु) अपने अधीन ठीक २ प्रकार से बनाता या रचता है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    कुत्स आंङ्गिरस ऋषिः॥ औषसगुणविशिष्टः सत्यगुणविशिष्टः, शुद्धोऽग्निर्वा देवता ॥ छन्द:-१, ३ विराट् त्रिष्टुप् । २, ७, ८, ११ त्रिष्टुप् । ४, ५, ६, १० निचृत् त्रिष्टुप् । ६ भुरिक् पंक्तिः ॥ एकादशर्चं सूकम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    दिवस-रात्र इत्यादी वेळेच्या अंगांशिवाय भूत, भविष्य व वर्तमान काळाचे अनुमान काढता येत नाही. त्याशिवाय कोणताही ऋतू होऊ शकत नाही. सूर्य व अंतरिक्षात असलेल्या वायूच्या गतीने काळाचे अवयव अर्थात दिवस-रात्र इत्यादी प्रसिद्ध आहेत. त्या सर्वांना जाणून सर्व माणसांनी व्यवहारसिद्धी करावी. ॥ ३ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Three manifestations of this Agni shine in nature, space and time, the womb of the universe: one is in the oceans, another one is in the heavenly region of light, and yet another is in the waters in the middle region. Accordingly, it creates and controls the seasons in relation to the sun and earth and, in relation to the earth and her people, it creates the directions such as east and others.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    What do day and night do is taught further in the third Mantra.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O men, well-versed in Mathematics, it is day and night that divide the seasons of the year for the benefit of earthly creatures and form in regular succession the eastern quarter according to the rise of the sun. One part of this Ahoratra (the combination of day and night) is in the glori our sun, one is in the ocean and the third is in the Prana. It is its particles or parts that are decorated by the actions done by me in the past, future and present times. This you should know well.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (त्रीणि जाना) भूतभविष्यद् वर्तमान विभाग जन्य कर्माणि = Acts done by men in the past, present and future. (जाना) जनेषु भवानि (दिवि) द्योतमाने सूर्ये = In the glorious sun. (अप्स) प्राणेषु, अप्सु वा = In the pranas water.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    It is not possible to have three times past, future and present without the parts of day and night. Without them, no season is possible Men should accomplish all works, knowing the movement of the time by the Sun and wind in the firmament.

    Translator's Notes

    It is note worthy that Oldenberg in the Vedic Hymns Vol. 11 has admitted his inability to understand clearly the meaning of the above Mantra. In his note he says-it is surprising that Agni's birth in the sea and his birth in the waters are distinguished. The poet's meaning is not quite clear. Prof. Max Muller thinks of the rising sun and the lightning in the clouds. In Note 3 he says:- “But this interpretation of our passage is by no means certain." (Vedic Hymns Vol. II by Oldenbard P. 116).This is a specimen of many Western Scholar's conjectural interpretations. Can we rely upon them, when they themselves are not certain about the correctness of their interpretation ?

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